Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवाँ शतक : उद्देशक- ६
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जहा रायप्पसेणइज्जे जाव' कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति, अन्नत्थ पुण वसहिं उवेंति, एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, अन्नत्थ पुण वसहिं उवेति । से तेणट्ठे णं जाव आवासे ।
सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरति ।
[६-२ प्र.] भगवन्! फिर किस कारण से चमरेन्द्र का आवास 'चमरचंच' आवास कहलाता है ?
[६-२ उ. ] गौतम ! जिस प्रकार यहाँ मनुष्यलोक में औपकारिक लयन (प्रासादादि के पीठ-तुल्य घर), उद्यान में बनाये हुए घर, नगर- प्रदेश - गृह ( नगर के निकटवर्ती बने हुए घर; अथवा नगर-निर्गम गृह—अर्थात् नगर से निकलने वाले द्वार के पास बने हुए घर), जिसमें पानी के फव्वारे लगे हों, ऐसे घर (धारावारिक लयन) होते हैं, वहाँ बहुत-से मनुष्य एवं स्त्रियाँ आदि बैठते हैं, सोते हैं, इत्यादि सब वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार, यावत्—कल्याणरूप फल और वृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए वहाँ विहरण (सैर) करते हैं, किन्तु ( वहाँ वे लोग स्थायी निवास नहीं करते,) उनका ( स्थायी) निवास अन्यत्र होता है । इसी प्रकार हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर का चमरचंच नामक आवास केवल क्रीडा और रति के लिए है, ( वह स्थान उसका स्थायी आवास नहीं है;) वह अन्यत्र (स्थायीरूप से) निवास करता है । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि चमरैन्द्र चमरचंच नामक आवास में निवास करके नहीं रहता ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतम - स्वामी विचरण करते हैं ।
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ५-६ ) में चमरेन्द्र के चमरचंच नामक आवास के अतिदेश पूर्वक नियत स्थान का, उसकी लम्बाई-चौड़ाई, परिधि, उसके सौन्दर्य आदि का समग्र वर्णन एवं उसमें चमरेन्द्र का स्थायी निवास न होने का दृष्टान्त पूर्वक प्रतिपादन किया गया है।
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कठिन शब्दार्थ — छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडिओ — ६५० करोड़, पणतीसं च सयसहस्साईंपैंतीस लाख, पन्नास च सहस्साई — पचास हजार योजन। चउरासीतिं जोयणसहस्साइं आयाम विक्खंभेणंचौरासी हजार योजन लम्बाई-चौड़ाई (आयाम - विष्कम्भ ) में | परिक्खेवेणं—परिक्षेप, परिधि । उड्डउच्चत्तेणंऊँचाई में । पासाय- पंतीओ— प्रासादपंक्तियाँ । वसहिं उवेति — स्थायी निवास के लिए आता है 1 उवगाऱिलेणा—औपकारिक गृह ( भवनों के नीचे बरामदा वगैरह घर ) । उज्जाणियलेणाइं—लोगों के उपकारार्थ उद्यानों में बने हुए घर अथवा नगर की निकटवर्ती धर्मशालादि के मकान । णिज्जाणियलेणाईनगर के निर्गम (बाहर निकलने) पर आराम के लिए बने हुए घर । धारवारियलेणाई जिनमें पानी के फव्वारे (धारावारिक) छूट रहे हों, ऐसे मकान । किड्डा-रति पत्तियं— क्रीड़ा (खेल - कूद) और रति ( भोगविलास) के लिए। आसयंति- -आश्रय लेते हैं, थोड़ा विश्राम लेते हैं अथवा थोड़ा सोते हैं । सयंति — लेटते हैं विशेष आश्रय
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१. 'जाव' पद से राजप्रश्नीय (पृ. १९६ - २०० में उक्त) पाठ समझना चाहिए - चिट्ठेति निसीयंति तुयट्टंति हसंति रमंति ललंति कीलंति किड्डुंति मोहयंति । पुरापोराणाणं सुचित्राणं सुपरिक्कंताण सुभाणं कडा कम्माणं ।"