Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वंदति नमंसति, वं० २ उत्तपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमति, उ० अ० सयमेव आभरण ल्ललंकारं० तं चेव, पउमावती पडिच्छइ जाव घडियव्वं सामी ! जाव नो पमादेयव्वं ति कट्ट, केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वं० २ जाव पडिगया।
[३०] तदनन्तर केशी राजा ने दूसरी बार उत्तरदिशा में (उनके लिए) सिंहासन रखवा कर उदायन राजा का पुनः श्वेत (चांदी के) और पीत (सोने के) कलशों से अभिषेक किया, इत्यादि शेष वर्णन (श. ९, उ. ३३ सू. ५७-६० में उक्त) जमाली के समान, यावत् वह (दीक्षाभिनिष्क्रमण के लिए) शिविका में बैठ गए। इसी प्रकार धायमाता (अम्बधात्री) के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ पद्मावती रानी हंसलक्षण (हंस के समान धवल या हंस के चित्र) वाले एक पट्टाम्बर को लेकर (शिविका में दक्षिणपार्श्व की ओर बैठी।) शेष वर्णन जमाली के वर्णनानुसार है, यावत् वह उदायन राजा शिविका से नीचे उतरा और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके समीप आया तथा भगवान् को तीन बार वन्दना-नमस्कार कर उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में गया। वहाँ उसने स्वयमेव आभूषण, माला, और अलंकार उतारे इत्यादि वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। उन (उतारे गए आभूषण, माला, अलंकार, केश आदि) को पद्मावती देवी (रानी) ने रख लिया। यावत् वह (उदायन मुनि से) इस प्रकार बोली-'स्वामिन् ! संयम में प्रयत्नशील रहें, यावत् प्रमाद न करें'–यों कह कर केशी राजा और पद्मावती रानी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और अपने स्थान को वापस चले गए।
३१. तए णं उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं०, सेसं जहा उसभदत्तस्स ( स० ९, उ० ३३, सु० १६) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
[३१] इसके पश्चात् उदायन राजा (मुनि-वेषी) ने स्वयं पंचमुष्टिक लोच किया। शेष वृत्तान्त (श. ९, उ. ३३, सू. १६ में कथित) ऋषभदत्त की वक्तव्यता के अनुसार यावत्-(दीक्षित होकर उदायन मुनि संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं) सर्वदुःखों से रहित हो गए; (यहाँ तक कहना चाहिए।)
विवेचन—प्रस्तुत ५ सूत्रों (२७ से ३१ सू. तक) में केशी राजा द्वारा उदायन नृप का निष्क्रमणाभिषेक, उदायन का शिविका से भगवान् की सेवा में गमन, दीक्षाग्रहण तथा तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए क्रमश: मोक्षगमन का प्राय: अतिदेशपूर्वक वर्णन है।
कठिन शब्दार्थ निक्खमणाभिसेयं निष्क्रमण—प्रव्रज्या के लिए गृहत्याग करके निकलने के निमित्त अभिषेक निष्क्रमणाभिषेक है। सोवणियाणं-स्वर्णनिर्मित कलशों से। कुत्तियावणाओकुत्रिकापण—त्रिभुवनवर्ती वस्तु की प्राप्ति के स्थानरूप दुकान से।पिय-विप्पयोग-दूसहा—जिसको प्रियवियोग दुःसह है। रयावेइ-रखवाया। सेयापीयएहिं—सफेद (चांदी के) और पीले (सोने के)कलशों से। पटसाडगं—पट-शाटक, रेशमी वस्त्र । घडियव्वं-तप संयम में चेष्टा (प्रयत्न) करें।'
१. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२४१
(ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका) भा. ११, पृ. ५०