Book Title: Jain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Author(s): Rushabhchand Jain
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRI JAIN SIDHANT BHAWAN GRANTHAWALI VOL.--2 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली भाग-२ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-सिद्धान्त-भवन-ग्रंथावली (देव कुमार जैन प्राच्य ग्रन्थागार, जैन सिद्धान्त भवन, आरा की संस्कृत, प्राकृत, अपघ्र श एव हिन्दी की हस्तलिखित पाण्डुलिपियो की विस्तृत सूची) भाग-२ प्रस्तवन डा० गोकुलचन्द्र जैन अध्यक्ष, प्राकृत एव जैनागम विभाग, सपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी मपादन ऋषभचन्द्र जैन फौजदार, दर्शनाचार्य शोधाधिकारी, देवकुमार जैन प्राच्य गोध मस्थान, धारा (बिहार) सकलन शशीभूषण त्रिपाठी, MA (मस्कृत) कविराज दिवाकर ठाकुर,G.A M S (आयुर्जेद) गुप्तेश्वर तिवारी, आचार्य भारतीय ii. दर्शन केन्द्र जयपुर । श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रकाशन, भगवान महावीर मार्ग, आरा-८०२३०१ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली (भाग-२) प्रथम सस्करण १९८७ मूल्य-१३५) प्रकाशक श्री देवकुमार जैन प्राच्य ग्रन्थागार श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा (बिहार)-८०२३०१ मुद्रक शाहावाद प्रेस महादेवा रोड, आरा आवरण शिल्ल क्रिएटिव आर्ट ग्रुप दिल्ली SRI JAINA SIDHANTA BHAWAN GRANTHAWALI (Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa, Hindi mss Published by Sri D K. Jain Oriental Library, Sun Jain Sidhanta Bhawan, Arrah (Bihar) India. First Edition - 1987 Price Rs. 135/ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina Siddhant Bhawana Granthavali Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts of Sri Devakumar Jain Oriental Library, Arrah Vol.-2 ار Introduction. Dr. Gokulchandra Jain Head of the department of Prakrit & Jainagama. Sampurnananda Sanskrit Vishvavidyalaya, Varanasi Editor; Rishabhachandra Jain Fouzdar, Research Officer Devakumar Jain Oriental Rescarch Institute, Arrah (Bihar) Compilation Shashi Bhushan Tripathi, M.A.(San.) Kaviraj Diwakar Thakur, G. A. M 8. (Aurveda) Gupteshwar Tiwari Sri Jaina Siddhant PUBLICATION Bhagwan Mahavir Marg, Arrah-802301 Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Foreword Bihar has played a great role in the history of Jainism. Last Tirthankar, Mfahayıra, who gave a great Gillip to the Jain religion, was born here and spread his message of peace and ahimsa. It is from the land of Bihar that the fountain of Jainism spread its influcnce to thc different parts of India in ancient period And in the modern agc thc Jain Siddhanta Bhavan at Arrah in Bhojpur district has .cpt thc torch of or Jainism burning It occupics a unique place among the modern Jnin institutions of culture. This institution was cstablished in promoc historical roscarch and advancement of Inowledge particularly Jain learning. There is a collection of thousands or manuscripts, rare books, pictures and palm-icas manuscripts. in Shri Devakumar Jain Oriental Library Arrah attached to the said institution. Some or the manuscripts contain rarc Jain paintings Thcsc manuscripts are very valuablc for the study of thc crccd as well as the socio-cconomic life of ancient India The present work "Sri Jain Siddhanta Bhavan Granthavali" being the Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apibhramsa and Hindi Manuscripts is being prepared in six volumes Fach volume contains two parts First parts consists of the list of manuscr ipts preserved 10 the institution with some basic informations such as accession number, title of the work, name of the author, scripts, language, size, datc etc Part second which is named as Parisieja (Appendix) contains more details about the manuscripts recorded in the first part. The author has taken great pains in preparing the present Catologue and deserves congratulations for the commendable job, Th18 work will no doubt remain for long time a ready book of reference to scholars of ancient Indian Culture particularly Jainism February 29, 1988 Vikas Bhavan, Patna (Naseem Akhtar) Director, Museums Bihar, Patna Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय नम निवेदन 'जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली' का दूसरा भाग प्रकाशित होते देख मुझे अपार हर्ष हो रहा है। लगभग पाँच वर्ष पहले से इस सपने को साकार करने का प्रयत्न चल रहा था। अब यह महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ हो, गया है। एक पच्वपीय योजना के रूप मे इसके छ भाग प्रकाशित करने में सफलता मिांगी गंगी परी आगा है। 'जैन सिद्धात भवन मन्यावली' का यह दूगग भाग जैन गिद्धान भवन, आरा के ग्रन्थागार मे सग्रहीत मरत, प्राकृत, १५७ ग, कन्नड व हिन्दी के हस्तलिखित गन्थो की विस्तृत सूची है। इसमे लगभग एक हजार गन्यो का विवरण है। हर भाग मे इसका विभाजन दो खण्डो में किया गया है। पहले खण्ड में अग्रेजी (रोमन) मे ग्यारह शीर्षको द्वारा पाडुलिपियो के आकार, पृष्ठ मया आदि की जानकारी दी गई है। 'भवन' के ग्रथागार में लगभग छह हजार हम्नलिखित कागज एव ताडपत्र के ग्रथो का संग्रह है। इनमे अनेक ऐसे भी गन्य हैं जो दुर्लभ तथा अद्यावधि अप्रकाशित है। अप्रकाशित ग्रन्यो को सम्पादित कागकर प्रकाशित करने की भी योजना आरम्भ हो गई है। वर्तमान मे जैन मिद्वात भवन, आरा में उपलब्ध 'राम यगोरमायन राम (सचित्र जन रामायण) का कागन हो रहा है जो शीघ्र ही पाठको के हाथ मे होगा। इममे २५३ दुर्लभ चित्र है। 'जैन सिद्धात भवन ग्रन्थावली' के कार्य को प्रारम्भ कराने में काफी कठिनाइयो का सामना करना पड़ा लेकिन श्रीजी और मां सरस्वती की अभीम कृपा से सभी सयोग जुड़ते गए जिससे मैं यह ऐतिहासिक एव महत्व पूर्ण कार्य आरम्भ कराने मे सफल हुआ हूँ। भविष्य मे भी अपने सभी सहयोगियो से यही अपक्षा रखता है कि हमे उनका राहयोग हमेशा प्राप्त होता रहेगा। ग्रन्थावली एव रामयशोरसायन रास के प्रकाशन के सबसे बड़े प्रेरणाश्रोत आदरणीय पिता जी श्री सुबोध कुमार जैन के सह्योग एव मार्गदर्शन को कभी विस्मृत नही किया जा सकता। अपने कार्यकर्ताओ की टीम के साथ उनसे विचार विमर्श करना तथा सवकी राय से निर्णय लेना उनका ऐसा तरीका रहा है जिसके कारण सभी एकजुट होकर कार्य में लगे है। विहार सरकार एव भारत सरकार के शिक्षा विभाग एवं सस्कृति विभाग ने इस प्रकाशन को अपनी स्वीकृति एव आर्थिक सहयोग प्रदान कर एक बहुत ही महत्वपूर्ण पादम उठाया है जिसके लिये हम निदेशक राष्ट्रीय अभिरोखागार, दिल्ली, निदेशक पुरातत्व एव निदेशक सग्रहालय विहार सरकार तथा भारत सरकार के सभी सबधित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकारियो के कृतज्ञ है और उनसे अपेक्षा रखेगे कि भवन के अन्य अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रंथों के प्रकाशन में उनका सहयोग देश की सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा हेतु भविष्य मे भी हमे प्राप्त होगा । डा० गोकुलचन्द जन, अध्यक्ष, प्राकृत एव जैनागम विभाग, सपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने ग्रन्थावली की विद्वतापूर्ण प्रस्तावना आगल भाषा मे लिखी है। बिहार म्यूजियम के विद्वान एव कर्मठ निर्देशक श्री नसीम अख्तर साहब ने समय निकालकर इस पुस्तक की भूमिका लिखी है। डा० राजाराम जैन, अध्यक्ष, संस्कृत - प्राकृत विभाग, जैन कालेज, आरा तथा मानद निदेशक श्री देवकुमार न प्राच्य शोधसस्थान, आरा ने आवश्यकता पडने पर हमे इस प्रकाशन के सम्बन्ध मे वरावर महत्वपूर्ण मार्ग दर्शन दिया है । हम तीनोही जाने माने विद्वानो का आमार मानते हैं । श्री ऋषभ चन्द्र जैन 'फौजदार', जैनदर्शनाचार्य परिश्रम और लगन से ग्रन्थावली का सपादन कर रहे हैं। श्री ऋषभ जी हमारे संस्थान में मानद शोधाकारी के रूप मे भी कार्यरत हैं । ग्रन्थावली के दोनो खण्डो के सकलन के सपूर्ण कार्य यानी अंग्रेजी भाषा मे एक हजार ग्रथों की ग्यारह कालमो मे विस्तृत सूची तथा प्राकृत एव संस्कृत आदि भाषाओ मे परिषिप्ट के रूप मे सभी ग्रंथो के आरम्भ की तथा अत के पदो का और उनके कोलाफोन के भी विस्तृत विवरण देने जैसा कठिन कार्य श्री विनय कुमार सिन्हा, एम० ए० और श्री शत्रुघ्न प्रसाद सिन्हा, बी० ए० ने बहुत परिश्रम करके योग्यता पूर्वक किया है । डा० दिवाकर ठाकुर और श्री मदनमोहन प्रसाद वर्मा ने पुस्तक के अत मे 'वर्ण क्रम के आधार पर ग्रन्थकारो व टीकाकारो को नामावली और उनके ग्रन्थो की क्रम संख्या का सकलन तैयार किया है । श्री जिनेश कुमार जैन, पुस्तकालय अधिक्षक, श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा का सहयोग भी सराहनीय है जिनके अथक परिश्रम से ग्रन्थो का रखरखाव होता है । प्रेस मैनेजर श्री मुकेश कुमार वर्मा भी अपना भार उत्साह पूर्वक सभाल रहे हैं । इनके अतिरिक्त जिन अन्य लोगो से भी मुझे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग मिला है उन सभी का हृदय से अभारी हूँ । देवाश्रम, आरा अजय कुमार जैन मत्री श्री देवकुमार जौन ओरिएन्टल लाईब्र ेरी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VS Stk ABBREVIATION Vikiama Samvara Devan igais Sanskrit Prakrit Apabhramsa Completc Incomplete Pkt Apb, c Inc Catg of Skt. Ms. -Cataloguc of Sanskrit manuscripts in Mysore and coorg by Lewis Rice M. R A.S, Mysore Government Press, Bangalore, 1884. Catg of Skt & Pkt Ms - Catalogue of Sankrit & Prakrit manuscripts in the Central Provinces & Berar by. Ral Bahadur Hiralal BA Nagpur, 1926. (१) आ० सू० आमेर सूची-डा० कस्तूरचन्द, कासलीवाल । (२) जि. र० को. जिनरत्नकोष -डा. वेलणकर, भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना । जैन अन्य प्रशस्ति सग्रह-प० जुगलकिशोर मुम्तार । (४) दि० जि। ग्र० र० दिल्ली जिन ग्रन्य रत्नावली-श्री कुन्दनलाल जैन भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली। (५) प्र. जै० सा० प्रकाशित जैन साहित्य-बा० पन्नालाल अग्रवाल । प्रशस्ति सग्रह -डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल। भट्टारक सम्प्रदाय - विद्याधर जोहरापुरकर । राजस्थान के शास्त्र भडारो की सूची-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, जयपुर ( राजस्थान)। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण देवाश्रम परिवार मे पंडित-प्रवर बाबू प्रभुदास जी, राजर्षि बाबू देवकुमार जी, ब्र० पं० चन्दा मॉश्री, और वाव निर्मलकुमार चक्रेश्वर कुमार जी यशस्वी तथा गुणीजन हुए है। उन सभी की पावन स्मृति को यह श्री जैन सिद्धांत भवन ग्रन्थावली सादर समर्पित है। देवाश्रम पारा -सुबोध कुमार जैन २४-३-८७ Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION (VOL-I ) I have great pleasure in introducing Sri Jaina Siddhan'a Bhavan Granthavalı -a descriptive Catalogue of 997 Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa and Hindi Manuscrip's preserved in Shri Deva Kumar Jain Oriental Library, popularly known as Jaina Sidhanta Bhavan, Arrah The actual number of MSS exceeds even one thousand as some of them are numbered as a and Being the first volume, it marks the beginning of a series of the Catalogues to be picpared and published by the Library. The Catalogue, devided into two parts, covers about 500 pages and each part numbered separately. In the first part, descriptions of the MSS have been given while the second part contains the Text of the opening and closing portions of MSS along with the Colophon The catalogue has been prepared strictly according to the scientific methodology developed during recent years and approved by the scholars as well as Government of India The description of the MSS has been recorded into eleven columns viz. 1 Serial number, 2 Library accession or collection number, 3. Titleof the work, 4 Name of the author, 5. Name of the commentator. 6 Material, 7 Script and language, 8. Size and number of folio, nes per page and letters per line. 9. Extent, 10 Condition and age, 11. Additional particulars These details provide adequate informations about the MSS For instance thirteen MSS of Drvyasam raha have been recorded (S Nos 213 to 224) It is a well known tiny treatise in Prakrit verses by Nemicanda Siddhanti and has had attracted attention of Sanskrit ond other commentators Each Ms preserved in the Bhavana's Library has been given an independent accession number Its justification could be observed in the details provided From the details one finds that first four MSS (213 to 215/2) contain bare Prakrit text All are paper, written in Devanagari Script, their language being natured in poetry Each Ms has different size and number of folios Lines per page and letters per line are also different All are complete and in good condition. Only one Ms (216) is a Hindi verson in poetry by some unknown Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 ] writer and is incomplete Two MSS ( 218, 222 ) are with cxposition in Bhäşa (Hindi) piose and poe ry by Dyanataraya and three are in Bhāsā poetry by Bhagavatidas Ms No 223 dated 1721 V s, is with Sanskrit commentary in Prose Ms No. 229 is a Bhāşå vacantha by Jayacanda These details could be seen at a glance as they are presented scientifically The Manuscripts recorded in the present volume have been broadly classified into following cleven heads .-- 1 2 Purana, Carita, Katha Dharma, Darsana, Ācāra Nyāyasástra Vyakarana 4 Koša 6 7 8 9 10 11 Rasa chanda, Alankära & Kavya Jyotışa Mantra Karmakanda Ayurveda Stotra Pūjā, Pātha-vidhana 1 to 155 156 to 453 454 to 480 481 to 492 493 to 501 502 to 531 532 to 550 551 to 588 589 to 600 601 to 800 801 to 997 The details have been presented in Roman scripts in Hindi Alphabetic order The classification is of general nature and help a common reader for consultation of the Catalogue However, critical observations may deduct some MSS which do not fall under any of these eleven categories (see MSS 295, 511, 512) The Second part of the volume is entitled as Parśışta of Appendix This part furnishes more details regarding the MSS recorded in the first part Along with the text of the opening and closing poitions of each Ms, colophons have been presenied in Doverêgari script The text is presented as it is found in the MSS and the readers should not be confused or disheartened even if the text is curiupt. The cross references of more than ten other works deserve special mention Only a well read and informed scholar could make such a difficult task possible with his high industry and love of labour Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 111 From the details presented in the Second pait we get some very interesting as well as importnt informations. A few of them are noted below - (1) Some Mss belong to quite a different category and do not come under the heads, they have been cnumerated, such as Navaratnaparikşā (295) which deals with Gemeology The opening & closing text as well as the colophon clearly mention that it is a Ralna sastra by Buddhabhatt. Similarly, Mihákvāmrlam ( 511 512) is the famous work on Polity by Somadeva Suri ( 10th cent. ). Trepanakryākośa ( 498, 499 ) S not a work on Lexicon. It deals with rituals and hence falls under Acarašasira. These observations are intended to impress upon the consultant of the catalogue that he should not by pass merely by looking over the caption alone but should see thoroughly the details given in the Second part of the catalogue which may reveal valuable informations for him (2) Some of the MSS of Aptamimari sã contain Aplamimamsalnakrli of Vidyananda (455) Aolamima i sāprlli of Vasunandi ( 456 ) and Aplanimāmsábhâsya of Akalanka ( 457 ) These three famous commentaries are popularly known as Astaschasi Aştaśai and Devâgamavst's Though these works have once been published, yet these can be utilised for critical editions. (3) In the colophon of some of the MSS the parential MSS have been mentioned and the name of the copyist, its date and place where they have been copied, have been given These informations are of manifold importance. For instance the information regarding parential Ms is very important if the editor feels necessary to consult the original Ms for his satisfaction of the readings of the text, he can get an opportunity for the same It is of particular importance of the Ms has been written into different scripts then that of the original one Many Sanskrit, Prakrit and Apabhramsa works are preserved on palm leaves in Kannada scripts When these are rendered into Devanägari scripts there are every possibili.y of slips, difference in readings and so on. It is not essential that the copyist should be well acquainted with all its languages and subject matter of cach Ms The difference of alphabets in different languages is obvious Thus the reference of parential Ms is of great importance (373) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ IV (4) The references of places and the copyists further authenticate the MSS. Some of the MSS have been copied in Karnataka at Moodbidri and other places from the palm leaf MSS written in Kannada scripts (7, 318, 373) whereas some in Northen India, in Rajasthan, Uttar Pradesh, Bihar, Madhya Pradesh and Delhi. 5) It is also noteworthy that copying work was done at Jaina Siddhanta Bhavana Arrah itself MSS were borrowed from different collections & copying work was conducted in the supervision of learned Scholars. (6) The study of colophon reveals many more important references of Samgh s, Ganas, Gacchas, Bhattarak as, and presentation of Sastras by pious men and women to ascetics. copying the Ms for personal study-sva hyaya, and getting the work prepared for his son or relative etc Such references denote the continuity of religious practice of sastrarlana which occupy a very high position in the code of conduct of a Jaina household, (7) The copying work of MSS was done not only by paid professionals but also by devout śravakas and desciples of Bhattarakas or other ascetics (8) In most of the MSS counting of alphabets, words, slokas, or gathas have been given as granthaparimana at the end of the MSS This reference is very important from the point of the extent of the Text Many times the author himselt indica'es the granthaparimana. Even the prose works are counted in the form of slokas (32 alphabets each) The Aplamimämsä Bhasya of Akalanka is more popularly known as Aştasati and Apian in âm:alinkrt of Vidyananda is famous as Aştasahasri. Both works are the commentaries on the Aptamimāmṣā (m verse) of Samanta Bhadra in Sanskrit prose, Vidyananda himself says about his work: "Śrotavy - aştasahasri śrulah kimanyaih saharrasamkhyanath." Counting in the form of slokas seems a later development. When the teachings of Vardhamana Mahavira were reduced to writing counting was done in the form of Padas For instance the Ayâramga is said to contain eighteen thousand Padas. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ayaramgamatthāraha-pada - sahasseht " (Dhavalā p 100) Such references are more useful for critical study of the iext. (9) Some references given in the colophons shed light on some points of socio-cultural importance as well The copying work 'was done by Brāhmins, Vaisyas, Agarawa las, Khandelâwâls, Kayasthas and others There had been some professionally trained persons with very good hand writing who were entrusted with the work of copying the MSS The remuneration of writing was decided per hundred words for the purpose of the counting generally the copyist used to put a particular mark (I) invariably without punctuation In the end of some of the MSS even the sum paid, is mentioned Though it has neither been recorded in the present catalogue nor was required, but for those who want to study the MSS these informations may be important The study of Colophons alone can be an independent and important subject of rescarch From the above details it is clear that both the parts of the present volume supplement each other Thus, the Jaina Siddhanle Bhayana Granthayali is a highly useful reference work which undoubtedly contributes to the advancement of oriental learning With the publication of this volume the Bhavana has revived one of its important activities which had been started in the first decade of the present Centuty Shri Jaina Siddhant Bhavan, Arrah, established in the beginning of the present century had soon become famous for its threefold activities viz L) procuring and preserving rare and more ancient MSS, 2) publication of important texts with its english translation in the series of Sacred Books of the Jaina's and 3) bringing out a bilingual research journal Jara Siddhanta Bhāskara and Janna Antiquary. Under the first scheme, many palm leaf MSS have been procured from South India, particularly from Karnataka, and paper MSS Northern India However the copying work was done on the 'e Ms was not lent by the owner or otherwise was not trans narliest Sau-aseni Prakrit Siddhanta Sastra Satkhan lagama Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ with its famous commentaries Davala, Jayadavala, and Mahädavla was copied from the only surviving palm leaf Ms in old Kannada scripts, preserved in the Siddhanta Başadı of Moodbidri. Bhavan's Collection became known all over the world within ten years of establishment. In the year 1913, an exhibition of Bhivan's collection was organised at Varanası by its sister institution on the occasion of Three Day Ninth Annual Function of Sri Syadpada Mahavidyalaya A galaxy of persons from India and abroad who participated in the function greatly appreciated the collection, Mention may specially be made of Pt. Gopal Das Baranya, Lala Bhagavan Din, Pt. Arjunlal Sethi, Suraj Bhan Vakıl, Dr. Satish Chandra Vidyabhusan, Prof Heraman Jacobi of Germany, Prof Jems from United States of America, Ajit Prasad Jain, and Brahmachari Shital Prasad A similar exhibition was organised in Calcutta in 1915 Among the visitors mention may be made of Sir Asutosh Mukherjee, Shri Aurvind Nath Tegore, Sir John woodruf and Sarat Chandra Ghosal The other activity of the publication of Biblothica Jainica-The Sacred Books of the Jainas began with the publication of Dravya Samgiaha as Volume I (1917) with Introduction, English translation and Notes etc. In this series important ancient Prakrit texts like Samayasāra, Gommalasära, Atmānusâsana and Purusārlha Siddhyupaya were published. Alongwith the Sacred Book Series books in English on Jaina tenets by eminent scholars were also published Jaina Siddhanta Bhaskara and Jaina Antiquary, a bilingual Research Journal was published with the objectiveto bring into light recent researches and findings in the field of Jainalogical learning Thanks to the foresight of the founders that they could conceive of an Institution which became a prestigious heritage of the country in general and of the Jainas in particular The palm leaf MSS in Kannada scripts or rendered into Devanagari on paper are valuable assets of the collection. It is undoubtedly accepted that a manuscipt is more valuable than an icon or Architectural set-up An icon may be restalled and similarly an Architectural set-up can be re-built, but if even a piece of any Ms is lost, it is lost for ever. It is how plenty of ancient works have been lost it is why the followers of Jainism paid a thoughtful consideration to preserve Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( vii the MSS which is included in their religious practice A Jaina Shrine, particularly the temple was essentially attached with a Sastra-Bhandara, becausc thc Jina. Jinavani and Jinaguru were considered the objccts of worship. Almost all the Jaina temples are invariably accompanied with the Sastra-Bhandaras During the time of some of the Mughal cmpcrors like Mahmud Gaznai ( 1025 A.D) and Aurangzeb ( 1651-1669 A D ) when the temples were destroyed, a new awakening for preservation of the compics and Sastra started and much interior places wirc choosen for the purpose. A new sect of the Bhattarakas and Caityavasis emerged among the Jaina ascetics who undertook with cnthusiasm thc activity of building up thc Sastra Bhandaras As a result, many MSS collcctions came up all over India. The collections of Sravan abclagola, Moodbidri and Humach in Karnataka, Patan in Gujrat, Nagaur, Ajmer, Jaipur in Raj asthan, Kolhapur in Maharastra, Agra in Uttar Pradesh and Delhiare well known. A good number of copies of important MSS were prepared and sent to different Sasira Bhandaras One can imagine how the copies of a works composed in South India could travel to North and West And likewise works composed in North-West reached the Southern coast of India A great number of Sanskrit, Prakrit and Apabhiamsa works were rendered into Kannada, Tamil and Malayalee Scripts and were transcribed on the Palm Leaf It is a historical fact that the religious enthusiasm was so high that Shântammá, a pious Ja ina lady, got prepared one thousand copies of Salipurana and distributed them among religious people. At a time when there were no printing facilities such efforts descrved to be considered of great significance. The above efforts saved hundreds thousands MSS But along with the development of these new sects these social institutions became almost private properties This resulted into two unwanted developments viZ 1) lack of preservation in many cases and 2) hardship in accessiblity Due to these two reasons the MSS remained locked for a long period for safety, and consequently the valuable treasure remained unknown to scholars. The story of the Sildhanta Sastra Salkhan lägamı is now well known It is only one example With the new awakening in the middle or last quarter of the Nineteenth Century some enlightened Jaina householders came out Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( vil with a strong desire to accept the challenge of the age and started establishing independent MSS libraries This continued during the first quaiter or 20th century- In such Insuitution, Eelak Pannalal Sarasvati Bhavan at Vyar, Jhalara Patan and Ujjain, and Shri Jaina Siddhanta Bhawan at Arrah stand at the top. More significant part of these collections had been their availability to the scholars all over the world. Almost all the eminent Joinologist of the present century studing the MSS, have utilized the collection of Sri Jaina Siddhanta Bhawan It had been my proud privilege and pleasure that I too have used Bhavan's MSS for almost all my Critical editions of the works I edited During last few decades catalogues of some of the MSS collections, in Government as well as in private institutions, have been published Through these catalogues the MSS have become known to the world of Scholars who may utilise them for their study. In the series of the publications of catalogues relating to Jainalogy, Jinarainakośa by Velankar deserves special mention It is quite a different type of reference work relating to MSS Bharatiya Janapitha, Kashi published in Hindi in Devanagari script the Kanniaprāntiya Tädapatriya Grantha Süchi in 1948 recording descriptions of 3538 Palm leaf MSS The catalogues of the MSS of Rajasthan prepared by Dr Kastoor Chand Kasliwal and published in five volumes by Shri Digambar Jaina Atisaya Ksetra Shri Mahavirajı, Jaipnr also deserve mention L. D. Institute of Indology, Abmedabad have published catalogue in several volumes. Among the publication of new catalogues mention may be made of Dilh Jina-Grantha-Ralnāvālı published by Bharatiya Jnanpith, New Delhi and the catalogue of Nāgaura Jaina Sastra-Bhandara published by Rajasthan University. In the above range of catalogues, the present volume of Śrí Jaina Siddhanta Bhavanı Granthävali is a valuable addition As alieady started this is the beginning of the publication of catalogues of the MSS preserved in Sri Jain Siddhant Bhavan now Shri Deva Kumar Jain Oriental Library, Arrah It is likely to cover eight volumes cach covering about 1000 MSS I am well aware that preparation and publication of such works require high industrious zeal, gieat Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ passions and continued endeavour of a tcam of scholars with keen insight besides the large sum required for such publications It is not the place to go into many morc details regarding the importance of the MSS and contribution of Bhavan's collcction, but I will be failing in my duty if I do not record the contribution of the founder Sriman Devakumarji and his worthy successors I sincerely thank Shriman Babu Subodh Kumar Jain, Honorary Secretary of Shri Jain Siddhant Bhavan, who is carrying forward the activities of the Institute with great enthusiasm. Shri Risabh Chandra Jain deserves my whole hearted appreciation tor preparing, editing and sceing through the press the Catalogue with fullest sincerity, ability and insight His associates also deserve applause for their due assistance I also thank my estcem friend Dr Rajaram Jain, who is a guiding force as the Honorary Director of the Institute. In the end I sincercly wish to see other volumes published as early as possible Dr Gokul Chandra Jain