Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
२९६
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अणंतेहिं। [४५-५ प्र.] (भगवन् ! वे) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [४५-५ उ.] (गौतम ! वे) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। [६] केवतिएहिं अद्धासमयेहिं० ? सिय पुढे, सिय नो पुढे जाव अणंतेहिं। [४५-६ प्र.] (भगवन् ! वे ) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पृष्ट होते हैं ?
[४५-६ उ.] (गौतम ! वे ) कदाचित् स्पृष्ट होते हैं और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होते, यावत् अनन्त समयों से स्पृष्ट होते हैं।
४३. [१] असंखेजा भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मऽस्थि० ?
जहन्नपदे तेणेव असंखेज्जएणं दुगणेणं दुरूवाहिएणं, उक्को० तेणेव असंखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं।
[४६-१ प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ?
[४६-१ उ.] गौतम ! जघन्य पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को दुगुने करके उनमें दो रूप अधिक जोड़ दें, उतने (धर्मास्तिकायिक) प्रदेशों से (पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश) स्पृष्ट होते हैं और उत्कृष्ट पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को पांच गुणे करके उनमें दो रूप अधिक जोड़ दें, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं।
[२] सेसं जहा संखेजाणं जाव नियम अणंतेहिं।
[४६-२ प्र.] शेष सभी वर्णन संख्यात प्रदेशों के समान जानना चाहिए, यावत् नियमतः अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए।)
४७. अणंता भंते ! पोग्गलऽस्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मऽस्थिकाय ? एवं जहा असंखेजा तहा अणंता वि निरवसेसं। [४७ प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ?
[४७ उ.] (गौतम! ) जिस प्रकार असंख्यात प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार अनन्त प्रदेशों के विषय में भी समस्त कथन करना चाहिए।
४८. [१] एगे भंते ! अद्धासमए केवतिएहिं धम्मऽत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? सत्तहिं। [४८-१ प्र.] भगवन् ! अद्धाकाल का एक समय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ?