Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन—चरम-परम के मध्य में गति, उत्पत्ति–उपर्युक्त प्रश्न का आशय यह है कि कोई भावितात्मा अनगार, जो लेश्या के उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय-स्थानों के वर्तमान है, वह यदि पूर्ववर्ती सौधर्मादि देवलोक में उत्पन्न होने योग्य स्थितिबन्ध आदि का उल्लंघन कर गया हो किन्तु अभी तक परम (ऊपर रहे हुए) सनत्कुमारादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थितिबन्ध आदि अध्यवसायों को प्राप्त नहीं हुआ और इसी मध्य (अवसर) में अगर उसकी मृत्यु हो जाए तो वह कहाँ जाता है, कहाँ उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर भगवान् ने यों दिया है कि वह चरमदेवावास और परमदेवावास के निकटवर्ती उस लेश्या वाले देवावासों में जाता है, वहीं उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि सौधर्मादि देवलोक और सनतकुमारादि देवलोकों के पास में जो ईशान आदि देवलोक हैं, उनमें, अर्थात्—जिस लेश्या में वह अनगार काल करता है, उसी लेश्या वाले देवावासों में उत्पन्न होता है; क्योंकि यह सिद्धान्त वचन है—'जल्लेसे मरइ जीवे, तल्लेसे चेव उववज्जइ'-अर्थात्-'जीव जिस लेश्या में मरण पाता है, उसी लेश्या (वाले जीवों) में उत्पन्न होता है।' अर्थात्-उन देवावासों में उस अनगार की गति होती है। जिस लेश्या-परिणाम से वहाँ वह उत्पन्न होता है, यदि उस परिणाम की वह विराधना कर देता है तो द्रव्यलेश्या वही होते हुए भी कर्मलेश्या (भावलेश्या)-जीवपरिणति से वह गिर जाता है। तात्पर्य यह है कि वह शुभ भावलेश्या से गिर कर अशुभ भावलेश्या में चला जाता है, क्योंकि देव और नैरयिक द्रव्यलेश्या से नहीं गिरते, वह तो पहले वाली ही रहती है, किन्तु भावलेश्या से गिर जाते हैं। द्रव्यलेश्या तो देवों की अवस्थित रहती है। यदि वह अनगार जिस लेश्यापरिणाम से वहाँ (चरमदेवावास और परमदेवावास के मध्यवर्ती देवावास में) उत्पन्न होता है, यदि वह उस लेश्यापरिणाम की विराधना नहीं करता, तो वह जिस लेश्या से वहाँ उत्पन्न हुआ है, उसी लेश्या में जीवनयापन करता है। यह सामान्य देवावासों को लेकर कहा गया है। विशेष देवावासों की अपेक्षा अगला सूत्र कहा गया है।
शंका-समाधान–(प्र.) जो भावितात्मा अनगार है, वह असुरकुमारों में कैसे उत्पन्न होता है ? वहाँ तो संयम के विराधक जीव ही उत्पन्न होते हैं? इसके समाधान में वृत्तिकार कहते हैं—यहाँ भावितात्मापन पूर्वकाल की अपेक्षा से समझना चाहिए। अन्तिम समय में वे संयम के विराधक होने से असुरकुमारादि में उत्पन्न हो सकते हैं। अथवा यहाँ भावितात्मा का आशय 'बालतपस्वी भावितात्मा' समझना चाहिए।' चौवीस दण्डकों में शीघ्रगति-विषयक प्ररूपणा
६. नेरइयाणं भंते ! कहं सीहा गती ? कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते ?
गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव निउणसिप्पोवगए आउंटियं बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा बाहं आउंटेजा, विक्खिणं वा मुष्टुिं साहरेज्जा, साहरियं वा मुट्ठि विक्खिरेजा,
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३०-६३१
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२७७-२२७८ २. 'जाव' शब्द सूचक पाठ-"जुवाणे........., अप्पातंके........., थिरग्गहत्थे........., दढपाणि-पाय-पाल
पिटुंतरोरूपरिएण.......,तलजमलजुयल-परिघ-निभबाहू......, चम्मे?-दुहण-मुट्ठियसमाहयनिचियगायकाए........,
ओरसबलसमन्नागए........, लंघण-पवणजइणवायामसमत्थे.........,छए........, दुक्खे........, पत्तद्वे........, कुसले........, मेहावी........., निउणे" - अवृ. पत्र ६३१