Head of Department of Prakrit and Jainagam, Sampurnanand Sapskrit Vishva vidyalay, VARANASI Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय श्री देवकुमार जैन ओरिएण्टल लायनरी तथा श्री जैन सिद्धान्त भवन, मारा 'सेन्ट्रल जैन ओरिएन्टल लायरी' के नाम से देश-विदेश मे विख्यात है। यह ग्रन्थागार मारा नगर के प्रमुख भगवान महावीर मार्ग ( जेल रोड ) पर स्थित है। वर्तमान में इसके मुख्य द्वार के ऊपर सरस्वती जी की भव्य एव विशाल प्रतिमा है। अन्दर बहुत वडा मगमरमर का हॉल है, जिसमे सोलह हजार छपे हुए तथा लगभग छह हजार हस्तलिखित कागज एव ताडपन के अन्यो का संग्रह है। जैन सिद्धान्त भवन के ही तत्वावधान में श्री शान्तिनाथ जैन मन्दिर पर 'श्री निर्मलकुमार चक्र श्वरकुमार जैन बाला दीर्घाय है। इस कला दीर्घा मे शताधिक दुर्लभ हस्तनिर्मित चित्र, ऐतिहासिक सिक्के एव अन्य पुगतत्त्व सामग्री प्रदर्शित है। यही ८४ वर्ष पूर्व एक महत्वपूर्ण सभा मे श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा का उद्घाटन ( जन्म ) हुआ था। सन् १९०३ मे भट्टारक हर्पकीति जी महाराज सम्मेद शिखर की यात्रा से लौटते समय आरा पधारे। आते ही उन्होने स्थानीय जैन पंचायत को एक सभा मे बाबू देवकुमार जी द्वारा संगृहीत उनके पितामह ५० प्रभुदास जी के ग्रन्थ मग्रह के दर्शन किये तथा उन्हे स्वतन्त्र ग्रन्थागार स्थापित करने की प्रेरणा दी। बाबू देवकुमार जी धर्म एव सस्कृति के प्रेमी थे, उन्होने तत्काल श्री जैन सिद्धान्त भवन की स्थापना वही कर दी। भट्टारक जी ने अपना ग्रन्थसग्रह भी जैन मिद्धान्त भवन को भेंट कर दिया। जैन सिद्धान्त भवन के सवर्द्धन के निमित्त वाबू देवकुमार जी ने श्रवणबेलगोला के यशस्वी भट्टारक नेमिसागर जी के साथ सन १९०६ मे दक्षिण भारत की यात्रा प्रारम्भ की, जिममे विभिन्न नगरो एव गांवो मे सभाओ का आयोजन करके जैन संस्कृति की सरक्षा एव समृद्धि का महत्व बताया। उसी समय अनेक गावो और नगरो से हस्तलिखित कागज एव ताडपत्र के ग्रन्थ सिद्धान्त भवन के लिए प्राप्त हुए तथा स्थानो पर शास्त्रभडारो को व्यवस्थित भी किया गया। इस प्रकार कठिन परिश्रम एवं निरन्तर प्रयत्न करके वा० देवकुमार जी ने अपने ग्रन्थकोश को समुन्नत किया। उस समय यात्राएं पैदल या बैलगाडियो पर हुआ करती थी। किन्तु काल की गति को कौन जानता है ? १९०८ ई० मे ३१ वर्ष की अल्पायु मे ही बाबू देवकुमार जी स्वर्गीय हो गये, जिससे जैन समाज के साथ-साथ सिद्धात भन के कार्य-कलाप भी प्रभावित हुए। तत्पश्चात् उनके साले वाबू करोडीचन्द्र ने भवन का कार्य सभाला और उन्होने भी दक्षिण भारत तथा अन्य प्रान्तो की यात्रा करके हस्तलिखित ग्रन्थो का संग्रह कर सेवा कार्य किया। उनके उपरान्त आरा के एक और यशस्वी धर्मप्रेमी कुमार देवेन्द्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने भवन की उन्नति हेतु कलकत्ता और बनारस मे बडे पैमाने पर जैन प्रदशिनियो और सभाओ का आयोजन किया। भवन के वैभव सम्पन्न सग्रह को देखकर डा० हर्मन जैकोबी, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि जगत् प्रसिद्ध विद्वान प्रभावित हुए तथा उन्होने बाबू देवकुमार की स्मृति मे प्रशस्तियाँ लिखी एव भवन की सुरक्षा एव समृद्धि की प्रेरणाएं दी। सन् १९१६ मे स्व० वाबू देवकुमार जी के पुत्र वावू निर्मलकुमार जी भवन के मत्री निर्वाचित हुए। मत्री पद का भार ग्रहण करते ही निर्मलकुमार जी ने भवन के कार्यकलापो मे गति भर दी। १९२४ मई मे जैन सिद्धात भवन के लिए स्वतन्त्र भवन का निर्माण कार्य आरम्भ करके एक वर्ष में भव्य एव विशाल भवन तैयार करा दिया । तत्पश्चात् धार्मिक अनुष्ठान के साथ सन् १९२६ मे श्रुतपञ्चमी पर्व के दिन श्री जैन सिद्धात भवन ग्रन्थागार को नये भवन में प्रतिष्ठापित कर दिया। उन्होने अपने कार्यकाल मे ग्रन्थागार मे प्रचुर मात्रा में हस्तलिखित तथा मुद्रित ग्रथो का सगह किया। जैन सिद्धात भवन आरा मे प्राचीन ग्रथो की प्रतिलिपि करने के लिए लेखक ( प्रतिलिपिकार ) रहते थे, जो अनुपलब्ध ग्रन्थो को बाहर के ग्रन्थागारो से मगाकर प्रतिलिपि करते थे तथा अपने सग्रह मे रखते थे। यहां नये ग्रन्थो की प्रतिलिपि के अतिरिक्त अपने संग्रह के जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थो की प्रतिलिपि का भी कार्य होता था। इसका पुष्ट प्रमाण ग्रन्थो मे प्राप्त प्रशस्तियां हैं। जैन सिद्धान्त भवन, आरा से अनेक ग्रन्थ प्रतिलिपि कराकर सरस्वती भवन बम्बई एव इन्दौर भेजे गये हैं । सन् १९४६ मे वाबू निर्मलकुमार जैन के लघुभ्राता चक्रेश्वरकुमार जैन भवन के मत्री चुने गये। ग्यारह वर्षों तक उन्होने पूरे मनोयोग से भवन की सेवा की। पश्चात् सन् १९५७ से वाबू सुबोधकुमार जैन को मत्री पद का भार दिया गया. जिसे वे अभी तक पूरी लगन एव जिम्मेदारी के साथ निर्वाह रहे हैं। बाबू सुवोधकुमार जैन, भवन के चतुर्मुखी विकास के लिए दृढप्रतिज्ञ है। इनके कार्यकाल मे भवन के क्रिया-कलापो मे कई नये अाय जुड गये है, जिनसे बाबू सुबोधकुमार जैन का व्यक्तित्व एव कृतित्व दोनो उभर कर सामने आये है। जैन सिद्धात भवन, आरा के अन्तर्गत जैन सिद्धात भास्कर एव जैना एण्टीक्वायरी शोध पत्रिका का प्रकाशन सन १९१३ से हो रहा है। पत्रिका द्वभाषयिक, हिन्दीअग्रेजी तथा पाण्मासिक है। पत्रिका मे जैनविद्या सम्बन्धी ऐतिहासिक एव पुरातात्विक सामग्री के अतिरिक्त अन्य अनेक विधाओ के लेख प्रकाशित होते है। शोध-पत्रिका अपनी उच्चकोटि की सामग्री के लिए देश-देशान्तर मे सुविख्यात है। इसके अक जून अर दिसम्बर में प्रकट होते है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In तीन मिद्धान्त गबन, आरा का एक विभाग श्री देवकुमार जैन प्राच्य शोध सस्थान है। इसमे प्रासत और जैन विद्या की विभिन्न विधाओ पर शोधार्थी कार्य कर रहे है। संस्थान में शोध मामग्रो प्रचुर मात्रा मे भरी पड़ी है। गस्थान सन् १६७२ ई० से मगध विश्वविद्यालय, बोध गया द्वारा मान्यता प्राप्त है। वर्तमान मे इसके मानद् निदेशक, डा. राजाराम जैन, अध्यक्ष, प्राकृत-मस्कृत विभाग, हरप्रमाद दास जैन कोलेज (मगध वि वि.) आरा हैं। इस समय सस्थान के महयोग से १५ शोधार्थी गोधकार्य कर रहे है तथा अनेक पी एच, डी की उपाधियां प्राप्त कर चुके है। इम मग्था द्वारा अबतक अनेक गहत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। इस मस्या के हस्तलिखित ग्रन्यो के मूनीकरण कार्य में यह दूसरा उपहार 'जन सिद्वान्त भवन ग्रथावली, का हिनीय भाग है। इसमे सम्कृत, प्राकृत, यपत्र स एव हिन्दी भाषाओ के १०२३ ग्रयो की विवरणात्मक सूची प्रकाशित है। ग्रय को प्रथम भाग की तन्ह दो खडो मे विभक्त किया गया है। प्रथम पड मे पाण्डुलिपियो का विवरण रोमन लिपि में दिया गया है। दूसरे पण्ड गे परिशिष्ट शीर्षक मे ग्रन्यो के प्रारम्भिक अग, अन्तिम अश तथा प्रशस्तियाँ दी गई है। गूनी मे आधुनिक पद्धति से ग्रन्यो का विवरण व्यवस्थिन किया गया है। विवरण निम्न ग्यारह शीगंको में प्रस्तुत है (१) क्रम संख्या। (२) ग्रन्थ मरया। (३) गन्य का नाम । (४) लेखक का का नाम । (५) टीकाकार का नाम । () कागज या तादान। (७) लिपि और भापा । (-) आकर मेमो -मे, पत्रसरया, प्रत्येक पत्र की पक्ति सख्या एग प्रत्येक पक्ति की अमर सरहा। '६) पूर्ण-अपूण । (१०) स्थिति तया समय (११: विशप जानकारी यदि कोई हैं। ग्रन्यावली को मामान्य रूप मे विषय वार निम्नलियित शीर्पको के अन्तर्गत विभक किया गया है (१) पुराण-चरित-कथा। (२) धर्म दर्गन-आचार । (३) रस छन्द, अल कार काव्य, । (४) मत्र-क्रमकाण्ड, । (५) आयुर्वेद । (६) स्तोत्र, (७) पूजा-पाठ विधान । अनेक ऐसे भी गन्य है, जिनका विपय निर्धारण विना आद्योपान्त अध्ययन के सम्भव नही हो सकता है, उन ग्रन्थो को भी इन्ही शीर्षको क' अन्तर्गत व्यवस्थित किया गया है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xiv क्र० ६६८ मे १०६८ के बीच लगभग पचास ऐसे ग्रन्य है जो पूजा से-सम्बन्ध रखते है क्योकि वास्तव में यह प्राय व्रत-कथाएँ है। ऐमी कथाओ मे पूजा-अर्चना की प्रधानता होती है। इसी के साथ कथा कही जाती है, जिससे जनसामान्य धर्म से प्रभावित होकर आत्मोन्नति की ओर प्रवृत होता है। क्योकि बाल-बुद्धि लोगो के प्रतिबोध के लिए कहानी ही सबसे अधिक उपयोगी एव सरल विधा है । प्रस्तुत सूची मे तत्त्वार्थ सूत्र, द्रव्यसग्रह, भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमन्दिर स्तोत्र, विषापहार स्नात्र, सिद्वपूजा आदि की प्रतियाँ बहुमप्यक है। क्रम संख्या १३६१ से २०२० तक स्तोत्र एव पूजा-विधान के ही ग्रय है। एक विपर के इतने अधिक ग्रन्थो का एक सार सग्रह हाना, अपने आपमे महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद के शारदातिलक सटीक वैद्यमोत्पा, योगविनाग, वैद्य भूपग प्रभृति प्रयो की पाण्डुलिपियाँ विशेष महत्व की तमा प्राचीन भी है । ___ अन्य प्रथागारो मे उपलब्ध हन्नलिखित प्रतियो के सन्दर्भ यथास्थान दिये गये है। इस 1 पिद्वान भवन ग्रन्यावती भाग -१ के भी मन्दर्भ दिये गये हैं। यह मन्दर्भ प्रतियो के खोजने में सहयोगी होगे। इममे यह भी ज्ञात होता है कि देशभर के अनेक शास्त्रभण्डारो, मदिरो तथा मस्थानो मे हस्तलिखित ग्रन्यो की भरमार है। जो Tी ना अपमागिा पड़े हुए है। उन्हें प्रकाश में लाने की दिशा मे जो प्रयत्न हो रहे है, वे पर्याप्त नही है। विद्वानो, अनुगन्धाताओ. तया सम्बद्ध सम्याओ को इसे एक आन्दोलन के रूप आगे बढाने का उपाय करना चाहिए। ग्रन्थावली के इस भाग को तैयार करने मे डा. गोकुलचद्र जैन, वाराणसी, श्री सुवोधकुमार जैन श्री अजय कुमार जैन आदि व्यक्तियो का महत्वपूर्ण निर्देशन रहा है। उक्त सभी का हृदय से आभारी हूँ। आशा है भविष्य में भी सवका निर्देशन एव सहयोग आशीष पूर्वक प्राप्त होता रहेगा। ग्रयावली क सम्पादन, मयोजन मे जो त्रुटियाँ हुई है, उनके लिए विजन क्षमा करेगे । ऋषभचन्द्र जैन फौजदार शोधाधिकारी, देयकुमार जैन प्राच्य शोध संस्थान आरा (बिहार) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION TO SECOND VOLUME In continua innir my introduction to first volumc of Sri Jaina 5,741.1, Blyton Gamlhasil, I hic prc.lt pleasure in introducing the Sacond Volume or thic mc erics Liis the rirsi Volume the Second Volume contains descriptions of orc than One Thousand Sanskrit. Priit, 07.1974:0 nich llind: Manuscripts prcscrved in Shy'r-'17; 11 - One ital LiirasArrah It has been prepared s'escals schuren; in the Suicntis Methodolors adopted in First Volc. in the introduction to lirst Volume, I have discussed in dot !11-ins points scelto the logic in encial and Sub ) 2190 11.7 sa Blg . Gi Vyle in particular. The Second in lume i n disided into two parts. In the first part deco inaon4 of m uscripis h 114 heen riven, and in the second port the sun the openinr and closin portions of MSS along with Colophons hiichron recorded in Devineri scripes. Thc MSS have leon kiired stuler sore reneral leads like Purana-CaritaKathr, D4 ,11-Dirkan ilir. ctc This classification hclps a common ler. These who want to romin details, thy should h1v31leen 1 on the contents shile loolin' on the titles. Thc WISS recorder under the held os hotho (nos 998 to 1026 ) arc the part of 1.1 ar Pir- birini not related with the narrative liter.lture in iis siris scnse Thc minuturipts rounded in the present volumc have their own importunc By public.1110111 of this volumc thcs have becamc acccssable to scholars, ind more could he best adjudged when utilized for stir: or critical cdiisons, llcrc I would like to draw the attention on certain points which seems to me significant to this voli me It has been generally observed by scholars and religious critics that due importance to Bha!! and Karmaka nila (rituals ) have hot becas given in Jaina rcligion A large number of MSS iccorded ne prescal volumc arc iclated to various type of rituals, devo songs- ilot ras-Slulr-Pūji Patha. Pralistha ctc and other related matters The number and varicty of MSS clearly testify that inan and Karmakanda occupy an important position in Jaina Trao on It is truc that according to Jainism Bhakti and Kriyalada alone call not lead to libcration or Molsa Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In this volume seven more MSS of Dravyasmgraha have been recorded. It shows the popularity of the treatise All the MSS related to it should be taken into considera'ion while undertaking a critical study of the Text Some important Prakrit and Apabhramia MSS Iki Samaya sara (1165-1168, Pravicanasara (1158-1163), Satpahada (11721173), Kartikeyanupreksa (1133) Paramatmaprakāśa (1154, 1155) have also been recorded in this volume. Seventeen MSS relating to Indian medicine i e Ayurveda have been mentioned some of which like Aştängahrdaya of Vägbhata (1344, Sarangadhara-samhita (1356) o Saradatilaka (1355), Madanavinoda (1349) deserve special mention A good number of MSS is related to stotra literature Some of them are close to tantra It is true that Tantrism could not be developed in Jainism like some other schools of Indian religions, still some trends can be seen in the works like Padmavati salpa, Jiālāmāliníkalpa, Sarasvatĺkalpa etc In the end I like to thank the editors and publishers for bringing the Second Volume with in a short time after the publication of first volume I do hope that the same enthusiasm will conti nuc in preparing and publication of other volumes of the Catalogue -Dr Gokul Chandra Jain Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली SHRI DEVAKUMAR JAIN ORIENTAL LIBRARY, JAIN SIDDHANT BHAVAN, ARRAH ( BIHAR ) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Library accession S. No. Title of Work Name of Authar or Collection No. If any Name of Commentator 1 2 3 I 5 998 Nga;48/15/4 | Ananta-Caudasa-Katha | Jnanasāgara 999 Nga/47/4/43 1000 Ta/42/50 Ananta-Vrata-Katha 1001 Nga/47/4/54 | Anantanāth-Katha Nga/411 Jhai Aştanhika Katha Jnānasagara 1003 Nga/48/15/6 1004! Nga/47/4/64 Athai Bhairondása 1005 Nga/47/4/47 Adityavara , Nga/40/1 1007 Nga/41/Ga 1008 Nga/47/4/48 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mat. or Subt. چھ 6 P. P P P P P P P P P P. Catalogue of Sanskrit. Parkrit, Apabhrasa & Hindi Manuscripts (Purana-Carita-Katha) Script 7 D, H Poetry D, H Poetry D. H Po try D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry D; H Poetry D, H. Poetry D, H, Poetry Size in cms. No, of follos or leaves lines Extent per page & No. of letters Per line 8 17 5x13 5 7 14 15 20 6×18 0 5 16 18 32 3x19 0 1 33 37 20 6×18 0 6 16 18 14 5x11 0 6 13 16 17 5x13 5 3 14 15 20 0x18 0 6 16 18 20 6×18 0 11 16 18 14 2x9 0 22 9 22 14 5x11 0 3 13 16 20 6x18 0 3 16 18 9 C C C C C C с C C C C Candition and age Good Old Good Old Old Good Old 10 Old Old Good Old Additional Particulars 11 [ 3 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab il 2 1 3 Nga/48/25 Adityavára Katha 1010 Ta/42/45 Akaga-Pancami Kathā Jnanasägar 1011 Nga/41 Ta 1012 Ta/12/1 Bhavışyadatta Katha 1013 Nga/40/7 Canda Katha Rajâcanda 1014 Ng/41 (Gha) Caturdast Katha Jnânasāgara 1015 Nga/40/2 Caturavacanoccarini Katha 1016 Ta/26/1 Dana-Katha Bharāmalla 1017 | Nga/47/4/63 Dasa-Lakşni Kathā 1018 Nga/47/4/68 Bhairondāsa Nga/41; Cha Jnānasāgara 1020 Nga/48/15/3 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 5 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Purāna-Carita-Kathā ) 6 7 11 1 8 1 9 23 0x167 c 10 Good od D, H. poetry 8 12 29 Good D, H Poetry 32 3 19 01 3 33 37 10d D, H Poetry 14 5x110 9 13 16 D, H Poetry 24 2x160 68 10 30 Good 1948 V S D, H. Poet ry 14 2 x90 31 9 22 Good D, H Poetry 14 5x110 8 13 16 Good D, Skt Prose Old 14 2 x90 11 9 22 DH Poetry 20 3 x17 5 38.14.21 Good D, H. Poetry 20 6 x 180 2 16 18 D, H. Poetry 20 6x 180 8 16.18 D, H. Poetry 14 5x110 8 13 16 1 р. 1 D, H, Poetry 17 5x13 5 7.14 18 Good Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 l 3 4 1 5 1021 Ta/42/52 Daśa-lākşani-vrata-Katha | Jnānasagara 1022 Nga/44/16/1 1023 Ta/27/1 Darsana-Katha Bhärāmalla 1024 Nga/40/4 Dhama-pāpa-buddhi Katha 1025 Ja/60 Dhūpa-daśami Katha 1026 Nga/47/4/79 Dudhārasa-vrata ,, 1027 Ja/53 Hari-vansa Purana 1028 Ja/27/1 1029 Jha/10/3 1030 Ja/59 Jambū-caritra 1031) Nga/46/8 Labdha-vidhana Katha 1032 Ja/6/1 Mahāvira-Purana Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ('Purāna-Carita-Katha ) ol 7 | 8 | 9 | 10 | 11 P D, H 32 3 x 190 2 33 37 C Good toetry D, H Poetry 130x10 3 5 9 10 Incold There are so many opening pages are not available Good D, H Poetry 19 7x16 5 48 14 21 ! Old D, Skt Prose 14 2x90 14 9 22 D, H Poetry 24 5 x 10 5 58 28 Its three to twelve pages aae lost c old D, H Poetry 20 6x18 4 16 18 1 Good P | D, Skt H Poetry | 27 9 x 17 3 149 14 40 1 Old 21 5 x 144 ! 41 15 38 The heading of this book his clouvayed D, Skt H Prose/ Poetry D, H Prose 26 8 x 10 5 8 12 37 It has no opening and clysing. D, H Poetry 29 4x14 I 22 13 38 Good 1933 V Rajya kumāra canda seems to be copiar S D, H Old Poetry | 190x170 5 15.22 D, H Poetry 30 2x150 85.12 49 Inc Opening pages are missing Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumu Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1 3 1033 Nga/37/ 9 N emi-nātha-Vivāha Vinadilāla 1034 Nga/47/4/62 Niskānkşita-guna Katha 1035 Ta,42/46 Niśšalyaştami „ Jnanasamudra Nga/41/Jha | Nirdoşa-saptami , Jnānasāgara 1037 Nga/48,15/8 Pancami Surendra-Bhūsana 1038 Ja/11 Parsva-purāna Lala Candulāla 1039 Ja/10 1040 Nga/41/Cha Ratnatraya Katha 1041 Ta/42/51 Jnanasagara Nga/84/15/5 Ratnatraya-vrata Katha 1043 Nga/44/16/2 1044 | Ta/42/44 Ravıvrala Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit Apabharmşa & Hindi Man uscripts (Purana-Carita-Katha ) [ 9 7 8 9 10 11 D, H Poetry 22 0 x 130 6 15 13 D, IJ Poetry 20 6x180 c 7 16 18 old D, H Poetry 32 3 x 190 3 33 37 c Good D, H Poetry 14 5x110 c 6 13 16 old P, H Poetry Good 10 14 15 . D; H Poetry 28.0x130 144 13 27 Good D, H Poetry 29 0 x 14 0 11 12 28 Good D, H Poetry 14 5x110 c 6 13 16 old D, H Poctry 32 3 x 19.0 2 33 37 Good D, H 17.5 x 13 5 5 14 15 Good Poetry | 13.0 x10 2 D, H Poetry Inc Old 11 9 10 32.3 x190 C Good Poetry 4 33.37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1 1045 Nga/48/15/1 1046 1048 1047 Ta/26/2 1049 1050 1051 1052 1053 2 1054 Ja/34/1 Ta/42/54 Nga/48/15/7 Ja/62 Ta/42/56 Nga/46/9/1 Nga/46/9/2 1055 Nga/41 Nga/41/tha Rohini-vrata Kathā 1056 Nga/46/3 Ravi-vrata Katha Ratri Bhojana-tyaga Kathä Rohini Katha 33 Rota-tija 39 3 ?? Salūnā 98 Sila-Katha "9 22 4 Bhanukirti Bhāramalla Dyanataraya Vinodilala Malla-sena ? 1 [I 5 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 Catalogue of Sanskrit Parkrit, Apabhrmsa & Hindi Manuscripts ( Purāna-Carita-Katha ) 7 8 9 10 11 D, H Poetry 17 5x13 5 4 14 15 1 Good D, H Prose) Poetry 190x149 c 8 11 15 old D, H Po try 20 3 x17 5 33 14 21 Good D, H/ Skt 32 3 x19 01 2 33 37 c Geod Poetry РІ D, H Poetry | 17 5x13 5 9 14 15 Good PD, H Poetry | 14 5x110 9 13 16 c Old P D, H Poetry | 22 3 x 130 98 23 c Good I), H Prose 32 3x190 1 33 37 Good D, H Prose 18 8 x176 2 17 23 D, H Poetry 18 8 x 17 6 3 14 17 D, H, 14 5x110 19 13 16 c Old Poetry D, H Poetry 25 6 X16 6 27 13 36 Old Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 11 2 1 3 4 5 1057 Ta, 28/2 S.la-vrata Katha Bhärāmalla 1058 Nga/40/3 Silavati 1059 Nga/41/Ja Solahakärana Kathả Jnanasāgara 1060 Nga/46/6 1061 Nga/48/15/2 sodasa-karana 1062 Ta/42/48 Sravana-dwâdasí ,, 1063 Nga/45/1 Saipāla-Caritra Jivaraja Nga/45/12 1065 Ta/42/47 Sugandha-daśami Katha Jnānasagara 1066 Nga/48/15/9 1067 Nga/474/78 Nga/41 Sugandhadasami Jnānasāgara Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts i i ri. ( Purāna-Carita-Katha ) 67 7 1 .8 | 9 · 10 11. pl D; H Poetry ) 198x17 2 45 14 23 C, Good. D, Skt Prose 14 2 x90 50 9 22 D, H 14 5x110 cl Old I 5 13 16 Poetry 1 D, H 23 2 x 15.0 Old Poetry 4 16 15 D; H Poetry 17 5x135 4 14 15 Good D; H 32 3x190 C. Good Poetry 1 33 37 D; Skt. 24 7x11 2 Prose 40 13 37 Good D, H Poetry 24 5x11 3 38 15 35 old D, H. 32.3190 2 33 37 C Good Poetry D, H Poetry 17 5X13 S 4 14 15 Good D, H. Poctry 20 6x180 4 16 18 C D, H. Poetry 5x110 5.13.16 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 1 3 1069 Nga/40/5 | Swarūpa-sena Katha 1070 Ta/14/35 Vira Jinanda 1071 Ja/34/5 Vişnu Kumara , Vinoslala 1072 Ta/11/1 Arihant -Kovalı Rama-gopala 1073 Ta/6,9 Aradhanāsāra 1074 Nga/38/10 Arādhana-pratıbodha 1075 Ja/1 Artha Prakaşıka 1076 Ta/9/1 Atmânusāsana Guna-bhadra 1077 Ja/38 Banarasi-Vilāsa Banarasidasa 1078 Nga/47/4/67 Baraha-bhavana 1079 Nga/47/15/6 1080 Ta/6/18 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 15 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darsana Acara) 11 D; Skt prosc 14 ?x90 32 9 22 D; H Poctry 152 x 128 3 11 15 P1 D; H Poetry 190 X 149 19 15 16 Tc lola D; Skt | 14 5x117 Poetry 29 9 15 Good 1917 V S. old D; Pkt. 22 2x14 7 Poetry 8 18 15 Good D, H Poetry 15 7x90 79 22 P D Good , H Prose 33 4 x 18 9 411 13 33 The opening pages are damaged. D, Skt Prose 19 0x14 5 37 15 13 Old 1928 V s. D, H. Poet ry 22 0x131 107.12.31 C old D, H Poetry 20.6 x 18 0 2.16 18 D, H Poetry 16 5 x 16 0 2 12 19 D, H, | 22 2 x 14.7 Poetry 1.20 17 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] , श्री जैन सिद्धान्त भवन, ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, 'Jain Siddhant Bhavan, Arrah ili 2 3 1081 Nga/44/13/7 Bisa Tirthankaranāmavals 1082 Ja/15 Brahma-Vilása Bhagavatıdása 1083 Nga/45/7 1084 Ta/42/3 Caitya-Vandana 1085 Ta/14/3 1086 Nga/45/10 Căturmāsa Vyākhyā 1087 Ja/40 Caudaha-guna-sthāna 1088 Ja/45/3 1089 Ja/51/21 Catyâri-dandaka 1090 Ta/14/42 Caubisa Daulata-Tāma 1091 Ja/65/1 1092 Ja/23/1 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 P P P P P P P P Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabharosa & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darśana Acāra '),. P-D, Skt Poetry P. P. " P. 7' D, skt Poetry D, H Poetry D, H Poetry D; Skt Poetry D, Skt Prose/ Poetry D, H Prose D; H Prose D, Pkt Poetry D, H Poctiy D; H. Poetry D, H Prose 11 8 32 5x8 5 36 13 250x120 170 11 34 26 8 x.13.9 168 11 33 32 3 x 19 0 1 30 37 15 2x12 8 3 13 18 24 7x11 3 72 13 38 22 0 × 13 5 63 12 27 15 0× 11 3 8 10 19 32 3 20 1 1 13 35 15 2x12 8 6 12 20 11 5×10 0 10 10 14 22.4 x14.2 18.17.18 9 C C C C с с C с C C C Inc Old Good Old 1967 V S. Good O'd Old Old Old Good 10 Good Good Old ! 11. Other subjects are also written in last pages. [ 17 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18) थी जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 4 15 1093 Ja,45/2 Caubisa thână 1094 Ja/41 Carca-Sangraha 1095) Ja/8 Carca-Samadhāna Bhüdharadasa 1096 Ja/30 1097 Nga/45/11 Dasaskandha 1098 Ja/35/6 Dāna-Vávaní Dyanataraya 1099 Ja/16/6 1100 Nga/37/4 DÂna-sila-tapa-bhavana 1101 Nga/30/2,1 D:vagaman Samantabhadra 1102 Ja/41/1 Digambaia ämnāya 1103 Ja/12 Dharma-grantha 1104 | Ja/25 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit. Parkrit, Apabhrása & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darsana Acāra ) [ 19 61 7 | 8 | 9 10 11 D; H Poetry 150 x11 3 5 10 20 Old D; H. Poetry 21 2x13 6 148 11 33 P. D, H Po try 29 7x140 83 11 44 C Good 1893 VS D; H Poetry 20 8 X14 21 1.7 16 17 Grod D; Pkt. | 23 4 x 10 3 Prose/ 42 13 40 ) Poetry Old 1735 V S. D, H Poetry 18 3 11 5 10 16 15 Good D, H Poctrv 23 3 > 1901 10 15 18 Good D; H. Poetry 20 3x11 5 13 9 18 D, Sht Poetry 120x14 8 14 9 26 C old D, H. Prosc 21 2x13 6 2 11 301 C old D, H, Poctry 12 9 27 4 230 9 19 D; H Prosc 22 0 x14.4 110 20 141 Inc Old Its opening 48 pages and last page are missing Poetry Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली' Shri Devakumar Jain Onental Library, Jain Siddhant Bhav.in, Arrah il 21 1105 Nga/44/8 Dharmāmrtasära 1106 Nga/44'13,4 Dharmâştaka 1107 Ja/9 Dharma-panik sa Manohara 1108 Ja/14 Dharmaratna 1109 Ja/13 „ „ granthā 1110 Ja/35/8 Dharma-rahasya Dyanataraya 1111 Nga/30/1 Dharmasäia Sata sai Siromanidasa 1112 Ta/61/14 Diavya-Sangraha Nemicanda 1113 Nga/30/2/2 1114 Ta/37 1115 Ta/4/1 Nemicanda 1116 | Ta/6/1 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 21 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts i. ( Dharma-Darsana. Acara) 18 19). 10 l 1 21.0 x16 5 60 15.21 c D; H. Prose/ Poetry Good Old D; H. Poetry 13.5x8.5 4 6.13 D; H. Poetry 29.8 x 15.0 181.12.48 C Good D, H. Poetry 26.9 x 13.2 181.9.24 C Good - P; H Poetry 26.6 x 14.0 206 9 24 Good D; H. 18.3 x 11 5 10 16 15 Good Poetry D, H Poetry 17 5 x 14.3 75.13 22 Good 1832 V 's D, Pkt Poetry 22 2 x14 7 10.23 15 C old D; H. Poctry 190 x 14,8 59 26 Old P Old DH Skt. 16 (x120 Poctry 41.10 16 Starting three pages are missing so it has opening P D,H /Pkt. 23 2 x 19.5 20 13 32 Prosc Old 1871 V. S D.Pkt./H.! 22 2 x 14.7 Poctry/ 49 18-20 Prose Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 , घी जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 11 2 3 . 1117) Ja/23 Diavya-Samgraha Nemicandra 1118 Nga/16/2 1119 Tal/14/33 Dvadasānuprelşa 1120 Ja/51/19 Erya-patha Sim.iyika 1121 Nga/38/13 | Gati-Lakşhna 1122 Ja/49 Gommata-sara Nem candra' 1123 Ta/3/46 Gyana ke ath anga 1124 Nga/28/1 | Hanavanta anuprēkça Pandita Bacharaja 1125 Nga/48/11/5 Jina-gâyaits trikāla-sandhya 1126 Ta/24/3 Jina-guna-sampatti 1127 Ja/65/7 Jina-mahima 1128) Nga/47/4/77 Jēva-râsı-kşama-vani Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabþramša & Hindi Manuscripts autě ( Dharma-Darsana Ācāra ) - i . ől 7 § 1 9 10 11 PD, pkt 1) 22.4x142 | Coldit 19 17 '15 Prose) Poetry D. PL Poetry 13 0X150 6.11 21 Good 473 16 4. 4 Poetry | Old D, Skt Poetry 32 3x20 1 2 13.35 Good D, Skt 15.7 x 9.0 29 22 Good Poetry D; H 36 5x18 7 454 11 38 1 c.Good.. Prose Good ID, Pkt 225x150 H 3 12 31 Poetry D; Pkt Poetry 14 6 14 1 7 14 19 Good 1 D, Skt | 16 5x13 2 Poetry/ 0 10 13 Prose D, SLt. 30 2 x 200 Poetry 3 37 33 c old P1 D, H, Poetry 11.5x100c 410 14 Good D; H. Poetry 20 6x18 0 3.16 18 C old Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली । Shri Devakumar Jain Oriental Library,' Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 3 4 1129 Nga/40/6 | Jnāna-pacisi Banarasidasa 1130 Ja/2314 Jnanamava-Vacanika Subhacandra 1131 Nga/16/3 Karma-prakrti-grantha Nemicandra 1132 Ta/17/1 Karma-battisi 1133 Nga/20,2 Kāratikeyanu prekså Kartikeya 1134 Ja/51 Laghr-tattvärtha sūtra 1135 Ta/3/12 Laghu-sāmáyıka 1136 Ta/42/80 1137 Nga/38/9 Lesya-Swarupa 1138 Ta/4/3 Lilávati-prakirnaka Bhāskarācārya 1139 Ja/18 Mithyātva Khandana Padmasagara 1140 Ja/4 Mokşamärga Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit. Parkrit. Apabhrmsa & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darsana Ācāra [ 25 6 7 1 8 9 10 11 1 Old D, H. Poetry 14 2x90 3.9 22 Old D,Skt./H Prose/ Poetry 22.4 x 14.2 40.18.15 D; Pkt. 130x150 Poetry 18.11 21 | Good Old D; H Poetry 15 5 x 9,5 10 10 19 D, Pkt. 25 6x150 c Good Poetry 38 15 21 kt 32 3201 Prose 2 13 34 Good It is also named Arhat pravacana. D), Skt 22 5 x150 Poetry 2 12 36 Good D, Skt 32 3x190 1 33 37 Good Pocery P D, SL / Pkt. Poct ry 15 7 x90 29 22 Good D, SHE 193x13.01 Cloid ! Pros 167.17.16 Poctry D, H Poetry 23 9 x10 8. 113 9.32 C Good P DH (PLE 32 1x15,0 1 Prosc 224.13 30 Pastry Inc Gond Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakuma. Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 2 1 3 T5 Ja/65/5 Mokşa-marga paidi Banarasidasa 1142 Ta/14/36 1143 Ta/6/13 Mrtyu-mahotsava 1144 Nga/16/1 Mukti Suktavali 1145 Ta/18/11 | Navakåra-mahatmya 1146 Ja/27/15 Naya-cakra Deyasena 1147 Nga/16/5 Ja 41/2 , Vacanika Hemaraja 1149 Nga/28/6 Hemarāja Devasena ) 1150 Nga/20/3 Nirvana-Lända Nga/2014 Bhaiya Bhagavatidasa 1152 Ta/6/22 Panca Vjahatika Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 27 Catalogue of Sanskrit, Prakrit Apabharşı & Hindi Minuscripts ( Dharma-Darsana Acāra ) 1 8 1 9 10 11 D, H. Poetry Good 7.10 14 D. H. Poetry 15.2 x 128 5.11 15 Old Old D; Pkt 1 22 2x14 7 Skt! 3 20 19 Poetry ro Good D, H Poetry 130x150 23 11 21 Opening two pages are missing. 1 D, H. Poetry 110x110 6 12 17 Old D; Skt. Prose Old 21 5 x 14 4 12 19 13 It is also called Alapapaddhati D, Skt. Prose 13 1 X 150 13 11 21 Good D, H, poetry 21 2x136 17 11 34 C Old D, H Poetry 13 4x17 6 26 11 19 Good 1962 D; PRE Poetry 25 6x150 31 21 Good D; H. Poetry 25 6x150 3 14 18 ! Good D, Pkt. Pociry 22 2x 14.7 2.20.20 Old The charts on Nautra and Tantra are in its last riges Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1153 1154 1155 1156 1157 1158 1159 1160 1161 1162 1163 1164 2 Ja/45/1 Ta/6/8 Nga/16/6 Ja/6/3 Jha/5/2 Jha/10/1 Jha/10/2 Nga/^6/4 Praśna-mālā Ta/11/2 Panca-purmşthi 3 Parmatma-prakāśa 99 Ta/12/2 39 Parikşa-mukha Vacanikā Pravacana-sara Pravacanasara Prayaścitta-grantha Nga/47/4/70 Papa-punya-mähâtmya Nga/47/4/69 Punya-māhātmya Samyyktva Koumudi 4 Yogiñdradeva Candiakirtimahārāja? Hemarāja Akalanka-swāmi 5 1 II Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Dharma, Darsana, Ācāra) i [ 29 61 71 - 8 - 9 10 11 11 . P. D; H. Prose 1 15.0x113. c 9.10 20 Good D, Apb Poetry 22 2 x 14 7 25 19 13 Good D, Apb. 130x150. C Poetry 29:11 21 It is also called paramappayasu D; H. 30.2x150 1.11.37 Inc Good Prose D; H Prose 20.3 x 158 57 17 19 D; Skt Poetry 29 8 x 14 4 27 14 35 D, Skt. Prose/ Poetry 26.6 x 10.5 14 14 39 D, H Prose/ Poctry 26 8 x 10 5 28.12 471 Incold D, SIt Pocity | 145 y 11 7 6 17 18 D, H Poetry 20 6 x 180 916 18 ! C D: 11 P'octry 20 6x180 1.16 18 P. DR Poctry 24 2x160 44.10 30, C Good Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 1 श्री जैन सिद्धान्त 'भवन प्रम्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1165 1166 1167 1168 1169 1171 1172 1173 2 Nga/39/2 Ja/37 1170 Nga/16/7 1176 Nga/42/1 Nga/42/2 Nga/16/8 Ta/11/8 Ta/6/1 Nga/16/4 1175 Ta/14/40 f. Ta/14/15 Samayasara-gāthā 99 .. 