Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जाति के देवों की भी अग्निप्रवेश शक्ति इनके समान ही है ।
स्थावरजीवों की अग्निप्रवेश-शक्ति-अशक्ति विग्रहगति प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जा सकते हैं और वे सूक्ष्म होने से जलते नहीं हैं । अविग्रहगति प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर नहीं जाते, क्योंकि वे स्थावर हैं। अग्नि और वायु, जो गतित्रस हैं, वे अग्नि के बीच में होकर जा सकते हैं, किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नहीं है । यहाँ तो स्थावरत्व की विवक्षा है । यद्यपि वायु आदि की प्रेरणा से पृथ्वी आदि का अग्नि के मध्य में गमन सम्भव है, परन्तु यहाँ स्वतन्त्रतापूर्वक गमन की विवक्षा की गई है। एकेन्द्रिय जीव स्थावर होने से स्वतन्त्रतापूर्वक अग्नि के मध्य में होकर नहीं जा सकते।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की अग्निप्रवेश- शक्ति - अशक्ति जो विग्रहगतिसमापन्नक है, उनका वर्णन नैरयिक के समान है । किन्तु अविग्रहगतिसमापन्न तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य जो वैक्रियलब्धिसम्पन्न (ऋद्धिप्राप्त हैं और मनुष्यलोकवर्ती हैं, वे मनुष्यलोक में अग्नि का सद्भाव होने से उसके बीच में होकर जा सकते हैं। जो मनुष्यक्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में हैं वे अग्नि में से होकर नहीं जाते क्योंकि वहाँ अग्नि का अभाव है। जो ऋद्धि- अप्राप्त हैं, वे भी कोई-कोई (जादूगर आदि) अग्नि में से होकर जाते हैं, कोई नहीं जातें, क्योंकि उनके पास तथाविध सामग्री का अभाव है। किन्तु ऋद्धिप्राप्त तो अग्नि में होकर जाने पर भी जलते नहीं, जबकि ऋद्धि-अप्राप्त जो अग्नि में होकर जाते हैं, वे जल सकते हैं।
कठिन शब्दार्थ –— वीयीवएज्जा — चला जाता है, लांघ जाता है। झियाएज्जा - जल जाता है । इड्डिपत्ता — वैक्रियलब्धि - सम्पन्न | कमइ — जाता है, असर करता है, लगता है। चौवीस दण्डकों में शब्दादि दस स्थानों में इष्टानिष्ट स्थानों के अनुभव की प्ररूपणा
१०. रतिया दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा— अणिट्ठा सद्दा, अणिट्ठा रूवा, अणिट्ठा फासा, अणिट्ठा गती, अणिट्ठा ठिती, अणिट्ठे लायण्णे, अणिट्ठे जसोकित्ती, अणिट्टे उट्ठाण - कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कारपरक्कमे ।
[१०] नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं। यथा- - (१) अनिष्ट शब्द, (२) अनिष्ट रूप, (३) अनिष्ट गंध, (४) अनिष्ट रस, (५) अनिष्ट स्पर्श, (६) अनिष्ट गति, (७) अनिष्ट स्थिति, (८) अनिष्ट लावण्य, (९) अनिष्ट यश: कीर्ति और (१०) अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम।
११. असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा – इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इट्ठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय- पुरिसक्कारपरक्कमे ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४२
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २३१५
२. (क) भगवती . ( हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३१५-१६
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४२
३. भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३११