Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
उन्माद और चारित्रमोहनीय-उन्माद। मिथ्यात्वमोहनीय-उन्माद के प्रभाव से जीव अतत्त्व को तत्त्व और तत्त्व को अतत्त्व मानता है। चारित्रमोहनीय के उदय से जीव विषयादि के स्वरूप को जानता हुआ भी अज्ञानी के समान उसमें प्रवृत्ति करता है। अथवा चारित्रमोहनीय की वेद नामक प्रकृति के उदय से जीव हिताहित का भान भूल कर स्त्री आदि में आसक्त हो जाता है, मोह के नशे में पागल बन जाता है । वेदोदय काम-ज्वर से उन्मत्त जीव की दस दशाएँ इस प्रकार हैं
चिंतेइ १ दद्रुमिच्छइ २ दीहं नीससइ ३ तह जरे ४ दाहे ५।
भत्तअरोअग ६, मुच्छा ७ उन्माय ८ न याणई ७ मरणं १० ॥१॥ अर्थात्-तीव्र वेदोदय (काम) से उन्मत हुआ जीव (१) सर्वप्रथम विषयों, कामभोगों या स्त्रियों आदि का चिन्तन करता है; (२) फिर उन्हें देखने के लिए लालायित होता है, (३) न प्राप्त होने पर दीर्घ निःश्वास डालता है, (४) काम-ज्वर उत्पन्न हो जाता है, (५) दाहग्रस्त के समान पीडित हो जाता है, (६) खाने-पीने में अरुचि हो जाती है, (७) कभी-कभी मूर्छा (बेहोशी) आ जाती है, (८) उन्मत्त होकर बड़बड़ाने लगता है, (९) काम के आवेश में उसका विवेकज्ञान लुप्त हो जाता है और अन्त में (१०) कभी-कभी मोहावेशवश मृत्यु भी हो जाती है।
दोनों उन्मादों में सुखवेद्य-सुखमोच्य कौन ?—मोहजन्य उन्माद की अपेक्षा यक्षाविष्ट उन्माद का सुखपूर्वक वेदन और विमोचन हो जाता है; जबकि मोहजन्य-उन्माद दुःखपूर्वक वेद्य एवं मोच्य है। उसकी अपेक्षा दुःखपूर्वक वेदन एवं विमोचन इसलिए होता है कि मोहनीयकर्म अनन्त संसार-परिभ्रमण एवं परिवृद्धि का कारण है। संसार-परिभ्रमण रूप दुःख का वेदन कराना मोहनीय का स्वभाव है। यक्षावेश-उन्माद का सुखपूर्वक वेदन इसलिए होता है कि वह अधिक से अधिक एकभवाश्रयी होता है, जबकि मोहनीयजन्य-उन्माद कई भवों तक चलता है। इसलिए उसका छुड़ाना सरल नहीं है। वह बड़ी कठिनाई से छुड़ाया जा सकता है। विद्या, मंत्र, तन्त्र, इष्ट देव या अन्य देवों द्वारा भी उसका छुड़ाया जाना अशक्य-सा है। यक्षावेश सुखविमोचनतर है। क्योंकि यक्षाविष्ट पुरुष को खोड़ा-बेड़ी आदि बन्धन में डाल देने पर वह वश में हो जाता है; जबकि मिथ्यात्वमोहनीयजन्य उन्माद इस तरीके से कदापि मिटता नहीं। कहा भी है
सर्वज्ञ-मन्त्रवाद्यपि, यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः।
मिथ्या-मोहोन्मादः, स केन किल कथ्यतां तुल्यः ? ॥ सर्वज्ञ का मंत्रवादी महापुरुष भी मोहनीयजन्य उन्माद का निराकरण करने में (मिथ्यात्वरूपी मोहोन्माद को दूर करने) में समर्थ नहीं है। इसलिए बताइए कि मिथ्यात्वमोहनीयजन्य-उन्माद की किसके साथ तुलना की जा सकती है ! इसलिए दोनों उन्मादों में से यक्षावेश रूप उन्माद का सुखपूर्वक वेदन-विमोचन हो सकता है। स्वाभाविकवृष्टि और देवकृतवृष्टि का सहेतुक निरूपण
७. अत्थि णं भंते ! पजन्ने कालवासी वुट्ठिकायं पकरेति ? हंता, अत्थि।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६३५ २. (क) भगवती. हिन्दीविवेचन भा. ५, प. २२९०-७९
(ख) भगवती. अ. वृ., पत्र ६३५