3 Samavasarana Samud-ghata Sardarśana 1174 Nga/47/4/55 Salesyabheda Satpähuda " najaka Samayika 30 " ༄་ 11. t 4 Banarasidasa Kundakunda : er 6.1 991 2) (2 5 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31 Catalogue of Sanskrit, Parkrit, Apabhrasa & Hindi Manuscripts (Dharma, Dai sana, Acāra ) | 9 | 10 11 P. 15.7x9 0 3 9.22 Inc D, Skt.// Pkt. Poetry Good D; H. Poetry 21.0 x14 5 81 13 31 c old D; H. Poetry 15.0 x8.0 344 6.16 Old 1884 V. S. P. D, H. Poetry 15.0 x14.01 128.13.19 C Good 1840 V. S. D; H. Poetry 130x150 40 11.21 Good D; H. Poetry 130 x 150 7 11 21 c Good D, H. Poctry 14.5x117' C 211 20 Good' D; Pkt Poetry 22 2x147 c 35 19 15 old D, PRE Poetry 130x150! 36.11 21 C Good D, H. Poctry 01 20.6 x 1801 2.16 18 D, Skt, 15.2 x 128 2 12.13 Old Poctry D; PAD) Slt. Prosej Pocery 15.2 x1281 25,116! Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली 32 1 Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah 12: .. 20 1 | 15 1177 1178 1179 1180 1181 1182 1183 1184 1185 1186 1187 1188 2 Ta/42/95 Sāmāyikä Ja/51/20 Nga/19 Ta/26/3 Ja/45/4 Ja/3 Ja, 65/3 Ta/9/3 Nga/31/2/6 Jha/5/1 Sâşâcâra Ta/14/14 Sätataitva 3 Siddhantasāṛa Nga/47/4/76 Síla-Vrata Sindura-Prakarana (Sūktimuktavali) ور 4. Sindura-Prakarana Śrāvakācāra 1 t 1 17: 4 Nathamala Sravaka-pratikṛamana¬ t " Somaprabhācārya Somaprabhacārya els 1 77 Gumani-Lala 14 IT .0 1 Ha şakirti " H arşaliit ", λ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 33 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Dharma, Darśana, Ācāra ) 6 11 8 1 10 1 11 11 c Good D; Skt. 32.3 x 190 Poetry/ 3.33.37 Prose 32 3 x 20 1 3 13 35 Good Poetry D, Skt Poetry 15 8x90 2 9 22 Good 20 3 x17 5 3 14 21 c D; H. Poetry old Old D; Skt Prose 150 x 11 3 7.10 20 D; H 32 1 x16 0 26 11 47 Good Prose D; H. Poetry 11,5 x 10 0 51.10.14 Good D; Skt Poctry 19 0X14 5 19 15.13 1 Old Pandita Paramánanda seems to be copier. D; H. Poetry 12 3 x 16,0 21 15 16 C Good D; H Poctry 20 6 X18 0 2 16 18 Old D; H. Poetry 29.8 x14.4 151.12 48 Old P. D. Sit. 15.2 x 12.8 Poctry 19.11.16 C Old Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 श्री जैन सिद्धान्त भवन यन्थावली' Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 1189 Ta/42/94 Śrávaka-Pratikramana 1 1190 Nga/48/6/1 Śrāvaka-Vrata-Sandhyā 1 1191 Nga/48/11/4 1 1192 Nga/47/4/60 Vidhana 1 1193 Nga/25/11 i Sri-pāla-darśana 1 1194 Nga/44/19/1 , , 1195 Ja/6/2 Sudrştı Tarangini 1 1 1196 Ta/6/4 " Tattwasára Deyasena 1 1197 Nga/44/12/1 Tatvârtha-Sūtra Uma Swami Nga/46/12/1 Tatvārtha-sūtra 1 1199 Nga/47/4/38 Umā Swami 1 1200 Nga/47/4/38 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit Apabharasa & Hindi Manuscripts (Dharma, Darsana, Acara:) 6 P. P. P. P P P P P P ד' P: P P. 7 D; Skt Pkt Poetry D, Skt. Prose D,Skt. Poetry D, H Poetry P, H Poetry D, H Poetry D; H Poetry D, Pht Poctiy D; Sht Prosc D, Sht Prose D, Skt. Prose D; Ski Prose - 8 32:3 x190 4 33 21 15 7×9 2 87 18 16 5x13 2 6.12 16 20 6×18 0 2 16 18 28 4 x 17 0 2 24 17 19 5×12 5 59 25 30 2 × 150 43 15 38 22 2 × 14 7 4 21 21 32 3x20,2 10 23 17 22 5 x 13 0 24 18 13 206-180 13 In 18 13 58 5 38 6 13 9 C Good Inc C с C C Inc C Inc с C C Old Old Old .10 Good Old Good Good 1 Old Old Old" Old 11 I 35 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] थी जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1201 Nga/48/7 ! Tatvārtha-sūtra Umāswami 1202 Ta/14/24 1203 Ta/42/17 1204 Nga/38/6 1205 Ja/23,2 1206 Ta/6/6 1207 Ja/273 1208 Nga/2516 1209 Nga/20/1 1210 Nga/17/2/1 1211 Nga/20/1/2 1212 1212) Ja/33/2 Ja/33/2 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [37 Catalogue of Sanskrit, Parkrit. Apabhrmsa & Hindi Manuscripts (Dharma, Darśand, Ācāra) 7 1 8 9 10 11 Old D, Skt prose 15 5 x 11 6 23 8 20 D, Skt. Prosc 152x12 8 19 11.15 D, Skt. 32 3x190 Prose 4 33 39 C Good D, Skt Prose 158x90 4 9 22 Good Old D, H Prose Poetry 1 22 4 x 14.2 57 19 15 D, Skt. Prose 22 2x14 7 9 20 20 Good P DH Skt 21 5X14 4 Prose 1 56 17 13 D, Skt. Prosc 28 4x170 9 24.17 Good D; Skt. Prose 25 6x15.0 13 15 21 P. D.SK JH Prose 250 x 170 45 20.16 Good P. D; Skt. 290x1781 C 1 Prose 11.21 17 Good Prose 19 7x130 10.18.16 Old Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] 1 7 fizim ata arrat Shri Devakumar Jain Oriontal Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1213 Ja/34/2 Tattvärtha Sutra Umswams 1214 Ja/27 1215 Nga/31/2/2 1216 Nga/29/3 1217 Ja/2 „ Vacaniha Jayacanta 1218 Nga/32 Tropanakriya 1219 Ta/5/12 1220 Nga/48/26/1 Trikåla-Caturvinsats 1221 Ta/16/3 Trivarnācāra Jinasenac&rya 1222 Ja/5 . Trilokasara 1223 Ja/1 (Kha) Vacanika 1224 Ta/6/10/Ka Vairagya-pacisi Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 39 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darśana, Ācāra ) 61 71 8 10 11 D; Skt Prose 19 0 x14 9 18 11.15 P. D Skt. 20.2 x 14 5 14.15 18 C Prose Good 1955 V S Good D, Skt | 12 3x16 6 Prose 3 17 16 D,H /Skt. 13 2x21 o Prose 71.16 13 C Good D, H. Prose 32 2x15 3 272.12 56 Inc Good Old D, H. Prose/ Poctry 25 3x15 O 175 16 18 The language of this Mss. is not clear. Inc | old D; Skt. 25 0x150 Poetry 2 26 25 D, H poetry 17 5x13 5 38 24 Good D, Skt Poetry 15.5x9,5 28 9 16 c old It has no heading o: opening D, H. Prose 31 0x16.2 295 11.59 C Good Two pages are damaged. D, H Prosc 33 4x18 9 18.13.33 Inc D; 1 22.2 x 14.7 2.18.15 Old Pocir> Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 122 1226 1227 1229 1230 1231 1228 Nga/47/4/52 1233 1234 2. 1235 Ja/27/4 1236 Nga/31/2/5 Yogi-räsä 1232 Ta/3/49 Nga/44/19/9 Akşara Battisi Yoga Ta/14/32 Nga/33/7 Anyamata Śloka Nga/47/4/50 19 Nga/47/4/44 Athai-Rāsā Ja/40/2 3 " Vavani 99 27 Baraha-māsa 33 Candra-sataka Nga/46/2/1 Carea-sataka Nga/46/2/2 Caubola-pacisi 4 Subhacandra Jinadāsa Bhagavatidāsa 1 Vinayakirti Vinodilāla Dyanatarāya 5 I I I I 1 I Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 41 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ; ( Rasa-Chand-Alankāra, Kāvya :) olilio1 | 10 D, H Prose 21 5x14.4 50 22'16 | c old. Good D, H Poetry 12 3 x16 6 5 13 14 Good D, H Poetry 19 5x12,5 10 8 21 Old D; H. Poetry 20.6 x 180 4 16 18 P D , Skt Poetry 23 8 x 18 2 10 18 21 Inc Old D; H 20 6 x 180 Poetry 14 16 18 Old D, H Poetry 15 2 x 12 8 4 13 18 P D, H Poetry 22 5x150 4 12 31 Good P. Old D, H Poetry 20 6 x 18 0 6 16 18 P D , H Postry 22 0 x 135 16 13 34 C Old D, 11270x170 Poetry 1 13 28 Old P. P; H. Poetry 27.0X170 C : Good $2328 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1237 1238 1239 1240 1241 1243 1 1244 1245 1246 1247 2 1242 Ta/6/17 1248 Ja/16/7 Ja/35/7 Ja/35/1 Nga/46/2/3 Dasa-thânaCaubisi Ja/16/3 Ja/26 Ja/27/2 Ja/28 Nga/44/11 Dasa-bola-pacisi Ta/9/2 3 Dhala-gana Doha Dohāvali Nga/31/4/10 Dwipancada tıka Fuçakara-Kävya 4 Dyanataraya Dyanataraya Rūpa-canda Banarsidasa Jnana-Suryodaya Nataka Vädicandra 5 [ 1 1 │I Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 Catalogue of Sanskrit, Prakrit Apabharfisa & Hindi Manuscripts ( Rasa-Chand-Alankāra, Kavya ) 7 II 8 23.3 x190 9 c 10 Good D, H. Good Poetry 23.3 x 19 0 6 15.18 P. D, H. Poetry 18.3 x11 5 7 16 15 Good D; H. Poetry 27.0 x17 0 4 23.28 Good D; H. Poetry 18 2x115 10 16 15 Good DH Poetry 23.3x190 9.15.18 C Good D; H. Poetry 22.2 x 14 71 7.18.17 Old 1 D; H. Poetry 22 0x15 0 4.18.15 C Old Old D), H Poetry 21 5x14,4 16.18.18 D; H Poetry 210x147! C 4.18 15 Good D, H. 15 3 x 12.41 13 25 20 i Old Poetry Opening pages are missing. D.SI/H Prose/ Poetry 130x10.0 20.10.15 Old D; Sit Poetry 190 x 14.5 25.11.17 Old 1928 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ,' ett fa ferma a Feracht Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan, Arrah i 2.1 , '3 1249 | Ta/35/7 Jaind-iãso 1250 Ta/3/44 Jakari ) Bhūdharadāsa 1251 Ta/11 34 Jogi-Răso 1252 Ta/3,55 Kavitta 1253 Ta/3/54 1254 Ta/40/3 Trilokacanda 1255 Nga/41/Ka Kipana-Pacisi 1236 Ta/42/55 Mäla-Pacísi 1257 Nga/44/20 Nāmamāla Nanda'dása 1258 Ja/65/4 Navaratna-Kavitta 1259 Nga/31/3/9 Nemi-Cuñdrika 1260 Nga/41/ba Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit Parkrit, Apabhrma & Hindi Manuscripts (Rasa-Chand-Alankára, Kāvya ) ( 45 6 7 8 9 10 11 15 5x12.0 D, Pkt. Skt Poetry 22 10.10 Inc | Good D, H. Poetry 22.5x150 2.12 31 Good I D, H. Poetry 15 2 12 8 4 14 21 Old D; H. Poetry | 22.5x150 2 12 31 Good P; H Poetry 22 5x15 0 2.12 31 Good 12.12 Old D; H. Poetry 22 0x 13 5 2 12.31 D, H. Poetry | 14 5x11.0 7.13 16 Old D, H. Poetry 32 3 x 19. 0 2 33 37 c Good D; H. Poetry 20 7x11,2 26.17 16 Old 1806 V. S. It is also called Månamanjari D, H Poetry 11.5x100 5 10.14 C Good PD, H. 18 2x13 5 Poctry168.14 16 C The mss. is damaged and very old. D; H. Poctry 14 5 x110 6.13.16 he Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 461 श्री जैन सिदान्त भवन प्रयावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab il 2 1 3 1261 Nga/44/10/5 Nemicandrikā 1262 Nga/37/8 1 Nem Nominātha Bárahamāsā | Vinodilala 1263 | Ja, 16/4 „ Vivaha Vivaha 1264 Ta/3/47 1265 Ja/35 1266 Nga/47/4/73 Pakhavāra Tulasi 1267! Ta/3/39 Paramartha Jakari Srirama 1268 Nga/46/1 Pingala Sridhara 1269 Nga/47/4, 51 Rajula Pacisi 1270 Nga/44/10/4 Vinodilala 1271 Nga/44,92 1272 Nga/44/Pa Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramša & Hindi Manuscripts [ 47 , (Rasa-Chand-Alanakāra, Kāyya ) 718 1 9 10 1 11 GO D; H Poetry 18 5x13 1 15 13.22 D; H. Poetry 13 0 X220 C 6 16 12 old D; H Poetry 23.8 x 19 0 5 15 18 Good D; H. Poetry 22 5x150 4 12 31 Good D, H. ( 18 2x11 5 Poetry16 16 14 Good p. D, H. Poetry 20 6x18 0 2 16 18 C old D, H. Poctry | 22 5x15.0 2 12 31 C old Old D, H Poctry 30 0 x15 8 16 10 37 D; H. Poctry 1 20 6x18 0 716 18 c old D, H. Poetry 18.5x130 6.13 22 C Good . p. D; H. Poetry 110x105 11 12 12 C Good . P. D; H, Poetry: 14 5x11.0 C old try 9.13.16 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 481 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 3 1 1273 Nga/44/1975 Rājula Pacisi 1 1274 Nga/44/19/2 Ristā 1 1275 Nga/47/4/81 1 1276 Ja/65/8 12771 Ja/40/1 Rūpacanda-Sataka Rūpacanda Satasaiyā 1278 1 Ja/58 Vindāvana 1 1279) Nga/45/5 Samkitadhikara 1 1280 Ta/3/2 Sammeda Simhaia Mahatmya 1 1281 Nga/45/8 1 1282 Nga/45/6 Lohācārya 1 Ja/46 1283 Sikhara Mahātmya Lalacanda Nga/46/5/2 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 P P P P. P. P. P P. P P P Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apibhramşa & Hindi Manuscripts [ 49 (Rasa-Chanda-Alankara, Kävya ) P. 7 DH Poetry D, H Poetry D, H. Poetry D; H Poetry D, H Poetry D; H Poetry D, H Poetry D, H. Poetry D; H Poetry D, H Poetry D; H. Poetry D; H. Prose 8 19.5 x 12 5 13.10 19 19.5×12 5 29 5 20.6 x 18 0 2 16 18 11 5x100 12 10 14 22 0x13 5 6 12 35 21.3 × 16:4 131 14 16 23 5x9 0 31.20 58 22 3 x 15.0 3.9.21 24 0x12 2 11 9 25 23 7 x 15 0 103 9 23 19 3 x 10.6 72.10.28 23 1x15.1 70 18 17 19 с с с C с C с Inc с Inc с C Old Old Old 1853 V S. Good Old 10 Old 1953 V S. Old 1702 V S Old Good Old Old 1892 V. S. Good All the pages are Damaged. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakuma: Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1286 1285 Nga/47/4/45 Solaha-karana-j'âsā 1288 1287 Nga/46/5/1 Sri-pala-darśana' 1290 :2 1291 1292 1289 Nga/47/4/49 Bahubali 1293 Ta/42/53 Śruta-pancamí-1 âsă Ta/10 Ta/6/15 Nga/46/2/4 Nga/26/11 Nga/26/3 1294 Nga//26/9 1295 Ja/51/15 3 1296 Nga/43/3/1 Subhaşıtavali Viveka Jakarf"> Vyavahāra-pacisi Bhaktamara-stotra mantra " Caubisa tirthankara mantra Gayatri mantra Ghanta-karna-mantra I " 14 at t 4 Sakalakirti Rūpa-canda Manatunga 1 #. 5 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P 6 | P P P Catalogue of Sanskrit; Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Mantra, Karmakanda .).. 14 it! | 9 P やな P. P. P. P. P P P. 7 " D; H Poetry D, H. Poetry D; H Poetry D, Skt. Poetry D; H Poetry D, H. Poetry D; H. Poetry D, H./ skt. Prose/ Poetry D, H./ Skt Prose/ Poetry D,H /Skt Poetry D; Skt. Prose D; Skt. Poetry 151 1 8 !!! 20.6×18 0 3 10.18 32.3 x 19 0 3 33 37 23.1X15.1 2 14.14 150×13 0 178 6 14 20.6 x 18 0 7.16.18 22.2 x 14.7 14.19 16 27 0x17 0 4 23 28 29 0x 17 0 i 20.24.17 20.0 x 16 4 49.13 22 29.0 x 17.0 6 24 17 32.3.x20.1 3 13.35 17.0x13.0 1.9.18 Cold C Inc C с C с с C C с Good, Good, Old 10 Old Ç Good ; Old... Good Good Good Good Old r 1 1 1 11 [ 51 ''Opening pages are missing. It has fourty eight mantra charts. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 521 Mi a facra wan juaraat,', I ,', Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain' Siddhant Bhavau, Arrah il 2 i 3 i 4 | 5 Nga/43/6/7 Ghantā-karna-mantra 1298 Ta/5/6 Homa-Vidhi 1299 Nga/13,4 Jaina-gayatri 1300 Nga/13/3 Jaina-Samkalpa 1301 Nga/26/7 Jinendra-stotra 1302 Nga/48/11/7 Kamada-Yantra 1303 Nga/48/6/3 Kriya-kānda-mantra 1.304 Nga/26/8. Mahālakṣmi-ārādhana' 1.305 Ja/51/18 Mantra 1306 Ta/11/4 1307 Nga/43/2 Samgraha 1308 Nga/48/11/6 Mantra-Yantra Rämacandra Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhiamsa & Hindi Manuscripts [ 53 . . ( Mantia, Karmakān la ), of 7 i 8 / 9 / 10 11 D Skt 17 3 x130 c old Prose 2. 13 12 Good D, Skt Prose/ Poetry 25 0 x150 7 25 18 1 Good D, Skt Poetry 24 3x18 3 2 20 17 | Good D, Skt Poetry 24 3x18 3 1 21 20 Good D, Skt Poetry 290x170 4 24 17 Old D; H Poetry 116 5x13 2 2 12 16 old D, Skt poetry/ Prose 15 7x92 10 7 18 It is so demage that it cannot read and wri'e. Good D, Skt Poetry 29 0 x17 0 2 24 17 1 D; Skt Prose 32 3 x 20 1 2 13 35 | Good It has mantra charts also D, Skt. 14 5x117) Prose 9 11 22 C Good D, Skt, Prose 16.4 x 134 10 13 16 D, Skt. Prose 1 Old 16 5x13 2 1.11.15 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 1309 Ta/3/51 Namokāra-mantra Vinodilála 1310 Ta/42/84 Padmavati-dandaka 1311 Nga/43/4/2 Kalpa Mallisena 1312 Nga/43/6/2 1313) Ta/42/85 Kavaca 1314 Ta/42/104 1315 Nga/48/11/2 1316 Nga/26/12 13171 Nga/48/6,2 Råmacandra 1318 Ta/30/2 Mantra 1319 Nga/43/6/12 1320 Ta/42/83 Pajala Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 이 P P P. P. P P. P. Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & Hindi Manuscripts (Mantra, Karmakanda ) 19 P P P. 7 P. D; H Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry D, Skt Prose D, Skt Prose/ Poetry D, Skt Poetry/ Prose D; Skt. Prose D; Skt Poetry/ Prose 8 D, Skt Prose/ Poetry 22 5x15 0 1 12 31 P, D,H /Skt. 29 0x170 Prose 4 24 17 D; Skt. Prose 32 3x19 0 1 33 37 16 3 x 14 0 11 10 20 17 3 x13 0 7 13 12 32 3 x 19 0 1 33 37 32 3x19 0 1 33 37 16 5×13 2 2 12 17 D;H /Skt 20 1x15 6 Poetry 3 13 20 15 7×9.2 67 18 17 3 x13 0 3 13 13 32 3x19 0 2 33.37 C C C с C C C C C C C Good Good Old Old Good 10 Good Old Good Old Old с Old Good 11 1 55 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 1321 Ta/16/6 Pandraha-yantra-vidhi 1322 Nga/26/2 PárŚwanātha-stotramantra 1323 Nga/4376/4 1324 Nga/26/3 1325 Nga/48/20 Prāta-gåyatrı Harayasa-misra Nga/13/6 1326 Nga/1316 Sakali-karana vidhäna 1327 Nga/45/4 Sāmāyika-vidhi Nga/26/14 1328 Santinātha-mantra Nga/43/6/6 1329 Saraswati-mantra 1330 Nga/47/5/7 1331 Nga/38/14 1 332 Nga/26/4 stotra Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 57 Catalogue of Sanskrit. Parkrit, Apabhrmsa & Hindi Manuscripts ( Mantra, Karmakānda) 61 7 8 9 10 11 | D, H Prose 15 5x95 18 10 25 Inc old D, Skf Poetry 29 0 x17 0 2 24 16 Good D, Skt | 17 3 x 13 0 Prose 3 13 12 P. D, skt. 29 0x170 Poetry 3 14 16 C Good P P, Skt 160 x103 Prose 37 7 19 C Good D, Skt 24 4x 18 7 Poetry 5 21.17 C Good D, H. Prose 25 0 x 100 c 17 15 42 old P DH /Skt 29 0 x170 Prose 3 24 17 Good D, Skt Prose 17 3 x 13,0 3 13 12 C old 1 Old D, Skt.'16 5x16 0 Poetry/ 2 12 19 Prose P D, Skt15 7 x9 00 Poetry 6 9 22 Good D, Skt. Skt. 29 0 x17 0 2 24 17 Poetry/ Prose Good Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 2 3 mi 1333 Nga/44/19/8 Solaha-kārana-mantra 1334 Tal3/42 Sütaka vidhi 1335 Ta/4/11 Tantra mañt a Samgarah I 1336 | Nga/20/15 Trivarnācāra-mantra 1 1337) Ta/39/18 Vasikara na-adhilarà 1 1338 Ta/39/20 Vass adhikāra 1 1339 Nga/43/8 Vrata-mantra 1 1340 Nga/43/6/11 Visarjana , 1 1341 Nga/48/16 Vivāha-vidbi 1 1342 Ta/2/2 Yantra-mantra-saagraha 1 1343 Ta/2/3 1 1344 Ta/2/1 Aştānga hrdaya Vägbhatja 1 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 59 Catalogue of Sanskrit, Prakrit Apabhraiii & Hindi Manuscripts ( Mantra, Karmakānda ) 10 11 7 8 1 9 D Skt | 19 5x12 5 c old Poetry 2 7 18 D, H Poetry 22 5x150 c 312 31 old D; Skt | 115x15 5 Prose161 21 16 Inc Old Good! PDH /Skt 29 V X170 Prose 13 24 17 D, Skt Prose 20 0 x 120 2 17 12 c l Old Old D, Skt Poetry 200 x120 2 16 1 D, Ski | 15 5x1160 Poetry 2 10 21 Prose 1 Old D, Skt | 17 3x130 Prose 2 12 12 D, Skt Prose 13 3 x 10 2 21 8 14 I to 3 and 6 ou 7 pages are missing Old D, H Prose 20 5 x 17 | 139 25 22 The mantras & antras charts are availeble in the mss. D; H Prose 16 5x21 01 C 52 17 23 old J There are so many yantra & mantra charts in the mss. Good D; Skt 28.6 x18 5 Poetryll 183.22 24 Prose Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 601 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 1345 | Ta/1/2 Cikitsa-sāstia 1346 Ta/1/1 sara 1347 Ta/4,2 Jwara-hara-yantra 1348 Ta/4/6 Kuţtaka-karana chaya vyavahāra Bhaskarācârya 1349 Ta/4/1 Madana-vinodanighantu Madanapala 1350 Ja/33 Nädi-Prakāća 1351 Ta/2/1/1 Nidāna Madhavācārya 1352 Ta/4/9/2 Panca-daśa Vidhana 1353 Ta/1/3 Rāma-vinoda 13541 Ta/4/9 Rupa-mangala 1355 Ta/4/8 Sarada-tılaka satika 1356 Ta/2/1/2 Sarangadhara Samhita, Särangadhara Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 61 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts :. ( Ayurveda ) 9 10 D, H Prose/ Poetry 270x119, Inc | Old 120 13 49 Closing pages are missing. Good D, H Prose/ Poetry 19 5X14 7 59 14 29 C Good D, Skt | 19 3 x 130 Prose 2 14.17 c old P. D, Skt /H Prose/ 19 3 x 130 18 19 19 Poetry D, Skt. 19.3x130 Prosc/ | 183 14 17 Good 1912 V S Poetry Inc Old D, H. Prose 19 7x13 0 16 15 11 C old D, Skt 28 6x18 5 Poetry 64 22 16 Old P, D, Skt H Prose Poctiy 13 5x115 25 15 15 D, H Poetry/ Prose 260 x 16 3 158 21 14 Good 1906 VS p D,Skt / Prose Good 15 8 x 13 3 74 13 18 P D, Skt ili 8 x 13 3 H 163 13 18 Poetry Good 1676 VS D; Skt Poetry Old 28 6x18 5 61 23.22 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 621 श्री जैन सिद्धान्त भवन रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 11 2 1 4 1 5 1357 Ta11/4 Vaidya-bhūşana Nayanasukha 1358 Ta/4/10 manotsava Bansidhara Mira 1359 Tall/4/1 Yoga-Cintamani Har şakirti 1360 Yūnaní-Cikitsa 1361 Ta/42/99 Ācārya-bhakti 1362 Ta/3/50 Ādinātha-stuti Vinodílala 1363 Nga/47/4/8 artí 1364 Nga/30/2/5 stotrā 1365 Nga/47/4/53 Adityanātha arti 1366 | Ja/51/24 Ambika-devi stotra 1367 Nga/2615 | Anka-garbha-sadáracakra Devanandi 1368 Nga/47/4/72 Arati Nirmala Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit Parkrit "Apabhimś & Hindi Manuscripts [ 63 '' Stotra)' 0171 lei 10 ī 1 10 D, H Poetry 24 0 x16 0 11 34 20 Old 1794 V S D, Skt Poetry 158 x 13 3 81 13.18 Good D, Skt Prose 24 0 x16 0 134 22 22 Old 1794 V S D, H Prose 20 5x17.5 98 23 22 old Good P, Skt | 32 3x19 0 Pkt 2.33 37 Poetry D, H Poetry 22 5 x 150 312 31 Good Old D, H Poetry 20 6 x 180 2 16 18 C Good D, Skt. Poetry 19 0 x14 8 19 26 D, H Poetry 20 6 x180 3 16 18 D, Skt 32 ? x 200 Prose 11335 | Good 1959 V, S. AP D, Skt Poetry 29 0 x17 0 4 24 17 Good PI D; H. Poetry 20 6 X180 2 16 18 old Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 1 श्री जन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Sri Devakumar Jam Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1369 1370 1371 1372 1373 1374 1375 1376 1377 • #378 1380 Ta/18/3 2 Ta/18/10 Ta/3/4 Nga/44/17 Ta/39/2 Ta/6/9 Nga/12/1 Nga/12/2 Nga/12/3 1379 Ja/31 Nga/16/9 Nga/13/5 Ārati "9 "3 Aştaka Bhajana Bhajanavali " 3 Samgraha Bhajana-Samgraha Bhaktamara Stotra 4 Dyanataraya Ajita-Dāsa Ajta-Dāsa Mäna tunga 1 5 I 1 III Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts I 65 . (Stotra ) 6 7 8 9 10 1 1 0 110x40 c D H Poetry Bid 11 0X40 7 13 19 old , 0 old D, H Poetry 110x110 C 212 17 D, H Poetry 22 5 x150 2 12 32 0 Good 1 0 D, H Poetry 20.0 x 16.0 4 13 21 Good 0 D, Skt Poetry Old 200x120 2 19 20 P D ; H Poetry 0 22.2 x 16 7 2 2017 D, H poctry 250 x 220 445 15 24 0 0 D, H Poetry Good 25 14 26 D, H. 0 Told Poetry 27 4 x 220 42 22 26 D, H Poetry 0 130X150 5 16.21 I c Good 0 D, H, Poetry old 20 5x127 C 12 16 16 D; Skt. Poetry 24.2 x 18.6 0 Good 5 21 18 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1381 1382 Nga/28/2 1383 Nga/38/1 1385 1384 Ta/3/10 1387 1388 2 1386 Ta/4/2 1389 1390 Nga/26/1/1 Bhaktamara Stotra 1391 1392 Ta/42/63 Nga/46/12/2 Nga/45/2 Nga/47/4/8 Nga/48/21/1 Ta/9/5 Ta/14/26 99 3 " '", Mānatunga " " 3 .. 4 } 1 5 Hemarāja Sıvacandra Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 Catalogue of Sanskrit, Prakut. Apabhramśn & Hindi Manuscripts (Storia ) 6 7 8 9 10 11 D, Skt. Poetry 29 Oy 290x17 Good 5 21.16 D, SA Poetry 14 6x141 C 6.13 18 old | D, SI Po try 158 79 22 I Good D, Skt Poctry 22.5x150 5 12 18 Good D, Skt 32 3x1901 2 33 37 Crood Poetry D, Skt Poetry 23 2 x19 5 7 10 21 D, SL 22 5 x 130 c 7 18 13 old Poetry 1),Skt /H Poetry 25 2x121 34 9 34 C Good 1849 V S D, Skt Poetry 20 6x180! C 6 16 18 old 16 5x125 10 12.12 C D, Skt Poetry Old D, Skt. 19.0 x14 5 15 19 18 C old , Poetry) Prose D, Skt Poetry 15 2 x 128 8 11.15 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] श्रीजन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 511 1193 Nga/20,5 Bhallanara stotra Manatunga 1394 Nga/47/4/15 : 1395 Ta/18,13 : 1396 Ta/31 : bhasa Hemraja 1397 Nga/41/2/5 Stocra : 1398 Ta/6,3 : 1399 Ja/35,4 : 1400 Nga/2016 : 1401 Nga/25/1 : 1402 Ja/52 Vacanika : Manatunga 1403 Nga/47 ,, Stotra Vacanika Manatunga 1404 Nga/48/637 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 69 . (Stotra ) 101 11 1 .. Good P D, Skt. ) 25 6 x 15.0 Poetry 7 14.16 Old D, H 20 6 X 18.0 6 16 18 Poetry Old D, H Poetry 11 0x110 9 12 17 Old D, H Poetry 19 5x16 1 6 12.25 C Good P.) D, H Poetry 14 5x110 12 8 15 Good PL D, H. Poetry 22 2x14 7 5 19 20 Pil Good D; H Poetry 18 3 x 11.5 8 16 15 Good D, H Poetry 1 25 6x150 7 16 16 D, H Poetry/ Good 28 4x17.0 4 24 17 Good, D, H Poetry 275 x 12 5 29 11 38 1 Good D; H Poetry 20 1 x16 3 47.10 27 D; H. Poetry Inc Very Old 15 7 x 9 21 25.7.18 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 701 श्री जैन सिद्धान्त भवन रन्थावला Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 3 1405 Ta/30/4 Bhaktamara jika Jinasāgara 1406 Nga/44/13/5 stotsa Manatanga 1407 Ta/14/16 Bhakti samgraha 1408 Nga/13,7 Bhairavāştaka 1409 Ta/42,78 Ta/19/1 Bhairava stotra 1411 Ta/9/9 Bhūpåla caturavimatı stotra Sivacandra 1412 Nga/47/4/11 Bhūpala caubisi 1413 Ta/476 Bhūpalakavi 14141 Ta/42167 14151 Nga/38/5 stotra 1416 Nga/261116 caubssi stotra Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 71 Cataloguc of Sanskrit. Parkrit, Apabhts & llındı Manuscripts (Stotsu ) oli lili 10 D, H Poctry 120 1x15.6 7 13.20 C Good DH /Skt. Poctry 13.5 x 8.5 18 6.13 0 Good 0 old D; SK. 152x12 8 1 C Plt 501115 Poctry D, Skt. Poctiy 24 2x18 7 1.21 23 0 Good P; Skt Poetry 32 3x19.0 1.33 37 0 Good D, Skt Poetry 0 10 39 5 cl Good 6 7.8 P D , Skt Prose 0 190 x 14 5 | 11 20 19 Old 1927 V s. D, Skt 20 6x18 Poetry 5 17.18 0 C old D, Skt | 23 2 x 19,5 Poetry 6 11 20 0 old D, Skt. 32 3 x 19. 0 Poetry 133.37 0 Good 0 D; Skt Poetry 15 7X90 69 22 Good D, Skt. Poetry 0 29.0 x17.8 3:21.17 Good Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72) थी जैन सिद्धान्त' भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1 2 3 4 5 1417 Nga/25/5 Bhūpāla stotra 1418 Nga/47/4/12 , caul isi bhāşã 1419 Nga/47/1/57 Bisa-viraha-māna-árati 1420 Nga/44/10/8 Brahma-lakşana 1421 Ta/42/87 Caityalaya stótrā 1422 Ta/42/10/7 Cakreswari 1423 Nga/43/1 1424 Nga/43/3/5 Candra-prabha , 1425 Nga/48/6/5 1426 Ta/42/98 Caritra bhakti 1427 Nga/48/8/2 Caturvinsatí stotra 1428 Nga/43/6/8 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra ) 6 7 8 9 10 II Good D; H. Poetry 28 4x17 0 2 24 17 P. C Old D; H. Poetry 20 6x18 0 3 17.18 P. D; H Poetry 20.6x18 0 2 16 181 C Old D, Skt. Poetry 18.5 x 13.1 2 13.22 Good D; Skt. Poetry 32.3 x 19 0 1 33 37 Old D; Skt Poetry 32 3 x 19 1 1 33 37 C Good D; Skt Poetry 14 9x112 4 8 19 Old 1), Skt Poetry 170x13.0 3 9 20 Old D, Skt Poetry 15.7 x92 4 7 18 Old C D, Skt Poetry 32 3X190 1 33.37 D, Skt, 196x60 Poetry 64.8 Old D, Skt 17.3 x 13. 0 2 13.13 c Old Poetry Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली. .' Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1429 Nga/43/3/2 Carurvimšati Stotra 1430 Nga/44/10/2 „ Jina Stotra 14311 Ta/18/9 Caubisa tirthankara pada 1432 Ta/42/69 Cintamani Stotra 1433 Ja/61 , Pārswanātha Stotra Dyanataraya 1434 Nga/44/10/25 1435 Nga/47/4/66 Caubisa Jina Ārti Bhairondása Nga/47/4/74 1436 1437 Ja/23/3 . Dan laka Vinats, Dzulatarama 199 Nga/47/4/32 Darsana Ināna Carita Dyanataraya Ārati 1439 Ta/6/5 Darşana-Stuti 1440 Ta/42/105 Darsanasta ka Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 75 Catalogue of Sanskrit, Parkrit, Apabbrása & Hindi Manuscripts 'Nis (Stotra ) ol 7 | 8 9 10 1 1 11 D Skt 170x130 Poetry 3921 c ! Old D; Skt. | 18 5x13 1 Poetry 1 11 28 Good P Old D, H Poetry 110x110 11 12 16 Р. Good D, Skt Poetry 32 3 x 190 2 33 37 PD,Skt /H 22 0 x130 c Poetry 2 13 11 old Old D; Skt Poetry 1 18 5 x 13 1 4 12 22 Old D, H poetry 20 6 x 18 O 2 16 18 D, H Poetry 20 6 x 180 216 18 Hold D, H Poetry 22 4x14 2 6 18 15 Old 20 6 x 180 7 16 18 D, H Skt. Poetry/ Prose D, H, Poetry Old 22 2x147 2 21 18 D, Skt Poetry Good 32 3 19 01 1 33 37 ! Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 761 घी जन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1441 Ta/42,89 Deva-stavana 1442 Nga/384 Ekibhāva-stotra Vadiraja 1443. Nga/26/1/4 1444 Ta/42/66 1445 Ta/4/5 1446 Nga/44,10/10 1447 Nga/47/4/10 1448 Nga/44/15 1449 Nga/48/21/3 1450 Ta/9/7 Sıvacandra 1451 Nga/47/4/12 1452 Nga/25/2 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [77 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramba & Hindi Manuscripts ( Stotia ) D, Skt 32 3 x 190 Poetry 2 33 37 c Good D, Skt Poetry 15 7 x90 5922 Good D, Skt Poetry 29 0 x178 3 21 17 ! c Good D, Skt '32 3 x 19. 