Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विषय में भी छह (तीन संख्येय-विस्तृत विमान-सम्बन्धी और तीन असंख्येय-विस्तृत विमान-सम्बन्धी) आलापक कहने चाहिए।
१६. सणंकुमारे एवं चेव, नवरं इत्थिवेदगा उववजंतेसु पन्नत्तेसु य न भण्णंति, असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णंति। सेस तं चेव।
[१६] सनत्कुमार देवलोक के विषय में इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि सनत्कुमार देवों में स्त्रीवेदक उत्पन्न नहीं होते, सत्ताविषयक गमकों में भी स्त्रीवेदी नहीं कहे जाते । यहाँ तीनों आलापकों में असंज्ञी पाठ नहीं कहना चाहिए। शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए।
१७. एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु, लेस्सासु य। सेसं तं चेव।
[१७] इसी प्रकार (माहेन्द्र देवलोक से लेकर) यावत् सहस्रार देवलोक तक कहना चाहिए। यहाँ अन्तर विमानों की संख्या और लेश्या के विषय में है। शेष सब कथन पूर्वोक्तवत् है।
१८. आणय-पाणएसु णं भंते ! कप्पेसु केवइया विमाणावाससया पन्नत्ता ? [१८ प्र.] भगवन् ! आनत और प्राणत देक्लोकों में कितने सौ विमानावास कहे गए हैं ? [१८ उ.] गौतम ! (आनत-प्राणतकल्पों में) चार सौ विमानावास कहे गए हैं। १९. ते णं भंते ! किं संखेज० पुच्छा।
गोयमा ! संखेजवित्थडा वि, असंखेजवित्थडा वि। एवं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे।असंखेजवित्थडेसु उववजंतेसुयचयंतेसुयएवं चेव संखेजा भाणियव्वा।पन्नत्तेसु असंखेजा, नवरं नाइंदियोवउत्ता, अणंत्तरोववनगा, अणंतरोगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपजत्तगा य, एएसिं जहनेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पनत्ता। सेसा असंखेज्जा भाणियव्वा।
[१९ प्र.] भगवन् ! वे (विमानावास) संख्यात योजन विस्तृत हैं या असंख्यात योजन विस्तृत ?
[१९ उ.] गौतम ! वे संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी हैं। संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों के विषय में सहस्रार देवलोक के समान तीन आलापक कहने चाहिए। असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों के उत्पाद और च्यवन के विषय में 'संख्यात' कहना चाहिए एवं 'सत्ता' में असंख्यात कहना चाहिए। इतना विशेष है कि नोइन्द्रियोपयुक्त (मन के उपयोग वाले) अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तर-पर्याप्तक, ये पांच जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कहे गए हैं। शेष (इनके अतिरिक्त अन्य सब) असंख्यात कहने चाहिए।
२०. आरणऽच्चुएसु एवं चेव जहा आणय-पाणतेसु नाणत्तं विमाणेसु। __ [२०] जिस प्रकार आनत और प्राणत के विषय में कहा, उसी प्रकार आरण और अच्युत कल्प के विषय में भी कहना चाहिए। विमानों की संख्या में विभिन्नता है।