Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ शतक
५३५ जाव अपरिभूयाई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिति। एवं जहा उववातिए दढप्पतिण्णवत्तव्वता सच्चेव वत्तव्वता निरवसेसा भाणितव्वा जाव केवलवरनाण-दसणे समुप्पज्जिहिति।
[१४८] वहाँ से बिना अन्तर के च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में, जो ये कुल हैं, जैसे कि—आढ्य यावत् अपराभूत कुल; तथाप्रकार के कुलों में पुरुष (पुत्र) रूप से उत्पन्न होगा। जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की वक्तव्यता कही गई है, वही समग्र वक्तव्यता, यावत्-उत्तम केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न होगा, (यहाँ तक) कहनी चाहिए।
१४९. तए णं से दढप्पतिण्णे केवली अप्पणो तीयद्धं आभोएहिइ, अप्प० आ० २ समण निग्गंथे सद्दावेहिति, सम० स० २ एवं वदिहिइ—'एवं खलु अहं अजो ! इतो चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं अहं अजो ! अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिए। तं मा णं अज्जो ! तुब्भे पि केयि भवतु आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवणाकारए अकित्तिकारए, मा णं से वि एवं चेव अणादीयं अणवयग्गं जाव संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति जहा णं अहं।'
[१४९] तदनन्तर (गोशालक का जीव) दृढप्रतिज्ञ केवली अतीत काल को उपयोगपूर्वक देखेंगे। अतीतकाल-निरीक्षण कर वे श्रमण-निर्ग्रन्थों को अपने निकट बुलाएंगे और इस प्रकार कहेंगे—हे आर्यो ! मैं आज से चिरकाल पहले गोशालक नामक मंखलिपुत्र था। मैंने श्रमणों की घात की थी। यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया था। आर्यो ! उसी महापाप-मूलक (पापकर्म बन्ध के फलस्वरूप) मैं अनादि-अनन्त और दीर्घमार्ग वाले चारगतिरूप संसार-कान्तार (अटवी) में बार-बार पर्यटन (परिभ्रमण) करता रहा। इसलिए हे आर्यो ! तुम में से कोई (भूलकर) भी आचार्य-प्रत्यनीक (आचार्य के द्वेषी), उपाध्याय-प्रत्यनीक (उपाध्याय के विरोधी) आचार्य और उपाध्याय के अपयश (निन्दा) करने वाले, अवर्णवाद करने वाले और अकीर्ति करने वाले मत होना और जैसे मैंने अनादि-अनन्त यावत् संसार-कान्तार का परिभ्रमण किया, वैसे तुम लोग भी संसाराटवी में परिभ्रमण मत करना।
१५०. तए णं ते समणा निग्गंथा दढप्पतिण्णगस्स केवलिस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म भीया तत्था तसिता संसारभउव्विग्गा दढप्पतिण्णं केवलिं वंदिहिंति नमंसिहिंति, वं० २ तस्स ठाणस्स आलोएहिंति निंदिहिंति जाव पडिवज्जिहिंति।
[१५०] उस समय दृढप्रतिज्ञ केवली से यह बात सुनकर और अवधारण कर वे श्रमण-निर्ग्रन्थ भयभीत होंगे, त्रस्त होंगे, और संसार के भय से उद्विग्न होकर दृढप्रतिज्ञ केवली को वन्दन-नमस्कार करेंगे। वन्दननमस्कार करके वे (अपने-अपने) उस (पाप-) स्थान की आलोचना और निन्दना करेंगे यावत् तपश्चरण स्वीकार करेंगे।