0 Poetry 1 2 33 37 c Good P, Skt. Poetry 23 2x19 51 c 6 11 20 Old D, Skt. Poetry 18 5 x 13 1 413 22 C Good D, Skt Poetry 20 6 x 18 0 4 17 18 C D, Sht 15 6x9 2 Poetry I' 19 7 19 Inc It has no opening and closing. D, Skt 16 5 x 12,5 Poetry i 7 12 12 D, Skt Prose1 190 x 14 5 12 19 19 Old D, H Poetry 20 6x18 0 5 16 18 c old 1 D, H Poetry 28 4 x17.0 4 24.17 I Good Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ) श्री जैन मिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 4 / 5 Nga/26/6 Ganadhara Stuti 1454 Nga/30/2/4 Gautama-Swām, Stotrā 1455 Nga/48/8/1 Ghanta-Karna 1456 Nga/44,10/6 Gurubhaktı Bhüdhara jāsa Ta/14/31 1458 Ta/3/9 Guruvinati Bhūdbaradasa 14591 Nga/45/3 Cunāyalı 1460 Ta/9/4 Gunāştaka Parmananda 1461 Nga/39 Jaina-pada-Samgraha Nga/44:10'26 Jinacaitya Namaskāra Ja/38/3 Jinadeva Stuti 146: Ta/42/7 Jinapanjara Stotra Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 79 ( Stotra ) 6 7 Tortos 11 P.: D, Skt 290x1701 C Poetry 3 24 17 D, Skt Poetry 190x14 8 1 9 26 C l Old D, Skt 196x60 Poetry 4 48 D, H Poetry 18 5x131 2 13 22 P D , H Poetry 152 x 12 8 4 12 18 D, H Poetry 22 5x15 0 1 12 36 D; H Poetry 250 x 110 18 15 39 D, H Poct'y 190 x 14 5 5 14 17 P D , H Poetry/ Inc | Old 110x17 5 183 9 23 Last pages are missing. D, Skt Poetry 18 5x13 1 313 22 D, H Poetry 22 0x130 2.14 32 P. P: Skt. 32 3x190 c Good Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1465 1466 1467 1468 1469 1470 1471 1472 1473 2 Ta/18/16 1476 Nga/48/18/1 Ta/42/70 Ja/50 Ta/3/16 Ta/3/38 Ta/3/17 Nga/26/13 Nga/43/3/6 1474 Nga/43/6/3 1475 Nga/48/2 Nga/48/6/8 3 Jinapanjara Stotra Jinaral sa Stavana Jinasahasranama Jinendra darśana Stotra Jina-darśana Jwälämälıní Stotra 19 99 4 Sikharacanda Nawala Candraprabha 5 - 1 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts | 81 (Stotra ) 61 7 i 8 | 9 | 10 l D, Skt 11.0x110 | c old Poetry 4 12 17 D, Skt 400x114 Prosel 1.52 16 Poetry D, Skt. Poetry 32 3 x 19 0 1 33.37 Good D; H Poetry 32 2 x 20 2 90 13 37 Good 1957 VS Copied by Bhagawânadatta. D; Skt 22 5x150 I J2 36 Good Poetry Old D, H. Poetry 22 5x15 0 3.12 31 Gond D; H Poetry 225 x 15.0 2 12.36 Good DH Skt 29 0 x17 0 Poetry 324 17 D, Skt. 170x130 Prose/ 4921 Poetry D; 'Skt Prose 17.3 x130 2 12 11 .C D; Skt. 1 Prose Good 12.8 x 9.5 6 10.12 p. D; Skt. Prose 15 75x92/ C old 47.18 Damaged, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 021 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली, Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1477 1478 1479 1480 1481 1483 1484 1485 2 Ta/42/90 1482 Ta/4/3 1488 Nga/48/5 Jwala-malini Stotra Nga/26/1/3 Nga/47/4/7 Nga/48/21/2 Ta/42/64 Nga/38/2 Ta/9/6 1487 Ta/18/12 Nga/25/3 99 11 Kalyana-mandıra Stotra Kumudacandra "" "" 3 f1 1486 Nga/44/10/1 Kalyanamandır Stotra Banarasidasa 90 DP 35 4 A9 [/ ww 5 T 71 Pandit Sıvacañdra Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I Catalogue of Sanskrit. Parkrit Apabhimsa & Hindi Manuscripts . . i (Stotra ) 8 10 11 Toli 10 D SKL 143x112 | Inc Prose 87 18 Old Good D, Skt | 32 3x190 Poeuv2 33 37 Prosc D, Skt Poetry 29 0 x 17 8 521 17 Good D, Skt 20 6 x 18 0 6 16 18 C Old Poetry D, Skt Poetry 16 5x125 10 12 12 C 1 Old D, Skt 23 2x19 5 Poetry 7 11 20 C old D; Skt 32 3x19 0 poetry 2 33 37 Good D, Skt Poetry Good 15 7 x90 8 9 22 Old | D, Skt Poetry Prose 140x14 5 16 20 19 Good D, H Poetry 18 5x130 5 11 28 D, H, Poetry 110x110 8 12 17 D, H Poetry 28 4x170C 3 24 17 Good Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1 1489 Nga/47/4/16 Kalyana-mandira 1490 Nga/44/13/3 1491 Nga/43/6/7 1492 Ta/42/106 1493 Nga/48/4 2 1494 Ta/42/103 1495 1496 1497 1498 1499 1500 Nga/26/1/8 Nga/47/4/5 Ta/18/8 Nga/41/Na Nga/13/8 Ta/42/76 Kṣetrapala Stotra Laghusahasranama "" 3 39 39 23 Laksmi Stotra 99 99 4 5 I | | || | || I 1 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P 6 P. P. P. P P P P Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra ) P P P P 7 D, H Poetry D, H Poetry D, Skt. Prose/ Poetry D, Skt Poetry P; Skt Poetry D, Skt Poetry/ Prose D, Skt Poetry D, Sht Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry 8 D; Skt Poetry 20.6 x 18 0 5 16 18 L 13.5x8 5 12.6 13 17 3 x13 0 5 13 13 32 3×19 0 2 33 37 16.4 × 10 0 3.7 18 32 3 x 19 0 2 33 37 29 0x 17 8 5 21 17 20 6×18 0 7 16 18 D; Skt. 14 5x110 Poetry 3 13 16 11 0x11,0 5 12 13 24 3x18 0 2 21 20 32 3x19 0 1 33.37 9 C с C C C C с C C C C C Old Old Old Good Old Good 10 Good Old Old Old Good Good 11 I 85 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 । श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 T3 Nga/26/1 Lakşmi-Stotra 1502 Nga/44/4 Mahāvira-Ārati 1503 Ta/30/8 Mandaloddhāra Stotra 1504 Ta/3/41 Mangala Arati Dyanataraya 1505 Nga/43/6/5 Manibhadra Stotra 1506 Ta/42,77 Mangalâştaka 1507 Ta/39/23 Mangala-jına-darsana Rūpacandra 1508 Ta/3/7 Muniswara Vinati Bhūdharadasa 1509 Nga/26/1/7 Namaskara Śripala 1510 Nga/47/4/4 1511 Ta/42/102 Nandıśwara-Bhakti 1512 Nga/47/2 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 87 (Stotra ) 61 7 8 9 10 1 11 D, Skt 290x177 Poetry 1 24 16 C Good D, H Poetry 21 0x160 C 3 13 14 old P D, Skt 20 1x150 Poetry 2 13 20 c Good D, H Poetry 22 5x150 c 2 12 31 old 12 D, Skt Old H 170x130 5 13 11 Prose Poetry D, Skt Poetry 32 3 x190 1 33 37 C Good P1 D, H Poetry 200 x 120 1 24 18 Inc | Old P. 1 D, H Poetry 22 5x150 2 12 31 Good P D, H Poetry 29 0 x 17 8 3 21 17 Good D, H Poetry 20 6 x 180 3 16 18 Old D, Skt. Poetry 32 3 x 19.0 3 33 37 Good D, Skt Pkt Poetry/ Prose 20 2 x 158 8.10 27 C old Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली । Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1 2 1 3 1513 Ta/6/12 | Naraka Vinati Gunasagara Nga/48/14 Nārāyana-lakşmi-stotra 1515.. Ta/42/74 Nava-graha-stotra 1516 Ta/42/39 1517 Ta/18/14 Navakàra-dhala Nga/42/6/9 Stotra 1519 Ta/42/79 Navakāra-mantra-Stotra 1520 Nga/47/4/65 Neminātha Aratı Bhairondása Nga/487614 Neminātha Stotra Nga/38/11 'Nijāmani Brahma Jinadasa 1523 Ta/42/100 Nirvāna Bhakti 1524 Ta/6/11 » Kānda Bhagavatid asa Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 89 Catalogue of Sanskrit Prakrit, Apabhrmsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) 7 8 9 10 11 0 D Poetry 22 2 14 7 4 18 15 0 Good D, Skt Poetry/ Prose 29 10 13 0 D, Skt Poetry 32 3x19 0 1 33 37 Good 0 Good D; H Poetry 32 3x190 2 33 37 1 0 Old D; H Poetry 110x110 4 12 17 0 Old D, Skt | 17 3x130 Prose 3 13 13 P 0 D, Skt poetry 32 3x19 0 1 33 37 Good P | 0 D, H Poetry Old 20 6 X18 0 1 16 18 D, Skt Poetry 15 7 x 9 2 37 18 0 Old The mss. is totely damaged. D, H 0 Good Poetry 15 7x90 79 22 0 D, Skt Poetry Good 32 3x19 0 2.33 37 D, H 0 old Poetry 22.2 x 1471 3 18 15 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] श्री जैन मिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 2 1 3 4 5 1525 Nga/44/1976 Nirvâna-Kānda Bhagavatidasa 1526 Nga/47/4/35 1527 Nga/47/5/11 1528 Ja/35/3 1529 Nga/25/7 1530 Nga/26/1/11 1531 Ta/6/21 1432 Nga/48/26/6 1533 Nga/26/1/10 Nga/33/5 1535 Nga/47,4/34 1536 Ta/47/5/10 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 91 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhiamsa & Hindi Manuscripts (Stotra ) 6 7 8 9 10 D, H Poctiy 19 5x12 5 5 10 27 D, H Poetry 20 6x18 01 3 16 18 Jold Poetry 16 5x160 4 12 19 Good D, H Poetry 18 2x11 5 3 16 15 D, H. Poetry 28 4x170 2 24.17 C Good Good D, Skt Poetry 29 0 x17 8 2 26 26 Old D, Pkt Poetry 22 2x147 3 18 21 D, Pkt Poetry Good 16 5x135 38 24 C Good D, Pkt Poetry 29 (x17 8 2 23 16 D, Pkt Poetry Good 22 7 x 15.7 3 18 15 Old D, Pkt, Poetry 20 6 x 180 3 16 18 D, Pkt Poetry Old | 16 5x1601 3 12 19 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakuma Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah T 2 3 4 1 5 1537 Ta/41/20 Nirvana Kānda 1538 Ta/3/35 Bhaiya Bhagavatıdāsa 1539 Nga/44/13/1 1540 Nga/26/1/12 Omkārastuti 1541 Nga/47/4/61 Pada 1542 Nga/47/5/8 1543 Ta/18/15 Kusalsuri 1544 Ta/14/38 1545 Ta/30/3 1546 Ta/28/2 Amicanda 1547 Ta/27/2 Jinadāsa 1548 Nga/44/13/9 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakcit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( 93 (Stotra ) 61 7 8 | 9 | 10 | 11 Good D, Skt | 32 3 x 19 0 Poetry2 33 37 D, H Poetry 22 5x150 5 12 31 C old D, Skt Poetry 13 5x85 4.6 13 Good Starting three pages are missing D, Skt Poetry 29 0 x 178 2 23 17 Good P D ; H Poetry 20 6 x 18.0 3 16 18 D, Skt. Poetry 16 5x160 1 12 19 c old D; H Poetry 110x110 4 12 17 D, H. Poetry 15 2 x128 2 12 21 C D, H Poetry 20 1 x 15 6 2 13 20 P D; H Poetry 1 198 x17 2 1 14 18 Good 1948 Vs P D , H Poetry 1 19.7 x 16 5 2 14 21 Good 1948 V Copied by Amícanda S P. D; H. Poetry 13 5x8 5 3.6.13 Inc Old Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 3 15491 Nga/401 Nga/48/23/6 Pada 1550 Nga/48/4 1551 Nga/44/1917 1552 Nga/3712 1553 Ta/3/84 1554 Ja/65/6 Jagarama 1555 Nga/37/13 Ramcandra 1556 Ja/65 Jagarāma 1557 Ja/65/2 Nga/37/12 Vrndāvana 1559 Ja/29 1560 Nga/31/1 Padasangraha Padasangraha Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 95 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhraasa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) 61 71 8 9 10 1 | Old DH | 16 8 x128 Poetry 11 11 12 Good D, H Poetry 13 5x120 2 8 12 D, H Poetry 19 5x12 5 3 923 Inc Old Good D; H Poetry 17 4x11 0 5717 Good D; H. Poetry 22 5 x 15.0 6 12 31 D, H Poetry 11 5 x 10 0 53 10 14 Good D, H poetry 220x130 8 15 13 Cold РІ D, H Poetry Good | 115x100 59 10 14 D; H Poetry Good 11 5x100 4 10 14 D; H Poetry Old 22 0x130 4 14 13 lold D; H Poetry 21.1 x140 3 15 15 Closing is missing. D; H. Poetry C Good 14 8x14.8 82 13 15 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 ) श्री जन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 21 4 1 5 Ja/21/1 Pada samgraha Ja/21/2 Pada vinati Nga/25/12 Pada-hajūrē Dyanataraya Nga/37,10 Pada holi Ja/51/14 Padmăvatı aş to ttara satanāma 1566 Nga/43/6/1 Padmāvati stotra Nga/48/11/3 1568 Ta/3975 Ta/42/82 1570 Ta/30/5 1571 | Ja/51/17 1572 Nga/25/15 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 97 Cata'ogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts 1 Stotia ) 6 7 8 9 10 14 D, H Poetry 20 0 x15 3 12 11 14 Closing is missing. D, H Poetry 22 8 x18 2 31 16 13 Inc Old Last pages are missing. D; H Poetry 28 4x17 0 0 24 17 C Good D; H. Poetry 22.0x130 4 15 13 c Old Good D, Skt. Poetry 32 3 x 20 1 2 13 35 D, Skt Poetry 16 3 x 130 c 10 13 12 old D, Skt Poetry 16 5x13 2 c 8 13 16 old D, Skt Old Poetry 200 x1221 5 19 20 D, Skt 32 3 x 19 0 2 33 37 Good Poetry D, Skt Poetry 20 1x15 6 2 13 20 Good D, Skt Poetry 32 3 x 20 11 1 13 35 Good D, Skt Poetry 28 4x17 0 22 24 17 Good Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली J Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1574 1573 Nga/25/9 Padmavati stotra 2 1575 Nga/48/11/1 1576 Nga/46/13 Ja/51/12 1577 Ta/42/36 1578 Ta/39/15 1580 1579 Nga/44/12/2 1581 1583 Nga/48/1/4 Nga/44/17 1582 Nga/43/3/3 Ta/16/4 33 " 99 3 99 sahastranama vinati PadmanandipancaVimsatikā Panco-namaskara stotra "9 1584 Nga/44/10/11 Parameşthi stotra Sevarama 4 Padmanandı I I 1 5 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) 6 7 8 9 10 D, H 0 28 4x170 3 24 17 Good Poetry 0 D; Skt Poetry 32 3 x 20 1 7 13 35 Good 0 Old D, Skt. Poetry 16 5x13 2 14.12.17 D; Skt. Prose 13 0 11 6 1 7 10 Only first page is available, 0 D; Skt. Poetry 32.3 x19 0 3 33 37 | Good 0 D; Skt Poetry 200 x 120 14 22 17 Old 1827 V. S 0 C Old D, Skt / 32 3 20 2 3 23 17 Poetry * H 0 D; H Poetry 140x11 7 ! 8 10 15 Old | 11 0 x 10 2 Inc D, H. Prose Good 12 u o 0 Old D, Skt. | 17 0 x 130 Poetry 5 9 19 0 D, Skt 115 5x95 Prose 13 8 17 Old D; Skt. 18 5x13 1 Poetry 2.13:22 0 Good Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1585 | Ta/6/2 Paramânanda stotia 1586 Nga/44/10/15 15871 Ta/42, 86 Pārswanatha stotra Ta/42,74 1589 Nga/48/6/6 1590 Nga/43/3/4 1591 Nga/30/2/3 1592 Nga/41/2/8 Dyanataraya Ta/3/53 stu 1 Vinodilāla 1594 Ta/42/92 stotra 1595 Ta/18/5 Pārswanathăştaka 1596 Ta/30/1 22 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhransa & Hindi Manuscripts | 101 ( Stotra ) 6 7 1 8 9 10 11 D, Skt Poetry 22.2 x 14.7 2 18 20 D: Skt Poetry 18 5x13 1 3.13 72 D, Skt, Poetry 32 3 x 190 1 33 37 D; Skt 32 3x190 Poetry2 33 37 15 7x9 2 D; Skt Poetry The mss. is totely damaged, 3 7 18 D, Skt Poetry 170x130 29 18 D; Skt | 19 0x14 8 Poetry 3 9 20 D, Skt (H Poetry 14 5x110 39 17 D, H Poetry 22 5x150 2 12 31 D; Ski ( 32 3x190 Poetry/ 2 33 37 Prose D, Skt Poetry 110x110 3 13.19 P. DH /Skt. 20 1 x 15 6 Poetry 3.13.20 Starting one to eleyen Pages are missing. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devak' mar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 1 3 4 / 5 971 Nga/47/4/56 Pārswajina-árati Bhairoadāsa i 1598 Nga/48/20 I Pratyangira-siddhimantra-stotra 1599 Ta/42/81 Rşi-mandala Stotra i 1600 Nga/31/1/7 I * 1601 Nga/47/4/17 1 1602 Nga/26/10 1 1603 Nga/13/5 1 1604 Nga/31/2/3 Sádhū-Vandana Banarasidasa 1 1605 Ta/42/16 Sahasra-nama-stotra Jinasena 1 1606 Nga/26/1/13 1 1607 Ta/19/2 1 1608 Ta/14/25 » . stavana Asidhara sūri. 1 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 103 Catalogue of Sanskrit, Prakut, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra ) 61 71 8 9 10 D, H Poetry 20 6 x 180 2 16 18 Old D, Skt Poetry/ Prose 17 9 x18 5 24 7 22 32 3x190 2 33 37 C D, Skt Poetry Good D, Skt C 12 3 x 16 6 7 16 14 Good Poetry Old D, Skt Poetry 20 6 x 18 01 7 16 18 Good D, Skt Poetry 4 24 17 15 4x12 3 26 13 15 Incold D, Skt Poetry/ Prose Opening first page is missing. 12 3 x16 6 4 18 16 C D, H Poetry Good 1 Good D, Skt Poetry 32 3x190 4 33 37 C Good D, Skt Poetry 29 0 x 17 8 6 23 17 C D, Skt, Poetry 10 3 x 95 54 79 Good Sixteen pages have no folio and paging Old D, Skt 115 2 x 128 14 11 15 Poetry Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1 3 4 1609 Ta/18/7 Sahassa-nama-stocra Jinasena 1610 Nga/31/2/8 1611 Ta/29 1612 Ta/42,68 Samanta-bhadra-stotra 1613 Ta/3/5 Sammeda-śikhara-stuti 1614 Ta/39/16 Sammedacala stotra 1615, Nga/48/13 Sandhya 1616 Nga/47/4/58 Santyjine arati 1617| Ja/29/1 Santi-stuti 1618 Ta/42/73 Sāntināthâştaka 1619 Ta/3/11 | Sāradāştaka Banarsıdāsa 1620 Nga/44/10/20 Säradā stūti Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ins Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabh ramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) 6 7 8 9 10 11 D, Skt Poctry Old 1842 V | 26 10 10 S D, H Poetry 12 3 x16 6 9 16 16 Inc Last sataka is missing. D, H Prose 19 5x150 50 12 19 C Good Good D, Sh Poetry 32 3x190 4 33 37 Good D, H Poetry 22 5x150 1 5 35 D, Skt. 20 0 x120 Poetry 3 21 18 Old Good D, Skt Poetry/ Prose 16 0x10 2 11619 old D, H Poetry 200 x 180 2 16 18 D, H Poetry 21 1x 140 2 12 14 Good D, Skt Poetry 1 33 37 D, H Good 22 5 x15 0 2 12 35 Poetry old D, Skt. 18 5x13.1 Poetry 15 13 22 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1621 1622 1623 1624 1625 1626 1627 1628 Ta/42/18 2 Ta/42/75 1632 Nga/48/9 Ta/40 Ta/42,96 Ta/18,17 Nga/41/2/7 Nga/37/1 1629 Ta/42/97 1630 Ja/16/1 Ja/32 Saraswati stutí 19 3 Śästra Vinati stotra Siddha-bhakt Sitä-Vinati Śripāladarśana Śripala Vinati Stotra Śruta-bhakti 1631 Nga/47/4/31 Sthāpanā Ārati Suti 4 Malaya Kirti Sripâlarājā Haridasa 5 I Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [107 Catalogue of Sanskut, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) 61 71 8 9 10 1 11 D Skt Poetry 32 3X190 1 33 37 C Good D, SIT Poetry 32 3x19 01 C 13337 Good 1 Old D, Skt | 14 7 11 7 Poetry 6 14 12 Old D, H 1 13 7x97 Poetry3 11 10 D, Skt Poetry Good 32 3x190 2 33 37 Good D; H Poetry 11 0x11 0 13 98 | Good D, H poetry 14 5x110 5 9 15 D, H Poetry 98x157 5 13 11 C Good Good D, Skt / 32 3x19 0 2 33 37 Poetry Pkt D, Skt. 23 3x190 Poetry 4 15 18 Good D, H Poetry 20 6x180 2 16.18 C Old PI D; H Poetry 19 5X150 5 15 2) Good 1965 y s Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakuma. Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah TL 2 3 1633) Ta/42/88 Suprabhâta stotra 1634 Ja/51/16 Sürya-sahasra-nâme 1635 Nga/47/4/26 Swayambhū stotra 1636 Ta/42/10 1637 Ta/3/30 1638 Ta/14/23 1639 Ja/29/4 Vinati 1640 Nga/25/8 1641 Nga/37/11 Vrndavana 1642 Ja/45/5 Bhüdharadasa 1643 Ta/3/40 1644 Ta/42/29 Iránaságara Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P. 6 P P P P P P. P P P P. P. Catalogue of Sanskrit Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 109 (Stotra ) 7 D, Skt Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry P, Skt Poetry D, Skt Poetry D, H Foetry D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry 1 8 32 3 x 19 0 1 33 37 32 3 ×20 1 3 13 35 20 6×18 0 3 16 18 32 3x19 0 1 33 37 22 5x15 0 3 12 31 15 2x 128 20 11 15 21 1x14 0 16 13 13 28 4×17 0 3 24 17 22 0x13,0 515 14 150x11 3 3 10 23 22 5×15 0 1 12 31 32 3x19 0 2.33 37 9 C C C C C C C C с C C C Good Good Old Good Good Old 10 Good Good Old Old Old Good 11 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Duvakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1 3 1 4 1 1645 | Nga/48/1/3 Vinati 1646 Ta/306 Harşakirti 1647 Nga/48/23,5 1648 Nga/44/19/3 1649 Nga/44/12/3 1650 Nga/47/4/75 Bhüdharadasa 1651 Nga/44/10/7 1652 Ta/3/8 Vinati-tribhuvana swami 1653 Nga/44/10/9 Vişápahåra stotra Dhananjaya Kavi 1654 Nga/38/3 1655 Nga/26/1/5 1656 N82,49/21/4 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts | 111 ( Stotra ) 1 7 I 8 9 10 11 Old 11 7x140 5 10.15 Poetry D, H Poetry 120 1 x 15 6 2 13 20 Good PDH Poetry 16 8 x 128 3 11 12 c old D, H Poetry 19 5x12 5 3 10 19 PD: H 32 3 x 20 4 4 23 17 Poetry 1 Old D; H Poetry 20 6x180 5 16 18 D, H. Poetry 18 5x13 1 213 22 Good D, H Poetry 22 5 x 15.0 2 12 31 Old D, Skt Poetry 18 5 x 13 1 5 13 22 Good | D, Skl Poetry 15 8 X90 6 9 22 C Good PD, Skt Poetry 29 0X178 4 21.17 Good D, Skt 16.5 x 125 8 12 12 Old Poetry Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1121 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 11 2 1 | Ta/9/8 Vışapahāra stotra Dhananjaya Kayı Ta/4/4 Ta/42/65 1660 Nga/47/4/9 1661 Nga/44/10/3 Nga/47/4/14 Nga/44/12/4 1664 Nga/44/17/2 1665 Nga/2514 1666 | Ja/35/5 1667 Ja/16/4 L . Nga/47/4/6 Vrhat-sahastra-nāma Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 P P. P P P P P P P P. P. Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 113 (Stotra ) P. 7 D Skt Poetry D, Skt Poetry D; Skt Poetry D; Sht Poetry D; H Poetry D, H Poetry D, H Poetry D, Skt Poetry D, H Poetry D, H Poetry D, H Poetry 8 19 0x 14 5 13 19 20 23 2x19 5 6 11 20 32 3 x 19 0 2 33 37 20 6×180 5 16 17 12 5x13 1 4.12 23 20 6x18.0 5 16.18 32 3×20 2 4 23 17 13 5x8 5 13 6 13 28 4 x 17 0 4 24 17 18 3 x 11 5 5 16 15 23 3 x 19 0 4 15 18 D, Skt 20.6 x 18 0 Poetry 13 16.14 9 C C C C C с с C C C с C 10 Old Old Good Old Good Old Old Old Good Good Good Old 11 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1141 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 4 5 1669 Nga/47/8/3 Vrhat-svayambbû Samanta-bhadra 1670 Nga/43/70 stotra 1671 Nga/26/1/9 1672 Ta/42,101 Yoga bhakti 1673 Nga/30/2/7 Abhişēka-vidhi 1674 Nga/47/5/1 Adinatha-pājā 1675 Nga/41/Ta 1676 Nga/41/tha Adityawara-pūja 1677 Nga/27/3 Adityavāra-Udyāpana Visvabhūşana Ta/39/22 Akrtrima-castyalaya-Ārati Ta/3/22 Arhya 1680 Nga/26/2/8 pūjā Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 115 Catalogue of Sapskut, Prakrit, Apabbramsa & Hindi Manuscripts (Pūja-Patha-Vidhāna ) 9 10 11 C old 20.8 x 16.3 18 15 18 D, skt / H. Poetry/ Prose D, Skt / 17 6x1301 C 22 12 21 Good H Poetry Prose D; Skt 290x178 13 23 17 Good Poetry 32.3 x190 1 33 37 C D, Pkti Skt Poetry | Good Incold D, Skt Poetry 19 0 x14 8 19 26 It has no cl D, Skt 16.5x160 c 4 12 19 old Poetry D, H 14 5x110 6 13 16 c Old Poetry D,Skt /H Poetry 14 5x110 c 2 13 16 old 1 D, Skt Poetry 27 8 x 17 6 15 10 31 C Good D; Pkt old Poetry 200x120 1 24 18 re D, Skt, Poetry 22 5x150 1 12 32 Good D, Skt Poetry 30,3 x17 51 2 16 16 Good Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1681 1682 1685 1683 Ja/51/22 1686 2 1687 Ta/42/30 Ta/42/49 1684 Nga/44/10/12 Arı-hanta-dakşın! Ta/39/6 1692 Ta/14/28 Ta/35/6 1688 Ta/42/26 1689 Nga/47/8/15 1690 Ta/3/33 3 Ananta-jina-pūjā Ananta-puja-vidhi 1691 Nga/47/4/24 Athal-pūjā Aştabijaksara-pūjā Aştānhikā pūjā "" Nga/27/5 Bahubali-pūjā Dyanataraya 99 4 - 5 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 P. P. P P. P P P. P P. P Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Puja-Pätha-Vidhana) P P 7 D, Skt Poetry D; H Poetry/ Prose D, Sht Prose D, H. Poetry D; Skt. Prose/ Poetry D, Skt Poetry D, Skt / Pkt Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry D, H Poetry 8 D, H Poetry 32 3x19 0 2.33 37 32 3 x 19 0 2 33 37 32 3×20 1 2 13 35 18 5x13 1 4 13 32 20 0 ×12 2 4.19 20 15 2x12 8 12 12 18 15 5x12 6 11 10 16. 32 3 x 190 ! 3 33 37 D,Skt /H 22 5x15 0 Poetry 7 12 31 20 8 x 16 3 22 15 17 20 6×18 0 8 16 18 18 5x30.5 6 21.20 9 C с с Inc C C с C C C C с Good Good Good Good Old Old 10 Old Good Old Old Old Good 11 1 [ 117 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah i 2 13 1693 Nga/47,8/7 Bahubali-muni-pūjā 1694 | Nga/47/4/53 Bhairo-råga 1695 Ja/38/1 Bisa-Tirthankara arghya 1696 Ta/3/25 Bisa-Virahamāne-pūja Nga/48/12/2 1698 Ta/14,5 1699 Nga/48/23/1 1700 Nga/47/4/21 1701 Nga/41/2/2 Bisa-Vidyamāna-pājā 1702 Nga/26/2/11 Bisa-Tirthankara-jakari 1703 Nga/47/3/80 Bisa-Virahamāna ārati 1704 Nga/48/26/5 Bisa-TirthankaraJayamala Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6| P P. P P. P Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Puja-Patha-Vidhāna) P. P P. P P P P 7 DH Poetry D, H. Poetry D, H. Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry D, Skt poetry D, H Poetry D, Skt Poetry D; H Poetry D, H Poetry D, H. Poetry 8 20 8x16.3 4 16 21 20 6×18 0 1 16 18 22 0x13 1 9 12 27 22 5×15.0 4 12 32 13 5x120 4 8 12 15 2 x 12.8 3 13 16 16 8x12 8 4 11 18 20 6×18 0 5 16 17 14 5 11 0 49 17 30 3 x 17 5 2 16 16 20 6×18 0 1 16.18 16.5×13 5 2 8 24 9 C C с C C C с C C C C C Old Old Old Good Good Old Old Old 10 Good Good Old Old 124," 11 w.. 119 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1201 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1705 Nga/47/5/4 Candra-prabba-pājā 1706 Nga/17/1/1 Ajitadāsa 1707 Ta/42/15 Caretra-pūjå 1708 Ta/14/11 Narendrasena 1709 Nga/47/4/30 1710 Ta/39/7 Caturavisatı-yakşini-pājā 17111 Ta/39/8 måtrkā pāja 1712 | Ta/39/9 Caturanivisati tirthankara-pūjā 1713 Nga/33/1 1714 Nga/33/2 1715 Ja/34/4 --- --- 1716 Nga/47/7 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 121 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūja-Patha-Vidhāna ) Ol? L:10 | 10 | 11 11 0 old D, Skt. 16 5x160 Poetry 5.12 19 0 Old D, H Poetry 25 0x150 3 19 21 0 C Good D, Skt Poetry 32.3 x190 2 33 37 1 0 Old D, Skt Poetry 15 2x12.8 9 12 16 0 Old P; Skt Poetry 20.6 x180 0 16.18 0 old D, Skt Poetry 20.0x 12 2 4.20 15 0 old D, Skt | 20 0 x 122 Poetry 4.20.20 0 Good D, Skt Poetry 20 0 x 12 2 4 20 20 0 Good DH Skt! 23 4 x 15,0 Poetry 21 19 14 Its two opening pages are damaged. Copied by Rāmcandra 0 Good DH Poetry 22 5 x 134 4 16 12 0 Good D, H Poetry 190 x 14 9 3 15 20 0 D, Skt. Poetry Old 18.0 x14 1 100 13 13 C Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122) i s ofa ferace #97 waraeit Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 11 2 1 1717 Ta/14/13 Caturavinsati-jina Jayamala 1718 Nga/41/na Caubisa-tirthankara-pujá 1719 Nga/48/3 1720 Ja/55 1721 Ta/13 „ . Caudhari Ramacanda 1722 Nga/46/10 Caubiši pājā 1723 Nga/38/8 Caturavinçatı tirthankara pada 1724 Ta/5/4 Cintamani-pājā Sambhūnátha 1725 Ta/24/6 » pārswanātha pūja | Jnanasāgar 1726 Nga/47/8/16 1727 Ta/39/1 1728 Ta/42/38 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts | 123 ( Pujā-Pāgha-Vidhāna ) 6 7 1 8 9 10 1 11 D;H /Pkt) 15.2 x 12 8 Poetry 311 18 c old DH Poetry | 14 5x110 5 13 16 D, H Poetry 40 9 x 15 8 2 40 15 1 D; H Poetry 35 0 x18 O 71 11.30 Good D, H Poetry 150 x 13 3 113 10 22. Good D, H Poetry 190x17.8 4 13.20 c Cood D, H Poetry | 15 7x90 3 9 22 | Good D, Skt Poetry 250x150 10 24 16 Good 1793 V s. D, Skt Poetry 30 2 x 200 16 37 33 Old 1819 V, S D, Ski Poetry 20 8 x16 3 6 16 15 Old p D, Skt 200x12 21 c Poetry 2 19 20 old D; Skt Poetry 32 3 x190 2 33,37 Good 1 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1241 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah iT 2 3 4 Ta/39/13 Cintamani Jayamāla 1730 Nga/48/26/21 Darsana-pātha 1731 Nga/44,13,8 1732 Ta/35/1 1733 Ta/42/61 pūja 1734 Ta/42/13 1735 Nga/47/4/28 Narendrasena 1736 Ta/3/29 Dašalākṣani , Dyanataraya Nga/47/4/25 1738 Nga/44/10/14 Brahma Jinadasa 1739 Ta/14//8 1740 Ta/42/59 Dyanataraya Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts | 125 ( Pūjā-Pājha-Vidhāna ) 7 8 11 9 C 10 1825 v. D,PLE / H./Skt. Prose 200 X 12.0 1 23.19 D, Skt Poetry 16 5x1351 28 241 Good D; Skt Po try 13 5x8.5 4613 c old D, SIC Poetry 1 15.5 x 12 6 C Old 2 10 16 D, H. Poetry 32 3x190 2 33 37 Good D, Skt Poetry Good 32.3 x000 2 33 37 D, Skt Poetry 20 6X180 C 6 16 18 old D,Skt/H Poetry 22 5 x150 7 12 31 Good D,Skt H Poetry Old 20 6x180 15 16 18 18 5 x 31 1 4 13 22 Good D, Skt H. Poetry/ Prose D, Skt, Poetry 15 2 x 12 8 16 12 12 c old 1 D, H Poetry Good 32 3x19 01 2.33 37 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1741 1742 1743 1744 1745 1746 1747 1748 1749 1750 1751 1752 2 Ta/42/9 Ta/35/5 Ta/38/1 Ta/24/2 Ta/39/10 Nga/26/2/2 Nga/25/14 Nga/14/4 Ja/45 Nga/27/2 Nga/26/2/13 Nga/41/2/1 Dasa-lakṣaní-Dūjā 99 ,, jayamala 39 Deva-Pūjā 34 " Digpälärcana 39 39 3 37 91 93 Vratodyapana 4 Ajadhara Sūri 5 I Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 127 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramśa & Hindi Manuscripts ( Pūjā-Pājha-Vidhāna ) illi 8 1 9 10 1 11 Good D, Skt Poctry | 32 3 x190 3 33 37 D, Skt Poetry 15 5x12 6 3 10 15 C Old D, Skt / 14 5 12 5 Pkt 15 8 13 Poetry Old D, Sht Poetry 30 2 x 200 5 37 33 1 old D, Skt. 20 0 x12 2 C Prose/ 3 19 20 Poetry D, Skt 30 3 x17 5 5 16 16 C Good C Good D, Skt Poetry 28 4x 170 6 24 17 D, Skt | 20 8 x 26 0 Poetry 13 14 25 C Good 150 x 11 3 36 11 33 D, H Skt Poetry/ Prose D, Skt Poetry 260x177! C 8 20 16 Good D, Skt Poetry 30 3 x 17 5! Inc 2 19 13 Good C | Good D, Pkt14.5 x0.11 Skt.] 17.9.16 Poetry Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1753 Ta/3,18 Devapūjā 17:4 Nga/44/2 1755 Nga/47/4/18 Dyanataraya 1756 Nga}44/3 1757 Ta/14/4 1758 Ta/16,1 1759 Ta/18/2 1760 Nga/48/19 1761 Nga/48/23/1 1762 Ta/3512 1763 Nga/44/10/16 1764 Nga/49/12,1 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apalita: *!! - Vine ( Püja-Pāha-V:****3 61 71 8 19 10 . D Skt. Poetry | 22 5x150 5 12 361 D, Pkt / 20 5x160 Skt 915 17 Poetry/ Prose D,Skt H 20 6x180 Poetry 12 16 18 P D; H 200x160 Skt 26 14 19 Poetry/ Prose D, Pkt 15 2 x128 Skt. 1 10 12 16 Poetry Inc 15 5x9.5 11 6.18 Inc D, Skt Poetry/ Prose Old D, Pkt Skt Poetry 11 0x110 13 13 19 D, Skt Poetry 16 1 X101 88 26 P.Deskt/H Poetry 16 7 x1 9 12 10 16 D, SKL Poetry 15 5x12 6 7 10 16 D, Skt | 18 5x13 1 Poetry 5 13.22 D, Pkt Poetry 13 5x120 17 8 13 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1301 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1 2 3 Ta/42,2 Deva-pūja 1766 Ta/3/19 Deva-jayamālā 1767 Ta/5/10 Deva-pratıştha Vidhi 1768 Nga/48/1/2 Dharanendra-pūjā 1769 Ta/39/3 1770 Ja/51/11 1771 | Ta/3/36 Garbha Kalyanaka Rūpacanda 1772 Ja/57 | Giranāra-pījā 1773/ Nga/48124 Nga/47/8/11 1775 Ta/3/21 Gurū-jaya-mala 1776 97/117 Guru--puja Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 131 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūja-Pätha-Vidhāna ) ol 71 8 9 10 1 Good D, Pkt / Skt Poetry 32 3x19 0 3 30 37 D, Pkt 22 5x150 Poetry 2 12 31 C Good Good D, Skt 25 0x150 Prose 1 27 20 1 old D, Skt 1.13 7x120 Prose 89 10 13 Old P, Skt Poetry 20 0 x122 4 19 20 Good D, Skt Poetry 32 3x 201 1 13.35 old D, H Poetry 22 5 x 150 2 [2 31 D, H Poetry 14 20 8 x16 41 10 15 21 Good 1 old D, H Poetry 1 162 x 9,5 8 6 21 20 8 x 16 3 6 15 17 Old Poetry D, H Poetry 22 5x150 2 12 12 Good D, Skt. Poetry 20 8 X 26 0 7 14 25 Good Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab 2 1 3 1777 Nga/41/2/4 Guru-pājā Vinodilāla Nga/47/9/42 1779 Ta/14/39 1780 Ta/42/8 Brahma Jinadasa Nga/44/10/19 1782 Ta/18/6 1783 Nga/26/2/5 Brahma Jinadása Ta/3/27 Hemarāja 1785 | Nga/48/1,5 Homa-Vidhi 1786 Ta/24/4 Jala-yatri-Vidhi 1787 Ta/517 Jinayajna Vidhana 1788 N87/25/10 Jonavara Vinatı Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ('133 ( Pūja-Patha-Vidbāna ) 6 7 i 8 | 9 | 10 P D;Pkt /H. 14 5x110 Poetry 6.9 17 c Good Old D, Skt. Poetry 20.6 x18 4 16.18 Old D; Skt / 15 2 x 128 Pkt 3 14 19 Poetry D; Skt Poetry 32 3 x190 2 33 37 Good Old D; Skt Poetry 18 5x13 1 413 22 D, Skt Poetry 11 0x11 0 4 13 19 Old D; Skt Poetry 30 3 x 17 5 3 16 16 Good D, H. Poetry 22 5 x150 5 12 31 Good D, Skt Poetry/ Prose 140x117 12 10 12 Old D, Ski Poetry/ Prose 30 2 X20 0 1 37 33 Old Inc D; Skt Poetry/ Prose 2.5 0 x 15.0 68 21 17 Good D; H Poetry 28.4 x 170 2 24.17 Good Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Nga/47/5/2 Jina-guna-sampat1-půjā Ta/3/26/1 Jina-vāni-puja Brahma Jinadasa 1791 Nga/47/8/13 Jambū-swami-pājā 1793 | Nga/44/10/22 Jaya-malıká-pūjā 1794 Nga/47/4/29 Jnåna-pūja 1795 Ta/14/10 Narendrasena 1796 Ta/42/14 1797 Nga/17/1/3 Jwalā-målini-puja 1798 Nga/43/6/10 Nga/47/8/17 1800 Ta/42/40 Jyeştha-jinavara-pūjå Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (135 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūjà-Patha-Vidhana ) 1 9 10 11 P D, Skt Рогу 16 5x16 0 6 12 19 D;Skt./H Poetry 22 5x150 6 12 31 | Good Old D. H. Poetry 20 8 x16 3 8 15.17 16.7x12.8 11 8.22 C P. D, Skt /H Poetry Good Old D; Skt Poctry 18 5x13 1 2 13 22 1 Old D, Skt Poetry 20 6x180 5 16 18 D; Skt Old 152 x 12 8 7 12 16 Poetry D, Skt Poetry 32 3 x 1901 C l Good 2 33 771 P. Old D; H Poetry 25.0x150 5 20 21 Old | D, Skt. 17 3x130 Poetry 7 13 13 P. D, Skt 20 8 x16 3 2 15 17 Inc Old Poetry D; H Good Skt Poetry 32 3 x 19 0 1.33.37 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्यावजी Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 2 1 3 1801 Nga/48/26/4 Kalasābhişeka Nga/41/Ka Kalıkunda-pūjā 1803 Nga/47/4/40 Ta/42,22 1805 Nga/44/10/18 - pârswanatha--pūja 1806 Ta/14/12 Nga/26/2/6,7 Ta/24/1 Kanjika-vratodyapana Pandita Nandaraaa Nga/14/3 Karma-dahan-pājā 1810 Ta/42/24 Kşma-vans Ta/30/9 Kşetrapala Viswasena 1812 Ta/41/28 Subhacandra Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 13' ( Puja-Patha-Vidhāna ) 6 7 8 9 10 11 D Skt Good Poetry 58 24 D, Skt Poetry 12 13 17 Opening pages are missin. D, Skt Poetry 20 6 X180 3 16 18 C Old Good D, Skt 32.3 x190 Poetry 2 33 37 P Good D, Skt Poetry 18 5x13 1 413 22 Old D; Skt Poetry 15 2x12.8 4 12 15 РТ C. Good D, Skt | 30 3 x17 5 Poetry 5 16 16 D, Skt Poetry 30 2 20 0 2 37 33 C D, Skt Poetry 20 8 X 0 0 23 14 25 Good D, Skl Poetry 32 3 x 19 0 2 33 37 Good " D, Skt Poetry 20 1x15 6 26 13 20 Good D, Skt Poetiy 32 3x190 0 33 37 Good Page #168 --------------------------------------------------------------------------  Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts | 139 ( Pūjā-Pāçha-Vidhāna ) 6, 7 i 8 9 1 10 1 11 D Skt Poetry 200x120 200x120 4 19 20 Inc | Old 0 D, Skt. 20 1x156 Poetry 3 13 20 c Good 0 D, Skt | 32 3x190 Poetry 1 6 33 37 C Good P. 0 D, Skt /H, 17.3 x130 Poetry 3 13 13 0 C old D, Skt Poetry 14 5x110 15 13 16 D; Skt Poetry 32 3 x 201 3 13 35 0 Good D, Skt poetry 23 x 190 I 33 37 0 c Good D, H Poetry 20 5x15 9 7 13 19 0 Good 1928 V S D, H 20 5x15 9 12 13 29 0 Good D, H Poetry 0 old 21 1x140 1 12 13 D; H Poetry 0 16 5x13.5 58 24 Good D, Skt Prose 32.3 x 19.0 1 33 37 6 C- Good Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 श्री जैन सिद्धान्त भवन 'ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah I 2 1 3 1825 Nga/31/2/7 Mokşa-paidi Banarasidasa - 1826 Nga/29/2 Nandiswa ya-puja 1827 Nga/28/5 1828 Nga/44/10/23 », dvipa-puja 1829 Nga/47/8/8 Navagraha-pājā 1830 Nga/27/1 1831 Nga/36/1 1832 Ja/51/7 Jinasagar 1833 Nga/4617 1834 Ta/39/11 1835 Nga/47/4/41 Navakāra-panca-trinsatpūjā 1836 Ta/20/1 Nava-pada-kalasa-pājā Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts (141 (Pūjā-Pāgha-Vidhāna ) 6 7 8 9 10 D; H. Poetry 12 3 x00o 4 16 16 C Good Good D, H Poetry 132x210 34 17.11 C Good D; Skt Poetry 14 6x141. c 23 12 15 Old D; Skt Poetry 18 5X131 413 22 C D; H Poetry 20 8 x16 3 28 16 21 P. | D;Skt H Poetry 260 x 16 7 20 19 16 Good 1913 V S. P D,Skt /H Poetry 13 6x17 8 32 9 26 Good P. D, Skt. Poetry 32 3 x 20 1 4 13 35 i Good It contains chart of nine grahas P Diskt (H Poetry Old 23 2x150! 