Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवाँ शतक : उद्देशक-४
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पश्चिम के मध्य की 'नैऋत्यकोण', पश्चिम और उत्तर के मध्य की 'वायव्यकोण' और उत्तर एवं पूर्व के बीच की 'ईशानकोण' विदिशा कहलाती है । रुचकप्रदेशों की सीध में ऊपर की ओर ऊर्ध्वदिशा और नीचे की ओर अधोदिशा है ।
इन दसों दिशाओं के गुणनिष्पन्न नाम ये हैं – (१) ऐन्द्री, (२) आग्नेयी, (३) याम्या, (४) नैऋती, (५) वारुणी, (६) वायव्या (७) सौम्या, (८) ऐशानी, (९) विमला और (१०) तमा ।
कठिन शब्दार्थ — आयाममज्झे — लम्बाई का मध्यभाग । उवासंतरस्स — अवकाशान्तर, आकशखण्ड का, साइरेगं — सातिरेक, कुछ अधिक । ओगाहित्ता — उल्लंघन — अवगाहन करके । हेट्ठि नीचे | पत्थटेप्रस्तट—पाथड़ा । उवरिम - हेट्ठिलेसु— ऊपर और नीचे के । खुड्डयपयरेसु— क्षुद्र (छोटे लघुतम ) प्रतरों में । प्रवहंति—प्रवहित — प्रवर्तित होती है।
ऐन्द्री आदि दस दिशा - विदिशा का स्वरूपनिरूपण : छठा-दिशा - विदिशा-प्रवहादिद्वार
१६. इंदा ण भंते ! दिसा किमादीया किंपवहा कतिपदेसादीया कतिपदेसुत्तरा कतिपदेसिया किंपज्जवसिया किंसंठिया पन्नत्ता ?
गोयमा ! इंदा णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा दुपदेसादीया दुपदेसुत्तरा, लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च अणंतपदेसिया, लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया, लोगं पडुच्च मुरजसंठिया, अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिता पन्नत्ता ।
[१६ प्र.] भगवन् ! इन्द्रा (ऐन्द्री - पूर्व) दिशा में आदि (प्रारम्भ ) में क्या है ?, वह कहाँ से निकली है? उसके आदि (प्रारम्भ) में कितने प्रदेश हैं ? उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती है । वह कितने प्रदेश वाली है ? उसका पर्यवसान (अन्त) कहाँ होता ! और उसका संस्थान कैसा है ?
[१६ उ. ] गौतम । ऐन्द्री दिशा के प्रारम्भ में रुचक प्रदेश है । वह रुचक प्रदेशों से निकली है। उसके प्रारम्भ में दो प्रदेश होते हैं। आगे दो-दो प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। वह लोक की अपेक्षा से असंख्यात प्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा से अनन्तप्रदेश वाली है। लोक- आश्रयी वह सादि- सान्त (आदि और अन्त १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०७ २. वही, भा. ५ पृ. २१८४
(ख) भगवती . ( हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१८४
देखो आकृति नं. १
३.
रुचक प्रदेश
०
देखो आकृति नं. २