Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवां शतक : उद्देशक-७
. ३४१ प्राणियों का मरण।(५) पण्डितमरण-सर्वविरत साधुवर्ग का मरण। आवीचिमरण के भेद-प्रभेद और स्वरूप
२४. आवीचियमरणे णं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते ?
गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा—दव्वावीचियमरणे खेत्तावीचियमरणे कालावीचियमरणे भवावीचियमरणे भावावीचियमरणे।
[२४ प्र.] भगवन् ! आवीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है ?
[२४ उ.] गौतम ! आवीचिकमरण पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—(१) द्रव्यावीचिकमरण, (२) क्षेत्रावीचिकमरण, (३) कालावीचिकमरण, (४) भवावीचिकमरण और (५) भावावीचिकमरण।
२५. दव्वावीचियमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ?
गोयमा ! चउब्विहे पत्नत्ते, तं जहा—नेरइयदव्वावीचियमरणे तिरिक्खजोणियदव्वावीचियमरणे मणुस्सदव्वावीचियमरणे देवादव्वावीचियमरणे।
[२५ प्र.] भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है ?
[२५ उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है यथा—(१) नैरयिक-द्रव्यावीचिकमरण, (२) तिर्यग्योनिक-द्रव्यावीचिकमरण, (३) मनुष्य-द्रव्यावीचिकमरण और (४) देव-द्रव्यावीचिमरण।
२६. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चई ‘नेरइयदव्वावीचियमरणे, नेरइयदव्वावीचियमरणे' ?
गोयमा! जं णं नेरइया नेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाइं नेरइयाउयत्ताए गहियाई बधाई पुट्ठाई, कंडाई पट्टवियाई निविट्ठाइं अभिनिवट्ठाई अभिसमन्नागयाइं भवंति ताई दव्वाइं आवीचि अणुसमयं निरंतर मरंतीति कट्ट, से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'नेरइयदव्वावीचियमरणे, नेरइयदव्वावीचियमरणे'।
[२६ प्र.] भगवन् ! नैरयिक-द्रव्यावीचिकमरण को नैरयिक-द्रव्यावीचिकमरण किसलिए कहते हैं ?
[२६ उ.] गौतम ! क्योंकि नारकद्रव्य (नारकजीव) रूप से वर्तमान नैरयिक ने जिन द्रव्यों को नारकायुष्य रूप में स्पर्श रूप से ग्रहण किया है, बन्धन रूप से बांधा है, प्रदेशरूप से प्रक्षिप्त कर पुष्ट किया है, अनुभाग रूप से विशिष्ट रसयुक्त किया है, स्थिति-सम्पादनरूप से स्थापित किया है, जीवप्रदेशों में निविष्ट किया है, अभिनिविष्ट (अत्यन्त गाढरूप से निविष्ट), किया है तथा जो द्रव्य अभिसमन्वागत (उदयावलिका में आ गए) हैं, उन द्रव्यों को (भोग कर) वे प्रतिसमय निरन्तर छोड़ते (मरते) रहते हैं। इस कारण से हे गौतम ! नैरयिकों के द्रव्यआवीचिमरण को नैरयिक द्रव्यावीचिकमरण कहते हैं।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२४
(ख) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२६१