24 16 15 D; Skt Poetry 200 x 120 3 19 20 Old D, Skt, Dla Poetry 20 6 x 180 4 16 18 D, H. Poetry 10 9 x96 25.7 13 Page no, one to thirty seven are missing. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1421 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली । Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 3 1837 Nga/44/1974 | Neminátha Jayamālā 1838 Ta/14/37 Nhavana-pūjā 1839 Ta/42/11 1840 Nga/47/4/37 kavya 1841 Nga/47/5/13 Nirvana pājā jayamala 1842 Nga/44/9/1 1843 Nga/47/4/33 1844 Nga/33/4 1845 Ta/42/21 1846 Nga/44/10/27 Bhagavatıdása 1847 | Ta/14/30 1848 Nga/47/5/5 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (143 Catalogue of Sapskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūja-Pājha-Vidhāna ) 6 7 8 9 10 1 1 D, H. Poetry 19 5x125 2 10 19 Inc D; Skt | 152x12 8 Poetry 9 12 18 Closing is missing. P. D; Skt. 32 3x19 0 1 Poetry 3 33 37 C Good D, Skt Poetry 20 6x18 0 3 16 18 c old old P, Pkt. Poetry 16.5 x16 0 3 12 19 Good D, Skt / 11 0x10 5 Pkt 8 11 12 Poetry Sixteeng opening pages are missing c old D, Pkt 20 6x 18 Skt 4 16 18 Poetry D; H Poetry 22 7x157 CJ Good, 2 18 16 D, Skt 32 3x19,0 1 33 37 Good Poetry D,Skt H 18 5x13 1 18 9x131 4 13 22 C Old Poetry D, Skt 152 x 128 5 12 17 Pkt. Poetry D; Skt Poetry | 16 5x16 0 3 12 19 Old Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144) श्रीन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 ] 3 5 1849 | Ta/42/42 Nirvana-pūjā 1850 Nga/47/8/5 Nirvana-kşctra-pūja 1851 Nga/47/8/1 1852 Ta/3/34 , kalyānaka , 1853 Ta/3/37 Rūpacanda 1854 Nga/36/2 Nitya-niyama-pūjā 1855 Nga/37/5 Pada-Lavans 1856 Ta/39/4 Padmavati pūja-vidhana 1857 Ja/51/13 Cårūkirti 1858 Ta/42/35 1859 Ta/42/37 1860 Ta/39/14 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 P P P P P. P P. P. P P P P. Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 145 (Pūjā-Patha-Vidhana) 7 D; H. Poetry D, H Poetry D, H Poetry D; H Poetry I D, H Poetry D, Skt Poetry D, Skt Poetry D,H /Skt 22 5×150 Poetry 4 12 31 D, Skl Poetry 11 D, Skt. Poetry 8 D,Sht /H. 17 8x13 7 Poetry 24 14 15 D; Skt Poetry 32.3 x 19 0 2 33 33 20 8 x16 3 7 15 18 20 8 x 16 3 2 15 18 22 5×15 0 1 12 31 20 8 x 13 0 4 14 12 200×12 2 2 19 20 32 3 x 20 1 4 13 35 32 3×19 0 3 33 37 32 3x19 0 2 33 37 20 0x120 8 20 16 C с C с с с C Ο C C C с с Ο Good Old Old Old Old Good Old 10 Old Good Good Good Old 11 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 2 1861 | Nga/43/6/15 Padmavats-pājā 1862 Nga/41/4 1863 Ja/51/9 vratodyāpana 1864 Nga/41/1 Pancabalayati-pāja 1865 Ta/33 Panca kalyanka-půjā Patha Bhagawana Prasad 1866 Nga/47/4/2 Panca-kalyanaka-pätha Rūpacanda 1867 Ta/42/1 1868 Nga/14/2 . Pūjā 1869 Nga/47/4182 1870 Nga/26/2/1 », doha 1871 Ta/5/1 » pūja 1872 Nga/47/8/6 Panca-kumara-pūja Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabh ramsa & Hindi Manuscripts ( Pūjā-Pātha-Vidhāpa ) ; 8 9 10 D; Skt Poetry 5 13 13 D, Skt | 14 5 11.0 Poetry 4 13 16 D, Skt. 32 3x201 Poetry 513 35 c Good D . D; H. Poetry 16 0 X9 5 6.7 25 Good Good D, H Poetry 44 17 36 Cold D, H Poetry 20 6 X 18 O 8 18 21 DH Poetry 32 3 x 19 0 3 30 37 Good D, Skt. 20 8 x 26 O! Poetry 24 14 25 C Good P Old D, Skt. Poetry 20 6 x 180 28 16 21 D, H Poetry 30 3 x 175 21 16 16 C Good 1 old D, Skt. | 25 0X150 17.28 21 Poetry P. D; H Poetry 20.8 x16 3 4.16 21 C old Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1481 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1873 Ja/57;3 Panca-kumāra-vidhāna 1874 Ta/18 Panca-mangala-pātha 1875 ) Nga/25/13 Rūpacanda 1870 Nga/41/2 1877 1 Ja/26/1 meru pūjā Ta/3,32 Panca , Dyanataraya 1879 Nga/47/4/23 1880 Nga/44/10/21 1881 Ta/42/25 Bhudhardasa 1882 Nga/47/8/14 1883 Ta/42/57 Dyanataraya 1884 Ja/5714 Panca-parmeşti-Arghya Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 149 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūjā-Pātha-Vidhana ) 7 , 8 | 9 | 10 | 11 32 3 20 1 | 2 13 35 C D Skt Poetry) Prose | Good 1 Old D, Skt / H Poetry 11 0x110 9 13 19 РІ Good D. H Poetry | 28 4 x 170 204 XIO 4 24 17 Good D, H, Poetry 14 5x110 14 8 19 P Old D, H Poetry 22 0X150 22 18 14 P | D, Skt (H Poetry 22 5x150 4 12 31 Good old D, H poetry 20 6x180) c 6 16 18 D, Skt (old Poetry 2 13 22 P D, Skt /H Poetry Good 32 3 x190 1 33 37 D, Skt Poetry Old 20 8 x16 3 1 3 15.17 D; H Poetry 32 3 x 190 0.33 37 C Good D D ; Skt Poetry 32 3 x 20 1 1 13 35 Good. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan, Arrah 1 | 2 1885 Ta/3,23 Panca-parmesthi Jayamala 1886 Ta/33/2 „ „ Pātha Ta/5/8 , Pūja Dharmabhūşana Nga/47/9/2 1889 Nga/33/3 1890 Nga/14/1 Yaśonandi 1891 Nga/37/7 Pärswanatha Kavitta 1892 Nga/48/1/1 Pūjā 1893 Nga/471519 1894 Ja/51/10 1895 Ja/51/5 1896 Nga/47/4/3 Prabhati-Mangala Rūpacanda Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P. 6 P P P. P P. P P P p. P P. Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 151 (Pūjā-Patha-Vidhāna) 7 D; Pkt Poetry D, H Poetry D; Skt. Poetry D; H. Poetry D,Skt /H Poetry D, Skt Poetry D, H Poetry D, Skt Poetry D, H Poetry D, Skt Poetry D, Skt. Poetry D; H. Poetry 8 22 5×15 0 2 12 33 19 7×15 8 4 17 16 25 0x150 15 23 15 20 5x15 9 8 13 19 23 5 x 14 5 18 16 11 20 8×26 0 39 14 25 12 0x18 3 4 17 17 13 7x12 0 14 10 14 16 5x16 0 5 12 19 32 3 ×20 1 4 13 35 32 3 x 20 1 3 13 35 20 6×18 0 2 16 18 9 с Inc с C с C C C C C C C Good Good Good Good 10 1 Good Good Good Old Old Good Good Old 11 1 to 11 pages are missing. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1 4 is 1897 Ta/42/34 Pratıştha-tılaka Narendra Sena 1898 Ta/3/52 Pūjā-mahatmya Vinodilala 1899 Nga/44/2 » Samgraha 1900 Ja/19 1901 Ja/29/5 » Vidhana 1902 Nga/46/4 Punyaha-Vacana 1903 | Ja/51/2 Nga/48/19 1905 Nga/43/6/14 1906 Ta/3/1 1907 Nga/46/11/1 1908 Nga/44/5 Puşpānjalı Pūjā Lalitakirti Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts | 153 (Pūjā-Patha-Vidhāna ) 6 7 8 9 10 1 1 11 D Skt. Poetry 32 3 x 19 0 Ic Good 15 33 37 Good D, H Poetry 22 5 x150 2 12 31 Old D, H Poetry Inc The Mss. is not in order. 18 5x135 102 13 26 D, H Poetry 1 23 7x150 27 20 17 Good Good D; H. Poetry 21 1 x140 119 13 13 D, Skt Poetry 36 0 x 190 5 12 44 Good 32 3 x 20 1 Good D, Skt Poetry1 Prose 4 13 34 D, Skt old Poetry 1 16 8 x14.0 16 10 15 Old D, skt Prosej Poetry 173x130 5 13 13 | 21 0 x 10 9 16 8 18 Poetry/ Prose Good 1866 V S. D, Skt 36 4x190 Prose 1 1239 Good D; H. Poetry 20.5 x 15 5 3 12 26 Good Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 1969 Ja/34 Ratnatraya-Pūja Dyanataraya 1910 Ta/42/62 1911 Ta/42;12 1912 Ta/3/31 Dyanataraya 1913 Nga/41/Kha 1914 Nga/47/4/27 Dyanataraya 1915 Ta/14/9 Narendra Sena 1916 Ta/38/2 Jayamala 1917 Ja/34/3 Raviyrata-Udyāpana Visvabhūsana 1918 Nga/47/4/1 Pūjā 1919 Ta/42/33 1920) Nga/48/10 Rz'-mandala Pūja Page #185 --------------------------------------------------------------------------  Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1561 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2 3 1921 Nga/47/3 Rşi-mandala Pūja 1922 Ta/515 1923 Nga/13/1/2 1921 Nga/22 Sahasranama , Sikhara-Canda 1925 Ja/51/1 Sakali-Karana 1926 Ta/16/2 » Vidhi 1927 Ta/16/5 1928 Nga/44/6 1929 Nga/38/15 Samadhi-marana Dyanataraya 1930 Ja/17 Sãmâyıka Pathā Jayacanda 1931 Nga/36/3 Vacanika 1932 Ta/6/20 Samavasarna Page #187 --------------------------------------------------------------------------  Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 3 1933 Nga/31/214 Samavasasana Ta/39/21 Sammcdicala Puja 1935 Ta/42/41 Sammcda-Sikhara Puja Ramcandra 1936 Nga/33/6 19,7 Ja/33/6 1938 Ta/3/14 " : Gangadása Vidhana 1939 Nga/47/8/10 » Puja 1940 Nga/47/8/4 1941 Nga/44/10/24 1942 Nga/47/8/2 Samuccaya-Caubis-Pūjā 1943 Ja/56 Santinatha-Pūja 1944 Nga/46/12/3 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cataloguc of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( 159 ( Pūjā-Pārba-Vidhāna ) 6 1 7 1 8 9 10 1 D, H. Poctry 123 x 16 3 14 13 14 Good 1974 V S 0 D, Sht Poctry 20 0 x120 2 24 18 Old 1819 V s. 32 3x19 01 333 37 0 D, H. Poctry C Good 0 D; H Poctry 23 9x13 3 9 18 12 Good 0 D, H Poetry 190x149 24 12 17 Old 1920 V S 0 D, Sht22 5 x150 Poetry 8 12 36 Good 0 DH Poctry 20 & x16 31 16 15 17 | 0 T), H Poetry 20 8 x16 3 21 15 18 0 D, SIt roctry 18 5x13 1 S13 22 P 0 D. H Poetry 20 8x163 4 15 18 0 D. II 1 Pactry! 28 8x150 9 22 20 c Good P. D. II. Poetry 0 251110' C 5.19 13 old Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 [ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1945 1946 1947 1948 1949 1950 1952 1953 2 Nga/47/4/39 Santi-päthä Ta/3/24 1956 Nga/48/23/4 Ta/42/4 1951 Ta/42/88 Nga/43/6/18 Santi Cakra-püjâ Nga/43/4/1 Sântidhärä Nga/46/11/2 Ta/42/27 1954 Ta/14/41 "" 1955 Ta/41 3 Saptarsi-pūjā Nga/26/2/34 Saraswati-pūjā 4 I Brahma Jinadasa 5 I I Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 161 Catalogus oi Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūjā-Pājha-Vidhana ) 8 9 10 11 D. Skt | 20 6 X180 Poctry 3 16 18 D, Skt. 22 5x150 Poctry 1 12 00 Old D, Skt | 16 8 x 128 Poetry 3 11 12 Good D, SLE, Poetry 32 3x190 1 33 37 D, Skt Poetry Old 17.3 x 130 7 13 13 Last page is missing D, Sht1637 14 0 ! Inc Poctyl 311 20 Prosc D, Skt poctry/ Prosc 32 32 19 0 2 33 37. Good D, Sht | 364*190 Prosc 2 12 39 Good P D . St. 2 3 > 19.0 Potry3 3 37 Good p.' D. Sht! 152 x12.8 Poetry 312 18 C old D, St. Poetry 12 SS.6 5019 Inc , Old p. 0,51: Pasti! pix175 16 16 Gard Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1957 Ta/42/19 Sastra-puja Dyanat arāya 1958 Ta/39/19 Malayukirti 1959 Nga/41/2/6 1960 Nga/47/4/36 1961 | Ta/14/29 Nga/14/8 Ta/3/20 , Jayamala 1964 Nga/47/8/12 Satrunjayagiri-pājā Visvabhūşana 1965 Nga/14/6 Siddha-pājā 1966 Nga/44/10/17 1967 Ta/35/3 1968 Ta/14/6 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramasa & Hindi Manuscripts ( 163 ( Pūjā-Pājha-Vidhāna ) 61 7 8 9 10 11 D; H. Poetry 32 3 x 19 01 2 33 37 | Good D, skt, 200x120 Poctry 2 24 17 D, Skt | 14 5 x 11 0 1.c Poetry 7917 Good PD:Skt H. 20 6x18 0 c Poetry 5 16 18 old D; Sht. 152 x 128 Poetry 5 12 13 D; SI. Poctry 20 8 26 0 4 14 25 C Good D, SLt Poetry 22 5x150 2 12 33 Good P, D; SKE Poetry 20 8 x16 3 16 16.15 C old D; Sit i 708x60 l'octry 6.14 25 Good PD, SLAS 5x131coid Poetry 7 13 22 P D ; Sht Poetry 13.5 1.6 3,10 16 P. P. Sit. Poe! T x ? Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah II 2 1 3 1969 Ta/18/4 Siddha-pūjā 1970 Nga/47/4/19 Khuśālacanda 1971 Nga/41/2/3 1972 Ta/3/26 Khusalacanda 1973 Nga/48/23/3 1774 Nga/48,18/2 1975 Nga/48/12/3 1976 Ta/42/6 1977 Nga/26/2/9 1978 Ja/29/3 1979 Ja/51/6 1980 Ta/3/13 Siddha-kşetra-puja Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apahhransa & Hindi Manuscripts | 161 ( Pūjā-Patha-Vidhana ) 61 71 8 9 10 1 11 PD Skt. 110x110 | C Poltry 4 13 19 i old P.D,Skt /H Poetry 20 6x18 0 616 18 c old I P Good D, SL | 14 5x11o Poetry 79.17 D. H Poetry | 22 5 x150 7 12 32 Good D, Skt Poetry 16 8 y 12 8 6 11 12 D; Sht | 160 x 10 1 Poctry 59 21 D; Sht (13.5 x 12 0 1 Poetry 68.12 C Good P ; D, Sht Poctry 323 x 190 13337 | Good PID; sle. 1 03x175 i Poetry 3 16 16 s Good p 1), 11. Poetry 21.1 x 14 0 312 10 C Old *), Sit l'actry 23301 1.113 C Gond P.'.). 11. 2 2. C 17090 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ) श्री जन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1981 Sa/54 Siddha-cakra-pūjā 1982 Ta/20/2 1983 Nga/27/4 Siddha-kşetra-pūjā 1984 Ta/42/43 1985 Nga/44/14 Sikhara-vilāsa-pūjā 1986 Nga/28/3 Sila-vattisi 1987 Nga/476 Sinhasana-pratışthā 1988 Nga/41/tha Sitalanātha-püjā 1989 Ta/20/3 Snāna-pājā-vidhi Nga/14/9 Solaha-karana-pājā 1991 Ta/35/4 1992 Ta/38/3 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 167 Catalogue or Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūja-Pajha-Vidhāna ) loc 1 8 9 10 11 D; H. Poctry | 18 6x11 4 113 22.22 Good 1965 V. S. s D; H Poetry 10.9 X96Inc 40.8 11 Good Last pages are missing. A | D; Skt.'18 5 30 6 6 21 22 C Good c P. | D H Poetry 32 3x190 2 33 37 Good 6 D, H 115 5x95 Poctryl 9 8 26 Prosc Inc old 1942 V. S Opening tweenty pages arc missing. . old D, Apr. 14 6x14 1 Poctry 712 18 . D; Sht. , 18 7 x 145 Poctry 20 14 16 Old 1955 V S. . P. 1 DH Pactry 14 5x110 6 13.16 Incold P. D; 11. Poetry 10.0x0nC 26.8 12 Good 20 SX 26,0 314 Good Porty P C D, St. 195x126 Pacity old 1. > Sii, :: 1 5 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 1 श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1993 Ta/14/7 1994 1995 2 Nga/44/10/13 1996 Ta/3/28 1999 Nga/47,4/22 1997 Ta/42/7 1998 Ta/39/17 2003 Ta/42/58 2000 Nga/29/1 2001 Ja/44 2002 Nga/47/5/3 Ta/3/3 2004 Ta/42/93 3 Solaha-karana-puja Sodasa-ha ana Solaha-käiana Sonägiri-pūjā Stavana Jayamālā Swadhyaya-patha 23 4 Dyanataraya Dyanataraya Dyanataraya I 5 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 6 P P. P P. P P. P 1 f ↑ 1 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts { 169 (Puja-Patha-Vidhana } P. D,Skt /H. 22 5x150 Poetry 5 12 31 A 7 D, Skt Poetry D, Skt. Poetry D, H Poetry D; Sht Poetry D. SI Poetry D, H Poetry D. H Poetry D, H. Petr D. H. Portry D. SUL. Pem 8 1. St Entry 15 2x12 8 4 12.16 18 5x13 1 6 13 22 20.6 x 18 0 5.16 18 32.3 x 19 0 2 33 37 200 > 120 3 21 18 1 32 3× 19 0 3 2 33 37 13 0 19 7 23 15 15 18 0 11 5 9715 165 160 (12 30 22.15 0 2 12.30 * 3 4 1 1 31 7 i 9 C C C с C Inc C с C C C C Old Good Old 10 Good Old + Good Good Good 1965 V S O'd Gun! Cs 11 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 [ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah i il 2 3 2005 li Nga/17/1/2 Syẩmala-yakşa-rūjā Ajita Dasa 2006 | Ta/42/32 Tattvārtha-sutrāştaka i jayamala 2007 Ja/9/7 Terahadwipa-pūja 1 2008 Nga/47/8/9 Tina-loka-samvandhi-pūja 1 2009 Ta/5/11 Tisa-caubisi 1 2010 Ta/5/3 Bhāvašarma 1 2011 Ta/5/2 Udyapana 1 2012 Nga/47/5/10 Vardhamāna-pījā Vrndavana 1 2013 Ja/20 Vartamâna caubisi-pātha 2014 Ta/39 , рӣја 1 2015 Ta/24/5 jinanāma Nga/14/5 1 Vidyamâna-bisa tirthankara pājā Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 171 Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( rūjā-Pājha-Vidhana ) 8 9 1 10 1 11 D. H Poetry 250x150 c 4 19 21 old P. Good D; Sht Poetry 32 3 x 19.0 I 33.37 DI Poetry | 29 8 x155 111 14 31 Inc | Old | Closing para is missing. Old Poctry 20 8 x16.3 7 15 18 D, SLE Poctry Good 25 (x150 528 25 D; Sht 250x150 Pocity 20 25 16 c i Good | D, She. 250 150 poetry 528.30 c Good Thc chart od tirthanh2.3 is on its 19 pase D, SL Poetry 165 > 160 6.12.19 Old hislied. Sht233x190 Poetry 65 23 Good I 1962 V S.) 1 . I. 1226 v138 Perry 100 126 C Gold 1890 V.S Cincu',R Sarm. ,'*'. p. n, sit, 3000 Poetrt 16 7.33 C 02 P D. SI!. . kind Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 ) श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 11 2 2017 Nga/26,2/10 Vidyamāna bisa Tirthankara-püjā 2018 Nga/24 » » pūja vidhana Sikharacanda 2019 Ta/42/5 2020 Ta/11/5 Vrata-Vidhana Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anuscripts | 112 Lapasogue of Sanskrit, Prakrii, Apaonramsa a ninui ( Pūjā-Pājha-Vidhana ) 011101110 1 8 10 1 1 Good pkt 30 3 x 17,3 5,16 16 ! Poetry D: H Poetry 29.0 x 17.0 49 21 16 Good 1929 y. S Good D, SK Poetry 32.3 x190 2 33 37 1 D: H. Pociry Gond 14 5x11.7 12 11 22 C Page #204 --------------------------------------------------------------------------  Page #205 --------------------------------------------------------------------------  Page #206 --------------------------------------------------------------------------  Page #207 --------------------------------------------------------------------------  Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजन सिद्धान्त,भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Sıddhant Bhavan, Arrah १००२. 'अष्टान्हिका कथा Opening : Closing : श्री जिन सारद गणधरपाय, . .... - । वत अष्टान्हिका कथा विचार, भाषू आगमने अनुसार ॥१॥ ए व्रत जै नरनारी कर, ते भवसागर से तरे । श्री भूषण गुरुपद आधार, ब्रह्म ज्ञानसागर कहै इह सार।।५३॥ इति श्री अठाई व्रत कथा सम्पूर्णम् । Colophon: १००३. अष्टान्हिका कथा Opening : Closing a यादव वसि नेमकुमार, भाव धरि वंदो भवतार । कहो अष्टान्हिका सार ॥१॥ तस दिक्षित बोले ब्रह्मचारी हरषनिधि शिखामण सारी। भणी सुणो नरनारी ॥१॥ इति नदीश्वर व्रत कथा सपूर्णम् । Colophon: १००४. अठाईकथा Opening . Closing , पचपरमेष्टी चरन कूधारौ निस दिन ध्यान । सो मेरी रक्षा करी जातं होय कल्यान । श्रावग धर्म सुजान, वतन लालपुर जानियो भैरी कही वखान, भव्य जन सुनिये चित्त दे ७६।। इति श्री भरौं जी कृत अठाई रासा समाप्तम्। . Co ophons १००५. आदित्यवार-कथा Opening : Closing : रिसहणाह प्रणमौं जिनंद जा प्रसाद मन होय आनद, प्रणमाँ अजित प्रणाम पाप दुख दालिद भव हर मनाप ।। कम्मं पिप्पो कारण मत भई तब यह धर्मकथा मन ठई। मनघर भाव मुन जो कोय सो नर म्वर्ग देवता होय।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sankrit, Prakrit, Apaphramsa & Hindi Manuscripts (Purana, Carita, Katha ) इति श्री आदित्यवार कथा जी समाप्तम् । Colophon : Opening: Closing . Colophone : Opening Closing Colophone : Opening : Closing, Colophon Opening १००६. आदित्यवार-कथा देखें १००५ । कमक्षय कारण इह मनि मई तत्र या धर्म्म कथा अरनई । मूर्ति धरि भावसु जो कोइ सो नर स्वर्ग देवता होई ॥ Closing : इति श्री पार्श्वनाथ गुण-महिमा युक्त रविवार व्रत कथा सपूर्णम् । १००७. आदित्यवार - कथा श्री सुखदायक पास जिनेस । प्रणमो भव्यपयोज दिनेस || यह व्रत जो नरनारी करें, सो वहु नहि दुरगति परं । भाव सहित सुरनरसुख लहै, बार बार जिन जी यो कहे ।। २५ इति श्री रविव्रत कथा समाप्ता । १००८. आदित्यवार - कथा देखें, क्र० १००७ । देखें, ऋ० १००७ । इति श्री रवि कथा जी लघु तमाप्तम् । 1 १००६. आदित्यवार - कथा 1 'प्रथमं सुमिरि जिन चौवीस, चौदह से त्रेपन जु मुनीस । सुमिरो सारद भक्ति-अनत, गुरु देवेन्द्र जु कीर्ति महत ||१|| रविव्रत तेज प्रताप भई लछिमी फिरी आई कृपा करि धरनेंद्र और पद्मावती माई .। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. जहाँ" "तहां रिद्धि सब छोर ज पाई मिले कुटुम परिवार भले सज्जन मन भाई।। पढे सुने जे प्रात उठि नरनारी जु सुवुद्धि, तिनको धरनेद्र पद्मावति देहि सर्वथा सिद्धि । इति श्री रविवार कथा सम्पूर्णम् । Colophoni १०१०. आकाश-पचमी-कथा Opening । Closing : 'पडिवा प्रथम कला घट जागी, परम प्रतीत रीत रस पागी। प्रतिपदा परम प्रीत उपावै, वह प्रतिपदा नाम कहावै ॥ .. काण्टासघ सरोज प्रकाश, श्री भूपण गुरु धर्म निवास । ताम शिष्य बोले चंग, ब्रह्म ज्ञानसागर मन रग ॥ -इति आकाश पचमी कथा - . १०११. आकाश-पंचमी-कथा Colophon : Opening श्री जिनसासन पय अनुसरू गणघर निज वदिन यह । साध सत प्रणमू पाय, जे हथी कथा अनोपम थाय ॥१॥ देखें-ऋ० १०१०।। इति श्री आकाश पचमी व्रतकथा समाप्तम् । Closing : Colopi on १०१२. भविप्यदत्त-कथा Opening म्यामी चद्रप्रभु जिननाथ, नमोचरण निमस्तक हाद। नाटन पन्यो चद्रमा जागु माया लाल कि नगा १॥ पहा मंपूरन मई, मक्स भव्य को मगन म। पाने जो करे वघाण, सो पावे शियपुरि परमाण । Closing: 119१६॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue ot Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Purāna Carita, Katha) Colophon : ' इति श्री श्रुतपचमी 'कथा भवसुदत्त चरित्र सपूणम् । सवत् १६४८ वर्षे मिति पौस वदि । श्री पार्श्वचद्र सूरि गछौ श्री गुरुजी श्री १०८ श्री चद्रमाण जी तत् शिष्य लिख्यतु ज्ञासिरदारमल्लेन 'श्री मफातपुरनगरमध्ये चतुरमासकृतम् । १०१३. चंदकथा । Opening : सिद्धि सुबुद्धि दातार तुव गौरीनदकुमार। चदा कथा ओरम्भ कीयो सुमति दियो अपार ।। Closing : उबुधरेषा अचपला जोग, तीजो और परमला भोग । ... आपणो राज॥ Colophon: I इति चदकमा सपूर्णम् । १०१४. चतुर्दशीकथा Opening • देखे ०६९ | Closing : देखे-०६९ | Colophon: श्री चतुर्दशी व्रत कथा समाप्तम् । । १०१५. चतुर्वचनोच्चारिणी कथा Opening : Closing . विक्रमादित्योरूप परदेशिद्विजाच्चतुर्वचनानि । वादयति यस्तस्मात हारयित्वा तमेव परिणमति ।। चतुर्वचना महोत्सधेन' परिणीय स्वनगरे समानीय भोगानुभवन कुर्वन् शम्मंणाकाल महाश्रेयो युवप्तो अभूत् । इति चउबोली कथा सपूर्णम् । १०१६. दानकथा - Colophon . Opening : देव नमो अरहत सदा अरु सिद्ध ममूहन को चितलाई, सूरि अचारज को प्रमो, प्रणामौ ज उपाध्याय के नित पाई। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Davakutaar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arra.h साधुनमौं निरग्रन्थ मुनी -गुरु, परम दयाल महा सुखदाई, नि पच गुरु एत मै सुनमू इनके सुमरै भवताप नसाई ॥१॥ Closing , दान कथा पूरण भई, पढ सुने सब कोय । दुख दरिद्र नासै सबै, तुरत महासुख होय ॥७६।। इति श्रीदानकथा भारामल्लकृत सपूर्णम् । देखे--(१) जै० सि० भ० न० , ० २६ । Colophon: १०१७. दशलाक्षणी कथा Opening Closing | धर्म जु दश लाछन कहै तिनको करू वखान । जो जिय निहजै चित्त धर ताको होय कल्यान ॥१॥ इह विध व्रत नर जो कर, पावं शिव पद थान । बूढे दुख ससार के, भरी कहै बखान । इति श्री दसलाक्षणी कथा समाप्तम् । Colophon! १०१८. दशलाक्षणी कथा .Opening | Closing | ऋषभनाथ प्रणमू सदा गुरु गनधर के पाय । तीन भवन विख्यात है सब प्रानी सुखदाय ॥१॥ सत्रह से इक्यावनवा भादव मास सुखसार । शुक्ल तिथ त्रययोदशी सुभ रविवार विचार ||१|| भूला चूका होय जो लीजो सुकवि सुधार । मोह दोस दीजे नही करी जु भव हितकार ||२|| इति श्री दसलाक्षणी कथा समाप्तम् । देखें-(१) ० सि० भ० ग्र०, पृ. २८ । Colophon: १०१६. दशलाक्षणी-कथा Opening । प्रथम नमन जिनवरनं करू, सादर गणधर पद अनुसरण • दशलाक्षिण व्रतकथा विचार, भाष जिन आगम अनुसार।१॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Mauuscripts (Purana, Crita, Katha ) Closing । भट्टारक श्री भूषणधीर, सकलशास्त्र पूर्ण गम्भीर । तस पद प्रणमी बोलसार, ब्रह्म सानसागर सुविचार ॥५५॥ Colophone इति श्री दसलाक्षणी कथा सम्पूर्णम् । १०२०. दशलाक्षणी कथा Opening | Closing : Colophon देखें- ऋ० १०१६ । देखें-क० १०१६ । इति श्रीदसलाक्षणी व्रत कथा सपूर्णम् । १०२१. दशलाक्षणीव्रत कथा Opening । Closing : Colophon: देखे-ऋ० १०१६ । देखें-ऋ० १०१६ । इति दशलाक्षणी व्रत कथा । Opening १०२२. दशलाक्षणीव्रत कथा .co .... पचामृत अभिषेक उदार। जिन चौविस सतरमो भडार, - अष्ट विध पूजा करो परकार ।।१७। देखें-ऋ० १०१६ । इति श्री देसलाक्षीणी व्रत-कथा समाप्तम् । १०२३. दर्शनकथा Closing | Clolophon: Opening: नमों देव अग्हत पद, नमों सारदामाय । नमो गुरु निरन्थ जे, अघहर मगल दाय ॥ दरमन कर पूरन भयो मनोवति को सुखदाय । । तास कथा फल पायक शुभ गति लई सिवदाय ॥५७०॥ Closing : Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्ध वन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan,Arrah Colophon . विशेष-- इति श्री दरसन कथा सम्पूर्णम् । २०१६ पर उल्लिखित पद के Author भारामल्ल है। लगता है कि पद इपी से सयुक्त है अत.' इसका भी लेखक भारामल्ल को ही होना चाहिए है। Opening 1 १०२४. धर्म-पापबुद्धि कथा अयो यानगरे राजासिंहसेनो राज्य करोति । तन्मत्रीवृद्धिसेनो धर्मन्पाय मत्र करोति ।, राजा दुराचारासत्यपरधनदारहरणलक्षणान्याय विदधाति । ... .. तपो विधाय यथा स्व स्वर्गेषु जग्मु । सदैव धर्मवृद्धि करणीया। सर्वलोकस्वायमुपदेश.। . इति धर्मपाययुक्तयो. कथा सपूर्णम् । , Closing Colophon . १०२५. धूपदशमी कथा Opening : Closing पच परम गुरु वदन करू , ताकरि मभ अव सब हरू । श्रुतसागर ब्रह्मचार को ले पूरव अनुसार । भाषासार बनायके सुखत खुशियाल अपार ॥१४॥ इति सपूर्णम् । सवत् १९४८ भादवा सुदी २ लिखाइत मराज जी लिखित मदनगोपाल ने कलकत्ता जैन मदिर मध्ये । Colophon . १०२६. दुधारसवत-कथा । Opening : Closing प्रथम नमो श्रीवीरजिनद वदो सदगुरु पद अरविंद । जासु प्रसाद कहू सुभकथा, गोतम गणधर भाषी यथा ॥2 श्रेणक आगल गोतम स्वामि-एह कथा भाषी अभिराम । ए दुधारस व्रतनी कथा चद भने मै भाषी तथा,॥४॥ . इति दुधारस जी की कथा समाप्तम Colophont Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue o' Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Purāna. Carita, Kathā ) १०२७. हरिवशपुराण Opening : Closing : सिद्ध सपूर्ण तत्वार्य सिद्ध कारणमुत्तमम् ।। प्रशस्त दर्शनज्ञान चरित्रप्रतिपादनम् ।। सकोडी कर चरणे उमग्रीवा महो मुहादि ।। हीज सुपावं लहो त सुह पावेहि तुह्य हु जनए ।। इतिश्री हरीवस पुराण की भाषा चौपाई वध सपूर्णम् । देखें, जे०सि० भ० म०, क्र० ४६ । Colophoni Opening ! Closing : १०२८. हरिवशपुराण देखें, १० १०२७ । ....... और अरिष्ठा पाच नरक उस विषे इदन की भूमि की मुटाई कोस ३ । और श्रेणीवद्धो की कोस ४ । और प्रकीर्णको की कोस सात ७॥ २१॥ अनुपलब्ध Colophon Opening १०२६. हरिवंशपुराण महाधीर बहुश्रुत विराजे श्रुतकेवली जिनश्रुतका व्याख्यान कर और वा मडप के समाप चार मडप " . • देवते मनुष्य होय निरजन पद पावंगी मातवी पटरानी गौरी ..... । अनुपलब्ध Closing . Colophon: १०३०. जम्बूचरित्र Opening श्री अरिहत नमो सदा, अरी न आवै पास । . अष्टकर्म दूरे टले आठो गुन परकास ।। . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon . उपर रवा मुखराज ते, श्री नीमध र देव । भाव भगति चित लायके सब जन करते सेव ।५२३॥ इति जवूचारित्र जी सम्पूर्णम् । लिखित राज्य कुमारचद आरामपुर नगरे स्वगह सवत १९३३ मिति वैशाख शुक्ल सप्तम्या ७ तिथौ रविवासरे निजाठनार्य पुन. भव्यजीव पठनार्थम् । शुभमस्तु कल्याणमस्तु । १०३१. लब्धिविधानकथा Opening प्रयम नमो श्री जिनवर पाय दूजे प्रणमी सारदमाय । लब्धि विधान तणी सुभ कथा भाषू जिन आराम छै यथा ॥१॥ श्री भूषण गगनायक वीर " . होमी सीध ॥५६ इति श्री लव्यि विधान कथा समाप्तम् । Closing Colophon: Opening : Closing : १०३२. महावीर-पुराण इण विधि कहिनी जत्रु कुमार सुनि सो कहसी निरधार । मागी के षिजत इकनारी मरतू चाहिलयौ ततकार ।२१। यात श्री जिनराज के चरण कमल सिरनाय, राखौ भवि उरके वि सुरग मुक्ति पदपाय ॥६३।। इत्या त्रिषष्ठिरक्षणमहापुराणस प्रहे भगवद्गुण मधाचाया गीतानुसारेण श्रीउत्तरपुराणस्य माषाया श्रीवर्द्ध मानपुराण परिममा तम् । इति श्री उत्तरपुराण समाप्तम् । शुभ सम्बत् १८६६ शाके १७३४ मासोत्तमेमासे शुक्लपक्षे त्रयोदश्या बुधवासरे पुस्तकामद पूर्णम् । रघुनाय समंगे लेखि पट्टनपुरगायघाट मध्ये निवपति । लेखक पाठकयो मगनमस्तु । Colophon : १०३३. नेमिनाथ विवाह Opaning : एक समे जो समुद्र विज छारि कामधनेम को व्याह रचो हैं, गावत मगलाचार वधु कुल में सबके जो उछाह मची है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Purana Carita, Katha) तेल चढावन को जुबती अपने-अपने कर थाल सचो है, नेग कर सव व्याहन को घर मडेप चित्र विचित्र खिंचो है 1१॥ Closing मेम कुमार ने जो गली घो दिन छपन लो छदमस्त रहो है, केवल ज्ञान भएंव प्रभु को तब आठवी भूत महानुमहो है, सात सै वर्ष विहोर कोको उपदेश,ते धर्म म्हातुमही है, निर्वाण गये मुनि पात्र से छपप लाल विनोदिने संग पही है। Colophon: इति श्री नेमनाथ जी काच्याहुला सपूर्णम् । १०३४. नि.काक्षित-गुणं कथा Opening : Closing . प्रनमू आदि जिनेद को फुन गुरु गौतमराय । सारदभाय प्रमादतै करू का मन लोय ॥१॥ नि काक्षित गुन की कथा भै रे कही बखान । भो निह कर पाल है, पावै शिव पद थान ।। इति नि काक्षितगुन कथा समाप्तम् ।७६१ Colophon . १०३५. निशल्याष्टमो कथा Opening : 'Closing . देखे, के०५०३६ काप्टीमघ कलावरचद, श्री भूषण गुरु परमानन्द । लस पद पक्न मधु करतार, ज्ञानसमुद्र क्थो कह विचार ॥६॥ इति निन्याष्टमी कथा।। इसमे निर्दु ख सप्तमी कथा भी है । Colophor विशेष २०३६ निर्दोषसप्तमी कथा Cpening श्री जिनचरण कमल अनुसरू, सारद निज गुरु मनमेधरू । निरदोष सप्तमीकी काथम, बोलो निगम के यथा ॥१॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing : ए त जे नरनारी करै, ते नर भवसागर उत्तर । अजर अमर पद अविचल लहै, ब्रह्मज्ञानमांगर इमै कहै।।४१। इति श्री निरदीप सप्तमी कथा समाप्तम् । देखें, जै० सि० भ० ग्र० I, क्र. ७८ । Colophon १०३७. पंचमी कथा Opening । Closing : वेदो श्री जिनराज के, चरण कमल गुणहीर । भव सागर नारण तरण, शरण हरण पर पीर ।।