Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तेरहवां शतक : उद्देशक-१
२५. एवं उव्वटुंति वि। [२५] इसी प्रकार (उत्पाद के समान) उद्वर्त्तना के विषय में भी कहना चाहिए। २६. अविरहिए जहेव रयणप्पभाए। [२६] रत्नप्रभा में सत्ता के समान यहाँ भी मिथ्यादृष्टि द्वारा अविरहित आदि के विषय में कहना चाहिए। २७. एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा।
[२७] इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नारकावासों के विषय में (पूर्वोक्त) तीनों आलापक कहने चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. १९ से २७ तक) में रत्नप्रभा से लेकर अध:सप्तमपृथ्वी के संख्यात योजन एवं असंख्यात योजन विस्तृत नारकावासों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि इन तीनों प्रकार के नैरयिकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना एवं अविरहितता-विरहितता के विषय में प्रश्नों का समाधान किया गया है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का कदाचित् विरह क्यों ?–सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारक कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं भी होते, इसलिए उनका विरह हो सकता है।
मिश्रदृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते—क्योंकि 'न सम्मामिच्छो कुणई कालं।' अर्थात्सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टि अवस्था में काल नहीं करता, ऐसा सिद्धान्तवचन है। अत: न तो मिश्रदृष्टि उक्त अवस्था में मरता है और न तद्भवप्रत्यय अवधिज्ञान उसे होता है, जिससे कि मिश्रदृष्टि अवस्था में वह उत्पन्न हो। लेश्याओं का परस्पर परिणमन एवं तदनुसार नरक में उत्पत्ति का निरूपण
२८.[१] से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ?
हंता, गोयमा ! कण्हलेस्से जाव उववजंति।
[२८-१] भगवन् ! क्या वास्तव में कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, यावत् शुक्ललेश्यी (कृष्णलेश्यायोग्य) बन कर (जीव पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है ?
[२८-१ उ.] गौतम ! (वह) कृष्णलेश्यी यावत् (बनकर पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है।
[२] से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ 'कण्हलेस्से जाव उववज्जति' ?
गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु संकिलिस्समाणेसु कण्हलेसं परिणमइ, कण्हलेसं १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. ६२०-६२१ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६००