Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवाँ शतक : उद्देशक-४
क्रिया, आश्रव, वेदना, ऋद्धि और द्युति आदि विषयों में एक दूसरे से तरतमता का निरूपण किया गया है।
कठिन शब्दार्थ - अणुत्तरा — प्रधान । महातिमहालया — महातिमहान् — बहुत बड़े। पंच णरगापांच नारकावास हैं— काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान। महत्तरा (महंततरा ) दीर्घता (लम्बाई) की अपेक्षा (शेष ६ नारकों से) बड़े । महावित्थिण्णतरा (महीविच्छिण्णतरा ) चौड़ाई (विष्कम्भ ) की अपेक्षा अत्यन्त विस्तृत । महोवासतरा – (स्थान की दृष्टि से) महान् अवकाश वाले। महापतिरिक्कतरा(जीवों के अवस्थान की दृष्टि से ) अत्यन्त रिक्त हैं । महापवेसणतरा – महाप्रवेश वाले अर्थात्- दूसरी गति से आकर जिनमें बहुत-से-जीव प्रवेश करते हों, ऐसे । आइण्णतरा – अत्यन्त आकीर्ण । आउलतरा — व्याकुलता (व्यापकता) से युक्त । अणोमाणतरा— अल्पपरिमाण वाले नहीं है— विशाल परिमाण वाले हैं अथवा पाठान्तर अणोयणतरा—अनोदनतर हैं, अर्थात् नारकों की बहुसंख्यकता न होने से जहाँ एक दूसरे से नोदन-ठेलमठेल या धक्कामुक्की नहीं होती। महाकम्मतरा – महाकर्म वाले अर्थात्-आयुष्य, वेदनीय आदि कर्मों की प्रचुरता वाले। महाकिरियतरा — कायिकी आदि महाक्रिया वाले । महासवतरा — महान् अशुभ आश्रव वाले । महावेयणतरा— महावेदना वाले । अल्पकम्मतरा – अल्पकर्म वाले । अप्पिड्डियतरा - अल्पऋद्धि वाले । अप्पज्जुइयतरा— अल्पद्युति वाले । नेरइएहिंतो – नारकों से । महाड्डियतरा – महान् ऋद्धि वाले । महज्जुइयतरा — महाद्युति वाले ।
सात पृथ्वी के नैरयिकों की एकेन्द्रिय जीव स्पर्शानुभवप्ररूपणा : द्वितीय स्पर्शद्वार
६. रयणप्पभपुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं पुढविफासं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिट्टं जाव अमणाणं ।
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[६ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा के नैरयिक ( वहाँ की) पृथ्वी के स्पर्श का कैसा अनुभव करते रहते हैं ? [६ उ. ] गौतम ! (वे वहाँ की पृथ्वी के) अनिष्ट यावत् मन के प्रतिकूल स्पर्श का अनुभव करते रहते हैं । ७. एवं जाव अहेसत्तमपुढविनेरतिया ।
[७] इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों द्वारा पृथ्वीकाय के (उत्तरोत्तर, अनिष्टतर, अनिष्टत यावत् मनःप्रतिकूलतर, प्रतिकूलतम) स्पर्शानुभव के विषय में कहना चाहिए ।
८. एवं आउफासं।
[८] इसी प्रकार (रत्नप्रभा से लेकर अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिक) ( अनिष्ट यावत् मनः प्रतिकूल) • अप्कायिक के स्पर्श का ( अनुभव करते हुए रहते हैं ।)
९. एवं जाव वणस्सइफासं ।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त), पृ. ६२६-६२७
२.
(क) भगवती. अ. वृत्ति
(ख) भगवती ( हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २१७७-७८