Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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(निरुपयोगी है, अतएव उसका विचार करने की आवश्यकता नहीं है ) । उनमें से जो बादर - बोंदिकलेवररूप उद्धार है, उसमें से सौ-सौ वर्षों में गंगा की बालू का एक-एक-कण निकाला जाए और जितने काल में वह गंगा-समूहरूप कोठा समाप्त हो जाए, रजरहित निर्लेप और निष्ठित (समाप्त) हो जाए, तब एक 'शरप्रमाण' काल कहलाता है । इस प्रकार के तीन लाख शरप्रमाण काल द्वारा एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है। अनन्त संयूथ (अनन्त जीवों के समुदाय रूप निकाय) से जीव च्यव कर संयूथ-देवभव में उपरितन मानस (शरप्रमाण आयुष्य ) द्वारा उत्पन्न होता है । वह वहाँ (देवभव में) दिव्यभोगों का उपभोग करता रहता है। इस प्रकार दिव्यभोगों का उपभोग करते-करते उस देवलोक का आयुष्य-क्षय, देवभव का क्षय और देवस्थिति का क्षय होने पर तुरन्त ( बिना अन्तर के ) च्यवकर प्रथम संज्ञीगर्भजीव (गर्भज- पंचेन्द्रिय मनुष्य) में उत्पन्न होता है । फिर वह वहाँ से अन्तररहित ( तुरन्त ) मर कर मध्यम मानस (शरप्रमाण आयुष्य ) द्वारा संयूथ ( देवनिकाय) में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करता है। वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर दूसरी बार फिर संज्ञीगर्भ (गर्भज मनुष्य) में जन्म लेता है । इसके पश्चात् वहाँ से तुरन्त मरकर अधस्तन मानस (शरप्रमाण) आयुष्य द्वारा संथूय (देवनिकाय) में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्यभोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर तीसरे संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है । फिर वह वहाँ से मर कर उपरितन मानसोत्तर ( महामानस) आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वहाँ वह दिव्यभोग भोग कर यावत् चतुर्थ संज्ञीगर्भ में जन्म लेता है । वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है । वहाँ वह दिव्यभोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर पांचवें संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है । वहाँ से मर कर तुरन्त अधस्तन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ - देव में उत्पन्न होता है । वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करके यावत् च्यव कर छठे संज्ञीगर्भ जीव में जन्म लेता है।
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वह वहाँ से मर कर तुरन्त ब्रह्मलोक नामक कल्प (देवलोक ) में देवरूप में उत्पन्न होता है, (जिसका वर्णन इस प्रकार कहा गया है — ) वह पूर्व - पश्चिम में लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा ( विस्तीर्ण) है। प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थानपद के अनुसार वर्णन समझना चाहिए, यावत् — उसमें पांच अवतंसक विमान कहे गए हैं । यथा— अशोकावतंसक, यावत् वे प्रतिरूप हैं। इन्हीं अवतंसकों में वह देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर सातवें संज्ञीगर्भ जीव में उत्पन्न होता है।
वहाँ नौ मास और साढ़े सात रात्रि - दिवस यावत् व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु तथा (दर्भादि के) कुण्डल के समान कुंचित (घुंघराले) केश वाला, कान के आभूषणों से जिसके कपोलस्थल चमक रहे थे, ऐसे देवकुमारसम कान्ति वाले बालक को जन्म दिया । हे काश्यप ! वही (बालक) मैं हूँ ।
इसके पश्चात् हे आयुष्मन् काश्यप ! कुमारावस्था में ली हुई प्रव्रज्या से, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्यवास से जब मैं अविद्धकर्ण (अव्युत्पन्नमति ) था, तभी मुझे प्रव्रज्या ग्रहण करने की बुद्धि (संख्यान) प्राप्त हुई। फिर मैंने सात परिवृत्त-परिहार (शरीरान्तर - प्रवेश) में संचार किया, यथा – (१) ऐणेयक, (२) मल्लरामक, (३) मण्डिक, (४) रौह, (५) भारद्वाज, (६) गौतमपुत्र अर्जुनक और (७) मंखलिपुत्र गोशालक के ( शरीर में प्रवेश किया) ।