१।। हस्तिकतिपुर में यह सची, श्री सुरेन्द्रभूषण रची । यह विधि व्रतपाले जो कोई, सो नरनारी अमर पट्ट होई ॥१०॥ इति पंचमी कथा समाप्ता। Colophon. १०३८ पावपुराण Opening . Closing . Colophon मोहं महातम दलन दिन तप लक्ष्मी भरतार, से पारस परमेम हो उ सुमति दातार 1१11 सवत् सत्रह मै समै और नवामी लीय । सुदि अषाढ तिथि पंचमी ग्रन्थ समापत कीय ।। इति श्री पार्श्वनाथ पुराण भाषा सम्पूर्णम् । श्री पार्श्वपुराण जी बाबू महावीर प्रसाद मनोहरदास के वास्ते लेखक लाला चदुलाल लिखा सन १२६३ साल सलोनों के रोज पूरा हुआ। देखें जै०सि० भ० ० ०११॥ Orening १०३६ पार्श्वपुराण वीज सरिव फलभोगवं जो किसान जगमाहि । त्यो चत्री नृप सुख कर धर्म विमार नाहि । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue o: Sankrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Purấna, Carita, Katha ) Closing | सोलह कारण भावना परमपुन्य को खेत । भिन्न असो लही तीर्थ धर पद हेत ॥ अनुपलब्ध। Colophon. १०४०. रत्नत्रयकों Opening : Closing : श्री जिन चरण कमल नमू , सारद प्रणमी अघ निगमू', गौतम केरा प्रणम् पाय, जेहथी वहुविधि मगल थाय ॥१॥ यामै मणि माणिक्य भडार पद-पदे मंगल जयजयकार । श्री भूषणगुरु पद आधार, ब्रह्मज्ञान बोल सुविचार ॥४५।। इति श्री रत्नत्रयकथा सम्पूर्णम् । देखे, जै० सि० भ० प्र० क्र० १०३।२ Colophon . १०४१. रत्नत्रयकथा Opening : Closing . Colophon. देखे, ऋ० १०४०। देखे, २० १०४० 1 इति र लत्रय कथा। १०४२. रत्नत्रय-व्रत-कथा Opening? Closing Colyphon. देखे, ऋ० १०४०। देखे, क्र० १०४०१ इति श्री रत्नत्रयकथा संपूर्णम् । २०४३. रत्नत्रय व्रत कथा Opening • देखें, ऋ० १०४०। । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन न्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, lain Siddhant Bhavan, Arrahi, १४ Closing: कुजवरनि से - • होए । पंत दुनीया ले नर सोएं। पुण्या तणो मच भडार पर भव पाव मोलि उवार ॥२७ ।। मही हैं। Colophon: १०४४. रविव्रतकथा Opening : Closing : श्री सुखदायक पास जिनेंण, प्रणमौ भव्य पंयोज दिनेश । सुमरो सारद पद अरविंद, दिनकर वत प्रगटौ सानद (११ करम रेख कारण मति भड, तैव इह धर्म कथा अरु ठइ । मंनि धरि भाव सुणे जो कोइ, सो नर स्वर्ग देवता होड ॥१४॥ ___ इति रविन कथा। ०सि० भन० 1. ऋ० १०५। Colophon : १०४५. रविव्रतकथा Opening : Closing देखे, ऋ० १०४४। यह व्रत जो नरनारी भानु कीरत मुनिवर यों कहै ॥२४॥ Colophon इति रजिव्रत कथा सपूर्णम् । १०४६. रविव्रतकथा Opening · चौबीसतीर्थकर जी क् नमस्कार कर मै रोटतीज कथा व्रत कहिए है। इह जज्बूदीप है तामै भस्त क्षेत्र है तामै आर्य खण्ड है, धन्यापुरी नार्मी नगरी बस है। Closing देखें, ३० १७४५ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Opening Closing. Colophon. Opening. १०८६. रोहिणी - कथा वायुज्य जिनगन भयदधि तर जिहाज नम मध्य हे सूत्र माज नाम ने पाकि हरे ॥ रोहित पाल जो कोई नर ना जमर पद हो । मन यच काय गृध जो घर कमने मुक्ति वधु मुख मरें ॥ इति रोहिनी कथा ममाप्नम् । १०५०० रोहिणी व्रत कथा वासुपूज्य जिनराज की वदो मम वच काय | साप्रमाद भाषा करो सुनौ भक्ति चित लाइ || Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीजैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumai Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing : Colophone : Opening Closing : Colophon ; Opening Closing Colophon : Opening Closing Colophon Closing १०५१. रोटतीज- कथा जो यह व्रत हिच घरं, करें रोहिणी सोय । निह थिर मन जो धरै, तो जीव मुक्ति होय ॥७६॥ इति श्री रोहिणी व्रतकथा समाप्तम् । देखे, जै० सि० भ० प्र० क्र० ११० १०५२. रोटतीज - कथा And चौवीसो जिन को नमी श्री गुरु चरण प्रभाव || रोटतीज व्रत की कथा कही सहित चित चाव गणधर इद्र न करि सके तुम विनती भगवान । द्यानत प्रीति निहारिके कीजै आपसमान ।। इति सम्पूर्णम् । 1 इह जबूद्वीप हैं तार्म भरत क्षेत्र है, तामै आर्य खड है, धन्यपुरी नाम नगरी वर्क्स है । और जो कोई भव्य स्त्री या पुरुष रोटतीज व्रत करें भलि गति पावै । इति रोटतीज व्रत कथा । १०५३. रोटतीज - कथा देखे, क्र० १०५२ । खेदे ०१०५२ । इति रोटतीज कथा समाप्ता । १०५४. रोटतीज - कथा देखे, क्र० १०५२ । देखें, क्र० १०५२ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ Cuiilogue of Srnkrit. Praliit, du m t at lindi Minuscripts ( Purina, Carita. Kathi) Colophon: रति रोटनीज करा ममाम् । १०५५. सलूनाकया Opening : प्रयमहि प्रथम जिनेन्द्र परण चित लाए, प्रथम मान धर्म मुनाहि मनाई। प्रथम महामुनि ले। नुध म भुरधरी, प्रयम नं प्रमागन प्रयम तोरी ॥ मुनि उपसर्ग निरनी ना ग नुन जो कोय । फरणा उपजे चित्त दिन मगनतीय ॥१८॥ निश्री विनोदी नात श्री गनूना काया ममाप्नम् । Closing : Colophon : १०५६. शील कथा Opening : Closing : पागनार परमातमा यदी जिनपर राम। मोही धर्मवाग न मागे माही कथा मनना ॥१॥ सोन क्या पूरी भई पो सुन नित गोई। दुरा दरिद्र नाम सर्व तुरत महा सुख होई ॥५६॥ प्रति श्री सोन कथा मत्नसेनाचार्य कृत संपूर्णम् । Colophon: १०५७. गोलद्रतकथा Opening : यमही प्रणमौं श्री जिनदेव ० जिनराज अनूप ।। Closing ! जो दखी सोई लिखी सुद्ध असुद्ध न जान । पवित अरय विचारिक पढियो शुद्ध सुजान ।।५३।। Colophon • इति मील कथा मंपूर्णम् । विशेष-पद मी जो २०१८ पर उल्लिखित है इमी से सम्बन्धित है। अत' तरका भी लेगक भारामरन ही झोना चाहिए। दोनो प्रयो को Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan,Arrah. Opening : Closing · Colophon Opening : Closing : Colophone : ' Opening: Closing: Colophon : Opening पढने से ऐसा लगता है कि पहले कथा वगैरह लिखने के बाद पद लिखने की परिपाटी हो Closing. J देखें, जै० सि० भ० प्र०I, ऋ०१२८ । १०५८. शीलवतीकथा "; ततोऽनर्थमूल त विप्र शीलवती जीवितादधिकत्वेन पालितो नियमोsपुनर्भवाय भवेत् । 3 १०६०. सोलहकारणकथा देखे, क्र० १०५६ । देखे, क्र० १०५६ | इति सोलहकारण कथा सपूर्णम् । इति शीलवती कथा सपूर्णम् । १०५६. सोलहकारणकथा श्री जिन चौविसी नमू, सारद प्रगति अधनिंगमू । निज गुरु केरा प्रणमू पाय, सकल सत प्रणमी मुखयाय |१| १०६०. शोडश कारणकया 1 सत्कृत्य बहुमानास्पद कृतवान । या सकल भोग सयोग, टर्न आपदा रोग विरोध । श्री. भूषण गुरु पद आधार, ब्रह्मज्ञानमागर कहै सार | ३६ | इति श्री सोलहकारण कथा समाप्तम् । देखें, क्र० १०५६ । देखें ऋ० १०५६ י Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrtt, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Purāna, Carita, Kathā ) इति षोडशकारण कथा संपूर्णम् । Colophon Opening Closing Colophon १०६२. श्रावणद्वादशीकथा प्रथम नमू श्री जिनवर पाय, प्रणम् गणधर सारद माय । सद् गुरु पद पंकज मन धरु, सार कथा वारसनी करू ||१|| रोग सोग सत्तापह टल, मनवाछित फल पूरण मिलें। श्री भूषण सुत दाए लहै, ब्रह्मज्ञानमागर हम कहे ॥ इति श्रवणद्वादशी कथा । 7 १०६३. श्रीपाल चरित्र Opening : प्रणम्यं सिद्धचक्र च सद्गुरु निजमानसे श्रीपालचरित वक्ष्ये सुगम शिप्यहेतवे ॥ Closing जीवराजेन रचित श्रीपाल चरित शुभम् । प्रीतसुन्दरेनाशुलिखित श्री सद्गुरुप्रसादत ॥ Opening Closing Colophon · इति श्रीपाल वे गद्यवद्य चतुर्थं प्रस्तावः । शुभं भूयात् । स० १६०५ रा०मि० आसोज शुक्ल त्रयोदशी दिवसे मंगलवारे लिपी वृते ऽतिः श्री विक्रमपुर मध्ये चउकमासीस्थिता । १०६४ श्रीपाल चरित्र श्री अरिहत अनंतगुण, घरीय हिय मे ध्यान केवल ग्यान प्रकाश कर दूर हरण अग्यान 11911 कहै जिने हरष भविक नर सुण ज्यो नवपद महिमा थुणिज्यो रे । गुण पंचासे ढाले गुणि ज्यो निज पति कठिण लुणिज्यो रे ॥ Colophon • इति श्रीपाल महाराजा चौपई समाप्तम् । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली shri Devakumar Jain Quental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १०६५. सुगंधदशमी-कथा Opening : Closing : श्री जिन शारद मन मैं धरु सद गुरु नै नित वंदन करू । साधु सत पद वदो सदा, कथा बहू दशमीनी मुदा ||१|| ए व्रत जे नर नारी कर, से भवसागर वेग गरे । छाडे पाप सकल सुख भरे, वह्मज्ञानसागर उच्चरै ।। इति सुगध दशमी कथा। देखे, जै० सि० भ० प्र० I, ऋ० १४५॥ Cclothon : १०६६. सुगंधदशमी कथा Opening : Closing | सुगंध दशमी व्रत सुनि कथा, वर्तमान प्रकाशी यथा । पूरव देश राजग्रह नाम, श्रेणिक राज करे अभिराम ।।१।। हेमराज वीयन यो कही विश्व भूषण प्रकाशी सही । मनवचकाय सुनै जो कोई, सो नर स्वर्ग अपर पति होई ॥३all इति सुगंधदशमी कथा समाप्ता। Colophon • १०६७. सुगधदशमी-कथा Opening • Closing . Colophon १०६५ देखे, ऋ० १०६५। इति श्री सुगंधदशमी कथा जी समाप्तम् । १०६६ सुगंधदशमी-कथा Opening : Closing Colophon : देखे, ऋ० १०६५। देखे, के ० १०६५। इति श्री सुरोध दशमी कथा ममाप्तम् । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Purana. Carita, Katha) Opening : Closing !, १०६६. स्वरूपसेनकथा कोसावीवास्तव्यो राजाजयसेनो जयावती प्रियस्तस्यपुत्रद्वयमभूत् । ज्येप्टो रूपसेनो लघुर्देवसेनः । सूरसेनोपितया सहससारिक सुखमनुभूय प्रात स्वरूपेण स्वपत्म्या सहितो दीक्षाम् ॥ आदायालोचितदु खकर्मा · आससाद् ।। इति मित्रे स्वरूपसूरसेम कथा सपूर्णम । Colophon: २०७०. वीरजिणंद Opening : Closing : वीर जिनद समोस राजी वद मेघकुमार, सुण देसण वरागीउ जी इह ससार असार रि माई उन मति देह मुझ आज ॥१॥ तप तन सो सौतहागइ जी पहुतो अनुत्र विमाण वीर चरण नित सेवसइ जी ते पामसि भव पार हु स्वामी अम्ह० ।। इति वीर जिणद समाप्त । Colophon: १०७१ विष्णुकुमारकथा onening : Closing : देखें- ऋ० १०५५ ॥ विष्णु कुमार मुनिद्र की करनी कथा रसाल सुनो। भव्य जन पाव सो कही विनोदीलाल मुनि उपसर्ग निवा ___रनी कथा सुनो। जो कोई करूना उपजे चित मै दिन दिन मगल होय । इति श्री विष्णु कुमार की कथा मम्पूर्ण । देखे, जै० मि भ. ग्र० I, २० १५१ । Colophon : Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ . ; .श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artalı १०७२, अरिहंतकेवली Opening ! श्रीमद्वीरजिनं नत्वा वद्ध मान महोत्सवम् ।।१।। Closing ! . वैरिणा वैरमुक्तश्च मित्रबाघवहेतवें । - धर्मवृद्धिर्भवेस्तुभ्य-सर्वथानात्रसशय ॥३। Colophon : • इति तकारादि चतुर्थप्रकरणम् । .. इति अरहत केवली सपूर्णम् । सवत् १९१७ मिति चैत्रकृष्ण १०। बुधवासरे लिप्पीकृत ब्राह्मण रामगोपाल वासी मौजपुर कालकलेपुर मध्ये लिखी। शुभ भूयात् । १०७३. आराधनासार Opening : Closing : विमलयरगुणसमद्ध सिद्ध सुरसैण वदियें । सिरसा णमिऊण महावीर वोच्छ आराधनारगर अमुणियतच्चेण इम भणिय ज पि देवसेणेण । सोह त गमुतिदा अथिॐ जइ पवयण विरूद्ध ।। इति आराधनासारसमाप्तः। देखें-जै० सि० भ० ग्र०, I, के. १६५ । Colophon : १०७४. आराधना प्रतिबोध Opening | Closing | श्री जिनवर वागी नमेवि गुमनि थ पाय प्रणमेवि । कहुं आराधना सुविचार संक्षेपिसारो उद्धार ॥१t जे सुणे नरनारी जे जाइ भवनेपार।। श्री दिगम्बर इति क्यो विचार आगधना प्रतिवोधमार ! ति आराधनाप्रतिबोध सपूर्णः । Colophone Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Purana, Carita, Kathā) - १०७५. अर्थप्रकाशिका Opening ! Closing । बहुरि ज्ञानकू अल्पाक्षर करि प्रधान कहया तोहू, अल्पाक्षर त पूज्यपणा प्रधान है । अर दर्शन पूज्य है। चरतो भव्यनि उर विष स्यादद्वाद उज्जास। . यात निज परतत्व सरिव होय जु अर्थ प्रकाश ।। इति श्री तस्वार्थ सूत्र की अर्थप्रकाशिका नाम वचनिका समाप्त । शुभ भवतु। कल्याणमस्तु'। Colophon: १०७६ आत्मानुशासन Opening i Closing : Colophoni वीर प्रगम्य भववारिनिधिप्रपोतमुद्यौतिताऽखिलपदार्थमनरूपपुण्यम्, निर्वाणमार्गमऽनवद्मगुणप्रवर्ध आत्मानुशासनमह प्रवर प्रवक्ष्ये ॥ श्री नाभेयोजिनोभूयाद् भूयसे श्रेय सेसवः । जगद्ज्ञान जलेयस्यद धाति कमलाकृति ॥ इनि श्री गुणभद्राचार्य कृत आत्मानुशामन काव्य प्रवध सपूर्णम् । । लिखित पडित परमानेदेन टकत नामनगरे, सवत् १९२८ का मार्गसिरमासे कृष्णपक्षे तिथौ दशम्या गुरुवासरे उपाध्याय विद्ध वरिष्ठ श्री १०८ भट्टारक राजेन्द्रकीर्तिजित् पठनार्थ' परमानद शुभभूयात् । श्रीरस्तु । देखे, जै० सि० भ० न० I, ऋ० १७२। १०७७ बनारसी विलास Opening : प्रथम सहस्रनाम सिन्दूर प्रकरधाम वावनी सर्वया वेद निरन पचासिका। , सठि सिला का मारग ना करम की प्रकृति कल्यान मदिर , भावदन वापि।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental 1 brary, Jai Sidhhant Bhavan, Arial Closing Colopohn : Opening Closing Colophon⚫ Opening Closing Colophon पेडीक छतीसी पिन्बइ ध्यान वतीसी आध्यात्म वतीसी पचीसीग्यान रासिका । सित्र की पचीसी भवसिन्धु की चतुरदमी अध्यात्म कागति षोडस निवासिका | १|| " सत्रह में एकोतरे पर्वत मिपाख । दुतिया सो पूरन भई यह वनारसी भाप ॥ इति वनारमी विलास सपूर्णम् । शुभंभूयात् संवत् १८६० माभौसमे मात्तभाद्रमासे शुक्लेपक्षे एकादश्या सोमवासरे । पुस्तकमिद रघुनाथ शर्मगे लेखि। पट्टनपुर मध्ये आलमगज निवास । पुस्तक संख्या श्लोक अनुष्टुप तीनहजार छ ( ३६०० ) लिखि आरे में बाबू परमेष्ठी महाय का । १०७८. बारह भावना पंच परम पद वद हूँ, मन वच सीसनिवाय । भाव वारह भावना, निज आत्तम लव लाय ॥ भूला चूका होय जो, भव्य जन लेह सुधार 1 मोह दोस दीजै नही, भैरी कहें बिचार || श्री जिन धरम न विसारिये ॥ इति श्री वारह भावना जी ममाप्तम् । १०७६ बारह भावना राजा राणा क्षत्रपति हाथिन के असवार । मरना सबको एकदिन अपनी अपनी वार ||१|| जाँचेर देय सुचितन चिता रैन । विन जाचे विन चितये धर्म सकल सुख देन ॥ इनि चारह भावना सम्पूर्णम् । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts (Purâna Carita, Katha ) १०८०. बारह भावना Opening. Closing । भादिदेव जिनपें नमो, वदो गुरु के प य । परनौ बारह भावना सुनऊ चतुर चित लाय ॥१॥ जहाँ सवर तहाँ निर्जरा, जहाँ आयव तहाँ वध । इसनी कला विवेक की और बात सवध ॥१५॥ इति । Colophon १०८१. बीस तीर्थ कर नामावली Clesing | अक्षरमात्र पदस्वरहीन व्यजनसधिक्विजितरेफम् । साधुभिरय मम क्षन्तव्य को न विमुह यति शास्त्रसमुद्र । नियमप्रभ जी, वीरसेन जी, महाभन जी, जयदेव जी, अजीतवीर्य जी ॥२०॥ इति श्री वीसतीर्थ कर के नाम सपूरण । इमी मे भविष्यत चौवीसी भी अन्तर्भूत है। Colophoni विशेष-- १०८२. ब्रहम विलास Opening प्रथम प्रणमि अरिहंत वहुरि श्री सिद्ध नमिज । आचारिज उवज्झाय तासु पदघदन किज्ज । साधु सकल गुणवंत सतमुद्रा लखि दी। श्रावक प्रतिमा धरन चरन नमि पाप निकदी। सम्यत्कवत स्वसुभावधर जीव जगत महिंहो । जित तित नित त्रिकाल बदत भविक भाव सहित सिर नाईनित ॥१॥ बहुत वात कहिये कहायनी यह जीव त्रिभुवन को धनी । प्रगट होइ जब केवल ग्यान शुद्ध सरूप वहै भगवान ॥ इति श्री भैयाभगौतीदास कृत ब्रह्मविलास सम्पूर्णम् । मासा Closing Colophon! Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devkumar Jain Oriental library Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Opening : Closing Colophon मासे उत्तमफाल्गुनमासे तिथी ६ गुरुवारक दिन पुस्तकसमा - प्तम् । लिख्यत काशीमध्ये राजमदिरमीतला घाट देवि क दरवाजा | लिख्यत गौड ब्राह्मण शिवलालक हस्त लिखत जोसीवर वर जीवण | पुस्तक लाला शकरलाल जी लिखाईत पठनार्थ उपकारार्थ श्री भगवान समर्पपणमस्तु । ग्रथ सध्या ४८०० । मगल लेखकाना च पाठकानां च मंगलम् । भगल सर्वलोकाना भूमिपतिर्म गलम् ॥ देखें -- ( १ ) जै० सि० भ० प्र०, ऋ० १८६ । १०८३. ब्रहम विलास देखें, ऋ० १०८२ । देखें, क्र० १०८२ | इति श्री भैयाभगौती दासकृत ब्रह्मविलास संपूर्णम् । श्री संवत् १८६७ । शाके १७३२ मामांना मासे उत्तम माघ मासे शुक्लपक्षं तिथौ । १५ । भृगुवासरे पुस्तक समाप्त भई । लिख्यत गौड ब्राह्मण शिवलाल काशीमध्ये राजमंदिर सीतलाघाट | पुस्तक लाला मनुलाल जी की पठनार्थं परोपकारार्थम् । यादृण पुस्तक न दीयते ||१|| लेखिनी पुस्तिका • मर्दता ||२|| जले रक्ष थले पुस्तकं ||४|| ग्रंथ सख्या ४८०० चारहजारमाठ सो पत्र संख्या - १६८ ।। श्री पार्श्वनाथाय नमः । मगेल लेखकाना च पाठकानां च मंगलम् । मन मीना भूमिपतिमं गनन । · Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Purāna, Carita, Kathā ) १०८४. चैत्यवंदना वर्षेषु वर्षान्तरपर्वते नदीश्वरे यानि च मदिरेषु । यावन्ति चत्यायतनामि लोके, सर्वाणि वदे जिनपुरं गवानाम् ||१|| नवकोडि कट्टिमा वदे ॥ Opening: Closing : Colophon : Opening Closing Colophon Opening : Closing : Colophon : 000 ... इति चैत्य वंदना | देखें --- (१) दि० जि० ० २०, पृ० १२७ । (३) रा० सू० IV, पृ० ३५४, ३५७, ४३२ । १०८५. चैत्यवंदना सत्या देवलोके रविशशिभुवने व्यतराणां निकाये, नक्षत्राणां च निवासे ग्रहगणपटले ताराकाणां विमाने । पाताले पन्नगेन्द्रस्फुटमणिकिरणध्वस्त सान्द्रांधकारे, श्रीमती कराण प्रतिदिवसमह तत् चत्यानि वंदे ॥ जन्म-जन्म कृतं पाप जन्मकोटिमुपार्जितम् । जन्ममृत्युजराल हन्यते जिनवदनात् ||१२|| तिपूर्णम् । देखें, दि० जि० प्र० र०, ५० १३२ । १००६. चातुमीसव्याख्या स्मारं हमारे स्फुरद्ज्ञानधामजैन-जगतम् । कार कार क्रमाभोजे गौरव प्रणिति पुनः ॥ १ ॥ अक्षयादितृतीयाया व्याख्यान बोक्ष्यप्रातनम् । अलेखि सुगम कृत्वा क्षमाकल्याणपाठके. ॥१॥ इत्यक्षय तृतीया व्याख्यानम् । ग्रथाग्रमनुमानतः श्लोका सप्तति! 112011 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumai Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah विशेष – इसमें चतुर्मास के साथ ही अष्टान्हिका व्याख्या, दीवाली - - व्याख्या, सौभाग्य पचमी व्याख्या, ज्ञानपश्चमी व्याख्या, मौनएकादशी, पौप - दशमी व्याख्या, मैरु तेरस व्यास्यो, होलिका bent अक्षयतृतीयादि व्याख्या का समावेश किया गया है । १०८७. चौदहगुण स्थान गुण आत्मीक परिनाम गुणी जीव नाम पदार्थ ते आत्मीक परि नाम तीन जात के | शुभ, अशुभ, शुद्ध तिन ही परिनाम ३ मापक चौदह स्थानक जीवन जाननाम् | Opening 1 Closing : Colophon : Opening : Closing : Colophone : था पाषाण सर्वथा भिन्न भया सुवर्ण' नि; कलक शोभ त्यो अपनी अगत शक्ति करि विराजमान केवलग्यान ||२|| केवल दर्शन ||२|| अमत वीर्य ॥३॥ छाइक सम्यक्त ||४|| चैतन्य भानु ||५|| परमात्मा कहीं 1 • 4 do • यह चौदह गुन स्थान का स्वरूप सक्षेप मात्र वर्णन जिनवानी अनुसार मैथन कर पूरन किया । देखे, जं० सि० भ० ० ॐ० २१०४ । 7 १०८८ चौदह गुणस्थान तिसे मुक्त के स्थान आने को इह मिथ्यात गुम स्थान ही मै यह जीव है तहाँ कछु भी इसको अपनाभला हुआ सो मिक्ष्यात का पांच प्रकार का भेद है - जन्म मर्न इत्यादिक ससार का अनेक दुखकर रहित हुआ, अजर चौदह सीढी है सौ प्रथम अनादिकाल से पडा आया बुरा होने का ग्यान नहीं अमर को प्राप्त हुआ । इति श्री चौदहगुणस्थान की चरचा सम्पूर्णम् । शुभभवतु । समाप्तम् । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ Carloyut of Sanskrat, Prillit, pahlamin & llind: Manuscripts ( P'usina, Coratr, Karla) tort. नत्वारिक Opening : Clasing : AfriTeri निलमगर ! Trumhari In :FFrt मा । र भोग frefift गमि ॥ of arrtfrir tclophon 6. नोयोन का Openin ! रयर। मार ॥ Emiri free , भापीनामा ॥५॥ Closing | पा मम PRI भार pril T Colophon: १०६. चौबीन द५६ Opening Closing: Colophon. देणे-४० १०६०। ..३० १०६०। ति श्री गोपोग यक पोगाई गपूर्णम् । १०९३. चौवोस दण्डक Opening प्रथम दउनि के नाम तह नारमा १, भवनवासी देध १०, ज्योतिषी १, व्यतर १, भानिमा १, पृथ्वी १, अप १, तेज १, घायु १, " Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्री जैन सिद्धान्त भदन ग्रन्थावली Shii Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : __... - "तेजकाय वायुकाय विषेभी उपजे है ऐसे चौवीस देडकनि का कथन लिख्या सो त्रिलोकसार " आदि ग्रन्थनि ते सोधि करि लेवे । अनुपलब्ध । Colopbon. १०९३. चौबीसठाणा Opening : Closing . गइइदिय च काए जोए वैए कपायणागैय । सयमदसणलेस्सा भब्विया समत्तसण्णिाभाहारे ।।१।। अपकाय । वायकाय । तेजकाय । पृध्वीकाय । वनस्पती। वैइन्द्री । तेइन्द्री । चौइन्द्री । जलचर । पंक्षी । चौपदा । उरपद । देव । नारकी । मनुष्य । Colophon - दोहा इति श्री चौवीस ठाना की चरचा सम्पूर्णम् । मिति पौष कृष्ण बुधवार । सम्वत् १८७४ । करि कटि ग्रीवा नयनदुख तनदुख बहुत सुजान । लिख्यो जाति अति कवित त सब जानत आसान ।। शुभ भवतु । १०६४ चर्चा-संग्रह Opering धर्माधुरंधर आदि जिन, आदि धर्म करतार । जमू देवघरण ते सर्व विधि मंगलसार ॥१॥ Closing : एक-एकपाखंडी के उपरि एक एक अप्छरा नृत्य करें ऐसे सब मिलि संताईस कोड होय छ ऐसा जानना । Colophon! इति चर्चासंग्रह समाप्तम् । शुभं भवतु । देखें, जै० सि. भ. प. I, ऋ० १९५॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ Catalogue of Sanskrti, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puräna, Carita, Katha ) १०६५. चर्चासमाधान Opening , Closing : जयोवी रजिन चद्रमा उदैअपूरव जासु । फलिजुग फाने पाष मे मीनो तिमिर विनास ॥१॥ देवराजपूजतचरण असरण सरण उदार । चहु सव्व मगलकरण प्रियकारणि कुमारि ॥१६॥ अनि घरचा समाधान प्रथ भूधरदास कृत समाप्त ॥ सवत् १८६३ । माघ शुक्ल ११ । देखें, ज०सि० भ० म० १० १६६ । Colophon: १०९६. चरचानमाधान Cpening : Closing ! Colophone देखें, फ० १०६५ । देखे, फ० १०६५ । इति श्री चरचा समाधाननाम अथ सम्पूर्णम् । संवत् १५४१ समये अषाढमासे शुक्लपक्षे शुभदिने इद पुस्तक लेखनीयम् । १०६७. देशास्कंध Opening । नमः सर्वज्ञया तेण कालेणं तेण समएण समणे भगवान महावीरे । Closing ! Colophon वम्सावा सम्पाद्या सवियाण कप्पई निगन्याण वा ... .. तथ्थेववायणवेत्तय ॥ इच्चेय संगच्छरिय घेरकप्प महासुत्त अहाकप्प अहामग्ग अहातच्य सम्म कारणव फासित्ता पालित्ता सोभित्ता वीरित्ता किहित्ता आराहित्ता आणा अणुपालित्ता आच्छगइया समणा निग्गया तेणेव भवग्गहेणेणे सअत्य' सडभय सवागरण . ." त्ति वेमि पन्जो सवणाकप्पो सम्मत्ते दसासु असकघस्स अट्ठम Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah, ज्झयण अथान श्लोक १२१६ सवत् १७३५ प्रथम ज्येष्ठमासे कृष्णपक्ष मौम्यवारे सप्तमीकर्मवाह्या श्रीमत् वृहत् खरतरगच्छा तुच्छ युगप्रवरपदधर भट्टारक १०४ श्रीजिनचद्रसूरिणादाना शिष्येण विनयवता क्षमासमुद्रण कल्पसूत्रप्रतिलिखति स्म श्रीराज देंगे श्री। १०६८. दोनवावनी Opening : Closing , वंदो अरि जिनद व्रत तीरथ परगारयो । णमो श्रेयस नरिंद दान तीरथ अभ्यास्यो ।। रतनत्र आभरन विराज वीरनद गुरु गुन समुदाय । तिनके चरन कमल जुग सुमिरत भयो प्रभावज्ञान अधिकाय । सव श्री पद्मनंदने कान दान प्रकाश काव्य सुम्वदाय । पानंद बनाइ दानवावनी द्यानत राय ।। इति श्री दानवावनी सम्पूर्णम् । Colophon: १०६६. दोनवावनी Opening : Closing Colophon: देखें, ऋ० १०६ । देखे, ऋ० १०६८। इति श्री दानवावनी सम्पूर्ण । ११००. दी-शील-भावना Opening : Closing | प्रथम जीनेसर पाय नमी यामी सुगुरु पसाय । दान शील तप भावना बोली सुबहु संवाद ॥१॥ दान शील तप भावना रचौं संवाद भणता गुणता भावसुरे । गैद्धि समृद्धि सुप्रसादोरे धर्म हीयैधरी ॥१॥ इति श्री दाम शीतप भक्निा सम्पूर्ण । Colcphon: Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manucripts (Purāna Carita, Katha ) ११०१. देवागम Opening : Closing : Colophon : दोहा : देवागमभोयान चामरादिविभूतय । मायाविष्वपि दृश्यने नातस्त्वमसि नो महान् ।।१। जयति जगति · · ... समुपासते ॥ इति श्री समतमद्रपरमाहताचार्यविरचिन देवागमसूत्र सपूर्णम् । श्री देवागम अय को पौष कृष्ण नव जान । ... .. .. एक परमान ॥१॥ लिपिपूरन पुस्तक कियो शुभमुहुर्त शनिवार, हरिदाम सुत अजित को आरा देम मझार ।।२।। सो जयवतो नित रहो जब लग सूरजचद, यह जिन सासन त्रिजग हित पूरन सिव सुखकद ॥३॥ शुभ भूयात् । शुभम् । देखें, जै० सि० भ० ० 1, ० ४५४ । ११०२. दिगम्बरआम्नाय Opening Closing श्री भद्रबाहु स्वामी पोछे दिगम्बर मप्रदाय में केतेक वर्ष अगनि के पाठी रहे। मंप्रदाय में जथावत आचार का तो अभाव ही है जो कही होय तो दूर क्षेत्र मे होयगा, परन्तु मोक्षमार्म की प्ररूपणा तो अपनी क महात्म ते वत है। इति दिगम्बर आम्नाय । Colophon: ११०३. धर्मग्रंथ Opening • मंगल लोकोत्तम नमों श्री जिन मिट्टै महत । साधु केवली कथित वर धरम सरण जयवत ।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shu Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bbavan Arrah Closing : स्याद् गाइ आम निर्दोष अन्य मत्र ही है जु मदोप। ___त्याग दोष गुण धरे विचार हेतु विचय ध्यान निर्धार ॥ Colophon: इति श्री धर्मरत्न सपूर्णम् । ११०४. धर्मग्रन्थ Opening: Closing : Colophon: ......... दोनिका न्यारा न्यारा मानना । " " एकेन्द्रिय तो सर्वत्र है ही, भर कर्मभूम अनुपलब्ध । । Opening . ११०५. धर्मामृतसार अनतर अग्निासी भगवान ऋषभपुराण पुरुषोत्तम तिमिक प्रणाम करि महापुराण की पीठिका प्रगट करिए है। अर नाभिराज कमल मडिन तलाब की उपमाकू धरै उदय होणहार भगवान रूप सूर्य ताकि अभिलाषा करता निरतर निरषता सतापरमउदयरूप अतुलधर्य को धारताभया । श्री श्री श्री। Closing . Colophon: ११०६. धर्माष्टक Opening I Closing : में देव निति अरिहत चाहूँ सिद्ध को सुमरण करी । मै सुर गुरु मुनी तीन पदमय साध पद हिरवं धरौ ॥१॥ यह भावना उत्तम संदा भानु तुम सुनो जिनराज जी, तुम कृपानाथ अनाथ द्यानतं दया करनी ग्याव जी। दुष्ट कर्म विनास ज्ञान प्रकास मोकू कीजिए, करि मुगति गमन ममाधि मरण सुभगति चर्ण को दीजिये | इति धर्मचाप्टक भाषा सम्पूर्णम् । Colophon: Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Purana, Carita, Katha) ११०७. धर्मपरोक्षा पणम्' अरहत देवगुरु निरगथ दयाधरम | भवदधितारन अवर सकल मिथ्यात मणि ॥ Opening Closing : Colophon' Opening Closing! Colophon Opening Closing Colophon भनत गुनत यह भारि अहनिमि होइ आनन्द । धरममुण्यात उपजे या परमानंद ||७५ || ३५ इति श्री धर्मरक्षा भाषा मनोहरकृत सम्पूर्णम् । शुभ सवत् १८७१ । शाके १७१६ पौष शुक्ल नवमी भृगुवासरे । पुस्तकमिद सम्पूर्ण मेति । लेखकाक्षर रघुनाथ पाण्डेय पट्टनपुर मध्ये गायघाट स्थाने | ११०८० धर्मरत्न मंगल लोकोत्तम नमो श्री जिन सिद्ध महत | साधु केवली कथितवर धरम पारण जयवत ||१|| केवल गुरु के अवगाढ केवलि प्रभु के परम अवगाढ । आत्मानुशासन के माहि, इति दस भेद सुकथन कराही ॥ नही है । ११०६. धर्मरत्न ग्रन्थ देखे क्र० ११०६ । धर्मरत्न की ज्योति फैलो चहु दिस जग तम शिव मारण उद्योत जयवतो बर्ती सदा ॥ नही है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrah. १११०. धर्मरहस्य Opening : पनि मे कहिये परमेश्वर पचहु अक्षर नामदिये । उ नमकार सर्व सिम ऊपर पचनि ते-उतपत किये ते ।। , लोक अलोक त्रिकाल में नाहि कोई तीन की समदेप हिये ते ।। Closing : धर्म पचास कवित्तउ भज्जत भग्त विराग स्वज्ञान क्या है। आपनि औरनि को हितकार पढो वरनार सुभाव तथा है। अक्षर अर्थ की भूलि परि जहाँ सोध तहाँ उपकार जथा है । द्यानत सज्जन आप विषैरत होय वारधि प्राब्द मधा है। इति धर्मरहस्य कवित्त वावन सम्पूर्णम् । Colophon| ११११. धर्मसार सतसई Opening | Closing | Clolophon : वीर जिनेश्वर प्रणमु देव, .... ... - सुमिरत जाके पाप नसाय ॥१०॥ गुन थोर - ... • चल वीर ॥१०॥ इति श्री धर्ममार भट्टारक श्री सकलकीरत उपदेशक पडित सीरोमण दास विरचिते श्री पथकल्यानक महिमा सपूरन लिखत धरमसनेही ने। इति श्री धरमसार ग्रथ सपूर्णः । सवत १८३२ । शाके १६६७ मीति वैसाष शुदि सोमवासरे सपूर्ण.। १११२. द्रव्यसंग्रह Opening : जीवमजीव दव्य जिणवरवसहेण जेण णिहिट । देविदविदवद वदे तं सन्धवा सिरसा ।। का सिरसा दव्वसगहमिण मुणिणाहा दोससंचयचुदासुदपुण्णा । सोधयतु तणु सुत्तधरेण मिषदमुणिणा भणिय ज ॥६॥ Closing : Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apathramsa & Hindi Manuscripts ( Purana Carita, Katha) Colopron ' इति श्री नेमिचदविरचित द्रव्यसग्रह समाप्तम् । देखें, जै० सि०, भ० अ० I, ऋ० २१३ ।। १११३. द्रव्यसंग्रह Orening | Closing .. Colophone देखे-ऋ० १११२ । देखे--फ० १११२ । Eति मोक्षमार्गप्रतिपादक. तृतीयोध्याय इति श्री द्रव्यसग्रह जी समाप्तम् । १११४. द्रव्यसंग्रह Closing | Colophon' पर प्राणपरियोगोन वर मानखडनम् । पाणक्षये क्षण दुख मानखडे दिने दिने ॥६॥ देखे-२० १११२ । इति मोक्षमार्गप्रतिपादक तृतीयोध्याय. । इति द्रव्यसग्रह समाप्त. १११५. द्रव्यसंग्रह Opening : देखें, ऋ० १११२ ।। Closing' ! - 'संवत् सत्रह सो इकतीस । माघ सुदी दसभी शुभ दीन । भगलकरण परम सुखधाम । द्रव्यसग्रह प्रति कर प्रणाम । Colophon इति श्री द्रव्यसग्रह कवित्तवध सपूर्णस्। सवत् १८७१ पौष शुक्ल एकादस शनिवार को लिखा । १११६. द्रव्यसंग्रह देखें, ऋ० १११२ । Opening' ! Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : ....... विरुद्ध भावटाली करी साचो सूत्र भाव कस्यो छइ जिणइ॥ इति धर्मार्धा पव्वतनु वालावोधे द्रव्यसग्रह सूत्र समाप्तम् । १११७. द्रव्यसग्रह Colophon: Opening! तहाँ प्रथम या ग्रथ की पीठिका अमे जो या ग्रथ मे तीन अधिकार है तहाँ पहिला तो पटद्रव्यपचास्तिकाय की प्ररूपणा का अधिकार है तहाँ आदिगाथा तो मग अर्थ है नहाँ एक गाथा उक्त च सव इद्र के सख्या का है। । मगल श्री अरहत वर मगल सिधि सुसूरि ॥ उपाध्याय साधु सदा, करो पाप सव दूरि ॥१॥ इति श्री द्रव्यसग्रह ग्रथ समाप्ता.। Closing : Colophon: १११८. द्रव्यसग्रह Opening : Closing • Colophon: देखें, ऋ० १११२ । देखे, ऋ० १११२ । इतिद्रव्यसग्रहसूत्र समाप्तम् । १११९. द्वादशानुप्रेक्षा Opening : Closing : Colophon! जिणवर भासि .. - सुणऊ जीव सुलक्षणा ॥१॥ ......... रयणत्तय गुणु ।। इति द्वादशानुप्रेक्षा समाप्ता। ११२०. ईर्यापथ सामयिक Opening ! ॐ नि सगोह जिनानां सदनमनुपम त्रीपरीत निभक्त्या, स्थित्वागत्वानिषिद्य चरणपरिणतोत्र सनेहम्तयुग्मम् । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue or Snskrtt, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Purana, Carnta, Katha) Closing, भाले संस्थाप्पवध्यो मम दुरितहर कीतिय. शश्वद्यम्, निदादूर सदाप्त क्षयरहितममुज्ञानभानु जिनेन्द्रम् ।। पापिष्ठेन दुरात्मना जडविया मायाभिनालोभिना, रागद्वेषमलीमशेषमनसादु खकर्मय निभितम् । त्रलोभ्याधिपते गिनेद्रभगवत् श्रीपामूलेंधुना, निदादूरमह जजामि सतत निर्वतये कर्मणाम् ।। 'इति ईर्यापथ सम्पूर्णम् । Colophon : ११२१. गतिलक्षण Opening : Closing : Colophon: Opening : Closing | स्वर्गच्युत्तानामीहजीवलोके चत्वारिनिस्वमुदय वमति । दानप्रसंगो मधुरा चे वागी देवार्चन सद्गुरु सेवन च ।। बह्वाशी नैव सतुष्टो, मायालुप्तप्रपचकः । मूढस्य पलालशचव तिर्थग्योम्या गतीनर. ॥ ति गतिलक्षण समाप्तम् । ११२२. गोम्मटसार वंदी ज्ञानानंदकर नेमिचंद गुनकद । माधव बंदित विमलपद पुण्य पतोनिधिनंद ॥१॥ अपर्याप्त में मिश्रगुणस्थान नाही तातै कृष्ण लश्या का मिश्र धुणस्था विष देव विना तीन पति है स्यादिक यथा संभव मर्म जानियंत्रनिकरि कहिए है, अर्थ सोजानना · .. । इति आचार्य गोम्मटसार द्वितीयनान पचमग्रह ग्रन्थ की जीवतत्व प्रदीप का नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्वग्ज्ञान पद्रिका नामा भाषा टीका •• - १ देखे, ज. सि. भ. प. I o २४४ ॥ .११२३ ग्यान के आठ अग विजन अथसममह । - । वसुअगये ।। Tolophon: Opening: Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन अन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhint Bhavani, Arrah. Closing ! ने नान के आठ अंग हैं मो धर्मात्मा जीवन करि धारवे योग्य है। Colophon: इति ग्यान के अष्टअग सम्पूर्णम् । Opering : ११२४. हणवन्त अणुप्रेक्षा सिद्धाणिजोय जीव वणस्सई कालू पुग्गभाच्चैव । सवमलोगाग्गास छच्चेव अणतया भणिया ।। इयचारियाइ सुणेवि - ... - ... ... .... ... ... - राहवेण सइत्तुमडालेहि ॥ इति हणवत अणुप्रेक्षा. समाप्तम् । पडित बछराजू लिखितम् । Closing : Colophon: ११२५. जिन गायत्री त्रिकाल संध्या Openiag ! Closing : अोंच्यते त्रिवर्णानां शौंचाचारविधिक्रम । प्रातरेव समुत्थाय स्मृत्वास्तुत्वा जिनैश्वरम् ।।१॥ - संघोपासन ॥६चेति सप्तकर्मणि क्रमण कुयादिक नितदाह नमो है। भगवा समार मागरनिगानानाय अर्ह जलन्निगंधामि स्वाहा ।।। ह्रीं ह्रीं । ११२६ जिनगुणसम्पति . Opening ! Closing संस्तुवे सर्वदा देव गोपैशां गोपति परम् । दर्शनादप्पन पश्यन् त्रैलोक्य द्विगुणायते ।।१।। इति व्रतमहिमान विदितपुराण मकिलिप्य भो विवृधजना । कुरूत सलील ब्रतमतिरम्य शिवसौख्य यदि प्राप्नुमनाः ॥७॥ इति जिनगुणसम्पत्ति विधाम समाप्त, । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । शुभमस्तु । Colophon Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૧ Catalogue of Sa iskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Purana, Carita, Katha ) ११२७. जिनमहिमा Opening : Closing : श्री जिनवर नाम की महिमा अगम अपार । धरि प्रतीति जे जपत, ते सफल करत अवतार ।। अद्भुत अतिसं तुम धरे वीतराग निज लीन । पूजक सहजै उच्च निदक सहज हीन ॥७॥ इति जिनमहिमा सपूर्ण। Colophon. ११२८. जीवराशि क्षमावाणी Opening . Closing : Colophon : हिवराणी पद्मावती जीवराश षिमा ...। ...... - जे मैं नीक विराधिया ।। रामवयराडी जे सुन ....• तत्तकाल ॥३२॥ इति जीवराशि सिक्षावाणी समाप्तम् । Opening : ११२९. णनपचीसी सुरनरतिर्यग्योनि में निरहै निगोदिभवत । महामोह को नीद में सोए काल अनत ।।