Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवां शतक : उद्देशक-२
५५१ [२] से केणद्वेणं जाव नो सोगे ?
गीयमा ! पुढविकाइया णं सारीर वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेति। से तेणठेणं जाव नों सोगे।
[५-२ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक क्यों नहीं होता है ?
[५-२ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव शारीरिक वेदना वेदते हैं, मानसिक वेदना नहीं वेदते, इस कारण उनके जरा होती है, शोक नहीं होता है।
६. एवं जाव चउरिदियाणं। [६] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए। ७. सेसाणं जहा जीवाणं जाव वैमाणियाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव पन्जुवासति। [७] शेष जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान वैमानिकों तक जानना चाहिए। • हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् पर्युपासना करते हैं।
विवेचन—जरा और शोक : किनको और क्यों जरा का अर्थ है-वृद्धावस्था और शोक का अर्थ है-चिन्ता, खिन्नता, दैन्य या खेद आदि। जरा शारीरिक दुःखरूप है और शोक मानसिक दुःखरूप । प्रस्तुत में उपलक्षण से 'जरा' शब्द से अन्य शारीरिक दुःख तथा शोक से समस्त मानसिक दुःख का ग्रहण किया गया है। चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में जिनके केवल काययोग है, (मनोयोग का अभाव है), उन्हें केवल जरा होती है
और जिनके मनोयोग भी है, उनको जरा और शोक दोनों हैं। अर्थात् वे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों का वेदन (अनुभव) करते हैं। शक्रेन्द्र द्वारा भगवदर्शन, प्रश्नकरण एवं अवग्रहानुज्ञा-प्रदान
८. तेणं कालेणं तेणे समयेणे सक्कै देविंदें देवराया वज्जपाणी पुरंदरे जाव भुंजमाणे विहरति। इमं च णं केवलकणं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे आभोएमाणे पासति यऽत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे एवं जहा ईसाणे ततियसए (स. ३ उ. १ सु. ३३) तहेव सक्को वि। नवरं आभियोगिए ण सद्दावेति, हरी पायत्ताणियाहिवती, सुघोसा घंटा, पालओ विमाणकारी, पालगं विमाणं, उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, दाहिणपुरथिमिल्ले रतिकरपव्यए, सेसं तं चेव, जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति। धम्मकहा जाव परिसा पडिगया।
- [८] उस काल एवं उस समय में शक्र देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर यावत् (दिव्य भोमों का)
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७००