Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक - १०
चलते रहने पर भी वे देव अलोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते ।
[प्र.] भगवन् ! उन देवों का गतक्षेत्र अधिक है, या अगतक्षेत्र अधिक है ?
[3] गौतम ! वहाँ गतक्षेत्र बहुत नहीं, अगतक्षेत्र ही बहुत है । गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र अनन्तगुणा है 1 अगतक्षेत्र से गतक्षेत्र अनन्तवें भाग है । हे गौतम! अलोक इतना बड़ा है ।
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विवेचन—– अलोक की विशालता का माप — प्रस्तुत २७वें सूत्र में अलोक की विशालता का माप एक रूपक द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
आकाशप्रदेश पर परस्पर सम्बद्ध जीवों का निराबाध अवस्थान
२८. [ १ ] लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जे एगिंदियपएसा जाव पंचिंदियपदेसा अणिदियपएसा अन्नमन्नबद्धा जाव अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठति, अत्थि णं भंते । अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं का उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ?
इट्ठे सट्टे ।
[ २८-१ प्र.] भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर एकेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, क्या वे सभी एक दूसरे के साथ बद्ध हैं, अन्योन्य स्पृष्ट हैं यावत् परस्पर-सम्बद्ध हैं ? भगवन् ! क्या वे परस्पर एक दूसरे को आबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा ) उत्पन्न करते हैं ? या क्या वे उनके अवयवों का छेदन करते हैं ?
[ २८- १ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ ( शक्य) नहीं है।
[२] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ लोगस्स णं एगम्मि आगासपएसे जे एगिंदियपएसा जाव चिट्ठेति नत्थि णं ते अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा जाव करेंति ?
गोयमा ! जहानामए नट्टिया सिया सिंगारागारचारुवेसा जाव' कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसतिविधस्स नट्टस्स अन्नयरं नट्टविहिं उवदंसेज्जा । ते नूणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिसाएं दिट्ठीए सव्वओ समंता समभिलोएंति ?
'हंता, समभिलोएंति । '
ताओ णं गोयमा ! दिट्ठीओ तंसि नट्टियंसि सव्वाओ समंता सन्निवडियाओ ?
'हंता, सन्निवडियाओ । '
अत्थि णं गोयमा ! ताओ दिट्ठीओ तीसे नट्टियाए किंचि आबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ?
१.
'जाव' पद सूचित पाठ— "संगयगयहसियभणियचिट्ठियविलाससललियसंलावनिउणजुत्तोवयारकलिय त्ति ।"
- भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५२७