Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवां शतक : उद्देशक-१
५४५ [१६-२ उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा से यावत् तदुभयप्रयोग से भी निष्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! यावत् तदुभयप्रयोग-निष्पन्न भी है।
१७. एवं जाव वेमाणियाणं। [१७] इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए।
विवेचन अधिकरण, अधिकरणी : स्वरूप एवं प्रकार—हिंसादि पाप-कर्म के कारणभूत एवं दुर्गति के निमित्तभूत पदार्थों को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण दो प्रकार के होते हैं—(१) आन्तरिक एवं (२) बाह्य । शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि आन्तरिक अधिकरण हैं एवं हल, कुंदाल, मूसल आदि शस्त्र और धन-धान्यादि परिग्रहरूप वस्तुएँ बाह्य अधिकरण हैं। ये बाह्य और आन्तरिक अधिकरण जिनके हों, वह 'अधिकरणी' कहलाता है। संसारी जीवों के शरीरादि होने के कारण जीव अधिकरणी' कहलाता है, और शरीरादि अधिकरणों से कथंचित् अभिन्न होने से जीव अधिकरण भी है। निष्कर्ष यह है कि सशरीरी जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। अविरति की अपेक्षा से जीव अधिकरण भी है और अधिकरणी भी। जो जीव विरत है, उसके शरीरादि होने पर भी वह अधकरणी और अधिकरण नहीं है. क्योंकि उन पर उसका ममत्वभाव नहीं है। जो जीव अविरत है, उसके ममत्व होने से वह अधिकरणी और अधिकरण कहलाता है।
- साधिकरणी-निरधिकरणी : स्वरूप और रहस्य—शरीरादि अधिकरण से सहित जीव साधिकरणी कहलाता है। संसारी जीव के शरीर, इन्द्रियादिरूप आन्तरिक अधिकरण तो सदा साथ ही रहते हैं, शस्त्रादि बाह्य अधिकरण निश्चित रूप से सदा साथ में नहीं भी होते हैं, किन्तु स्व-स्वामिभाव के कारण अविरति रूप ममत्वभाव साथ में रहता है। इसलिए शस्त्रादि बाह्य अधिकरण की अपेक्षा भी जीव साधिकरणी कहलाता है। संयमी पुरुषों में अविरति का अभाव होने से शरीरादि होते हुए भी उनमें साधिकरणता नहीं है। इसलिए निरधिकरणी का आशय है—अधिकरणदूरवर्ती। वह अविरति में नहीं होता, क्योंकि उसमें अधिकरणभूत अविरति से दूरवर्तिता नहीं होती। अथवा अधिकरण कहते हैं—पुत्र एवं मित्रादि को। जो पुत्र-मित्रादि सहित हो, वह साधिकरणी है, किसी जीव के पुत्रादि का अभाव होने पर भी तद्विषयक विरति का अभाव होने से उसमें साधिकरणता समझ लेनी चाहिए। ___ 'आत्माधिकरणी' इत्यादि पदों की परिभाषा–कृषि आदि आरम्भ में स्वयं प्रवृत्ति करने वाला आत्माधिकरणी है। दूसरों से कृषि आदि आरम्भ कराने वाला अथवा दूसरों को अधिकरण में प्रवृत्त करने वाला पराधिकरणी है। जो स्वयं कृष्यादि आरम्भ करता है और दूसरों से भी करवाता है वह तदुभयाधिकरणी कहलाता है। जो कृषि आदि नहीं करता, वह भी अविरति की अपेक्षा से आत्माधिकरणी या पराधिकरणी अथवा तदुभयाधिकरणी कहलाता है।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९९ २. वही अ. वृत्ति, पत्र ६९९ ३. (क) वही, पत्र ६९९
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५१२