Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौदहवाँ शतक : उद्देशक-३
३८१ साधन नहीं हैं तथा वे सदैव दुःखग्रस्त रहते हैं । तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में आसनाऽभिग्रह तथा आसनाऽनुप्रदानरूप विनयव्यवहार को छोड़ कर शेष सब विनयव्यवहार सम्भव हैं। क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यंचों में व्यक्त भाषा तथा हाथ का अभाव होने से ये दोनों प्रकार के विनय सम्भव नहीं हैं। चारों प्रकार के देवों और मनुष्यों में सत्कार-सम्मानादि सभी प्रकार के विनयव्यवहार हैं।
कठिन शब्दार्थ—सक्कारेइ-सत्कार अर्थात् विनययोग्य के प्रति वन्दनादि द्वारा आदर करना, अथवा उत्तम वस्त्रादि प्रदान द्वारा सत्कार करना। सम्माणेइ-सम्मान-तथाविध बहुमान करना। किइकम्मेइकृतिकर्म-वन्दन करना अथवा उनके आदेशानुसार कार्य करना। अब्भुटाणेइ-अभ्युत्थान-आदरणीय व्यक्ति को देखते ही
ते ही आदर देने के लिए आसन छोडकर खडे हो जाना। अंजलिपग्गहे. दोनों हाथों को जोड़ना, करबद्ध होना। आसणाभिग्गहे—आसन लाकर देना और विराजने के लिए आदरपूर्वक कहना। आसणाणुप्पदाणे-आसनाऽनुप्रदान—आसन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाकर बिछाना। एतस्सपच्चुग्गच्छणया-आते हुए (सम्मान्य) पुरुष के सम्मुख जाना। ठियस्स पज्जुवासणया—बैठे हुए आदरणीय पुरुष की पर्युपासना करना। गच्छंतस्स पडिसंसाहणया—जब आदरणीय व्यक्ति उठ कर जाने लगे तब कुछ दूर तक उसके पीछे जाना। अल्पर्धिक-महार्द्धिक-समर्द्धिक देव-देवियों के मध्य में से व्यतिक्रमनिरूपण
१०. अप्पिड्डिए णं भंते ! देवे महिड्डियस्स देवस्स मझमझेणं वीयीवएजा ? नो तिणढे समढ़े। [१० प्र.] भगवन् ! अल्पऋद्धि वाला देव, क्या महर्द्धिक देव के मध्य में हो कर जा सकता है ? [१० उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य नहीं है। ११. समिड्डिए णं भंते ! देवे समिड्डियस्स देवस्स मझमझेणं वीयीवएजा?
णो तिणढे, समढे पमत्तं पुण वीयीवएजा।
[११ प्र.] भगवन् ! समर्द्धिक (समानऋद्धि वाला) देव, सम-ऋद्धि वाले देव के मध्य में से होकर जा सकता है ?
_ [११ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु (यदि समान-ऋद्धि वाला देव) प्रमत्त (असावधान) हो तो (दूसरा समर्द्धिक देव उसके मध्य में से) जा सकता है।
१२. से णं भंते ! किं सत्थेणं अक्कामित्ता पभू, अणक्कमित्ता पभू?
गोयमा ! अक्कमित्ता पभू, नो अणक्कमित्ता पभू। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३७
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२९८