Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारहवाँ शतक : उद्देशक-१
११७ वयासी—एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे उवक्खडाविते, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणा जाव पडिजागरमाणा विहरामो।
[१६] तब वह पुष्कली श्रमणोपासक, जिस पौषधशाला में शंख श्रमणोपासक था, वहाँ उसके पास आया और उसने गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। फिर शंख श्रमणोपासक को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला—'देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करा लिया है। अतः देवानुप्रिय ! अपन चलें और वह विपुल अशनादि आहार एक दूसरे को देते और उपभोगादि करते हुए पौषध करके रहें।
१७. तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलिं समणोवासगं एवं वयासी—'णो खलु कप्पति देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणस्स जाव पडिजागरमाणस्स विहरित्तए। कप्पति मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए। तं छंदेणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरह।'
[१७] यह सुन कर शंख श्रमणोपासक ने पुष्कली श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा—'देवानुप्रिय ! मेरे लिए (अब) उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का उपभोग आदि करते हुए पौषध करना कल्पनीय (योग्य) नहीं है। मेरे लिए पौषधशाला में पौषध (निराहार पौषध) अंगीकार करके यावत् धर्मजागरणा करते हुए रहना कल्पनीय (उचित) है। अतः हे देवानुप्रिय ! तुम सब अपनी इच्छानुसार उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार का उपभोग आदि करते हुए यावत् पौषध का अनुपालन करो।' _ विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (१६-१७) में निरूपण है कि पुष्कली श्रमणोपासक द्वारा शंख श्रावक को आहार करके पौषध करने हेतु चलने का आमंत्रण देने पर शंख ने अपने लिए निराहार पौषधपूर्वक धर्मजागरणा करने के औचित्य का प्रतिपादन करके पुष्कली आदि को स्वेच्छानुसार आहार करके पौषध करने की सम्मति दी। ___छंदेणं-स्वेच्छानुसार ।गमणागमणाए पडिक्कमति—ईर्यापथिकी क्रिया (मार्ग में चलने से कदाचित् होने वाली जीवविराधना) का प्रतिक्रमण करता है। पुष्कलीकथित वृत्तान्त सुनकर श्रावकों द्वारा खाते-पीते पौषधानुपालन
१८. तए णं से पोक्खली समणोवासगे संखस्स समाणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओ पडिनिक्खमति, पडि० २ सावत्थिं नगरिं मझमझेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छति, ते. उ० २ ते समणोवासए एवं वयासी—एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरति। तं छंदेणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव विहरह। संखे णं समणोवासए नो हव्वमागच्छति।
१. (क) भगवतीसूत्र भा. ४ (हिन्दी विवेचन)
(ख) भगवती. अ. वृत्ति. पत्र ५५५