Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
७५
ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक-११ कदम्बपुष्प के समान रोमकूप विकसित हो गए। ओगिण्हति-मन में धारण (ग्रहण) करती है-स्मरण करती है। असंभंताए—बिना किसी हड़बड़ी के । सस्सिरीयाहिं— श्री-शोभा से युक्त। मिय-महुर-मंजुलाहिं गिराहिं—परिमित, मधुर एवं मंजुल वाणी से। आसत्था-वीसत्था—चलने में हुए श्रम के दूर होने से आश्वस्त (शान्त) एवं संक्षोभ का अभाव होने से विश्वस्त होकर। फलवित्तिविसेसे-फल विशेष। कल्लाणाहिं—कल्याणकारक। मंगलाहिं—मंगल रूप। ओरालस्स-उदार। प्रभावती-कथित स्वप्न का राजा द्वारा फलकथन
२५. तए णं से बले राया प्रभावतीए देवीए अंतियं एयमटुं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हयहियये धाराहतणीमसुरभिकुसुमं व चंचुमालइयतणू ऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ओ० २ ईहं पविसति, ईहं प० २ अप्पणो साभाविएणं मतिपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेति, तस्स० क० २ पभावतिं देविं ताविं इट्ठाहिं जाव मंगल्लाहिं मियमहरसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी—"आरोले णं तुमे देवी ! सुविणे दिढे कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी ! सुविणे दिटे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ-कल्लाण-मंगलकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दिटे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए !, रज्जलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदिया-णं वीतिक्कतांणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवडेंसगं कुलतिलगं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवडकरं सुकुमालपाणिपायं अहीणपुण्णपंचिंदियसरीरं जाव' ससिसोमागारं कंतं पियदंसणं सुरूवं देवकुमारसप्पभं दारगं पयाहिसि। से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कंते वित्थिण्णविपुलबलवाहणे रज्जवती राया भविस्सति। तं ओराले णं तुमे देवी ! सुमिणे दिढे जाव आरोग्य-तुट्ठि० जाव मंगल्लकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दि?" त्ति कट्ट पभावतिं देविं ताहि इटाहिं जाव वग्गूहिं दोच्चं पि तच्चं पि अणुवूहति।
__ [२५] तदनन्तर वह बल राजा प्रभावती देवी से इस (पूर्वोक्त स्वप्नदर्शन की) बात को सुनकर और समझकर हर्षित और संतुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय आकर्षित हुआ। मेघ की धारा से विकसित कदम्ब के सुगन्धित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा, रोमकूप विकसित हो गए। राजा बल उस स्वप्न के विषय में अवग्रह (सामान्य-विचार) करके ईहा (विशेष विचार) में प्रविष्ट हुआ, फिर उसने अपने स्वाभाविक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया। उसके बाद इष्ट, कान्त यावत् मंगलमय, परिमित, मधुर एवं शोभायुक्त सुन्दर वचन बोलता हुआ राजा रानी प्रभावती से इस प्रकार बोला—"हे देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवी! तुमने कल्याणकारक यावत् शोभायुक्त स्वप्न देखा है। हे देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याणरूप एवं मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिये ! (तुम्हें इस स्वप्न के फलस्वरूप) अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और राज्यलाभ होगा। हे देवानुप्रिये ! नौ मास और साढ़े सात दिन (अहोरात्र) व्यतीत होने
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५४१, (ख) भगवती. विवेचन (पं. घे.) भा. ४., पृ. १९२८ . २. 'जाव' पद सूचित पाठ-लक्खण-वंजण-गुणोववेयमित्यादि। -अ. वृ. पत्र ५४१