Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवां शतक : उद्देशक-२
२६९ २१. एवं गेवेजगा वि। [२१] इसी प्रकार नो ग्रैवेयक देवलोकों के विषय में भी कहना चाहिए। २२. कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता। [२२ प्र.] भगवन् ! अनुत्तर विमान कितने कहे गये हैं ? [२२ उ.] गौतम ! अनुत्तर विमान पांच कहे गये हैं। २३. ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? गोयमा ! संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य। [२३ प्र.] भगवन् ! वे (अनुत्तरविमान) संख्यात योजन विस्तृत हैं या असंख्यात योजन विस्तृत हैं ? [२३ उ.] गौतम ! (उनमें से एक) संख्यात योजन विस्तृत हैं और (चार) असंख्यात योजन विस्तृत हैं।
२४. पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोवातिया देवा उववजंति ? केवतिया सुक्कलेस्सा उववजंति ?० पुच्छा तहेव।
- गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववातिया देवा उववजति। एवं जहा गेवेजविमाणेसु संखेजवित्थडेसु, नवरं कण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया तिसु अन्नाणेसु एए न उववजंति, न चयंति, न वि पन्नत्तएसु भाणियव्वा, अचरिमा वि खोडिजति जाव संखेजा चरिमा पन्नत्ता। सेसं तं चेव। असंखेजवित्थडेसु ति एते न भण्णंति, नवरं अचरिमा अत्थि। सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेजवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता।
[२४ प्र.] भगवन् ! पांच अनुत्तरविमानों में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमान में एक समय में कितने अनुत्तरौपपातिक देव उत्पन्न होते हैं, (उनमें से) कितने शुक्ललेश्यी उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न।
[२४ उ.] गौतम ! पांच अनुत्तरविमानों में से संख्यात योजन विस्तृत ('सर्वार्थसिद्ध' नामक) अनुत्तरविमान में एक समय में, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अनुत्तरौपपातिक देव उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तृत ग्रैवेयक विमानों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि कृष्णपाक्षिक अभव्यसिद्धिक तथा तीन अज्ञान वाले जीव, यहाँ उत्पन्न नहीं होते, न ही च्यवते हैं और सत्ता में भी इनका कथन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार (तीनों आलापकों में) 'अचरम' का निषेध करना चाहिए, यावत् संख्यात चरम कहे गए हैं। शेष समस्त वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। असंख्यात योजन विस्तार वाले चार अनुत्तरविमानों में ये (पूर्वोक्त कृष्णपाक्षिक आदि जीव पूर्वोक्त तीनों आलापकों में) नहीं कहे गए हैं। विशेषता इतनी ही है कि (इन असंख्यात योजन वाले अनुत्तर विमानों में) अचरम जीव भी होते हैं । जिस प्रकार असंख्यात योजन विस्तृत ग्रैवेयक विमानों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी अवशिष्ट सब कथन यावत् असंख्यात अचरम जीव कहे गये हैं, यहाँ तक करना चाहिए।