Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ शतक
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वृत्तिकार यो करते हैं कि भगवान् ने केवलज्ञान से जान लिया कि कोहलापाक रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए बना कर तैयार किया है। इसलिए वह औद्देशिकदोषयुक्त होने से भगवान् ने उसे लाने का निषेध कर दिया, किन्तु जो दूसरा बीजौरापाक था, वह उसके यहाँ स्वाभाविक रूप से अपने घर के लिए बनाया गया था, वह निर्दोष था, अतः वह ग्रहण करने योग्य समझ कर लाने का आदेश दिया था। यही कारण है कि पहले के लिए तेहिं नो अट्ठे' और पिछले के लिए 'आहराहि तेणं अट्ठो' शब्दों का प्रयोग किया है।
इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिए पाठक 'रेवती-दान-समालोचना' (स्व. शतावधानी पं. मुनि श्री रत्नचन्द्रजी म. द्वारा लिखित) देखें।
कठिन शब्दार्थ-अतुरियमचवलमसंभंतं त्वरा (शीघ्रता), चपलता और सम्भ्रांति (हड़बड़ी) से रहित। पत्तगं मोएति—पात्रक कटोरदान को खोला या छींके से उतारा। बिलमिव पन्नगभूएणं सर्प जैसे सीधा बिल में घुस जाता है, उसी प्रकार स्वयं (भ. महावीर) ने वह आहार स्वाद का आनन्द न लेते हुए मुख में डाला। किमागमणप्पओयणं—आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ? रहस्सकडे—गुप्त बात । सव्वं सम्म णिसिरइ–सारा पाक सम्यक् प्रकार से पात्र में डाल दिया। णिबद्धे—बांध लिया। हट्टे-हृष्ट-व्याधिरहित। अरोगे-नीरोग-पीड़ारहित।
१२९. भंते ! 'त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं नमंसति, वं० २ एवं वदासी—एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूति नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए, से णं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलपुत्तेणं तवेणं तेयेणं भासरासीकए समाणे कहिं गए, कहिं उववन्ने ?
एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूति नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे उड़े चंदिमसूरिय जाव बंभ-लंतक-महासुक्के कप्पे वीतिवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं सव्वाणुभूतिस्स वि देवस्स अट्ठारस सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता। से णं भंते ! सव्वाणुभूति देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति। __ [१२९ प्र.] 'भगवन् ! ' इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा—'भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुभूति नामक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, और जिसे मंखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप
१. (क) स्यान्मातुलुङ्गः 'कफवातहन्ता।' -सुश्रुतसंहिता
(ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. ११, पृ. ७७९ से ७९३ तक २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९१,
(ख) भग. (हिन्दी-विवेचन) भा. ५, पृ. २४६८