Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ शतक
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के कुछ भाग में, उन वणिकों के पहुँचने के बाद, अपने साथ पहले का लिया हुआ पानी (पेयजल) क्रमशः पीतेपीते समाप्त हो गया।
___ 'जल समाप्त हो जाने से तृषा से पीडित वे वणिक् एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहने लगे'देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् महा-अटवी के कुछ भाग में पहुँचते ही हमारे साथ में पहले से लिया पानी क्रमश: पीते-पीते समाप्त हो गया है, इसलिए अब हमें इसी अग्राम्य यावत् अटवी में चारों ओर पानी की शोधखोज करना श्रेयस्कर है। इस प्रकार विचार करके उन वणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उसी ग्रामरहित यावत् अटवी में वे सब चारों ओर पानी की शोध-खोज करने लगे। सब ओर पानी की खोज करते हुए वे एक महा। वनखण्ड में पहुँचे, जो श्याम, श्याम-आभा से युक्त यावत् प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् सुन्दर था। उस वनखण्ड के ठीक मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक (बांबी) देखा। उस वल्मीक के सिंह के स्कन्ध के केसराल के समान ऊँचे उठे हुए चार शिखराकार-शरीर थे। वे शिखर तिर्छ फैले हुए थे। नीचे अर्द्धसर्प के समान (नीचे से विस्तीर्ण और ऊपर से संकुचित) थे।अर्द्ध सर्पाकार वल्मीक आह्लादोत्पादक यावत् सुन्दर थे।
'उस वल्मीक को देखकर वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हो कर और परस्पर एक दूसरे को बुला कर यों कहने लगे—'हे देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् अटवी में सब ओर पानी की शोध-खोज करते हुए हमें यह महान् वनखण्ड मिला है, जो श्याम एवं श्याम-आभा के समान है, इत्यादि। इस वल्मीक के चार ऊँचे उठे हुए यावत् सुन्दर शिखर हैं। इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है; जिससे हमें यहाँ (गर्त में) बहत-सा उत्तम उदक मिलेगा।' तब वे सब वणिक परस्पर एक दूसरे की बात स्वीकार करते हैं और फिर उसी वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ते हैं, जिसमें से उन्हें स्वच्छ, पथ्य-कारक, उत्तम, हल्का और स्फटिक के वर्ण जैसा श्वेत बहुत-सा श्रेष्ठ जल (उदकरत्न) प्राप्त हुआ।
'इसके बाद वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हुए। उन्होंने वह पानी पिया, अपने बैलों आदि वाहनों को पिलाया और पानी के बर्तन भर लिये।
'तत्पश्चात् उन्होंने दूसरी बार भी परस्पर इस प्रकार वार्तालाप किया—हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से बहुत-सा उत्तम जल प्राप्त हुआ है। अतः देवानुप्रियो ! अब हमें इस वल्मीक के द्वितीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें पर्याप्त उत्तम स्वर्ण (स्वर्णरत्न) प्राप्त हो।
___ 'इस पर सभी वणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उन्होंने उस वल्मीक के द्वितीय शिखर को भी तोड़ा। उसमें से उन्हें स्वच्छ उत्तम जाति का, ताप को सहन करने योग्य महाघ (महामूल्यवान्), महार्ह (अत्यन्त योग्य) पर्याप्त स्वर्णरत्न मिला।
_ 'स्वर्ण प्राप्त होने से वे वणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुए। फिर उन्होंने अपने बर्तन भर लिए और वाहनों (बैलगाड़ियों) को भी भर लिया।
‘फिर तीसरी बार भी उन्होंने परस्पर इस प्रकार परामर्श किया—देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त किया, फिर दूसरे शिखर को तोड़ने से विपुल उत्तम स्वर्ण प्राप्त किया।