Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
भजना है, क्योंकि असंयत जीवों में वीर्यात्मा होते हुए भी चारित्रात्मा नहीं होती।
९ एयासि णं भंते ! दवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा?
गोयमा ! सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ, नाणायाओ अणंतगुणाओ, कसायायाओ अणंतगुणाओ, जोगायाओ विसेसाहियाओ, वीरियायाओ विसेसाहियाओ, उवयोग-दविय-दसणयाओ तिण्णि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ।
[९ प्र.] भगवन् ! द्रव्यात्मा, कषायात्मा यावत् वीर्यात्मा—इनमें से कौन-सी आत्मा, किससे अल्प, बहुत, यावत् विशेषाधिक है ?
[९ उ.] गौतम ! सबसे थोड़ी चारित्रात्माएँ हैं, उनसे ज्ञानात्माएँ अनन्तगुणी हैं, उनसे कषायात्माएँ अनन्तगुण हैं, उनसे योगात्माएँ विशेषाधिक हैं, उनसे वीर्यात्माएँ विशेषाधिक हैं, उनसे उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों विशेषाधिक हैं और तीनों तुल्य हैं।
विवेचन–अल्पबहुत्व : क्यों और कैसे ?–अष्टविध आत्माओं का अल्पबहुत्व मूलपाठ में बताया है। उसका कारण यह है—सबसे कम चारित्रात्माएँ हैं, क्योंकि चारित्रवान् जीव संख्यात ही होते हैं। चारित्रात्मा से ज्ञानात्मा अनन्तगुणी हैं, क्योंकि सिद्ध और सम्यग्दृष्टि जीव चारित्री जीवों से अनन्तगुणे हैं। ज्ञानात्मा से कषायात्मा अनन्तगुणी हैं, क्योंकि सिद्ध जीवों की अपेक्षा सकषायी जीव अनन्तगुणे हैं। कषायात्मा से योगात्मा विशेषाधिक हैं, क्योंकि योगात्मा में कषायात्मा जीव तो सम्मिलित हैं ही और कषायरहित योग वाले जीवों का भी इसमें समावेश हो जाता है। योगात्मा से वीर्यात्मा विशेषाधिक हैं, क्योंकि वीर्यात्मा में अयोगी आत्माओं का भी समावेश हो जाता है। उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि तीनों विशिष्ट आत्माएँ सभी जीवों में सामान्यरूप से पाई जाती हैं, किन्तु वीर्यात्मा से ये तीनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन तीनों आत्माओं में वीर्यात्मा वाले संसारी जीवों के अतिरिक्त सिद्ध जीवों का भी समावेश होता है।
१०. आया भंते ! नाणे', अन्नाणे? गोयमा ! आया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, णाणे पुण नियमं आया। [१० प्र.] भगवन् ! आत्मा ज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप है ?
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५८९-५९०-५९१
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ४, पृ. २११० से २११५ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५९१
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ४, पृ. २११५ ३. पाठान्तर—.....नाणे ? अन्ने नाणे? ' (अर्थात्-आत्मा ज्ञानरूप है या अन्य ज्ञानरूप है ?)