१।। कहे उपदेश वाणारसी चेतन अब कछु चेति । आप समझाव आप कू जप कर्म के हेति ।२।। इति श्री ज्ञान पचीसीसपूर्णम् । Closing : Colophon: ११३०. ज्ञानार्णव-वचनिका Opening : Closing | पिउस्य पदस्थ च रूपस्थ रूपवर्जितम् । चतुर्भाध्यानमाम्नात भव्यराजीवभास्कर. ॥१॥ अमर पदकू अर्थ रूप ले ध्यान में, में ध्यावै उम.मत्र रूप एकता नम, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devkumar Jain Oriental library Jain Siddhant Bhavan, Arrah, Colophon : ध्यान पदस्थ जु नाम फहयो मुनीराज ने। जे या मै हु लीन लहै निज काज में ॥१॥ इति श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित योगप्रदीपाधिकार ज्ञानार्णवनाम सस्कृत ग्रन्थ की देश भाषामय वनिका विष पदस्थध्यान का प्रकरण समाप्त भया। श्रीरस्तु । ११३१. कर्मप्रकृति ग्रथ Opening : Closing . पणमिय सिरसा मि गुणरयणविहमण महावीर सम्मत्तरय गणिलय पयडिसमुकित्तण वोच्छ ८६ ॥१॥ पाणवधादीसु रदो जिण पूयामुम्ब मग्गविग्धयरो। - अज्जेइ अतराय ण लहइ ज इच्छिय जेण ।। इति श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव विरचितायो कर्मप्रकृतिप्रथः समाप्तः । देखे, जि० र० को०, पृ० ७२, Colophon. ११३२. कर्म-बतीसी Opening : पर्म निरजन परम गुरु परम पुरुष परधान । ___ वन्दो परम समाधिमय भयभंजन भगवान ॥१॥ Closing : यह परमारथ पथ गुन, अगम अनरी वषग्न । कहन बनारसी दास इम जथा सकत परवान ॥३२॥ Colophon. इति ध्यान वतीसो संपूर्णम् । ११३३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा Opening i तिहुवतिलयं देव वंदित्ता तिहुणिदपरिपुजम् । वोच्छ अणुवेहासों भविय जणाणेदजणणीओ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ Catalogue or Sanskrit, Praktit, Apabhramsa & Hindt Manuscripts (Purāna, Carita, Katha ) Closing ' मुनि श्रावक के भेदत, धरमदोथ परकार । साको सुनि चिन्तो सतत, गहि पावो भवपार ॥ Colophon इति स्वामि कार्तिकेय अनुप्रेक्षा समाप्तम् मिति चैत सुदि ७ मवत् १९३० वार मगल । इति श्री ११३४० लघुतत्त्वार्थसूत्र Opening. Closing : दृष्ट येन चराचर केवलज्ञान चक्षुषा। प्रणमामि महावीरे वदे काता प्रवक्षते ॥१॥ त्रिविधो मोक्षमार्गहेतवा।।१३। पचविनिग्रंथा. ॥१४॥ त्रिविधा सिद्धा १५॥ द्वादशसिद्धस्यानुयोगनामानि ।।१६।। अष्टोरे सिद्धपुणाः ।।१७। द्विविधा सिद्धा. ॥१८॥ वैराग्य चेति ॥१६॥ Colophon विशे इति लघुतत्वार्य सम्पूर्णम् । इसके पहले हेत्र में ही लिखा है कि भब 'अर्हत्प्रवचन' कहेगे। अतः इसका नाम भी वही होना चाहिए। देखें-० सि० भ० प्र०, I, क्र० २८० । ११३५. लघुसामायिक Opening ' शुद्धज्ञानप्रकाशाय लोकालोकभावने । नम श्रीषद्ध मानाय वर्द्धमानमिनेसिने ॥१॥ Closing : एवं सामायिक सम्यक् सामायिक खडित ॥ वर्तनामुक्तिमानम्य कस्य पूर्णयसेमना ॥१४॥ इति श्री लघु सामायिक सम्पूर्णम् । ' Colophon . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah ११३६. लघु सामायिक Opening : Closing : Colophon: सिद्धवस्तुवचो भक्तया सिद्धान्प्रणमत. सदा। मिद्धकार्य शिव प्राप्तः सिद्धि दवतु नोव्ययम् ॥१॥ देखें, ऋ० ११३५ । इति लघु सामयिकम् । देखे, ज. सि० भ० न० 1, ० ३६६ । ११३७. लश्या स्वरूप Opening : Closing : आर्त रौद्रसदाक्रोधी मत्सरीधर्मवजितः । निर्दयोवरसयुक्त .. कृष्णलेश्याधिकोभर ॥१॥ किन्हाए जाई नरयं नीलाए थावरो होई कानुहुए तिग्यि गई । पीताए मानुसो होई, पो माए देव गइ सुक्काए पावई सासये ठाण इति लेश्यास्वरूपं मम्पूर्णम् । Colophone ११३८. लीलावती प्रकीर्णक Opening | Closing: प्रीनि भक्तजनस्य यो जनयते विघ्न निविध्नस्मृतस्तवदारक वदितपर्व नत्वामतगाननम् ।। पार्टी मदणितस्य वच्मिचतुरप्रीतिपदास्फुटा संक्षिप्ताक्षरकोमलाभलपदलालित्पलीलावती ( १॥ .... एक का बोलबाला रहा रहन दे और सोलह रहन दे असा अंक राख और मिटाय डाले। अब एकका भाग सोलह मै देई पाये सोलह दश अंक के सोलह दाडिय पाये। इति भास्कराचार्य विरचिताया गणित - . लीलावत्या प्रकीर्णकानि समाप्ता। Colophon: Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Minis:) ( Purana, Carita, Katha ) ११३६. मिथ्यात्व खण्डन Opening । Closing : Colophen. प्रम सुमरि अरहत को सिद्धन को धरिध्यान । परस्वता सोम नमाइक, वंदौ गुरु जु ग्यान ।। य अनूपम रच्यो यह है प्रथिनि फी मारिध । गरिमाथि नदेह भवि मधिक जसन मौ रापि ॥ पनि मिथ्यात्व पण्डन सम्पूर्णम् । शुभ सवत् १८७६ मीति पत्र मुदि। रविवासरे उपदेश ग्रह मपद्मसागर जी लिखित अनप्रापमा बाग नगर । श्रीरन्तु । इसके बाद एक पय भी दिया हुआ है। ऐयें, ज. मि० भ० प्र० 1, २० २८५ । निगेर-- ११४०. मोक्ष मार्ग Opening : Closing : मंगलमय मगलफरण वीतराग विज्ञान । नमो ताहि जाते मए धरहतादि गहान् ।। जैसे वादरे के भी हम्त पदादि अग होई । परन्तु जैसे मनु क्षेते मे न होहै। तैसे मिथ्या दृष्टिनि के भी व्यवहार रूप निसकितादि अग हो है, परन्तु जैसे निश्चय की सापेक्षा लिए सम्पर्क होइ तैसे न हो है । महीं है । Colophon: ११४१. मोक्षमार्ग पैडी * Opening : क ममे रूचित जो गुरु अठहै सुनमल्ल । मो तुम अदर चेतना वहै तु साटी अल्ल ॥१॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing ! भव थिति जिनकी घटि गई तिनको यह उपदेश । कहत वनारसीदासयो मूढ न समुझेलेस ॥२२॥ इति मोक्षमार्ग पैडी समाप्ता। Colophone ११४२. मोक्षमार्ग पैडी देखें, ऋ० ११४१ । Opening : Closing ! देखें, ऋ० ११४१। । Colophon : इति मोक्षपैडी संपूर्णः । ११४३. म .त्यु महोत्सव Opening : Closing : मृत्युमार्गप्रवृत्यस्य वीतरागो ददातु में । समाधिवोधिपार्थय यावन्मुक्तिपुरीपुरम् ॥ स्वर्गादेव्यविचित्रनिर्मलकुले संस्मर्यमानाजन:, भूत्वा मुक्तिविधायिना बहुविधिं बाक्षानुरूप फलम् । भुक्त्वा भोगमहग्निश परकृत स्थित्वा भणमडले, पात्रावेशविबजनामिवमृत सतो लभतिस्तत ।। इति मृत्युमहोत्सव सम्पूर्णम् समाप्ता। देखें, ज० सि भ० प्र० 1, ऋ० २७० । Colophon: ११४४. मुक्तिसूकावली Opening : देवलोक ताको घर आँगन राजा ऋद्धि सेवतसुपीय। ताके तन सौभागआदि गुन केलि विलास करि मित आय ११ सो नर उतरस भवसागर निरमल होइ मोक्ष पद पायें। दरव भाव विधि सहित बनारसि जो जिनवर हरजिमन लाई HAR Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ Canlogue of Sankrit, Prakrit, Aprbhramsa & Hindi Manuscripts (Purâna, Carita, Katha ) Closing . Colophon : गोला गयान रितुनोग यमाय । गोमवार एकामी कर नन मिसपाप ॥१०४॥ तिमुनिपतायली मापा ममाप्ता। श्रीः गयत् १६६८ यकातिमादिप्रतिरदाया शनिवामरे श्री गगरामा निसियमेन मेनचित् । लेपफ पाठकयो गुभमपा । दसियो। मप्र गो अन्तिम पंक्ति मोजार गयन् १६६१ है लेकिन Colophon मे १९६८ लिया। विप... ११४५. नबार महात्म्य Opening , Closing i प्राणी पनगामि २१ गयती राजीमति ।। हरदी कोया 11 गायति ।। .. .. . । "रिरिरिमाण हारण भूत येताल, अपि पाप प्रणा धान्य नगनमाल । रण गुमरण मफट दूरि टन ततगास, जपं जिनगुण प्रभू मूरियर नोग रमाल ॥७॥ पनि श्री नवकार माहात्म्य निकाय ममाप्तम् । इसमे मोलह मतियो के नाम भी दिये गये हैं । Colophon: विशेष .. ११४६. नयचक्र Opening i Closing : गुणानां विस्तर वक्ष्ये ........ ... -1 मत्वावीरजिनेश्वरम् .. . - -। तत्र सपनेवरहित वस्तुसवधविषय' नयचरितामद्भू सन्यवहार यथा देवदत्तस्य धनमिति प्लेषसहितवस्तुसवध । जीवस्यशरीरमिति । " यथा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab. Colophon: इति सुखबोधार्थमालापद्धतिः । श्री देवसेनपडितविरचिता नयचऋपरिसमाप्ताः। ११४७. नयचक्र Opening : Closing ! Colophon: देखें, ऋ० ११४६ । देखें, ऋ० ११४६ । इति सुखवोधार्थमालापद्धति श्री देवसेनपडिन विरचिता । इति श्री नयचक समाप्तम् ३०६ श्लोक अनुष्टुप निश्चयेन । इति श्री। ११४८ नयचक्र वचनिका Opening : Closing : वदो श्री जिन के वचन स्यादवाद नयमूल' । ताहि सुनत अनुभव तहाँ है मिथ्या निरमूल ॥१॥ सत्रह में छबीर के सवत् फाल्गुन मास । उजनी तिथि दशमी जहाँ कीनो वचन विलाम ।। इति श्री नातयगदास हेमराज कृत नयवक वनिका समाप्तम् । देखें,०सि० भ० ग्र० I, ऋ० २६६ । Colophon . ११४६. नयचक्र वचनिका Opening ! Closing • Colophon: देखे, ऋ० ११४८ । देखें, ऋ० ११४८ । इति श्री नयचक्र पंडिन नरायनदाय उपदेशशिष्य हेमराज कृत सामान्य वनिका सपूर्णम् । इति श्री नयचक्र जी की वचन का सम्पूर्णम् । मिति ज्येष्ट वदि ६ । वुधवार । संवत् १९६२ मुा। चंदेरी। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ Catalogue of Sanskrit, Puakril, A215hrana & Hindi Manuscripts (Purana Carita, Kathk ) ११५०. निर्वाणकाण्ड Opening . Closing मळावयम्मि उनहो चपामवास्मपुज्जजिणणाहो । उज्जत मिनिणो पावामणि त्रुनो महावीगे ॥१॥ जोइपठयतियाल णिचुई ककपीभावसुद्धीए । भुजिनरसुरसुफ पठ मो लहा गिव्याण ।। इति सम्पूर्णम् । । Colophon. ११५१. निर्वाण काण्ड Opening : Closing : वीतराग वदो गदा, भाव सहित सिरनाय । फहे काण्ड निर्वान की, भापा विविध बनाय ।।१॥ नवत् मत्रह मै एक ताल, आश्विन सुदी दशमी मुविशाल । भंया वदन फरे त्रिकाल, जे निर्वानकाण्ड गुणमाल ॥२२॥ इति निर्वाणकाण्ड भापा मम्पूर्णम् । श्री शुभ इति । Colophon ११५२ पचविसतिका Opening Closing . सध्यमलमायंउ सिद्ध सिद्धगति हगिदनदपुज्ज । गेमि ससिंगुरवीर पणमिय तिय सुद्धिभवमण । मोहाकुमुइणि चद भवदुहसायरण जाण पत्तमिण । धम्म विलाससुद भणिद जिणदासवम्हेण ।।२६॥ इति धर्मव्यसतिका लिख्य सम्पूर्ण करी। Colophon: ११५३. पच परमेष्टी Opening ! इस जीव के मसार में पांच ही परम इष्ट है। तातै इनको पच परमेष्ठि कएि। तिनका स्वरूप सामान्ययन लिखिए। · । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakuma Jain Oriental library, Jain Sidhhant Bhavan, Arrah. Closing : Colophon : Opening: Closing : Colophone : Opening Closing Colophon _Closing वस्त्र का त्याग 191 दतवन का त्याग । खडे होय अहार ले 191 लघु भोजन एक वेर ले । एव सप्त ए अठाईस गुन साधु महाराज जी का कहुया । इति श्री समुच्चय पंचपरमेण्टी की चर्चा स्वम्प सपूर्णम् । १ ११५४. परमात्मप्रकाश चिदान देकरूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय नित्य सिद्धात्मने नम परमाण भादिव्वकाउ, भति मुनिवराण मुक्रवदो दिव्व जोउ । विसयसुहरयाण दुल्लहो जोहु लोए । tra feat daलो कोप्टिव हो ||३४६ ॥ इति श्री योगीन्द्रदेवविरचिन परमात्मप्रकाश, समाप्त । देखें, क्र० ११५४ । देखे, ऋ० ११५४ । इति परमात्मप्रकाश समाप्त । ग्रन्या ४५१ श्लोक अनुष्टुप श्री । श्रीरस्तु | लेखकगठकयों. शुभ भूयात् । ११५६. परीक्षामुख वचनिका Opening . श्रीमत् वीर जिनेस रवि, तम अज्ञान नसाय । शिवपथ वरतायो जगति, वदो मै तसु पाय ॥१॥ ११५५. परमात्मप्रकाश कोटि जीव तुल्य की की टीका करे हैं सो जैसे गणना मे गणिये तोउ हमें इस ग्रंथ नदी का जल नवीन घट विषेकिछुवा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रवचननार Opening! Closing : Colophon · मर्षयायपानिपस्यम्पाय पगमने ओपनधिप्रमिज्ञाय ज्ञानानदात्मने नम ॥१॥ प्यायर किन विश्यमात्मसहित - एफ पर गित् ॥ सि तस्यप्रदीपिमा नाम प्रवचनमानि समाप्तम् । शुभ अग्तु । गया १६९२ वर्षे फागुनमा प्रष्णपक्षे ५ ानीवासरे फाप्टामः नदीतट भट्टारमा श्री रामरोन्यान्यये तदनुक्रमेण भट्टारक धी चंद्रवीति भट्टागजकोत्ति तम्य शिप्य ग्रहाधन जी स्थहम्तेनागिपितम्। शुभ भुयात् । देने, जै० मि० भ० ० I क्र० ३१२ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab. ११५६. प्रवचनसार Opening : Closing : Colophon: देखें-क्र० ११५८ । देखें-क्र० ११५८ । अनुपलब्ध । ११६०. प्रवचनसार Opening । Closing | स्वय सिद्ध करतार कर निम करम सरम .. ... ' ' ... एक विध अजरअमर - मूर्तिक पदार्थ को जान है अति चचल है अनतज्ञान की महिमा ते गिरा है अत्यन्त विकल है महामोह ... - । नही है। Colophon : ११६१. प्रायश्चित्त ग्रन्थ Opening : Closing : जिनचन्द्र प्रणम्याहमकलकः समन्तत. । प्रायश्चित प्रवक्ष्यामि श्रावकाणा विशुद्धये ॥ प्रायश्चित य. करोत्येव देव जाते दोषे तत्प्रशात्यर्थमार्य: रास्ट्रस्यासी भूमिः यस्यात्यनोपि स्वस्ताचास्यावस्थित श तनोति ॥६॥ इति अकलकस्वामिनिरूपित प्रायश्चित्तग्रन्थ संपूर्णम् । देखें--ज. सि० भ० ग्र० 1, ऋ० ३२१ । Colophon: ११६२. पाप-पुण्य माहात्म्य । Opening . वर्द्धमान जिनवर नमू, मन वच सीस नवाय । फुन गुरु गोतम को नमू , जात पातक जाय ॥१॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Purāna, Carita, Katha) Closing Colophon Opening: Closing Colophon 1 Opening Closing : Colophon : सत्र से इक्यानवे, पोष शुदी तिथ दूज । सुभ नक्षत्र पूरन करी, जिन पानी कू पूज ॥ जेनर सुर घर गावही, तथा सुन मन लाय । जिनवानी सरधा करें अन सिद्धगत जाय ॥ ६ ॥ इति अष्टद्रव्य सेती जिन पूजा करी समाप्तम् । ११६३. पुण्य माहात्म्य पूरव पुन्न कियो जिन सोय, तेरा वस्तु जु प्राप्त होय । मानुष जनम जुपार्श्व थाय, उत्तम कुल में उपजे आय ||१|| शक्र समान तपस्या करें, दुष्ट शादमीस तप करें, इतने गुन निरमल जिस जोय, तासौ नमस्कार मम सोय ||८|| इति श्री पुण्य महात्तम समाप्तम् । ११६४. सम्यक्त्व कौमुदी परम पुरुष आनन्दमय चेतनरूप सुजान । नमी सिद्ध परत्मा जग परकासक भान । चद सुर पानी .... तब लग जैन प्रकाश ॥४६॥ इति श्री सम्यक्त्व कौमदी कथा सादा जोधराज गोदीका विरचिते उदितोदय भूप अर्हदास सवादिकसगं गमनचरनतनाम एकादश परिच्छेद । इति श्री सम्यक्त्व कौमदी सम्पूर्णम् । सवत् १८४६ वर्षे मिति ज्येष्ट सुदि ३ वार मगल श्रीपार्श्वचद्र सूरि गच्छे श्री १०८ श्री चंद्रभाण जी तत् शिष्य लिखत्त् ज्ञासिरदारमल्लेन श्री सफातपुर नगरमध्ये । देखे, जै० सि० भ० ग्र० ], ऋ० ११४ | and Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah, ११६५. समयसार गाथा Opening: Closing . वीतराग जिन नत्वा ज्ञानानदैकसपद. । वक्ष्ये समयमारस्य वृत्ति तात्पर्यसज्ञिकाम् ॥१॥ सुद्धोसुद्वादेसो णायन्बो परमभावदरिमीहि । ववहारदेसिदो पुणजे अपग्मे ठिदा भावे ॥१५॥ इति समयसार गाया सम्पूर्णम् । Colophon: ११६६. समयसार नाटक Opening : करम भरम जग तिमिर हरन खग उरग लपन पगसिव मग दरसी। निरखत नयन भविक जल वरखत हरषन अमित भाविक जन दरसी। मदन कदन जित परम धरम हित सुमिरत भगति भगत सवदरसी। सजल जलद तन मुकुट पपत फन करम दलन जिन नमन वनारसी ॥१॥ Closing : मर्मसार आतमदरव नाटक भाव अनत । सोहै आगम नाम मै परमारथ विरतत ॥७२७।। Colophon • इति श्री परभागमसमैसारनाटकनाम सिद्धान्त सपूर्णम् । श्रीरस्तु । कल्याणमस्तु । शुभभवतु । देखे, जै० सि० भ० ग्रे० I, २० ३४२ । ११६७. समयसार नाटक Opening : Closing . देखें, ऋ० ११६६ । देखै, ऋ० ११६६ । ' Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogus of Sanskrit, Prakrit, Apzbhramsa & Hindi Manuscripts (Purina, Calita, Katha) (clophon: ति श्री परमागम नमनार नाटक नाम सिद्धान्त समाप्तम्। सवत् १८८४ भादो गुगल तेरस सौमवासरे जवाहरमल्ल स्वाध्याय हेत। ११६८. सनयसार नाटक Opening : Closing : Colophon: देखें, क. ११६६ । देवें, प्रा० ११६६ । ति श्री नाटक समयमार मम्पूर्णम् । रवचढ़ वनु सरित अवधि भादव गिन ममिवार । द्वितिया तितिपोधी उमय पूरन मई सवार ।।१।। ममयमार नाटका अगम ब्राग्यात विश्राम । पटत गुनत सुपम उपजे भावित आमाराम ।।२।। सवत् १८४० कातिग शुक्ल १ रवि दिने लिखित महकमरामेण पठनार्थमात्मागमः । शुभभवतु । ११६६. समवसरण Opening . Closing : समोमरण महित नमो परमागम जिनरूप । मुरनरपति वदित चरण, महिमा अगम अनूपे ॥१॥ इह विधि श्री जिनराज जगनायक सासुत मुकत । अहिनिसि मगलकाजे पढत सुनत सब कहकरौ ॥३०॥ इति श्री समोमरणभेद । Colophon: ११७०. समुद्घात Opening : सोतसमुद्घात कहै वेदना ममुद्घात ॥१॥ कषाय समुद्घात ॥२॥ मारणातिक ससुद्घात ॥३॥ वैक्रिय समुद्घास ॥४॥ तेजस समुद्घात ॥५॥ आहारक समुद्घात ॥६॥ केवलि समुद्घात॥७॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : अट्ठातीस योगन एकमोअठ्ठावीस धनुष सष्ठ्योत्तर अगुन्न इतनी जबूद्वीपको परिधि । नहीं है । Colophon : ११७१. पदर्शन Opening | Closing • शिवमत बोध सुवेदमत नैयायिक मत पक्ष । भीमासकमत जैनमत षट् दरसन पर लक्ष ॥१॥ रायपवानी : पुनीनचावन १० लोचन वडवा ११ घरघरमी १२ कवित १३ राधा १४ वृषमन बावन १५ पेषनेवाई १६ । अनुपलब्ध। Colophon ११७२. षट्पाहुड काउण णमोयार जिगरवसहस्सवमाणएस । दसणमगवा बोच्छामि जहा कम्म समाशेण ।। अरहती सुहाना - ... पुणा केरिय अण ॥४८|| Closing : Colophon इति श्री कुदकुंदाचार्य विरचिन जीनप्रामृतं समाप्रम् । संवत् १७६५ वर्मे वंशाम्बमामे शुक्लपक्षे ति द्वादमी १२ मानगर श्रीरम। ११७३ षट्पाहुड Opening . Closing . देखें, ऋ० ११७२ । एव जिण पण्णत्त मोक्खस्स य पाहुड सुभतीए । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासय सुख्ख ॥ इति श्री कुन्दकुदाचार्यविरचितं मोक्ष-पाहुड षष्ठ समाप्तम् । Colophon। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalosucof Sanskrit, Prakrit, Apabhransh & Hindi Manuscripts ( Dharma-Dassana-icira) ११७४. पट्लेश्याभेद Opening : Closing कृष्ण नोन पायोन ने पीन पदम सुफ जान । मुग अनुभ ज फम के ए पट् भर बखान ।। यह पद विध लेश्या यही मुनो भयिक दे कान । अमुभ जान निर वारिय भरो याही वयान ।। इति श्री पट् लेण्या आरती। Colophon. ११७५. सामायिक Opening , Crosing . Coloph on देणे १.० ११३८ । देने, क. ११३६ । .नि नपूर्णम् । ११७६ सामायिक Opening : Closing : Colophon : पडिकमामि भते दरिया वहियाण निराहगाए अगागुत्ते अगमणे । गुरुव. पातु वो नित्य · मोक्षमार्गोपदेशका । इति सामायिक ममाप्तम् । देखे, ज. सि. भ.. 1,7० ३६५ । ११७७. सामायिक Opening | Closing I Colophon ' देखे-क्र० ११७६ । देखे-ऋ० ११७६ । इति सामायिकम् । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन मेन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arra). ११७६. सामायिक Opening : Closing : Colophons देखें, ऋ० ११३६ । देखें-० ११३६ । इति लघु सामायिक सपूर्ण । जाप्य १०॥ दीजे । ११७६. सामायिक Opening : Closing : नमः श्रीवर्द्ध मानाय निई तकलिलात्मने । सालोकाना त्रिलोकाना यविद्यादपणायते ॥१॥ अथय पौन्हिकदेववदनायों पूर्वाचायीनुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावदनास्तत्रसभेतम् । इति लधुमामायिकैसंपूर्णम् । Colophon: ११९० सापाचार Opening | Closing . वदी देव युगादि जिन, गुर गणधर के पाय । मुमरू देवी सारदा, रिद्ध सिद्ध वरदा 1979 मंगल भगवान वीरो मगले गौतमो गणी। मगल कु दकु दाद्यो, जैनधर्मोस्तु मगलम " इति सापाचार जिनमत की संपूर्णम् । Clolophon. ११५१. साततत्त्व Opening . जीव १। अजीव ।३। आव ।३। क्य ।४। मंवर १५१ निर्जरा 161 मोक्ष ।७। एहि सात तत्त्व है इनमे पुन्य और पाप मिलिक नौ पदारथ कहिए हैं। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ve Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrammśa & Hindi Manuscripts (Dharma-Darśana-Acara ) Closing Colophon : Opening Closing Colophon : Opening : Closing इस पाप का सरूप विचार कर के त्यागना जोग है । एही नौ पदारथ समान रूप कहा । विशेष निर्वर्त होय है |१|| इति श्री सातत्तत्व नव पदार्थ की चरचा सक्षेप मात्र जनाया है सो मपूर्णम् । शुभ भवतु । ११-२० सिद्धान्तसार + सीन जगनपति जिनको धर्मराज के नायक शिव सुखदायक है। इस पचगुरु को प्रणाम कर के आवै भवन उदधिको कथन सुनो भाषु अर्व ||१|| जे इह मध्य सुलोक विषै जिनराज के मंदिर है अघखण्डन । श्री निर्वाण सुभूमि जहाँ न समोक्ष गये करिकर्म विखण्डन । जेड सर्वत्रको अनजाणये सबको करि भूषित आनन । इय सायक देह मुझे करि जोरि करो सबकौ नित वदन | २५ || इति श्री सिद्धान्तसार दीपक महाग्रथे भट्टारक श्री सकलकीति प्रणीतानुसारेण नथमलकृत भाषाया मध्यलोक वर्णनोनाम समोध्यायाधिकार ॥१०॥ ११८३. सिंदूर- प्रकरण (सूक्तिमुक्तावली ) सोभित तप गजराज सीस सिदूर पूरव विवोध बनारस जोर कर सोरह में इक्यानवे रितु ग्रीष्म वैशाष । सोमवार एकादशी कर नक्षत्र मितपाप ॥३॥ नाम मुक्तिमुक्तावली द्वाविंशति अधिकार | शतमि लोक परवान सब इति ग्रथ विस्तार ॥४॥९ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan, Arrah Colophon: इति श्री सिंदूरप्रकरण सुक्तिमुक्तावलीनाम अथ समाप्तम् । संवत् १८०३ वैशाख सुदी १४ वृहस्पतिवासरे लिखित यति लालचन्द पठनार्थ लाला गोवरधमदासजी। दि० जि. अ. २०, के अनुसार इसके लेखक सोमप्रभाचार्य है तथा टीकाकार हर्षकीति है । विशेष - ११८४. सिन्दूर-प्रकरण Opening : Closing : Colophon : सिंदूरप्रकरस्तपरि ... ... ' पार्श्वप्रभो.पातु वः । कि जात वहुभिः करोति हरिणी .... यानिर्भर्या ।। इति सिदूरप्रकरणम् मम्पूर्णम् । लिखितं पडित परमानन्देन मिति चैत्र कृष्णे पचम्या शुक्रवासरे रात्री श्री जिनचैत्यालये वत्सर १६२८ का। शुभ भूयात् ।। ___ देखें, जै० सि० भ० ० 1, ऋ० ५२६ । ११८५ सिंदूर प्रकरणं (सूक्तिमुक्तावली) Opening Closing Colophon: देखें, ऋ० ११६३॥ देखे, ऋ० ११८३। इति सिन्दूरप्रकरण सूक्तिमुक्तावलीनाम ग्रंथ सम्पूर्णम् । ११६६. शीलवत Opening : Closing • Colophen. समजुपीय चतुर - ... ... परनारिसौं ॥१॥ सीयल गुण कहणको ...... वैषाम । इति श्री सील कडषा समाप्तम् । ११८७० श्रावकाचार Opening • राजत केवलम्यान • - सहज सुभाय ।।१।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ Catalogue of Sankrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darsana-Acara) Closing : .. एक सर्वज्ञ वीतराग का वचन ताते तू अगीकार । कर और ताके अनुसार देवगुरुधर्म का सरूप अगीकार कर श्रद्धोन कर। इति कुदेवादि को वरमन मपूर्ण । इति श्रावकाचार अथ संपूर्णम् । देखे, जै०सि० भ० प्र० I, क्र० ३८३ । Colophon ११५६ श्रावक प्रतित्रमण Opening जीवप्रमादजनिता: प्रचुराप्तदोपा, चस्मारप्रतिक्रमणत, प्रलय प्रयाति । तस्मास्तदर्थममल मुनिबोधनार्थम्, वक्ष्ये विचित्रभवकर्म विशोधनार्थम् ।। अक्खरपयत्यहीने मत्ताहीन च ज मए भणिय । त खमठे ... दुखक्खये दितु ॥ वाकप्रतिक्रमण समाप्तम् । देखे, जै० सि. भ०० I, ऋ० ३७६ । Closing , Colophons ११८६. श्रावक प्रतिष्ठाक्रमोपण Opening | Closing | Colophon: देखे, ऋ० ११५८ । देखें क्र. ११६ । इति श्रावतित्रमापणम् । ११६०. श्रावक व्रतसध्या Opening : अपवित्र पवित्रो ...... .. अमुध्यते । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Sıddhant Bhavan, Arrab. Closing : श्रीमत्मिद्धजिन प्रणमामि सततं ज्ञानामृतं भूपणम् । वदे श्री जिनसेवक प्रतिदिन संध्या त्रिकाल कुरु ।। इति श्री मध्या सपूर्णम् । Colophon . ११६१. श्रावकव्रतसंध्या Opening : Closing : Colophon देखे, ऋ० ११६० । देखे, ऋ० ११६० । दति जैनमध्या सपूर्णम् । ११६२. श्रावकव्रतविधान Opening : Closing : वारा वन श्रावग तने, तिनको करू बखान । जो जिय निह चित्त धरै ताकी होय कल्यान ॥१॥ वरत ज बार इम कहै, सुनी भविक दे कान । मो निह धर पालीयौ भैरो कहै नखान । इति भावक व्रत समाप्तम् । Colophon: ११९३. श्रीपालदर्शन Opening . Closing : ॐ नम: सिद्ध मन धरसत, उदघाट जगपाट तुरत । घर वार भरम भगियों, पुन्यहि फलत दरसनभयो । तीर्थकर वदी जिनदेव सीसनबाय करौपद सेव । शुद्धभाव जाके मन भयौ सम्यक्दृष्टि मुकतहि गर्यो । इनि श्रीपालदर्शन सम्पूर्णम् । Colophon. ११६४. श्रीपालदर्शन Opening : देखे, ऋ० ११६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhrama & Hindi Manuscripts (Dharma-Darsana-Acara) Closing . Colophon. देखें, ऋ० ११९३ । इति श्रीपाल दरसन सम्पूर्णम् । १९९५. सुदृष्टि तरंगिणी Opening तैसे जे मुनि सम्यक सहीत चारित्र के धारक थे सो कोई कर्म की जोरो वरी ते मोह की प्रवतता करि सम्यक राजपद छुटि गया हो • . । आगे अक्षर ज्ञान कहीए है सो उह प्रभाव समास के अन्तभेद में एक भेद और मिलाइए तब अक्षर ज्ञान है सो मह अर्थाक्षर नाम ज्ञान है सो ए मर्व श्रुतिज्ञान के संक्षेप में भाग यह अक्षर Closing: जान है। Colophon नहीं है। ११६६. तत्वसार Opening : Closing . झाणग्गिट्ठकम्मे हिम्मतमुविसुद्धलद्धसब्भावै । गमिण परमसिद्ध सुतच्चमार पबोच्छामि ॥ मोऊण तच्चसार रेडय मुणिणादेवसेणेण । जो सद्दिठी भावइ सो पावइ सरसय मोक्ख ॥ इलि तत्त्वसार समाप्त । देखें, जै० सि6 भ० ० . ० ३९३. Colophon: ११६७. तत्वार्थसूत्र Opening : काल्य द्रव्यपेटक - - सर्व शुद्धदृष्टि । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab, Closing : Colophon : तवयण वयधरण - ... निवारेइ ।। इति दशाध्याय सूत्र उमास्वामी कृत सपूर्णम् । देखे, ज० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ४०४ । ११६८. तत्त्वार्थसूत्र Opening Closing : Colophon | देखे- ० ११९७ । देखें, ऋ० ११६७ । इति तत्वार्थमूत्र सपूर्णम् । ११९६ तत्वार्थसूत्र Opening Closing | Colophon · देखे, क. ११६७ । तत्वार्थसूत्रकर्तार .. उमाम्वामीमुनीश्वरम् ।। इति उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र समाप्तम् । १२००. तत्वार्थसूत्र Opening : Closing देखें, ऋ० ११६७ । ... .."धर्मास्तिकायाभावात् ।।८।। क्षेत्रकातिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनातरसख्या इति तत्वार्याधिगमो मोक्षशास्त्र दशमोऽध्याय । Colophon ! १२०१. तत्वार्थसूत्र Opening : देखे, ऋ० ११६७ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darśana-ācara ) Closing , Colophon : Opening : Closing : Colophon Opening : Closing Colophon : Opening देखे, ऋ० ११९९ 1 इति श्री तत्वार्थ उमास्वामीकृत सूत्र जी समाप्तम् । सवत् १६२७ मीति भाद्रपद कृष्ण पक्ष |४| चद्रवामरे लिखित नीलकठ दासशर्माऽह | श्रीकृष्णाय नम । १२०२. तत्त्वार्थसूत्र मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तारकर्मभूभृताम् । ज्ञातार विश्वतत्त्वाना वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ Opening : देखे, क्र० ११७ | Closing देखे, क्र० ११εε| Colophon. इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सूत्र समाप्तम् । १२०४. तत्त्वार्थ सूत्र देखे, क्र० ११९७ । देखे, क्र० १२०ε| इति तत्वार्थ सूत्र सम्पूर्ण । देखे ऋ० ११६७ । इति तत्वार्थ सूत्र समाप्त | १२०३. तत्त्वार्तसूत्र ६५ १२०५ तत्त्वार्थसूत्र देखे ऋ० ९१७ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oilental Library, Jain Stdd hant Bhavan, Arrah. Closing : .... .. तपश्चरण करिवो, व्रत रिवो, सयम गरणको कग्यिो .... ." चतुरगति के दु ख त छुटे। इति समाप्ता। Colophon| १२०६. तत्त्वार्थसूत्र Opening Closing : Colophon : देखे, क्र० ११६७। देखे, ऋ० ११६७ } इति । १२०७. तत्त्वार्थसूत्र Opening | Closing : Colophon: देखे ऋ० ११६७ । देखें, ऋ० १२०५ । नहीं है। Opening . Closing : १२०८. तत्त्वार्थसूत्र देखें, के०, ११९७ । अरिहतभासियत्य गणहरदेवेहि गथिय मम्म । पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवह सिरसा, इति सम्पूर्णम् । Colophon: १२०६. तत्त्वार्थमूत्र Opening • Closing : देखें, क. ११६७ ! णवमे सवरनिज्जर दममे मोवखं बियाणेहि । इय सत्ततच्चमणिय, दहमुने मुभिदेहि ।।६।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Citalogue of Sanskrit, Prakrit, āpabhramśa & Hindi Manuscripts ( Dharma-Darsana-ācāra ) Colephon : Opening Closing : Colophon. Opening : Closing Colopron : Opening Closing : Colophon Opening : Closirg 1. Colophon. Opening 2 इति श्री उमास्वामि विरचित तत्वार्धसूत्र समाप्तम् । सवत् १९३७ । मिति माघ वदी १२ वार वृहस्पति । इति । १२१० तत्त्वार्थसूत्र देखे, क्र० ११९७ । देखे, क्र० १२०५ । नही है । १२११ तस्वार्थं सूत्र देखे, ऋ० ११९७ । देखें, क्र० ११६६ 1 इति श्री दशाध्यायसूत्र उमास्वामीकृत सम्पूर्णम् 1 १२१२. तत्त्वार्थसूत्र देखे, ऋ० १२०२ । देखे, क्र० १२०० । तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रं दशमोऽध्याय समाप्त ॥ १२१३- तस्वार्थ सूत्र ६७ • देखे, ऋ० ११-७। देखे, ऋ० १२०० । तितार्थधिगमे मोक्षशास्त्र वशमोध्यायः समाप्तः । १२१४, तत्त्वार्थ सूत्र देखें, ऋ० ११६७ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Sh, Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing . Co'ophon : देखे, ३.० ११६७। इति सूत्रदशाध्याय समाप्तम्। श्रावणमासे शुक्लपक्षे तिथौ ८ भोमवासरे, सवत् १९५५ श्रीरस्तु । १२१५. तत्वार्थसूत्र Cpening | Closing • Colophon. देखे, ऋ० १२०२। पढमे पढम णियमा विदिए विदिय च मम्वकालम्मि । जपुणु खाईयसम्म जम्मि जिणा तम्मि कालम्मि । इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र दशमोध्यायः समाप्त । श्री पटणामधे साहब विलदाश तस्य पुत्र साहभगवतिदास तस्य पुत्र आलमचन्द पठनाय मम्वत् १७७२ वर्ष कार्तिक कृष्ण नवमी तिथी सोम दिने सम्पूर्णम् । १२१६ तत्वार्थसूत्र Opening : Closing Colophon . देखें ऋ० ११६७। देखे, क्र० १२०५ । इति श्री समाप्तः । Opcairg Closing . १२१७ तत्वार्थसूत्र वचनिका श्री वृषभादि जिनेश्वर अत नाम शुभवीर । मनवचकाय विशुद्ध करि क्दौं परम शरीर । ' समयमार अध्यातमसार प्रक्चनसार रहसि मनधार । पचासतिकाया ए जीम, नाटकत्रयी कहावै पीन । तत्वारथ सूत्तर की टीका, मरिमिद्धि नाम सुठीका दूजीन तत्वारथ वातिक श्लोकम्प वातिक तात्तिक । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Dharma - Darśana ācara ) नही है । १२१८. त्रेपनक्रिया Colophon : Opening : Closing : विशेष---- Opening: Closing : Colophon Opening Closing : Colophon Opening अस्पष्ट । अस्पष्ट | यह ग्रथ एक गुटका है जो बहुत ही अस्पष्ट है । भी अपठनीय है। १२१६. त्रेपन क्रिया जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु णमोस्तु | सव्वसाहूण | अस्पस्ट | अस्पष्ट । ६६ बीच के पत्र १२२०. त्रिकाल चतुर्विंशति निर्वाण जो 191 सागरजी |२| महामात्र जी 131 विम्ल प्रभु जी |४| सुद्धाय हो |५| श्रीधर जी | ६ | श्रीदत्त जी ।७। अमलप्रभ जो 15t 1 कदर्प जी | २०| जयनाथ जी | २१ | श्री विमल जी । २२ दिन्यवाद जी | २३ | अनतवीर्यजी |२६| इति त्रिकाल चविशति का नाम सवर्णम् । १२२१. त्रिवर्णाचार लोक्ययात्रा चरितु' प्रवीणा धर्मार्थकामा प्रभवति यस्या । प्रसादतो वर्त्तत एव लोके मारस्वति सा वर तत्मनोद्व े ||१|| Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah, Closing : Colophon : सारस्वत्या प्रमादेन काव्य कुर्वन्ति पडिता । ततस्सैपा समाराध्या भक्त्या शास्त्रे सरस्वति ।। इत्या श्रीमद्गवन्मुखारविंदविनिर्गते श्रीगौतमपिपादपद्माराधकेन श्री जिनसेनाचार्येन विरचिते त्रिवर्णाचारे उपासकाध्ययनसारोद्वारे ग्रहिधर्मदेवपूजा निरूपणीयोनाम पचम पर्वः। १२२२. त्रिलोकसार Opening , Closing : त्रिभूवनमार अपार गुन गायक " " । श्री अरहत महत ॥१॥ सुखनाम निराकुलता का है। निराकुलता वीतराग भावनित हो है। तात परम वीतराग भावरूप शुद्धात्म रूप जनित परम आनद की प्राप्ति करहुँ। इति । देखे, जै०सि० भ० ग्र० I, ऋ० ४२७ । Colophon: १२२३ वचनिका Opening : Closing | वदो श्री वृपभादि जिनधर्मतीर्थकरतार । नमें जामपद इद्रसत शिवमारग सचिधार ॥१॥ हे करुणानिधान मेरी रक्षा करहु । तव भगवान कहते भये । है राम शोक न करि, तूचल देव हैक एक दिन वासुदेव सहित इन्द्र की नाई पृथ्वी का राज करि। जिनेश्वर का व्रत धरि । नहीं है। Colophon: Opening : १२२४. वैराग पचीसी रागादिक दोषन तज, वैरागी जो देव । मन वचसीसनवाय के,कीजै तिनकी सेव ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ Catalogue ot Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts (Rasa-Chanda-Alankara) Closing : एक सात पचास में लव बर सुग्नकार । पोष सुकल तिथि धर्म , जै जै निसपतिवार ॥ ति श्री वैराग्य पचीनी सम्पूण । Colophon: १२२५. योग Opening ; यह आत्मा ममार अवस्था मे जीवात्मा पहावं हे और जब यह ही अपनी अतरग वाह्य स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप मकल नामग्री के पावै है। माल नादि दश ज्यान में ध्येय थापि मन लाए। प्रत्याहार जु धारणा यह ध्यान विधिसार ॥१॥ :ति श्री शुभचन्द्र आचार्य विरचिन योगम् । Closing : Colophon: १२२६. योगीरासा ppening : Closing । आदि पुरुष युग आदि · ... आदि जती आदि नायो आदि जगत गुरु जोग पयासिउ । जय जय जय जगनायो योगीरासा सीखो रे श्रावक दोस न कोई लीज । जिण दास त्रिविध करि जपई मिह सुमिरण कीजई । इति योगी रासा सम्पूर्णम् । Colopbon , स्० III, पृ० ४२ । १२२७. अक्षर बत्तीसी Opening ! Closing | कहे करम वस कीजै, कनक कामिनी दृष्टि न दीजै ।। यह अक्षर वत्तीसिका रची भगवती दाम । वाल ख्याल कोनी कछु लही आतम परगास Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon! इति अक्षर बत्तीमी सम्पूर्णम् । १२२८. अक्षर बावनी Opening Closing ॐ सु अलष परब्रह्म को धरौ सदाचित ध्यान । जा प्रसाद निह मनुज होत सुकृत को थान ॥१॥ हरष होत प्रभू दरस तं लहत अनेक अनद । लक्ष्मी चद्र समान जस सुविध सीस सुखचद ।।४५४।। इति श्री अक्षर वावणी जी समाप्तम् । Colophon । १२९६. अन्यमत श्लोक Op ning : Closing अहिंमा सत्यमत्तेय त्यागो मै पुनवर्जनम् पञ्चस्वेतेषु धर्मेषु सर्वे धर्मा प्रतिष्ठिता ॥१॥ अनुदिते नभमा देवस्य महर्षयो माहषिभि जुहेया जनकस्य जतस्य सायण रक्षा भवतु शान्तिर्भवतु तुप्टिर्भवतु वृद्धिर्भवतु स्वस्तिर्भवतु श्रद्धाभवतु ..... ॥ नही है। Colophon १२३० अठाईरासा Opening : Closing : वरत अढाई जे कर ते पावै भवपार प्राणी । जवूद्वीप सुहावणो लष योजन विस्तार प्राणी ।।