Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (उत्पाद, उद्वर्त्तन और सत्ता) कहे, उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिए।
विवेचन—व्यन्तरों के आवास संख्येय विस्तृत ही–वाणव्यन्तरदेवों के आवास असंख्यात योजन विस्तार वाले नहीं होते, वे संख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं। उनका परिमाण इस प्रकार बताया गया है— ___ वाणव्यन्तर देवों के सबसे छोटे नगर (आवास) भरतक्षेत्र के बराबर होते हैं, मध्यम आवास महाविदेह के समान होते हैं और सबसे बड़े (उत्कृष्ट) आवास जम्बूद्वीप के समान होते हैं।' ज्योतिष्कदेवों की विमानावास-संख्या, विस्तार एवं विविधविशेषणविशिष्ट की उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा
१०. केवइया णं भंते ! जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा पत्नत्ता ? गोयमा ! असंखेजा जोतिसिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [१० प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कदेवों के कितने लाख विमानावास कहे गए हैं ? [१० उ.] गौतम ! ज्योतिष्कदेवों के विमानावास असंख्यात लाख कहे गये हैं। ११. ते णं भंते ! कि संखेजवित्थडा० ?
एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोतिसियाण वि तिन्नि गमा भाणियव्वा, नवरं एगा तेउलेस्सा। उववजंतेसु पन्नत्तेसु य असन्नी नत्थि। सेसं तं चेव।
[११ प्र.] भगवन् ! वे (ज्योतिष्क विमानावास) संख्येय विस्तृत हैं या असंख्येय विस्तृत ?
[११ उ.] गौतम ! (वाणव्यन्तरदेवों के समान वे भी संख्येय विस्तृत होते हैं।) तथा वाणव्यन्तरदेवों के विषय में जिस प्रकार कहा, उसी प्रकार ज्योतिष्कदेवों के विषय में तीन आलापक कहने चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें केवल एक तेजोलेश्या ही होती है। व्यन्तरदेवों में असंज्ञी उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा गया था, किन्तु इनमें असंजी उत्पन्न नहीं होते (न ही उद्वर्त्तते हैं और न च्यवते हैं)। शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए।
विवेचन-ज्योतिष्कदेवों में वाणव्यन्तरदेवों से विशेषता-वाणव्यन्तरदेवों से ज्योतिष्कदेवों में अन्तर इतना ही है कि केवल एक तेजोलेश्या होती है। इनके विमान संख्यात योजन विस्तार वाले तो होते हैं, किन्तु वे होते हैं—एक योजन से भी कम विस्तृत, यानी योजन का १ भाग होता है तथा इनमें असंज्ञी जीवों का उत्पाद, उद्वर्तन नहीं होता, न वे सत्ता में होते हैं।
अन्य सब बातें वाणव्यन्तरदेवों के समान होती हैं। १. जंबूद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते नगरा।
खुड्डा खेत्तसमा खलु, विदेहसमगा उ मज्झिमगा॥ - भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ४, पृ. २०५४ २. (क) एगसट्ठिभागं काऊण जोयणं'
भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३