Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
पहले यह कहा गया था कि भाषा जीव के द्वारा व्यापृत होती है, इसलिए ज्ञान के समान जीवरूप होनी चाहिए, किन्तु यह कथन दोषयुक्त है, क्योंकि जीव का व्यापार जीव से अत्यन्त भिन्न स्वरूप वाले दात्र (हंसिये) आदि में भी देखा जाता है ।
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भाषा रूपी है या अरूपी ? प्रश्नोत्तर का आशय – कान के आभूषण के समान भाषा द्वारा श्रोत्रेन्द्रिय का उपकार और उपघात है, इसलिए क्या वह श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने से रूपी है ? अथवा जैसे धर्मास्तिकाय आदि चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते, इस कारण अरूपी कहलाते हैं, इसी प्रकार भाषा भी चक्षुरिन्द्रिय द्वारा ग्राह्य न होने से क्या अरूपी नहीं कही जा सकती ? ; यह प्रश्न का आशय है। इसके उत्तर में कहा गया है कि भाषा रूपी है। भाषा को अरूपी सिद्ध करने के लिए जो चक्षु-अग्राह्यत्व रूप हेतु दिया गया है, वह दोषयुक्त है, क्योंकि चक्षु द्वारा अग्राह्य होने से ही कोई अरूपी नहीं होता । जैसे वायु, परमाणु, और पिशाच आदि रूपी होते हुए भी चक्षु-ग्राह्य नहीं होते ।
भाषा सचित्त क्यों नहीं ? — जीवित प्राणी के शरीर की तरह भाषा अनात्मरूपा होते हुए भी सचित्त (सजीव ) क्यों नहीं कही जा सकती ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भाषा सचित्त नहीं है, वह जीव के द्वारा निसृष्ट कफ, लींट आदि के समान पुद्गलसमूह रूप होने से अचित्त है।
भाषा जीव क्यों नहीं ? – जो जीव होता है, वह उच्छ्वास आदि प्राणों को धारण करता है, किन्तु भाषा में उच्छवासादि प्राणों का अभाव है, इसलिए वह जीवरूप नहीं है, अजीवरूप है।
भाषा जीवों के होती है, अजीवों के नहीं: प्रश्नोत्तर का आशय — कुछ लोग वेदों (ऋग, यजुः, साम एवं अथर्व, इन चार वेदों) की भाषा को अपौरूषेयी (पुरुषप्रयत्न - रहित ) मानते हैं, उनकी मान्यता को ध्यान में रख कर यह प्रश्न किया गया है कि " भाषा जीवों के होती है या अजीवों के भी होती है ?" इसके उत्तर में कहा गया है कि भाषा जीवों के ही होती है; क्योंकि वर्णों का समूह 'भाषा' कहलाता है और वर्ण, जीव के कण्ठ, तालु आदि के व्यापार से उत्पन्न होते हैं । कण्ठ, तालु आदि का व्यापार जीव में ही पाया जाता है। इसलिए भाषा जीवप्रयत्नकृत होने से जीव के ही होती है। यद्यपि ढोल, मृदंग आदि अजीव वाद्यों से या पत्थर, लकड़ी आदि अजीव पदार्थों से भी शब्द उत्पन्न होता है, किन्तु वह भाषा रूप नहीं होता । जीव के भाषा - पर्याप्ति से जन्य शब्द को ही भाषा रूप माना गया है।
बोलने से पूर्व और पश्चात् भाषा क्यों नहीं - जिस प्रकार पिण्ड अवस्था में रही हुई मिट्टी घड़ा नहीं कहलाती, इसी प्रकार बोलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाती है । जिस प्रकार घड़ा फूट जाने के बाद ठीकरे की अवस्था में घड़ा नहीं कहलाता, उसी प्रकार भाषा का समय व्यतीत हो जाने पर (यानी बोलने के बाद) भाषा नहीं कहलाती। जिस प्रकार घट अवस्था में विद्यमान ही घट कहलाता है, उसी प्रकार बोली जा रही — मुँह से निकलती हुई अवस्था में ही भाषा कहलाती है ।
बोलने से पूर्व और पश्चात् भाषा का भेदन क्यों नहीं— बोलने से पूर्व भाषा का भेदन कैसे होगा ? क्योंकि जब शब्द- द्रव्य नहीं निकले तो भेदन किनका होगा ? तथा भाषा का समय व्यतीत हो जाने पर भाषा का
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२१-६२२