Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
२७०
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन—वैमानिक देवलोकों में विमानावास-संख्या, विस्तार तथा उत्पाद आदि-प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. १२ से २४ तक) में सौधर्मादि कल्प, ग्रैवेयक एवं अनुत्तर देवों के विमानावासों की संख्या, उनका विस्तार, उनमें उत्पादादि विषयक प्रश्नोत्तर अंकित हैं।
सौधर्म और ईशान कल्प में विशेषता—इन दोनों देवलोक से तीर्थंकर तथा कई अन्य भी च्यवते हैं, वे अवधिज्ञान-अवधिदर्शन-युक्त होते हैं, इसलिए उद्वर्तन (च्यवन) में अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी भी कहने चाहिए।
भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों से वैमानिक देवों में यह विशेषता है कि असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों से भी अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी तो संख्यात ही च्यवते हैं, क्योंकि अवधिज्ञानी-दर्शन युक्त च्यवने वाली वैसी आत्माएँ (तीर्थंकर एवं कुछ अन्य के सिवाय) सदैव नहीं होती।
सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी नहीं—सौधर्म और ईशान देवलोक तक ही स्त्रीवेदी देवियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके आगे सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते। जब इनका उत्पाद ही वहाँ नहीं होता, तब सत्ता में भी उनका अभाव ही कहना चाहिए। सनत्कुमारादि में जो देवियाँ आती हैं, वे नीचे के देवलोक से आती हैं।
सनत्कुमारादि कल्पों में संज्ञी की ही उत्पत्ति आदि–इनमें संज्ञी जीव ही उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी नहीं। असंज्ञी में उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक के देवों की होती है। जब ये यहाँ से च्यवते हैं, तब भी संज्ञी जीवों में ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन देवलोकों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता, इन तीन आलापकों में असंज्ञी का कथन नहीं करना चाहिए।
सहस्रारपर्यन्त असंख्यात पद की घटना—माहेन्द्र कल्प से लेकर सहस्रार तक के कल्पों में असंख्यात तिर्यञ्चयोनिक जीवों का उत्पाद होने से असंख्यात योजन विस्तृत इन विमानावासों के तीनों आलापकों (उत्पाद, उद्वर्त्तन और सत्ता) में 'असंख्यात' पद घटित हो जाता है।'
इनके विमानावासों तथा लेश्याओं में अन्तर–सौधर्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान तक के विमानावासों की संख्या इस प्रकार है-सौधर्मकल्प में ३२ लाख, ईशानकल्प में २८ लाख, सनत्कुगारकल्प में १२ लाख, माहेन्द्रकल्प में ८ लाख, ब्रह्मलोक में ४ लाख, लान्तककल्प में ५० हजार, महाशुक्र में ४० हजार
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २१६७ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३
(ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १०, पृ. ५४२-५४३ ३. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६०३
(ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १०, पृ. ५४४