Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
चौदहवाँ शतक : उद्देशक - २
३७३
३. असुरकुमाराणं भंते ! कतिविधे उम्मादे पण्णत्ते ?
गोमा ! दुविहे उम्माए पन्नत्ते । एवं जहेव नेरइयाणं, नवरं – देवे वा महिड्डियतराए असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा, मोहणिज्जस्स वा । सेसं तं चेव । से तेणद्वेणं जाव उदएणं ।
[३ प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों में कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ?
[३ उ.] गौतम ! नैरयिकों के समान उनमें भी दो प्रकार का उन्माद कहा गया है। विशेषता (अन्तर) यह है कि उनकी अपेक्षा महर्द्धिक देव, उन असुरकुमारों पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है और वह उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से यक्षावेशरूप उन्माद को प्राप्त हो जाता है तथा मोहनीयकर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्यउन्माद को प्राप्त होता है। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए।
४. एवं जाव थणियकुमाराणं ।
[४] इसी प्रकार स्तनितकुमारों (तक के उन्माद के विषय में समझना चाहिए) ।
५. पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साणं, एतेसिं जहा नेरइयाणं ।
[५] पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्यों तक नैरयिकों के समान कहना चाहिए ।
६. वाणमंतर - जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ।
[६] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्कदेव और वैमानिकदेवों (के उन्माद) के विषय में भी असुरकुमारों के समान कहना चाहिए ।
विवेचन —— उन्माद : प्रकार और कारण — प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १-७ तक) में उन्माद के दो प्रकार (यक्षावेशजन्य और मोहनीयजन्य) बता कर, नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवींस दण्डकवर्ती जीवों में इन दोनों प्रकार के उन्मादों का अस्तित्व बताया है । यक्षावेशरूप उन्माद के कारण में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। वह यह है कि चार प्रकार के देवों को छोड़कर नैरयिकों, पृथ्वीकायादि तिर्यञ्चों और मनुष्यों पर कोई देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, तब वे यक्षावेश - उन्मादग्रस्त होते हैं, जबकि चारों प्रकार के देवों पर कोई उनसे भी महर्द्धिक देव अशुभ पुद्गल - प्रक्षेप करता है तो वह यक्षावेशरूप उन्माद से ग्रस्त होता है ।
उन्माद का स्वरूप—उन्मत्तता को उन्माद कहते हैं, अर्थात् जिससे स्पष्ट या शुद्ध चेतना (विवेकज्ञान ) लुप्त हो जाए, उसे उन्माद कहते हैं ।
यक्षावेश - उन्माद का लक्षण - शरीर में भूत, पिशाच, यक्ष आदि देव विशेष के प्रवेश करने से जो उन्माद है, वह यक्षावेश उन्माद है ।
मोहनीयजन्य-उन्माद : स्वरूप और प्रकार — मोहनीयकर्म के उदय से आत्मा का पारमार्थिक ( वास्तविक सत्-असत् का ) विवेक नष्ट हो जाना, मोहनीय- उन्माद कहलाता है। इसके दो भेद हैं—मिथ्यात्वमोहनीय
१. वियाहपण्णतिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ६६१-६६२
२. भगवती. अ. वृति, पत्र ६३४