Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
आकाशास्तिकाय — जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने वाले । यथा— एक दीपक के प्रकाश से परिपूर्ण स्थान में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है।
२८६
जीवास्तिकाय — जिसमें उपयोगरूप गुण हो।
पुद्गलास्तिकाय — जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों तथा जो मिलने - बिछुड़ने के स्वाभाव वाला
हो ।
प्रत्येक अस्तिकाय के पांच-पांच भेद - धर्मास्तिकाय के पांच भेद - द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा लोकपरिमाण (समग्र लोकव्याप्त), लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशी है। काल की अपेक्षा त्रिकालस्थायी है तथा ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय अव्यय और अवस्थित है । भाव की अपेक्षा वर्ण- गन्ध-रसस्पर्श-रहित अरूपी है । गुण की अपेक्षा गति गुण वाला ।
अधर्मास्तिकाय के पांच भेद — धर्मास्तिकाय के समान हैं। केवल गुण की अपेक्षा यह स्थितिगुण वाला है । आकाशास्तिकाय के पांच भेद — इसके तीन भेद तो धर्मास्तिकाय के समान हैं किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा लोकालोक व्यापी है । अनन्तप्रदेशी है । लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है । गुण की अपेक्षा अवगाहनागुण वाला है। जीवों और पुद्गलों को अवकाश देना ही इसका गुण है। उदाहरणार्थ- एक दीपक के प्रकाश से भरे हुए मकान में यदि सौ यावत् हजार दीपक भी रखे जाएँ तो उनका प्रकाश भी उसी मकान में समा जाता है, बाहर नहीं निकलता। इसी प्रकार पुद्गलों के परिणाम की विचित्रता होने से एक, दो संख्यात, असंख्यात, यावत् अनन्त परमाणुओं से पूर्ण एक आकाशप्रदेश में एक से लेकर अनन्त परमाणु तक समा सकते हैं।
पुद्गल - परिणामों की विचित्रता को स्पष्ट करने हेतु वृत्तिकार ने एक और दृष्टान्त प्रस्तुत किया है-औषधि-विशेष से परिणमित एक तोले भर पारद की गोली, सौ तोले सोने की गोलियों को अपने में समा लेती है। पारदरूप में परिणत उस गोली पर औषधि विशेष का प्रयोग करने पर वह तोले भर की पारे की गोली तथा सौ तोले भर सोना दोनों पृथक्-पृथक् हो जाते हैं। यह सब पुद्गल - परिणामों की विचित्रता है । इसी प्रकार एक परमाणु से पूर्ण एक आकाशप्रदेश में अनन्त परमाणु भी समा सकते हैं। जीवास्तिकाय के पाँच भेद द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त द्रव्यरूप है, क्योंकि जीव पृथक्-पृथक् द्रव्यरूप अनन्त हैं । क्षेत्र की अपेक्षा लोकपरिमाण है । एक जीव की अपेक्षा जीव असंख्यातप्रदेशी है और सभी जीवों के प्रदेश अनन्त हैं । काल की अपेक्षा जीव आदि-अन्त रहित है (ध्रुव, नित्य एवं शाश्वत है) । भाव की अपेक्षा वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श-रहित है, अरूपी है तथा चेतना गुण वाला है । गुण की अपेक्षा उपयोग गुण रूप है। पुद्गलास्तिकाय के पांच भेद - द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल अनन्त द्रव्यरूप है । क्षेत्र की अपेक्षा लोक में ही है और परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी तक है। काल की अपेक्षा पुद्गल भी आदि - अन्तरहित है ( निश्चयदृष्टि से वह भी ध्रुव, शाश्वत और नित्य है ) । भाव की अपेक्षा वंर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श सहित है, यह रूपी और जड़ है। गुण की अपेक्षा 'ग्रहण' गुण वाला है। अर्थात्औदारिक शरीर आदि रूप से ग्रहण किया जाना अथवा इन्द्रियों से ग्रहण होना (इन्द्रियों का विषय होना),
१. तत्त्वार्थसूत्र. (पं. सुखलालजी) अ. ५, पृ. सू. १ से ६