Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारहवाँ शतक : उद्देशक-५
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(आचरणता), गूहनता, वञ्चनता, प्रतिकुञ्चनता, और सातियोग-इन (सब) में कितने वर्ण गन्ध रस और स्पर्श हैं ?
[५ उ.] गोयमा ! ये सब क्रोध के समान पांच वर्ण आदि वाले हैं।
६. अह भंते ! लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा आसासणता पत्थणता लालप्पणता कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदिरागे, एस णं कतिवण्णे ?
जहेव कोहे।
[६ प्र.] भगवन् ! लोभ, इच्छा, मूर्छा, काँक्षा, गृद्धि, तृष्णा भिध्या, अभिध्या, आशंसनता, प्रार्थनता, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा और नन्दिराग,—ये (सब) कितने वर्ण गन्ध रस और स्पर्श वाले कहे हैं ?
[६ उ.] गौतम ! (इन सभी का कथन) क्रोध के समान (जानना चाहिए।) ७. अह भंते ! पेजे दोसे कलहे जाव' मिच्छादसणसल्ले, एस णं कतिवण्णे०? जहेव कोहे तहेव जाव चउफासे।
[७ प्र.] भगवन् ! प्रेम-राग, द्वेष, कलह, यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य, इन (सब पापस्थानों) में कितने वर्ण आदि हैं ?
। [७ उ.] गौतम ! जिस प्रकार क्रोध के लिए कथन किया था उसी प्रकार इनमें भी चार स्पर्श हैं, यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन-अठारह पापस्थानों में वर्णादि—प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (१ से७ तक) में प्राणातिपात • से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों में वर्ण गन्ध रस और स्पर्श की प्ररूपणा की गई है।
प्राणातिपात आदि की व्याख्या-प्राणातिपात—जीव हिंसा से जनित कर्म अथवा जीवहिंसा का जनक चारित्रमोहनीय कर्म भी उपचार से प्राणातिपात कहलाता है। मृषावाद—क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वश असत्य, अप्रिय, अहितकर विघातक वचन कहना है। अदत्तादान–स्वामी की अनुमति, इच्छा या सम्मति के बिना कुछ भी लेना अदत्तादान (चौर्य) है। विषयवासना से प्रेरित स्त्री-पुरुष के संयोग को मैथुन कहते हैं। धन, कांचन, मकान आदि बाह्य परिग्रह है और ममता-मूर्छा.आदि आभ्यन्तर परिग्रहण । ये पांचों पाप पुद्गल रूप हैं, इसलिए इनमें पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, और चार स्पर्श (स्निग्ध, रूक्ष,, शीत और उष्ण) होते हैं।
क्रोध और उसके पर्यायवाची शब्दों के विशेषार्थ-क्रोध रूप परिणाम को उत्पन्न करने वाले कर्म को क्रोध कहते हैं । यहाँ क्रोध एक सामान्य नाम है, उसके दस पर्यायवाची शब्द हैं। उनके विशेषार्थ इस प्रकार हैं—(२) कोप-क्रोध के उदय से अपने स्वभाव से चलित होना। (३) रोष-क्रोध की परम्परा। (४) दोष-अपने आपको और दूसरों को दोष देना, अथवा द्वेष-अप्रीति करना। (५) अक्षमा-दूसरे के द्वारा १. 'जाव' पद यहाँ 'अब्भक्खाणे पेसुन्ने अरइरई परपरिवारए मायामोसे' आदि पदों का सूचक है।