Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ?
नो तिणटे समढे।
[४ प्र.] भगवन् ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म (वन्दन) अभ्युत्थान, अजंलिप्रग्रह, आसनाभिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख (स्वागतार्थ) जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा (पर्युपासना) करना, उठ कर जाते हुए (सम्मान्य पुरुष) के पीछे (कुछ दूर तक) जाना इत्यादि विनय-भक्ति है ?
[४ उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात नैरयिकों में) समर्थ (शक्य, सम्भव) नहीं है। ५. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सक्कारे इ वा सम्माणे इ वा जाव पडिसंसाहणता ? हंता, अत्थि। [५ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान यावत् अनुगमन आदि विनयभक्ति होती है? [५ उ.] हाँ, गौतम ! है। ६. एवं जाव थणियकुमाराणं। [६] इसी प्रकार स्तनितकुमार देवों तक (के विषय में कहना चाहिए)। ७. पुढविकाइयाणं जाव चरिंदियाणं, एएसिं जहा नेरइयाणं।
[७] जिस प्रकार नैरयिकों के लिए कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायादि से ले कर चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए।
८. अत्थि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सक्कारे इ वा जाव पडिसंसाधणया ? हंता, अस्थि, नो चेव णं आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पयाणे इ वा। [८ प्र.] भगवन् ! क्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों में सत्कार, सम्मान, यावत् अनुगमन आदि विनय
[८ उ.] हाँ, गौतम ! है, परन्तु इनमें आसनाभिग्रह या आसनाऽनुप्रदानरूप विनय नहीं है। ९. मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं।
[९] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों से लेकर वैमानिकों तक कहना चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. ४ से ९ तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कार-सम्मानादि विनयव्यवहार का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-नैरयिक जीवों, पंच स्थावरों, तीन विकलेन्द्रिय जीवों में परस्पर सत्कार-सम्मानादि विनयव्यवहार नहीं है, क्योंकि उनके पास इस प्रकार के