Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारहवाँ शतक : उद्देशक - ५
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सामान्य नाम है, ममत्व को लोभ कहते हैं । इच्छा आदि उसके विशेष प्रकार हैं । (२) इच्छा — वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा । (३) मूर्च्छा — प्राप्त वस्तु की रक्षा की निरन्तर चिन्ता करना । (४) कांक्षा — अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की लालसा । (५) गृद्धि — प्राप्त वस्तु के लिए आसक्ति । (६) तृष्णा — प्राप्त पदार्थ का व्यय या वियोग न हो, ऐसी इच्छा। (७) भिध्या - विषयों का ध्यान ( चित्त को एकाग्र ) करना । (८) अभिध्या — चित्त की व्यग्रता - चंचलता । (९) आशंसना- -अपने पुत्र या शिष्य को यह ऐसा हो जाए, इत्यादि प्रकार का आशीर्वाद या अभीष्ट पदार्थ की अभिलाषा । (१०) प्रार्थना — दूसरों से इष्ट पदार्थ की याचना करना, (११) लालपनता — विशेष रूप से बोल - बोल कर प्रार्थना करना, (१२) कामाशा — इष्ट शब्द और इष्ट रूप को पाने की आशा । (१३) भोगाशा — इष्ट गन्ध आदि को पाने की वाञ्छा । (१४) जीविताशा — जीन की लालसा। (१५) मरणाशा - विपत्ति या अत्यन्त दुःख आ पड़ने पर मरने की इच्छा करना और (१६) नन्दिराग — विद्यमान अभीष्ट वस्तु या समृद्धि होने पर रागभाव यानी हर्ष या ममत्व भाव करना । अथवा—नन्दी अर्थात् वांछित अर्थ की प्राप्ति के प्रति राग अर्थात् — ममत्व होना ।
प्रेय आदि शेष पापस्थानों के विशेषार्थ — प्रेय — पुत्रादिविषयक स्नेह — राग । द्वेष – अप्रीति । कलह — राग या हास्यादिवश उत्पन्न हुआ क्लेश या वाग्युद्ध । अभ्याख्यान — मिथ्या दोषारोपण करना, झूठा कलंक लगाना, अविद्यमान दोषों का प्रकट रूप से आरोपण करना । पैशुन्य — पीठ पीछे किसी की निन्दा - चुगली करना। परपरिवाद — दूसरों को बदनाम करना या दूसरे की बुराई करना । अरति - रति — मोहनीयकर्मोदयवश प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर चित्त में अरुचि, घृणा या उद्वेग होना अरति है और अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर चित्त में हर्ष रूप परिणाम उत्पन्न होना रति है । मायामृषा — कपटसहित झूठ बोलना, दम्भ करना । मिथ्यादर्शनशल्य——–शल्य— तीखे कांटे की तरह सदा चुभने कष्ट देने वाला मिथ्यादर्शन-शल्य अर्थात्श्रद्धा की विपरीतता । शरीर में चुभे हुए शल्य की तरह, आत्मा में चुभा हुआ मिथ्यादर्शनशल्य भी कष्ट देता है। प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के अठारह पाप-स्थान पांच वर्ण, दो गन्ध, . पांच रस और चार स्पर्श व़ाले हैं।
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अठारह पापस्थान- विरमण में वर्णादि का अभाव
८. अह भंते ! पाणातिवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते ?
गोयमा ! अवण्णे अगंधे अरसे अफासे पन्नत्ते ।
[८ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात - विरमण यावत् परिग्रह - विरमण तथा क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ?
[८ उ.] गौतम ! (ये सभी) वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित कहे हैं ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५७२, ५७३
(ख) भगवती. (हिन्दी - विवेचन ) भा. ४, पृ. २०४९ - २०५०