Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीय धम्मायरियाणुरागेणं जहा सव्वाणुभूति तहेव जाव सच्चेव ते सा छाया, नो अन्ना।
[७४] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का कोशल जनपदीय (अयोध्यादेश) में उत्पन्न (एक और) अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था। वह भी प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। उसने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत्-' हे गोशालक ! तू वही है, तेरी प्रकृति वही है, तू अन्य नहीं है।'
७५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेति। तए णं सं सुनक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति, वं० २ सयमेव पंच महव्वयाइं आरुभेति, स० आ० २ समणा य समणीओ य खामेति, सम० खा० २ आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगते।
[७५] सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी परितापित कर (जला) दिया। मंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जले हुए सुनक्षत्र अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप आकर और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके उन्हें वन्दन-नमस्कार किया। फिर (उनकी साक्षी से) स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोपण किया और सभी श्रमणश्रमणियों से क्षमायाचना की। तदनन्तर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म प्राप्त किया।
७६. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेत्ता तच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसति सव्वं तं चेव सुहमत्थि।
[७६] अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जलाने के बाद फिर तीसरी बार मंखलिपुत्र गोशालक, श्रमण भगवान् महावीर को अनेक प्रकार के आक्रोशपूर्ण वचनों से तिरस्कृत करने लगा; इत्यादि पूर्ववत्; यावत्—'आज मुझ से तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है।'
विवेचन—सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि के जलने में अन्तर–सर्वानुभूति के समान सुनक्षत्र अनगार पर भी गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रहार किया, किन्तु सर्वानुभूति अनगार को कूटाघात के समान एक ही प्रहार में जला कर राख का ढेर कर दिया था,जब कि सुनक्षत्र अनगार को गोशालक इस तरह भस्म नहीं कर सका। इसके लिए शास्त्रकार ने 'परिताविए' (परितापित किया—जला दिया) शब्द-प्रयोग किया है। अर्थात्-सुनक्षत्र अनगार तुरन्त भस्म नहीं हुए किन्तु जलने से घायल हो गए थे। सर्वानुभूति अनगार का शरीर तुरन्त ही भस्म हो गया था, इसलिए उन्हें क्षमापना, आलोचना-प्रतिक्रमण आदि का समय नहीं मिला, जब कि