Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारहवाँ शतक : उद्देशक - ५
१७७
वय होने से उत्पन्न होने वाला आत्मा का धर्म परिणाम कहलाता है । उस परिणाम के निमित्त से होने वाली बुद्धि पारिणामिकी है। अर्थात् — वयोवृद्ध व्यक्ति को अतिदीर्घकाल तक संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धिविशेष परिणामिकी है ।
अवग्रहादि चारों का स्वरूप — अवग्रह— इन्द्रिय और पदार्थ के योग्यस्थान में रहने पर सामान्य प्रतिभासरूप दर्शन (निराकार ज्ञान) के पश्चात् होने वाले तथा अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्वप्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। ईहा— अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं । अवाय — ईहा से जाने हुए पदार्थों में निश्चयात्मक ज्ञान होना अवाय है । धारणाअवाय से जाने हुए पदार्थों का ज्ञान इतना सुदृढ हो जाए कि कालान्तर में भी उसकी विस्मृति न हो तो उसे धारणा कहते हैं ।
उत्थानादि पांच का विशेषार्थ — उत्थानादि — पांच वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणामविशेषों को उत्थानादि कहते हैं । ये सभी जीव के पराक्रमविशेष हैं । उत्थानप्रारम्भिक पराक्रम विशेष । कर्म — भ्रमणादि क्रिया, जीव का पराक्रमविशेष । बल — शारीरिक पराक्रम या सामर्थ्य | वीर्य —–शक्ति, जीवप्रभाव अर्थात् — आत्मिक शक्ति । पुरुषकार पराक्रम — प्रबल पुरुषार्थ, स्वाभिमानपूर्वक किया हुआ पराक्रम ।
अवकाशान्तर, तनुवात- घनवात- घनोदधि, पृथ्वी आदि के विषय में वर्णादिप्ररूपणा
१२. सत्तमे णं भंते ! ओवासंतेरे कतिवण्णे० ?
एवं चेव जाव अफासे पन्नत्ते ।
[१२ प्र.] भगवन् ! सप्तम अवकाशान्तर कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला है ?
[१२ उ.] गौतम ! वह वर्ण यावत् स्पर्श से रहित है ।
१३. सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कतिवण्णे० ?
हा पाणातिवाए (सु. २) नवरं अट्ठफासे पन्नत्ते ।
[१३ प्र.] भगवन् ! सप्तम तनुवात कितने वर्णादि वाला है ?
[१३ उ.] गौतम ! इसका कथन (सू. २ में उक्त) प्राणातिपात के समान करना चाहिए । विशेष यह है कि यह आठ स्पर्श वाला है।
1 १४. एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घणोदधी, पुढवी ।
[१४] जिस प्रकार सप्तम तनुवात के विषय में कहा है, उसी प्रकार सप्तम घनवात, घनोदधि एवं सप्तम
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५७४
२. प्रमाणनयतत्त्वालोक ।
३.
(क) पाइअसद्दमहण्णवो
(ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. १०, पृ. १७६