Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारहवाँ शतक : उद्देशक-४
१६१ अणंता। [२५-२ प्र.] भगवन् ! (समुच्चय) नैरयिक जीवों के भविष्यत्कालीन पुद्गलपरिवर्त कितने होंगे ? [२५-२ उ.] गौतम ! (वे भी) अनन्त होंगे। २६. एवं जाव वेमाणियाणं।
[२३] इसी प्रकार (समुच्चय असुरकुमारों से लेकर समुच्चय) वैमानिकों तक (के अतीतकालीन एवं भविष्यत्कालीन पुद्गलपरिवर्त) के विषय में (कथन करना चाहिए।) . २७. एवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्टा वि। एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा वेमाणियाणं। एवं एए पोहत्तिया सत्त चउवीसतिदंडगा।
[२७] इसी प्रकार (समुच्चय नैरयिकों से ले कर समुच्चय वैमानिकों तक के) वैक्रियपुद्गलपरिवर्त के विषय में कहना चाहिए। इसी प्रकार (तैजस-पुद्गलपरिवर्त से लेकर) यावत् आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्त्त तक की वक्तव्यता कहनी चाहिए।
इस प्रकार पृथक्-पृथक् सातों पुद्गलपरिवर्तों के विषय में सात आलापक तथा समुच्चय रूप से चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के विषय में चौवीस आलापक कहने चाहिए।
विवेचन—पुद्गलपरिवर्त के सम्बन्ध में प्ररूपणा–प्रस्तुत १० सूत्रों (सू. १८ से २७ तक) में जीवों के सप्तविधपुद्गल परिवर्त के समबन्ध में चर्चा की गई है।
तीन पहलुओं से पुद्गलपरिवर्त्त की चर्चा–प्रस्तुत में तीन पहलुओं से पुद्गलपरिवर्तसम्बन्धी प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है—(१) प्रत्येक जीव की दृष्टि से, प्रत्येक नैरयिक आदि से वैमानिक जीव तक की दृष्टि से और समुच्चय नैरयिकों से वैमानिकों तक की दृष्टि से, (२) अतीतकालीन एवं अनागतकालीन, (३) औदारिकपुद्गलपरिवर्त से लेकर आनप्राण-पुद्गलपरिवर्त तक। ___अतीत पुद्गलपरिवर्त्त अनन्त कैसे ?---प्रत्येक जीव या प्रत्येक नैरयिकादि जीव के अतीतकालसम्बन्धी औदारिक आदि पुद्गलपरिवर्त्त अनन्त हैं, क्योंकि अतीतकाल अनादि है और जीव भी अनादि है तथा भिन्न-भिन्न पुद्गलों को ग्रहण करने का उनका स्वभाव भी अनादि है।
अनागत पुद्गलपरिवर्त्त-भविष्यत्कालिक पुद्गलपरिवर्त्त दूरभव्य या अभव्य जीव के तो होते ही रहेंगे, किन्तु जो जीव नरकादि गति से निकल कर मनुष्य भव पा कर सिद्धि प्राप्त कर लेगा, अथवा जो संख्यात या असंख्यात भवों में सिद्धि को प्राप्त करेगा, उसके पुद्गलपरिवर्त्त नहीं होगा। जिसका संसारपरिभ्रमण अधिक होगा, वह एक या अनेक पुद्गलपरिवर्त करेगा, परन्तु वह एक पुद्गलपरिवर्त भी अनेक काल में पूरा होगा। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), ५८२, ५८३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक ५६८ ३. वही, पत्र ५६८