Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ शतक
४८५ हुआ) कहीं गड्ढा, गुफा, दुर्ग (दुर्गम स्थान), निम्न स्थान, पहाड़ या विषम (बीहड़ आदि स्थान) नहीं पा कर अपने आपको एक बड़े ऊन के रोम, (कम्बल) से, सण के (वस्त्र) रोम से, कपास के बने हुए रोम (वस्त्र) से, तिनकों के अग्रभाग से आवृत (बँक) करके बैठ जाए, और नहीं ढंका हुआ भी स्वयं को ढंका हुआ माने अप्रच्छन्न (नहीं छिपा) होते हुए भी अपने आपको प्रच्छन्न (छिपा हुआ) माने, लुप्त (अदृश्य) (लुका हुआ) न होने पर भी अपने को लुप्त (अदृश्य—लुका हुआ) माने, पलायित ( भागा हुआ) ने होते हुए भी अपने को पलायित माने, उसी प्रकार हे गोशालक ! तू अन्य (दूसरा) न होते हुए भी अपने आपको अन्य (दूसरा) बता रहा है। अत: गोशालक ! ऐसा मत कर । गोशालक ! (ऐसा करना) तेरे लिए उचित नहीं है । तू वही है। तेरी वही छाया (प्रकृति) है, तू अन्य (दूसरा) नहीं है।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (६९) में भगवान् द्वारा गोशालक को चोर के उदाहरण पूर्वक दिये गए वास्तविक बोध का निरूपण है।
कठिन शब्दार्थ-तेणए-स्तेन, चोर।गामेल्लएहिं—ग्रामीणों द्वारा। गड्डं—गड्ढा—गर्त । दरिशृगाल आदि के द्वारा बनाई हुई घुरी या छोटी गुफा। णिण्णं-शुष्क सरोवर आदि निम्न स्थान। अणासादेमाणे—प्राप्त न होने पर। कप्पासपोम्हेण—कपास के रोओं (वस्त्र) से। तणसूएण—तिनकों के अग्रभाग से। अत्ताणं आवरेत्ता अपने आपको ढंक कर। अप्पछन्ने-अप्रच्छन्न। अणिलुक्के जो लुप्त, अदृश्य नहीं हो। अपलाए—पलायनरहित। अणन्ने—दूसरा नहीं। उवलभसि—उपलब्ध करातादिखाता है। नारिहसि- (ऐसा करना) योग्य—उचित नहीं। छाया–प्रकृति।' भगवान् के प्रति गोशालक द्वारा अवर्णवाद-मिथ्यावाद
७०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसति, उच्चा० आओ० २ उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेति, उच्चा० उ० २ उच्चावयाहिं निब्भच्छणाहिं निब्भच्छेति, उच्चा० नि० २ उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, उच्चा० नि० २ वदासि—नढे सि कदायि, विणढे सि कदायि, भट्टे सि कदायि, नट्ठविणट्ठभट्टे सि कदायि, अज्ज न भवसि, ना हि ते ममाहितो सुहमत्थि।
[७०] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जब मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा तब वह तुरन्त अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। क्रोध से तिलमिला कर वह श्रमण भगवान् महावीर की अनेक प्रकार के (असमंजस) ऊटपटांग (अनुचित) आक्रोशवचनों से भर्त्सना करने लगा, उद्घर्षणायुक्त (दुष्कुलीन है, इत्यादि अपमानजनक) वचनों से अपमान करने लगा, अनके प्रकार की अनर्गल निर्भर्त्सना द्वारा भर्त्सना करने लगा, अनेक प्रकार के दुर्वचनों से उन्हें तिरस्कृत करने लगा। यह सब करके फिर गोशालक बोला—(जान पड़ता है) कदाचित् तुम .
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८३
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४२९