Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवां शतक : उद्देशक-२ एक लेश्यावाले का दूसरी लेश्यावाले देवों में उत्पाद प्ररूपण
२८. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नील० जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु देवेसु उववजति ? हंता, गोयमा !० एवं जहेव नेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियव्वं।
[२८ प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी नीललेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी (से परिवर्तित) होकर जीव कृष्णलेश्यी देवों में उत्पन्न हो जाता है ?
[२८] हाँ, गौतम ! जिस प्रकार (तेरहवें शतक के) प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए।
२१. नीललेसाए वि जहेव नेरइयाणं जहा नीललेस्साए। __[२९ ] नीललेश्यी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिए, जिस प्रकार नीललेश्यी नैरयिकों के विषय में कहा है।
३०. एवं जाव पम्हलेस्सेसु। . [३०] (जिस प्रकार नीललेश्यी देवों के विषय में कहा है), उसी प्रकार यावत् (कापोत, तेजस एवं) पद्मलेश्यी देवों के विषय में कहना चाहिए।
३१. सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, नवरं लेसाठाणेसु विसुज्झमाणेसु विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परिणमति सुक्कलेसं परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववजंति, से तेणद्वेणं जाव उववज्जति। सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥तेरसमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो॥ [३१] शुक्ललेश्यी देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि लेश्यास्थान विशुद्ध होते-होते शुक्ललेश्या में परिणत हो जाते हैं। शुक्ललेश्या में परिणत होने के पश्चात् ही (वे जीव) शुक्ललेश्यी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! उत्पन्न होते हैं ' ऐसा कहा गया है।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन- देवों में लेश्या-परिवर्तन-नैरयिकों की तरह देवों में भी अप्रशस्त से प्रशस्त-प्रशस्ततर और प्रशस्त-प्रशस्ततर से अप्रशस्त-अप्रशस्ततर लेश्या के रूप में परिवर्तन होता है। यह कथन भावलेश्या के विषय में समझना चाहिए, जो मूल में स्पष्ट किया गया है। ॥ तेरहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
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