Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[६६-१ प्र.] भगवन् ! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई व्यक्ति बैठने ( या ठहरने), सोने, खड़ा रहने, नीचे बैठने और लेटने (या करवट बदलने) में समर्थ हो सकता है ? [६६-१ उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ होते हैं। [ २ ] से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्च — एयंसि णं धम्मत्थि० जाव आगासत्थिकायंसि नो चक्किया केयि आसइत्तए वा जाव ओगाढा ?
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गोयमा ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्तदुवारा जहा रायप्पसेणइज्जे जाव दुवारवयणाई पिहेइ; दुवारवयणाई पिहित्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहन्त्रेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेज्जा; से नूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमन्नपुट्ठाओ जाव अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठति ?"
'हंता चिठ्ठति ।'' चक्किया णं गोयमा ! केयि तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्ताए वा ?"
'भगवं ! णो इणट्टे समट्ठे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा । '
णणं गोयमा ! एवं जाव वुच्चइ ओगाढा ।
[ ६६-२ प्र.] भगवन् ! यह किसलिए कहा जाता है कि इन धर्मास्तिकायादि पर कोई भी व्यक्ति ठहरने, सोने आदि में समर्थ नहीं हो सकता, यावत् वहाँ अनन्त जीव अवगाढ होते हैं ?
[६६-२ उ.] गौतम ! जैसे कोई कूटागारशाला हो, जो बाहर और भीतर दोनों ओर से लीपी हुई हो, चारों ओर से ढँकी हुई (सुरक्षित) हो, उसके द्वार भी गुप्त (सुरक्षित) हों, इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रानुसार, यावत् — द्वार के कपाट बन्द कर (ढँक) देता है, (यहाँ तक जानना चाहिए।) उस कूटागारशाला के द्वार के कपाटों को बन्द करके ठीक मध्यभाग में (कोई) जघन्य (कम से कम) एक, दो या तीन और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) एक हजार दीपक जला दे, तो हे गौतम! ( उस समय) उन दीपकों की प्रभाएँ परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध (संसक्त) होकर एक दूसरे (की प्रभा) को छूकर यावत् परस्पर एकरूप होकर रहती हैं न ?
[गौतम द्वारा उत्तर] – हाँ भगवन् ! (वे इसी प्रकार से ) रहती हैं।
[ भगवान् द्वारा प्रश्न ] — हे गौतम ! क्या कोई व्यक्ति उन प्रदीप प्रभाओं पर बैठने, सोने यावत् करवट बदलने में समर्थ हो सकता है ?
[गौतम द्वारा उत्तर ]- -भगवन् ! यह अर्थ ( बात) समर्थ (शक्य) नहीं है । उन प्रभाओं पर अनन्त जीव अवगाहित होकर रहते हैं ।
(भगवान् द्वारा उपसंहार — ) इसी कारण से हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि (इस धर्मास्तिकायादि त्रिक में न कोई पुरुष बैठ सकता है, न सो सकता है, न खड़ा रह सकता है) यावत् न ही करवट बदल सकता है; ( क्योंकि ये तीनों ही द्रव्य अमूर्त हैं, फिर भी ) इनमें अनन्त जीव अवगाढ हैं।
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