Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
गोशालक के साथ धर्मचर्चा न करने का आनन्दस्थविर द्वारा भगवदादेशनिरूपण
६७. तए णं से आणंदे थेरे समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वं० २ जेणेव गोयमादी समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छति, ते० उवागच्छित्ता गोतमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, आ० २ एवं वयासि — एवं खलु अज्जो ! छट्ठक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय०, तं चैव सव्वं जाव नायपुत्तस्स एयमट्टं परिकहेहि०, तं चेव जाव मा णं अज्जो ! तुब्धं केयि गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ जाव मिच्छं विप्पडिवन्ने ।
[६७] तत्पश्चात् वह आनन्द स्थविर श्रमण भगवान् महावीर से यह सन्देश सुन कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना - नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थ थे, वहाँ आए । फिर गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों को बुला कर उन्हें इस प्रकार कहा—' हे आर्यो ! आज मैं छठक्षमण के पारणे के लिए श्रमण भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त करके श्रावस्ती नगरी में उच्च-नीच मध्यम कुलों में इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत् ( गोशालक का कथन ) ज्ञातपुत्र को ( जाकर मेरी ) यह बात कहना (यहाँ तक कथन करना चाहिए।) यावत् (भगवत्कथन) हे आर्यो ! तुम में से कोई भी गोशालक के साथ उसके धर्म, मत सम्बन्धी प्रतिकूल (कर्त्तव्य-) प्रेरणा मत करना, यावत् ( गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति ) मिथ्यात्व (अनार्यत्व) को विशेष रूप से अंगीकार कर लिया है।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्र में भगवान् द्वारा आनन्द स्थविर के माध्यम से गोशालक के सम्बन्ध में श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए दी गई चेतावनी का वर्णन है ।
भगवान् के समक्ष गोशालक द्वारा अपनी ऊटपटांग मान्यता का निरूपण
६८. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाण एयमट्टं परिकहेति तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमति, पडि० २ आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं जाव सावत्थिं नगरि मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, नि० २ जेणेव कोट्ठए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० २ समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी
"सुट्टु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासी, साहु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासी—'गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी'। जेणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुक्काभिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने । अहं णं उदाई नामं कुंडियायणिए । अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अज्जु० विप्प० २ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, गो० अणु० २ इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि ।