Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बारसमंसयं : बारहवाँ शतक
प्राथमिक
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भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र के इस बारहवें शतक में दस उद्देशक हैं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं—(१) शंख, (२) जयंती, (३) पृथ्वी, (४) पुद्गल, (५) अतिपात, (६) राहु, (७) लोक, (८) नाग, (९) देव और (१०) आत्मा। . प्रथम उद्देशक में वर्णन है कि श्रावस्ती निवासी शंख और पुष्कली आदि श्रमणोपासकों ने भगवान् महावीर का प्रवचन सुन कर आहारसहित पौषध करने का विचार किया, और शंख ने अन्य सब साथी श्रमणोपासकों को आहार तैयार करने का निर्देश दिया। परन्तु शंख श्रमणोपासक ने बाद में निराहार पौषध का पालन किया। जब प्रतीक्षा करने के बाद भी शंख न आया तो अन्य श्रमणोपासकों ने आहार किया। दूसरे दिन जब शंख मिला तो अन्य श्रमणोपासकों ने उसे उपालम्भ दिया, किन्तु भगवान् ने उन्हें ऐसा करते हुए रोका। उन्होंने शंख की प्रशंसा की। इससे श्रमणोपासकों ने शंख से अविनय के लिए क्षमा मांगी। अंत में तीन प्रकार की जागरिका का वर्णन किया गया है। द्वितीय उद्देशक में भगवान् महावीर की प्रथम शय्यातरा जयंती श्रमणोपासिका का वर्णन है, जिसने भगवान् से क्रमश: जीव को गुरुत्व-लघुत्व-प्राप्ति, भव्य-अभव्य, सुप्त-जाग्रत, दुर्बलता-सबलता, दक्षत्व-अनद्यमित्व आदि के विषय में प्रश्न पछ कर समाधान प्राप्त किया। अंत में पंचेन्द्रिय विषयवशात के परिणाम के विषय में समाधान पूछकर वह संसारविरक्त होकर प्रव्रजित हुई। तृतीय उद्देशक में सात नरकपृथ्वियों के नाम गोत्र आदि का वर्णन है। चतुर्थ उद्देशक में दो परमाणुओं से लेकर दस परमाणुओं, यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणपुद्गलों के एकत्वरूप एकत्र होने पर बनने वाले स्कन्ध के पृथक्-पृथक् विकल्पों का प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् इन परमाणुपुद्गलों के संघात और भेद से विभिन्न पुद्गल परिवर्तों का निरूपण किया गया है। पंचम उद्देशक में प्रणातिपात आदि अठारह पापस्थानों के पर्यायवाची पदों के उल्लेखपूर्वक उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का निरूपण है। तत्पश्चात् औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों, अवग्रहादि चार, उत्थानादि पांच तथा सप्तम अवकाशान्तर से वैमानिकावास तक, एवं पंचास्तिकाय, अष्ट कर्म, षट् लेश्या, पंच शरीर, त्रियोग, अतीतादिकाल एवं गर्भागत जीव में वर्णादि की प्ररूपणा की गई है। अन्त में बताया गया है कि कर्मों से ही जीव मनुष्य तिर्यञ्चादि नाना रूपों को प्राप्त होता है। छठे उद्देशक में 'राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण करते हुए भगवान् ने राहु की विभूतिमत्ता, शक्तिमत्ता, उसके नाम, एवं वर्ण का प्रतिपादन किया है, तथा इस तथ्य को उजागर
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