Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गया है।
कठिन शब्दार्थ— उत्तर-पुरस्थिमे—उत्तरपूर्व-ईशानकोण में । पच्चुवेक्खमाणे-भलीभांति (सर्वत्र) निरीक्षण करता हुआ। नियए भाइणेज्जे-अपना सगा भानजा। बद्धमउडाणं-मुकुटबद्ध । विदिण्णछत्तचामर-वालवीयणाणं-जिन्हें छत्र, चामर और बालव्यजन (छोटे पंखे,) राजचिह्नस्वरूप दिये गये थे।आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे-आधिपत्य करता एवं राज्य का अग्रेसरत्व-परिपालन करता हुआ।
सिन्धुसौवीर जनपद, वीतिभयनगर : विशेषार्थ—सिन्धुनदी के निकटवर्ती सौवीर-जनपद-विशेष सिन्धुसौवीर जनपद (देश) कहलाते हैं। वीतिभय-जिसमें ईति और भीतिरूप भय न हो उसे वीतिभय' कहते हैं। ईतियाँ छह हैं—(१) अतिवृष्टि, (२) अनावृष्टि, (३-४-५) चूहे, टिड्डीदल, एवं पतंगे आदि का उपद्रव तथा (६) स्वचक्र-परचक्र का भय (अपने अधीनस्थ राजा, अधिकारी आदि-स्वचक्र तथा शत्रु का भय)। उदायन राजा की राजधानी वीतिभयनगर था। वीतिभय' को कुछ लोग 'विदर्भ' कहते हैं।' पौषधरत उदायननृप का भगवद्वन्दनादि-अध्यवसाय
१७. तए णं से उदायणे राया अन्नदा कदायि जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति, जहा संखे ( स० १२ उ० १ सु० १२) जाव विरहति।
[१७] एक दिन वह उदायन राजा जहाँ (अपनी) पौषधशाला थी, वहाँ आए और (बारहवें-शतक के प्रथम उद्देशक के १२वें सूत्र में वर्णित) शंख श्रमणोपासक के समान पौषध करके यावत् विचरने लगे।
१८. तए णं तस्स उदायणस्स रण्णो पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव स मुप्पज्जित्था—“धन्ना णं ते गामाऽऽगर-नगर-खेड-कब्बड-मडंबदोणमुह-पट्टणा-ऽऽसम-संवाह-सन्निवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरति, धन्ना णं ते राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभितयो जे णं समणं भगवं महावीरे वंदंति नमसंति जाव पज्जुवासंति। जति णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुरि चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरेजा, इहेव वीतिभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उजाणे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं जाव विहरेजा तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेजा, नमसेजा जाव पज्जुवासेज्जा।" .
[१८] तत्पश्चात् पूर्वरात्रि व्यतीत हो जाने पर पिछली रात्रि के समय (रात्रि के पिछले पहर) में धर्मजागरिकापूर्वक जागरण करते हुए उदायन राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय (संकल्प) उत्पन्न हुआ—
१. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२३२
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६२१ २. (क) वही, पत्र ६२०-६२१ (ख) अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषका शलभाः शुकाः।
स्वचक्रं परचक्रं च षडेते ईतयः स्मृता॥ (ग) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २२३३