Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवां शतक : उद्देशक-४
३०९ धर्मास्तिकायादि के एक प्रदेश पर धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों का अवगाहन-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान पर धर्मास्तिकाय का अन्य प्रदेश अवगाढ नहीं होता। अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय का वहाँ एक-एक प्रदेश अवगाढ होता है; तथा जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के अनन्त-अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं; क्योंकि धर्मास्तिकाय का एक-एक प्रदेश उनके अनन्त प्रदेशों से व्याप्त है। धर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी है और अद्धासमय केवल मनुष्यलोकव्यापी है। अतः धर्मास्तिकाय के प्रदेश पर अद्धासमयों का क्वचित् अवगाह है और क्वचित्-कहीं नहीं भी है। जहाँ अवगाह होता है, वहाँ अनन्त का अवगाह है। धर्मास्तिकाय के समान ही अधर्मास्तिकाय के भी छह सूत्र कहने चाहिए। आकाशास्तिकाय के विषय में धर्मास्तिकाय का प्रदेश कदाचित् अवगाढ है और नहीं भी है, क्योंकि आकाशास्तिकाय लोकालोकपरिमाण है जब कि धर्मास्तिकाय के प्रदेश लोकाकाश में ही हैं, आलोकाकाश में नहीं। वहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है।'
पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों की अवगाहना-जहाँ पुद्गलास्तिकाय का व्यणुकस्कन्ध (द्विप्रदेशीस्कन्ध) एक आकाशप्रदेश में अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ही अवगाहता है;
और जब वह आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहता है, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश और दो प्रदेशों के अवगाहन की घटना स्वयं कर लेनी चाहिए। जब पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश को अवगाहते हैं तब धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है। जब आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। जब आकाशास्तिकाय के तीन प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेश अवगाढ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिए। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय सम्बन्धी तीन सूत्रों का कथन भी पूर्ववत् करना चाहिए। विशेष यह है कि पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों के स्थान पर जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं।
___ जिस प्रकार पुदगलास्तिकाय के तीन प्रदेशों की अवगाहना के विषय में धर्मास्तिकायादि के एक-एक प्रदेश की वृद्धि की है; उसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के चार, पांच आदि प्रदेशों की अवगाहना के विषय में भी एक-एक प्रदेश की वृद्धि करनी चाहिए।
जहाँ पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कदाचित् एक, दो यावत् कदाचित् संख्यात, अथवा असंख्यात, प्रदेश अवगाढ होते हैं, अनन्त नहीं; क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के अनन्त प्रदेश नहीं होते, असंख्यात ही होते हैं।
समग्र धर्मास्तिकायादि द्रव्य पर अन्य धर्मास्तिकायादि प्रदेशों का अवगाह-जहाँ समग्र
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६१४
(ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२२० २. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२२०-२२२१
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६१४-६१५