Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लगा।
१०६. 'अयंपुला ! ' ति गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वदासी—‘से नूणं अयंपुला ! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हव्वमागए, से नूण अयंपुला ! अढे समढे ?'
"हंता, अत्थि'।
तं नो खलु एस अंबकूणए, अंबचोयण णं एसे। किंसंठिया हल्ला पन्नत्ता ? वंसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता वीणं वाएहि रे वीरगा !, वीणं वाएहि रे वीरगा!।।
[१०६] 'अयंपुल !' इस प्रकार सम्बोधन कर मंखलिपुत्र गोशालक ने अयंपुल आजीविकोपासक से इस प्रकार पूछा—'हे अयंपुल ! रात्रि के पिछले पहर में यावत् तुझे ऐसा मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् (इसी के सामाधानार्थ) इसी से तू मेरे पास आया है, हे अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है ?'
(अयंपुल-) हाँ, (भगवन् ! यह) सत्य है।
(गोशालक-) (हे अयंपुल ! ) मेरे हाथ में वह आम्र की गुठली नहीं थी, किन्तु आम्रफल की छाल थी। (तुझे यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी कि) हल्ला का आकार कैसा होता है ? (अयंपुल) हल्ला का आकार बांस के मूल के आकार जैसा होता है। (तत्पश्चात् उन्मादवश गोशालक ने कहा) हे वीरो ! वीणा बजाओ! वीरो ! वीणा बजाओ।'
१०७. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हद्वतुटु० जाव हियए गोसालं मंखलिपुत्तं वंदति नमंसति, वं० २ पसिणाई पुच्छई, पसि० पु० २ अट्ठाइं परियादीयति, अ० प० २ उठेति, उ० २ गोसालं मंखलिपुत्तं वंदति नमंसति जाव पडिगए।
। [१०७] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक अपने प्रश्न का इस प्रकार समाधान पा कर आजीविकोपासक अयंपुल अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् हृदय में अत्यन्त आनन्दित हुआ। फिर उसने मंखलीपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार किया; कई प्रश्न पूछे, अर्थ (समाधान) ग्रहण किया। फिर वह उठा और पुनः मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार करके यावत् अपने स्थान पर लौट आया।
विवेचन—प्रस्तुत नौ सूत्रों (९९ से १०७ तक) में बताया है कि आजीविकोपासक अंयपुल की गोशालक के प्रति डगमगाती श्रद्धा को आजीविक स्थविरों ने उनके मन में उत्पन्न बात बता कर तथा आठ चरम, पानक-अपानक आदि की मान्यता उसके दिमाग में ठसा कर गोशालक के प्रति श्रद्धा स्थिर कर दी। फलत: बुद्धिविमोहित अयंपुल को गोशालक ने जो कहा, वह सब उसने श्रद्धापूर्वक यथार्थ मान लिया।
गोशालक द्वारा सत्य का अपलाप—गोशालक ने अयंपुल से कहा—तुमने जो मेरे हाथ में आम की
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृष्ठ ७२४-७२५