Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
(अपने आचार से) नष्ट हो गए हो, कदाचित् आज तुम विनष्ट (मृत) हो गए हो, कदाचित् आज तुम (अपनी सम्पदा से) भ्रष्ट हो गए हो, कदाचित् तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो चुके हो।आज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ (सुख) होने वाला नहीं है।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (७०) में भगवान् द्वारा वास्तविक स्वरूप का भान कराने पर क्रुद्ध और उत्तेजित गोशालक द्वारा भगवान् के प्रति निकाले हुए अनर्गल भर्त्सना, अपमान, तिरस्कार से भरे विद्वेषसूचक उद्गार प्रस्तुत हैं।
शब्दार्थ-उच्चावयाहिं—ऊँचे-नीचे-भले-बुरे। आओसणाहिं—'तू मर गया' इत्यादि आक्रोशवचनों से। उद्धंसणाहि-तू दुष्कुलीन है इत्यादि अपमानजनक वचनों से। निब्भंछणाहिं—निर्भर्त्सनाओं द्वारा—'अब मेरा मुझ-से कोई मतलब नहीं' इत्यादि कठोर वचनों से। निच्छोडणाहिं—प्राप्त पदवी को छोड़ने के लिए दुष्ट वचनों से अर्थात्-तीर्थंकर के चिह्नों को छोड़, इत्यादि दुर्वचनों से। नढे सि कयाइतू तो कभी का अपने आचार से नष्ट हो गया है। गोशालक को स्वकर्त्तव्य समझाने वाले सर्वानुभूति अनगार का गोशालक द्वारा भस्मीकरण
७१. तेणं कालेण तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी पायीणजाणवए सव्वाणभूति णामं अणगारे पगतिभदए जाव विणीए धम्मायरियाणरागेणं एयमटठं असहहमाणे उट्ठाए उठेति, उ० २ जेणेव गोसाले मंखलीपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवा० २ गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी–जे वि ताव गोसाला ! तहरूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति से वि ताव तं वंदति नमंसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासति, किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया चेव पव्वाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुतीकते, भगवओ चेव मिच्छं विप्पडिवन्ने, तं मा एवं गोसाला !, नारिहति गोसाला !, सच्चेव ते सा छाया, नो अन्ना।
[७१] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए (प्राचीन-जनपदीय) सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के (अनर्गल) प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे हुए और मंखलिपुत्र गोशालक के पास आकर कहने लगे—हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य (पापनिवारणरूप निर्दोष) धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवस्वरूप, एवं ज्ञानरूप मान कर उनकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुम्हें (धर्मवचन ही नहीं सुनाया अपितु) प्रव्रजित किया, मुण्डित (दीक्षित) किया, भगवान् ने तुम्हें (व्रत एवं आचार की) साधना सिखाई, भगवान् ने तुम्हें (तेजोलेश्यादि विषयक उपदेश देकर) शिक्षित किया; भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत किया; (इतने पर भी) तुम भगवान् के प्रति मिथ्यापन (अनार्यता) अंगीकार कर रहे हो ! हे
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८३