Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवाँ शतक
४४५ बतलाता था। सव्वणू–सर्वज्ञ।' गोशालक की वास्तविकता जानने की गौतमस्वामी की जिज्ञासा, भगवान् द्वारा समाधान
१०. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेति—एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पकासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं ?
[१०] इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक (सिंघाडे के आकार वाले त्रिक-तिराहे) पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! (हमने) निश्चित ही (ऐसा सुना है) कि गोशालक मंखलिपुत्र 'जिन' न हो कर अपने आपको 'जिन' कहता हुआ, यावत् 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट (प्रकाश) करता हुआ विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना जाए?
११. तेणं कालेणं समएणं सामी समोसढे। जाव परिसा पडिगता।
[११] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर वहाँ पधारे, यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर वापिस चली गई।
१२. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूतीणामं अणगारे गोयमे गोत्तेणं जाव छठें छट्टेणं एवं जहा बितियसए नियंठुद्देसए (स. २ उ.५ सु. २१-२४) जाव अडमाणे बहुजणसदं निसामेइ-"बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति ४-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावो जाव पकासेमाणे विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं ?"
[१२] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) गौतम-गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् छठ-छठ (बेले-बेले) पारणा करते थे; इत्यादि वर्णन दूसरे शतक के पांचवें निर्ग्रन्थ-उद्देशक (सू. २१ से २४) के अनुसार समझना। यावत् गोचरी के लिए भ्रमण (भिक्षाटन) करते हुए गौतमस्वामी ने बहुत-से लोगों के शब्द सुने, (वें) बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे कि देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन न हो कर अपने आपको जिन कहता हुआ, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है। उसकी यह बात कैसे मानी जाए ?
१३. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमढं सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जाव भत्त-पाण पडिदंसेति जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी—एवं खलु अहं भंते !० तं चेव जाव जिणसई पगासेमाणे विहरइ, से कहमेतं भंते ! एवं ? तं इच्छामि णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उट्ठाणपारियाणियं परिकहिंय।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५१
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३७०