१।। मन वच काया जे पढे ते पावै भवपार । विनयकीरत सुबयू मनै जनम सम्न नमार प्राणी। इति श्री अढाई - साजी सम् । Ciloph in Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrasah & Hindi Manuscripts ( Rasa-Chanda-Alankira-etc) - १२३१ अढाईरासा Opening : Closing । Colophon - देखें, ऋ० १२३० । देखें, ऋ० १२३० । इति अढाई पूजा रासौ सपूर्णम् । शुभ भवतु । १२३२. बारहमासा Opening विनवे उग्रसेन की लाडिली समुझाबहु मोहि ये हे सगरी ॥१॥ बारह मास पूरे भये . प्रति उत्तर लाल विनोदि गाई। इति बारहमासा समाप्तम् । . . Closing Colophon १२३३. बारहमासा. . - ... Opening Closing : Colophon! देखे -ऋ० १२३२ । देखे-ऋ० १२३२। . . इति श्री बारहमासा जी समाप्तम् । १२३४. चंद्रशतक Opening अनुभौ अभ्यास में निवास शुद्ध चेतन को, अनुभौ सरूप शुद्धबोध को प्रकाश है। अनुभौ बनूप स्प रहत अनत ग्गन, अनुभो अतीत त्याग ग्यान सुख रास है । अनुभो अपार तार आपही को आप जान नापही में व्यापदीस जाम जड़ नास है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan,Arrah, Closing : अनुभौ अरूप है सरूप चिदानन्द चद, अनुभौ अतीत आठ कर्म सौ अफास है ॥१॥ गुण ठाणी मिथ्यात अवृत तन छुट च्यारगत सासादन गुण थान नरक तजि होई तीन रत । मिश्र षीन सजोग तहाँ जीव मरहिं न कोई सुनि अजोग गुन थान छुट प्रगट सिव सोई सपत' सेव गुण थे छुटे एक गत देव की कह्यो अरथ गुरु ग्रथ में सति वचन जिन सेवकी ।। इति श्री चदशतक समाप्तम् । Colophon: १२३५. चर्चाशतक Opening | Closing : जै सरवग्य अलोक लोक इक अडवत देव । हसतामल ज्यो हाथ लीक ज्यौँ सरव विशेषे । छदी हर्व गुणपरज काल त्रय वर्तमान सम । दर्पण जैम प्रकाश नाश मल कर्म महातम । परमेष्ठी पार्टी विधनहर मगलकारी लोक में । मन वच काय सिरनायभुव आणद सौ धौ धोक मै ॥१॥ चरचा मुख सो भने सुनै प्रानी जहि कानन । केई सुने धरि जोहि नाहि भाषे फिरि आनन । तिनि को लखि उपगार सार यह सतक वनाई । पढत सुनत ह्र बुद्ध सुद्ध जिनवानी गाई। इसमे अनेक सिद्धान्तको मथन कथन द्यानत कहा। सव माहि जीवको नाम है जीव भाव हम सरदहा ।।१०४॥ इति चरचा शतक समाप्तम् । १२३६. चौबोल पचीसी । दरव'घेत अरुकाल भाव दरव पेट तत्व नव ।। ग्यायक दीनदयाल सो अरिहत नमो सदा । Colofton Opening । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue ot Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Rasa-Chanda-Alankāra etc Closing कवित्त बनाए सावनि सुनाए मन भाए गाए गुन ग्यान । घरचा कूप अनूपम वानी हसभूप चिद्रूप निसान । गोमटसार धार द्यानत ने कारन जीव तत्व सरधान । अक्षर अरथ अमिल जो देखी लेखो सुद्ध छिमा उर आन ।।२।। Colophon इति दरव चौबोल पचीसी सपूर्णम् । १२३७. दसबोल पचीसी Opaning . छप्पय-एक सरूप अमेद दोय ...... । ... . जिह तिह विघ भवजल तरौ ।।१।। Closing : वृषमसेन गुणसेन " - - यह पुद्गलमरजायहे ॥२५॥ । Colophon ' इति दसबोल पचीसी सपूर्णम् । १२३८. दसबोल पचीसी Opening ! Closing देखें, क्र. १२३० । देखें, ऋ० १२३७ । इति दसबोल पचीसी सम्पूर्णम् । Colophon १२३६. दशथान चौबीसी Opening : रिषभदेव रिषभदेव छीर गभीर धीर धुनि । चार वीस जगदीश ईश ते ईस दुगुन गुन । सुरग ढाम निज नाम मातपुरतात वरन तन । आय काय सुभचिन्न मुकुत मासन दस वरनन । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : जसगाय पुन्न उपजाय बुद्ध पाय करो मगल अमर । सिरनाय नमो जुग जोर कार भो जिनद भौ तापहर ।।१॥ जै जै मल्ल ब्रह्मचरिज अटल बल सकल बनाए । एक एक जिन स्वाम नाम दस दस गुन गाए । सुनत सुनत चित चुनत धुनत दुख सतत प्रानी । द्यानतराय उपाय गाय जिन पाय कहानी। गद जनम जरामृत नहि मग एक उषदविगर । सिरनाय नमो जुग जोरि कर भो जिनद भी तापहर ॥३०॥ इति श्री दसथान चौवीसी सपूर्णम् । Colophon १२४० ढालगण Opening Closing . देव धरम गुरु वदिके क्हू ढाल गण सार। जा अवलोके बुद्धि उर उपजे सुभ करतार ॥१॥ अव जनमे नाही या भवमाही सबके साई सबजानी । तुमको जो ध्यावं तुमपद पावे कवी कहावं अधिकानी ।।६।। इति श्री ढालगण सम्पूर्णम् । श्रीरस्तु । Colophon: १२४१. ढालगण Opening | Closing । Colophon . देखें, ऋ० १२४० । देखे, ऋ० १२४०। । इति श्री ढालगण सम्पूर्णम् ! १२४२. दोहा अपनी पव न विचार ज अहो जगत के राइ । भववन छाय क्त रहे सिवपुर सुधि विसराइ ॥१ Opening , Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Rasa-Chanda-Alankara etc) Closing . रूपचद सद्गुरुनिको, जनु बलिहारी जाइ । मापुन वै सिवपुर गए, भव्यनु पथ दिखाई ॥१०१।। Colophon : इति श्री पडित रूपचद विरचिते दोहरा परमारथी समाप्ता। शुभ भवतु। १२४३. दोहावली Closing . Co.ophon: जिनके वचन विनोदते प्रगटे शिवपुर राह । वे जिनेद्र मगल करो नितप्रति नयो उछाह ॥१॥ जो सम्यक्त सहित .. सोना और सुगन्ध ।। नहीं है। देखें. जै सि. भ. प. I क्र. ५०० । १२४४. दोहावली Opening . देखे, ऋ० १२४३ । . . Closing . . देखे, ऋ० १२४३ । Colophon __ नही है। विशेष-- चार जगह दोहावली शीर्षक देकर दोहे लिखें गये है। चारो मे चार-चार पत्र है जिनमे एक समान दोहे दिये गये है। १२४५. दोहावली Opening । Closing : Colophont देखे. २० १२४३ । देखे, ऋ० १२४१ । ' नही है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १२४६. द्विपञ्चाशतिका Opening : Closing : अतिसूछिम करि ... ... ..." लेपये छानिय ॥२२॥ बावन कवित एती मेरी मतिमान लए। हस के सुभाइ ग्याता गुण गहि लीजियो ।।४५२॥ इति श्री बनारसीदास नामांकित द्विपचाशतिका समाप्ता। Colophon: Opening : Closing १२४७. फुटकर-काव्य अब हम देव का सरूप जिन सिद्धान्त के अनुसार वर्णन करते हैं सो सर्व सभासद सज्जन महासयो कू श्रद्धान करण योग्य है ।१।। देहे निर्ममता गुरी विनयता नित्य श्रुताश्यासता । चारित्रोज्वलतामहोपशमता ससारनिर्वेदता." ॥ अनुपलब्ध । १२४८. ज्ञानसूर्योदयनाटक Colophon : Opening । Closing i Colophone अनाद्यनतरूपाय पचवर्णात्ममूर्तये। अनंतमहिमाप्राप्त सदाकार: नमोस्तु ते ॥१॥ अस्पष्ट । इति श्रीवादिचद्र आचार्यकृत श्री ज्ञानसूर्योदयनाटक सपूर्णम् श्री पाठकाना शुभ भूयात् । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु लिखित पडित परमानदेन मिति माघ कृष्ण तिथौ तृतीयाया रविवासरे सवत् १९२८ का लक्ष्मणपुरसमीपे पैतुरनगरे जिन चैत्यालये । देखे, रा. सू. III, ३० ६६ । १२४६ जैन-रासौ Opening : अर्हता छियाला सिद्धा अट्ट' सूर छीसा । उज्झाया पणबीसा अट्ठाईसा हवेई साहूण ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Rasa-Chanda-Alankāra-etc) Closing: जे नर आप घात कर मरी होइ तिरजच चिह गति फिरी। संमारा दुख भोगवो दिख आपु धनुरी पाई · · ॥ अनुपलब्ध। रा० सू० III, पृ० १४१, Colophon: १२५०. जकड़ी Opening : Closing : अब मन मेरे वे सुनि सुनि सिख सयानी । जिनवर चरनो के करि फरि प्रीत सज्यानी ॥ धन्य धन्य सतगुर के नायक सब सुखदायक तिहपन में। जिन सो समझ परी सव भूदर सदा सरन इस भाव वन में॥ इति सिस्य जकड़ी सपूर्णम् । Colophon: १२५१. जोगीरासो Opening | Closing : आदि पुरुष जो आदिज गोत्तमु, आदि जति आदिनाथो । आदि जगत गुरु जोग पयासिउ जय जय जय जगनाथो । योगीय रसौ सिखहु रे श्रावग दोसुण को लीज । जो जीनदास हत्रि विधि हिए सिद्धह सुमिरणु कीजै ॥४२॥ इति जोगीगसु समाप्ता। - - रा० सू० III, पृ० १६५ । Colophon! १२५२ कवित्त श्री जिनगज गरीबनेवाज सुधारन काज सर्व सुखदाई। दीनदयाल बडे प्रतिपाल दया गुनमाल मदा सिरनाई ॥ दुरगति टारन पाप निवारन हो भवतारन की भवताई। पारवार पुकार करौ जन की विनती सुनिए जिनराई ।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrab. Colsing . हो दीनबन्धु श्री पति कहना निधान जी। ये मेरि विथा क्यो न हरो वार क्यो लगी॥ इति। Colophone १२५३. कवित्त Opening : Closing ! श्री जिनवर के नाम की महिमा अगम अपार । धरि प्रतीति जे जपत हैं सफल करत अवतार ॥१॥ अद्भुत अतिस तुम धरं वीतराग निज लीन । पूज्यक सहिजै उव्वहै निदक सहिजे लीन ॥६ . इति सम्पूर्णम् । . . . . Colophon: १२५४. कवित्त Opening • भी जल माहि भरयो चिरजीव सदीव अतीत भव स्थिति गाठी। राग विरोध विमोह उदैव सुकर्म प्रकृति लगी अति गाठी ! पेच पर्यो दिढे पुग्गल सो इह-भांति- सही बडी आपद गाठी। सम्यक् ध्यान भज्यो जबहीं तबही सवकर्मनि की जडकाठी ॥ Closing' · · · कहै वेदवके कई आप मति के कहै वेदवके कहूँ आप सुनि वेके कहें आप जो जायके कह इष्ट कह मित्र है। . . कहँ जोग विधि जोगी, कहें राज रस भोगी कहँ वैद कह रोगी कह कटक कहे मिष्ट है। . कह लता के छाया कह फूल के फूल्यो कह भौर के भल्यो कह रूपके दिखाए है। . • सकल निवासी अविनासी- सर्वभूत वासी गुपत प्रगासी आप -सिख आप सिष्ट है। Colophon . इति कवित्त । देखें, ज. सि० भ० प्र० I, क्र० ५०६। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Rasa-Chanda - Alankara- kavya ) Opening : Closing : Colophon : Opening C.osing Colophon⚫ Opening Closing ५१ १२५५ कृपणपचीसी एक समदेहरा में पत्रनव जुरे हुते भघ इनवात जिहाँ जातकी चलाई है | चालो भले गिरिनारि नेमनाथ परिस्यैवेको जनम सफल तिहा योति बढाई है । तहाँ एक बैठी हुनी किरण पुरिपनार उने सुनी बात आनि घर मे चलाई है । मुनि हो पियारे पिउ जोयारे आवं जिनु हमें नुमे दोउ बोलो वली वन भाई है ॥१॥ कहे लाल विनोदी भव सुनो धन पाय जस लीजिये । करिजाज प्रतिष्ठा जग्य जिनसुदान सुपात्रा दीजिये ॥ इति श्री कृपणपचीगी समाप्तम् । १२५६ मालपचीसी सुरलोकास मूतीर्थ्या सौधर्मेण निर्मिता । माघे चैत्रे वृहद्वारे भव्यर्माला प्रतिष्ठिते ॥१॥ माला श्री जिनराज की पार्व पुन्य मजोग । जम प्रगटै कीरति बर्दै धन्य कहे सब लोग || ३६ || इति मालपचीसी । १२५७. नाममाला त नमामि पर परमगुरु कृष्ण कवल दल नेन । जग कारन करुना निधे गोकुल जाकी अन ||१|| जमल जुगल जुग द्वद्व है, उभय मिथुन विविधीय । जुगल किसोर सदा वनौ, नददास के हीय ।। २५६।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Colophon! इति श्री नददासेन कृता मानमजरी नाममाला सपूर्णम् । शुभम् अस्त । पाठकस्य शुभ भूयात् । सवत् १८०६ । शाके १६७१ ॥ पौष वदि अष्टमी गुरुवासरे पुरैनिआ नगरे फतेहपुर ग्रामे श्री खेदु पाण्डेय पुस्तकमिद लेखि। १२५८. नवरत्न-कवित्त . Opening : धन्वतरि छिपनकअमरघटकर्पवेताल । वररुचि-सकु-वराहमिहरकालिदासनवलाल ॥१॥ कुलवत पुरुष कुलविधि तजै वधु न मानै बन्धु हित । सन्यास क्षरिधन सग्रहै ए जग मे मूरख विदित ।। Colophon ' इति नवरत्न कवित्त समाप्त । Closing : कुलवत पु १२५९. नेमिचन्द्रिका अस्पष्ट । Opening Closing ! विशेष अस्पष्ट । यह अथ एक गुटका है, जो बहुत ही अस्पष्ट है। बीच के कुछ पत्र पढे जा सकते हैं। १२६०. नेमिचद्रिका Opening : Closing : आदिचरण हिरदै धरी, अजित चरणचित लाइ । सभव सुरत लगाइक अभिनदन मनु लाइ ॥१॥ तो होई ब्याह को साज काज वहुविधि सो कीन्हो । देस देस प्रति नृपति सवनि को: " ॥ अनुपलब्ध। Colophon: १२६१. नेमिचंद्रिका Opening | देखें, ऋ० १२६० । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manscripts (Rasa-Chanda-Alankara-kavya) Closing | नेम चद्रिका जे पढे जाको पुन्य प्रकाश । भासकरन लघु वीन जिनवानी को दास ॥२१॥ इति नेमचद्रिका सपूरन । Colophon . Opening . Closing : Colophon: Opening : १२६२. नेमिनाथ वारहमासा देखें, ऋ० १२३२ । देखें, फ० १२३२ । ति श्री नेमनाथ राजनमती का बारहमासा प्रतीकुनर सपूर्णम् । देखे, रा. सू. III, पृ० १२६३ नेमिनाथ विवाह एक समं जो समुद्र विजं द्वारका मह नेम को व्याह रचो है। गावत मगलबार वधू कुल मे सपके जो उछाह मदो है । तेल चढावन को युवति अपने अपने कर थाल सच्यो है। नेग करे सब व्याहन को घर मडप चित्र विचित्र खिको है। नेम कुमार ने जोग लियो दिन छप्पन लो छदमस्त रहो है। केवलज्ञान भयो प्रभु को तव आठविभु तम दान मही है। मात से वर्ष विहार कियो उपदेशते धर्म महा मही है। निर्वान गये गुनि पांच से छप्पन लाल विनोदिक ने सग गही है। इति श्री नेमिनाथ का व्याहुला समाप्तम् । देखे रा सू० III, पृ० ८४ । Closing : Colophon । १२६४. नेमिनाथ विवाह Opening : Closing , Colophon । देखें, ऋ० १२६३ । देखे, ऋ० १२६३ । इति श्री ने"नाथ का व्याहुला सम्पूर्णम् । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली ८४ Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah १२६५. नेमिनाथ विवाह देखे, क्र० १२६३ ॥ देखें, क्र० १२६३ | इति श्री नेमनाथ का व्याहुला समाप्त | Opening Closing Colophon : Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing : Colephon : Opening १२६६. पखवारा पडिवा पथम कला घटि जागी परम प्रतीत रोग रस पागी ! प्रति प्रतिपदा प्रीत उपजाव व प्रतिपदा नाम कहावे ||१|| पून्यौ पूरण ब्रह्म विलासी पूरण गुण पूरन परगासी । पूरण प्रभुता पूरण वासी कहै जती तुलसी वनवासी ॥ इति पषवाराजी समाप्तम् । १२६७. परमार्थजकडी अरहत चरन चित ल्यावो, फुनि सिद्ध सिव कर ध्यावो । वंदौ जिन मुद्राधारी निग्रंथ जती अविकारी ॥१॥ न अघाय यों हीरमै निस दिन एकछि नहूँ ना चुके । नहि रहे वरज्यो वरजदेष्यो बार बार तहाँ धुके श्री जिन सिद्धान्त सरोज सु दर ताहि मध्य लगाईए। रामकृष्ण इलाज याकी कीए एही सुख पाईए ॥८॥ इति श्री रामकृत जबरी सपूर्णम् । देखे, रा० सू III, पृ० १३७ । १२६८ पिगल मुरलीधर श्रीधर सुकवि मानि महामन मोद कवि विनोद मो यह कियो उत्तम छेद विनोद ||१|| Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sinskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Rasa-Chanda - Alankāra kāvya ) Closing : Colophon : दोहा -- अपर च - Opennig Closing Colcphon : Opening : Closing ८५ रूपक घनाक्षरी मे गुर लघु नियमन वतिस वरन वर रचिये चरन चारि । की विसरामतित आठ आठ अक्षर पे अत एक लघु नौ नियम करि करि धारि । या विधि सरस भाग गुण गुरु सेसनाग कीनो कविराजनि के काज बुद्धि के विचारी ॥ भाषा सिंधु तरिवेको आधे छद करिवेको पिंगल बनायो पढिये से सुद्र के सुरि ।" इति श्री कवि विनोद मुरलीधर श्रीधर कृतो वर्नवृत्त परिच्छेदोनाम पोडसमो विनोद | वीरगा पत्या पत्य रस रस वसु ससिवामक 1 सुभ भद्रा सित पक्ष दिन अगारक मतिवक ||१|| तिथित निदुभ पुनर्वसुवेला लाभ विराजु । राम सहाय लिखितमिद पिंगलग्रथ सुमाजु || २ || इति श्री पिंगल समाप्तम् । शुभम् अस्तु । १२६६. राजुल पचीसी प्रथम सुमरी अरिहत देव सो विनती करी ॥ यह लाल विनोदी गावै सुनत सव जन गहवरे राजुलपति श्री नेमि जिन सव सघ को मगल करे |२६|| इति श्री राजुल पचीसी जी समाप्तम् । ... देखे, रा० सू० III, पृ० ८५, १३१, १४६ । १२७० राजुल पचीसी देखें, क्र० १२६ε| देखे, ऋ० १२६९ | Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon: इति राजुल पचीसी सपूरन । १२७१. राजुल-पचीसी Opening • Closing : सुनु भविजन हो प्रथम ही प्रथम जिनेन्द्र चरन चित ल्याइए । सुनु भविजन हो सारद गुरु हि मनाइ जादो राय गाईए ॥१॥ गावै विनोदीलाल हरषित भविक जनन सुनावई । और गाव नर नारी सोउ अमर पद पावई ।।२५।। इति राजुल पचीसी सपूर्णम् । Colophon १२७२. राजुलपचीसी Opening __ देखें, ऋ० १२६६ । Closing देखे, ऋ० १२६६ । Colophon: इति श्री राजुल पचीसी समाप्तम् । १२७३ राजुलपचीसी Opening ! Closing . Colophon: वदी वे प्रथमही ... • राजमति जस गाई सो जीवे ।। अस्पष्ट। . . इति सपूर्णम् । । १२७४. रिस्ता Opening ! कीऐ श्रीनायक तीनी हिए व्यापत है ।। तिहारे दर्शन ......... पाप नासत है ॥ गहे जिननाथ को - जागे है। इति रेषता समाप्तः । Closing : Colophon Page #293 --------------------------------------------------------------------------  Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakümnar Jain Oriental library, Jain Sidhbant Bhavan, Arrah. Colophon: इति श्री पाण्डे स्पचद शतक समाप्तम् । Opening Closing | Colophon विशेप-- १२७८. सतसइया श्री गुरनाथ प्रसादत होय मनोरथ सिद्ध । - - ज्यों तरू वेलि दल फूल फलन की वृद्धि । आई अवधि विवेक की देखी कोन अनपाय ।। काग कनक के पीतर हम अनादर भाय ॥ इतिश्री वृदावन जी कृत मतसइया चैत्र शुक्ल १५ सवत् १९५३ गुरुवार आठ बजे रात्रि को आरामपुर मे वाबू अजित दास के पुत्र हरीदास ने लिखकर पूर्ण किया । डा. नेमिचन्द्र शास्त्री वृत तीर्थद्दर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा नामक पुस्तक मे वृन्दावन की प्रवचनसार, तीस चौवीसी पाठ, चौवीसी पाठ, छन्दशतक, महत्पाशाकेवली वृन्दावनविलास आदी ग्रथो का उल्लेख है लेकिन सतसइया का कोई उल्लेख नही है। १२७६. समकिताधिकार श्री ॐकार ह्यिइ धरी लहि सरसति सुपसाय । समकित गुण फल वर्णउ इह पर भवि सुखदाय ॥१॥ विजय दशमी श्री झठापुर वर सघ सुकल सुखदाई जी । वाचक मानव दइ सुखदायक सुणता लील वधाई जी ।। इति समकिताधिकार श्री अरहदास सबन्धः। सवत् १७०२ वर्षे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे दशम्या दिन गुरुवार लिखित श्री काला कुन्है ग्रामे । शुभ भवतु न सदा श्री। श्री। १२८०. सम्मेदशिखर माहात्म्य Opening : Closing ! Colophon ! Opening : ' श्री जिनवर के पूजोपद सरस्वति सीस नवाय । गनधर मुनि के चरन नमि भाषा कहो बनाय ॥६॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८8 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apnbhrama & HindiManuscrripts (Rosa-Chanda-Alankara Kavya ) Closing | व्यालीन मुनी अनागार । मुक्त गये जग के आधार ।। पाहि कूट को हरम न फरे। कोट उपयाम तनो फलभरे ।। अनुपलब्ध । Colophon. १२८१. सम्मेदशिखर माहात्म्य Opening • Closing. देखें क० १२८२। गमोमरण में जायक वदे वीर जिनेन्द्र । अतोनार नुम दरसन ने पार्ट करम के फद ।।२४ नहीं है। Colophon : १२८२. सम्मेदशिखर माहात्म्य Opening : श्री ममेषित चरण कमल जुग सब सुख लाइक । श्री मिवलोक यिलोफ ज्ञानमय होत सुनाईक । अनमित सुख उद्योत यार्म वैरी धनधाक । शान भान परगाम पद सब सुखदाइक । ऐमै महत अरिहत जिनन्द निमि दिन भावसी। पायी प्रमाण अविचल सदन वीतराग गुन चावमौ ॥१॥ बीस हजार वरप वीतत मानसीक तह असन करत । दम दुनि पखवारे गए परिमल सहि - ... ॥ Missing. Closing । Colophon: १२८३. शिखरमाहात्म्य Opening : पचगुरु को नमो दोकर सीसनवाय । श्री जिन भापित भारती ताको लागो पाय ॥१॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar lain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah, Closing Colophon : रेवा सहर मनोग वमै श्रावग भव्य सव । आदित्य ऐश्वर्ययोग नृतीय पहर पूरण भयो ॥३७॥ . इति श्री सम्मेद शिखरमहात्म्ये लोहाचार्यानुसारेण भट्टारक श्री जगत्कीति तच्छिष्य लालचद विरचिते सुवरवरकूटवर्णनो नाम एकविशतिम सर्ग. समाप्त । सम्पूर्णमिति । मम्वत् अष्टादश शतक वानवे अधिक सुजान । फाल्गुन कृष्ण अष्टमी वुधे पूरण भये गुणखान ॥ ॥ रघुनाथ दूज के लिखे भव्यन के धर्म काम । वाचे सुनै मर्द है पावै सर्व सुखधाम ।। दोहे - १२८४ शिखरमाहात्म्य Opening : Closing . अजितनाथ सिद्धवर कूट। अस्सी कोडि एक अरव चौवन लाख मुनि सिद्ध भय बतीस कोटि उपास का फल इम कूट के दर्शन का फल है। पार्श्वना सुवर्ण भद्रकूट। सम्मेदशिखर सुवर्ण कूट ते पार्श्वनाथ जिनेद्रादि मुनि एक करोड चौरासी लाख पैतालीस हजार सात सौ व्यालीस मुनि सिद्ध भये इस कूट के दर्शन ते सोरा करोड उपास का फल है। अनुपलब्ध । Colophon: १२८५. सोलहकारणरासा Opening : Clos वीर जिनेस्वर नमसकरी ... • " जहाँ हेमप्रभ धन यसा ॥१॥ सकलकिरत ए रासा कीयौ ए सोलह कारण । पढे गुण जे समलै तिण शिव सुहकारण ॥७॥ इति सोलहकारण रासा जी समाप्तम् । Colophon: Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & lIindi Manuscripts ( Rasa-Chanda-Alañkāra-Kāvya ) १२८६ श्रुतपचमीरासा Opening : वरत अठाई जे करै ते पाच भवपार प्राणी । जबूद्वीप सुहामणो लष योजन विस्तार प्राणी ॥१॥ Closing : नरनारी जे रास सुणे, मन वच रुचि गावहि । सुख मपति आणद लहै, वछित फल पाव हि ॥१०१॥ Colophon: इति श्रुतपचमी रासा। विशेष—इसके साथ अठाई रासा भी है। देखे, जै० सि० भ० ग्र० I, क्र. ५१६ । १२८७. श्रीपालदर्शन Opening : ॐ नम सिद्ध मनधर सस उदघाटे जुग पाट तुरन्त । उघटवार भरम भजि गयो पुण्य फल दरसन तुम भयो ॥१॥ विनुथुले सोहै प्रतिबिंब भवि जन प्रीति वाद अनद । अजघना Closing : Colophon: अनुपलब्ध । देखे, रा० सू• III, पृ० १४३ । १२८८. सुभाषितावली Opening ! Closing | पारात्सार प्रवक्ष्यामि कथित प्रथकोटिभि । परोपकागय पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥१॥ मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । आत्मवत् सर्वभूतेषु पडित तद्विदो विदुः ।। नही है। Colophon Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १२८६. बाहुवलि Opening : Closing : दोऊ सूर महासुभट भरतवाहुवल वीर । अति साज चले रण लरिवेकौ अतिधीर ॥ सत्रे सै चलहोत्तर भादौ सुदि सुमवार । सुक्ल पक्ष तेरस भनी गावै मगल च्यार । इति श्री भरत वाहुबलि भाषा समाप्तम् । Colophon : १२६० विवेक-जकड़ी Opening i Closing । चेतन तेरो वानी चेतन दानी चेतन तेरी जाति वेवेही हात मति खोई जाति विगोई रहयो प्रमादनि भाति वेवेहा ।। कुदकु द आचारज गुरुवयणहि मूरख पिनन सभाले । आपन औगुण सहज सुनिर्मल जो जिनदास सुपाल ।। इति विवेक जकरी। Clolophon: १२६१. व्यवहारपचीसी Opening • सम्यग् पदधारी तीनलोक अधिकारी क्रोध लोभ परिहारि सौ ___महाराज है। सबकौं समान गिना राग दोष भाव विना नाही पास तिना सक्र ___ सौ को सिरताज है। ताही को वपान्यो धर्म सोई साच सोई पर्म और को कह यौ अधर्म झूठ को समाज है। सिवपुर वाट के वटाउनि को सवल है सुख को दियो महाकाज माहि नाज है ॥१॥ चाहत धन सतान • आनताहि वहे है ॥२६॥ Closing , Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Mantra, Karmakanda) Colophon: इति श्री व्यवहार पचीसी समाप्तम् । १२६२. भक्तामरस्तोत्र-मत्र Opening Closing : इत्य यथा तव विभूतिरभूजिनेद्र धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृक् प्रभादिनकृत. प्रहतान्धकार तादृक्कुतोग्रहणस्य विकाश नोपि ॥ ॥ श्री भक्तामरजी की महिमा बहुत भारी हे भारी जानना यामे जेति सिद्धि अरु मत्र है सो सपूर्ण मिद्धि मत्र उपकार के वास्ते एक एक काव्य के एक-एक मत्र का थोडा-थोडा फल विध सुधा लिखा ऐसा जानना। इति श्री भक्तामरनामा श्री आदिनाथ स्वामी का स्तोत्र श्री मानतुगाचार्य विरचित समाप्त । Colophon: १२९३. भक्तामरस्तोत्र-मंत्र Opening Closing : भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रमाणामुद्योतक दलितपापतमोवितानम् । सम्यक प्रणम्य जिनपादयुग युगदा वालवन भवजले पतिता जनानाम् । ऋद्धि मत्र जपिवा यत्र पूजनात् अष्टोत्तरशन जाप्प नित्य कीजै दिन ४६ सर्व वस होवे जिसको नामचित सो वम होवे व्रत कीजै ॥४॥ कुछ नहीं है । देखें, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ५५५ । Colophon: १२९४ चौबीस-तीर्थकर-मत्र Opening : ॐ ह्री श्री चक्रेश्वरी अप्रतिचक्रे फुट चिचक्राउरूभेईमवा सर्वशान्ति कुरू कुरू स्वाहा। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Srddhant Bhavan, Arrab, Closing । अमोघ लक्ष्मी मिले ताज सग्राम व्यापार सर्वत्र जय होय तथा वार ७ नित्य स्मरण करना सर्व कार्य सिद्धि होय ॥ इति मत्र सम्पूर्णम् । Colophon; १२६५. गायत्रीमंत्र Opening । Closing । ॐ भूर्भवः स्व तत् सवितुर्वरेण्य भर्गोदेवस्य धीमही धीयोयोन. प्रचोदयात् । भूतप्राणाम प्रवर्तकेन तीर्थङ्करदेवेन वृषभसेनादिगौतमाते गणेशमहषिणा गायत्रीदसा गायत्रीसमाष्यनाऽनेन दिव्यमत्रेण त आदि ब्रह्माण तुष्टु दुरितिसक्षेपण ननु निरूपित इति गायत्रीव्याख्या सम्पूर्णम् । १२६६ घटाकर्णमंत्र opening ! Closing | ॐ घटाकर्णो महावीर सर्वव्याधिविनाशका । विस्फोटकभय प्राप्ति रक्ष रक्ष महाबला ॥१॥ नकाले मरण तस्य न च सर्पण डस्यते । अग्नि चौरभय नास्ति ॐ ह्रीं श्री घटाकर्णो नमोऽस्तुते ।।४।। इति घटाकर्ण मत्र। देखें, जे० सि० भ० प्र० I, ऋ० ५६५ । Colophon: १२६७. घंकाकर्णमत्र Opening Closing : Colophon देखे, ऋ० १२९६ । देखे ऋ० १२६६ । :ति घटाकर्ण मत्र। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Mantra, Karmakānda ) Opening Closing Colophon : Opening : Closing Colophon : Opening • Closing : Colophon १२६८. होमविधि श्री शातिनाथममरामुरमर्त्यनाथ भावति किरीटमणिदीधिति पादपद्मम् । त्रैलोक्यणातिकरण प्रणवं प्रणम्य होमोत्सवाय कुसुमाज लिमुक्षपामि ॥ शांतिनाथ नमस्कृत्य सर्वविघ्नोपशांतये । सर्वं भव्योपशात्यर्थं होमायमुच्यते ॥ इति होमविधान सम्पूर्णम् । १२६६• जैनगायत्री अनादिनिधन मत्र पर्चात्रिंशत् तदक्षरम् । पचाक्षरमिति ब्रूयात् चतुर्दशमथापि च ||३|| अनादिनिधनो मत्री गायत्री मंत्रसयुता । नित्य च जाप्यते योऽय महामगलदायकम् ||१०|| इति श्री जैनगायित्री सम्पूर्णम् । १३००• जैनसकल्प ॐ यजमानाचार्य प्रभृतिभव्यजनाना न धर्मंश्रावणायारोग्येश्चामि वृद्धिरस्तु 8446 boo ... लाभाय जपं करिष्ये । नही है । 1 देवोह अमुकमत्रस्य सत्यष्टोत्तर * - मुफ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Juin Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab १३०१. जिनेन्द्र-स्तोत्र Opening । Closing. ततो गधकुटीमध्ये जिनेन्द्राय हरसमयीम् । पूजयामास गधाद्य रभिषेकपुर सरम् ।। लक्ष्मीवानभिषेकपूर्वकमसो श्रीवज्रजघो विभुः द्वात्रिशमुकुटप्रबधमहितक्ष्माभृत् सह ... इति स्तोत्र समाप्तम् । Colophon . १३०२. कामदा-यत्र दिवाली के रात को लिखना भोजपत्र पर अष्टगन्ध सो भुजा मे वाध राखे । अगर मिश्री घी इन सबकी धूप देय । लिखत मुन्नीलाल दिल्ली वाले। Closing : Colophon: १३०३. क्रियाकाण्डमंत्र Opening . Closing ॐ भूर्भूव स्व अर्ह असि आउसा सम्यक्दर्शनज्ञानचारिधारिकेभ्यो नम । वार १०८ नित्य जपिये। मध्यम तर्जनीनामिका अगरीनिजीवन स्वाम। अगुष्ठासो जपमाल रूचि गुण एक बहुतास ॥ नही है। यह ग्रथ इतना पुराना एव सडा हुआ है कि पढा नहीं जा सकता। Colophon : विशेष १३०४. महालक्ष्मी मत्र- ॐ ऐं श्री ह्रीं क्री महालक्ष्मी सर्वमिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा ॥ Opening : Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ Catalogue otSanskrit, Praktit, Apabhramsa& Hindi Manuscripts (Mantra, Karmakanda ) Closing . दिन २१ तक जप करना, धूप पेवना गुगुल, अगर, तगर, नागरमोथा, छरूछडीला, कचूर, गिरीदाष, वदाम छोहारा, मिश्री घी, का होम करना लक्ष ॥१२५०००। सर्वसिद्धि होय शत्रुभय मिटे लक्ष्मी मिले । कुछ नहीं है। Colophon . १३०५. मत्र Opening ॐ नमो वृषभनाथ मृत्यु जयाय सर्वजीवशरणाय परममत्राय पुरुपाय चतुर्वेदायतताय मम सर्व कुरु-कुरु स्वाहा ॥१॥ ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय हसमहाहस परमहस. कोहस अहहस पक्षिमहाविपक्षि ह. फट् स्वाहा । इति मत्र सम्पूर्णम् । Closing . Colophon १३०६. मत्र Opening ! Closing ॐ नमोऽहते भगवते श्रीपाश्वनाथाय धरणेद्रपद्मावतीसहिताय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल महाग्निस्थभय-२. ॐ को प्रो प्री प्र.ठ ठ स्वाहा । अभिपेक सुद्धि तिहका नाला तल न्हाव-उपवास १०० एक भक्त कर जु पाली पाषी देय वें का हाथ को अहार लेणू नही। इति सपूर्णम् । Colophon: १३०७. मंत्रसग्रह Opening : ॐ ह्रो ह्रीहूँ ह्रो हह्र अमिआउमाय नम अपराजित मनोय विघ्न नासय नासय कुरु कुरू स्वाहा । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon १३०८ मंत्रयंत्र Opening : ॐ क्रो को कौ क्रौ क्रौ सही अमुकी नामान्याः पतत्याः सर्वत्रजयसौभाग्य प्रियवल्लभत्व पतिपूजादिसौख्य Closing : Colophon Opening Closing Colophone : ॐ छो छोछो छ. अस्मिन्पात्रे अवतर अवतर स्वोहाः । विधि || पेडा ३ ॥ वार १०८ ॥ मत्रसो पठको आनाहीबोलेता ''. । नही है । Opening • इति णमोकार मंत्र माहात्म्य समाप्तम् । ... १३१० पद्मावतीदडक ॐ नमो भगवते त्रिभुवन सकरी । मर्वाभरणभूषिने पद्मासने पद्मनयने || १ || esed नीबू को चूहा के विलमे गाडिये उपर जूती तीन नाम लेके मारिये दिन तीन ताई जूती मारिये नाम लेता जाईये । इति मत्र यत्र समाप्तम् । १३०६. नमोकारमंत्र कहा सुर तरु कहा चित्रावलि कामधेनु कहा रसकुप कहा पारस के पाए ते । कहा रसपायें औ रसायन कमाये कहा कौन काज होते तेरो लक्ष्मी कँ आऐ ते ।। कान्हबल धाईवेको कान्ह के कमाईवे को कान्हबल लगाइवे को काहु के उधार के । कहत विनोदीलाल जपतही तिहुकाल मेरे है अतुलबल मंत्र नवकार को ॥ -। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhra n (7 & llindi Manuscripts (Mantra, Karmokanda ) Closing | Colophon: जमे ही मोहनीय हिनि हिनि · · मा रक्ष पर्य' ।। ति पपावती देउफ मपूर्णम् । १३११. पद्मावतीकल्प Opening . Closing : फमठोपनगंदलम विभयननाए प्रणम्य पाय जिनम् । पश्यंभीठफसदरमपचायनीमन् ॥१॥ अपराजिनेक का प्रती मोरप-मोहय न्तभिनी ... ... मम पश्य पुराव्या मही है। Col phon: १६१२. पावनीकल्प Opening - Clo.ing : अन्य श्री पनायतो मनम्य गुगमुर्गसाघर-नागन्द्र-महाऋपि. पतिदगायत्री ४द श्री पद्मावती देवता कमलबीज वागभव शनिप्रणयकोना मम धर्मार्थ गाममोक्षायं जपे विनियोग । गभे हो मोहनीय हिन्नि हिनि रमणे मदं मदं प्रमर्द दुष्टे निसधिकारेह दह दह ने हेल ... ह्रां ह्री ही है प्रमन्ने-प्रहमित वदने रक्ष मा देयि पद्म । इति श्री पचायनीपटल पप्रारतीक.प ममाप्तम् । १३१३. पद्मावतीकवच Opening । Closing | देखें १० १३१२ । ६ कवच ज्ञात्वा पाया रतोति यो नरः। फापकोटि शतेनापि न भवेसिद्धिदायिनी ॥१८॥ इति पापती कयचम् । Colophon: Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री जैन सिद्धान्त 'भवम ग्रन्थावली । Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Sidhant Bhavan, Arrah १३१४. पद्मावतीकवच Opening : ॐ अस्य श्री पचमुखी पद्मावतीकवचस्तोत्रस्य श्रीरामचद्रऋषिकृत अनुष्टुपछन्द' पचमुखीपद्मावती देवता ॐ अमुनिसुव्रति इति बीज ॐ चिन्तामणिपानाय इति शक्ति ॐ धरणेन्द्र इति कोलक श्री रामचन्द्र तव प्रसादसिद्धयर्थं मकललोकोपकागर्थे पंचमुखीपद्मावती स्तोत्र जपे विनियोग. । Closing : नवबार पठेन्नित्य राजभोग समाचरेत् दसबार पठेन्नित्य त्रैलोक्य ज्ञानदर्शनम् । एकादश पठेहित्य सर्वसिद्धिर्भवेन्नर कवस्मरणे व महावल मवितम्। Colophon: इति पचमुखीपद्मावतीकवच सपूर्णम् । १३१५. पद्मावतीकवच Opening , Closing colophon: ॐ अस्य श्री मत्रराजस्य परमदेवता पद्मावतीचरणावुजेभ्यो नम । ॐ ह्री श्री पद्मावत्यै महाभैरवी नमः । इति पदमावतीकवच संपूर्णम् । १३१६. पद्मावतीकवच Opening • Closing : देखें-*० १३१४ । साक्षात् शिव पद का दाता ये हाट मंत्र है, नित्य जपने से मन मंगल होय है। नहीं हैं। Colophone Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Aprbhramsa & Hindi Manuscripts ( Mantra, Karmakanda) १३१७. पद्मावतीकवच Opening । Closing | Colophon. देखे, ऋ० १३१४ । देखें, ऋ० १३१४ । इति श्रीराचचन्द्रऋषिकृत पचमुखीपद्मावती कवच समाप्सेम् । १३१८. पद्मावतीमंत्र Opening | Closing : Coloph on : ॐ णमो जिणाण ही ही ही हू.ह्रो ह्रः। अथवा मू गा के जाप दे लाल वस्त्र पहेर लीज। इति श्री पद्मावतीदेवी मम सपूर्णम् । १३१६. पद्मावतीमत्र Opening | ॐा को ही नी पद्मावती देवी हक्ली ही नम । जाप ३००००० की। अत्रसाहतनुजनाभवृषभ " कालछया नित्यश ॥ इति पद्मावती स्तोत्र सम्पूर्णम् । Closing Colophon: १३२०. पद्मावतीपटल Opening : ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथधरणेद्रमहिताय .. त्रैलोक्य सहारिणा चामुडा । ह्रा ही प्ली प्लू हा हा . पद्मावती धरणी धरणीद्र भाज्ञापयति स्वाहा। Closing | Colophon. इति पद्मावती पटल सपूर्णम् । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्री जैन सिदान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavani, Arrah १३२१. पन्द्रहयत्र-विधि Opening : आद्वतर की चाल है भणी की घोडे की चाल पहली सुनवको हूँ में भरिय एक अकसु माड के नव अक सु माड के नव अक लिखियै नव को द्वे में इसकी विशेष विधि कहिये दस वार लिखै तो लोक सर्वमोहित हुवै वीस वैर लिप तो आर्वण हुवे तीस वार लिखै तो पृथ्वी में जय पावै । दग्धामापतील चैव शर्कराधृतसयतम् । कृष्णपक्ष तु चाप्टम्या बलि दवा मविरक ? ॥४३।। Closing, १३२२. पार्श्वनाथस्तोत्र-मंत्र Opening । Closing . श्रीमद्देनेन्द्रवंदामलमुकुटमणिज्योतिषा चक्र । .......... पार्श्वनाथोत्र नित्यम् ।। इस्य मत्राक्षरोत्थ वचनमनुपम पार्श्वनाथस्य नित्यम् । " - स्तौति तस्येष्टसिद्धि । इति पार्श्वनाथ स्तोत्र सम्पूर्णम् । Colophon . १३२३. पार्श्वनाथस्तोत्र-मंत्र Opening : ॐ नमो चन्डौन पार्श्वनाथ तीर्थंकराय धरणेन्द्रपावती सहि ताय । . • घोरोपसर्गविनाशनाय है. फ्ट स्वाहा । इति चडोनपाव नाथस्तोत्र सपूर्णम् । Closing . Colophon Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Mantra, Karmakanda ) १३२४. पार्श्वनाथस्तोत्र-मंत्र Opening ! Closing पावं व पातुवो नित्य जिनः परमशकरः । नाथ परमशक्तिश्च शरण सर्व .- ॥ विसध्य य. पठेन्नित्य नित्यमाप्नोति सश्रिय।। श्रीपायपरमात्मे ससेवध्व भोवुधासुकृत् ।। इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्र समाप्तम् । Colophon! १३२५. प्रातगायत्री Opening Closing | पार्वत्युवाच देवेधिदेव देवाधिदेवदेवश परमेश्वर पुरातन वदुरवपरयाप्रीत्याविप्राणो मधि वदन मद्भक्ताना हितार्थाय वराण परमेश्वर सन्यामध्यानयुक्त च सूर्याादि सुमाधन । इति महावाक्य ॐ गायत्री चैकपदी द्विपद्री चतुस्पद्यपदसिनहि पद्यस नमस्तेतुरीयाय पदाय तुसीय पददशिताय नमो नम एव चतुर्थाश्रमेन गृहस्थाना प्रसगेन प्रदशित ।। अय प्रातगात्री पिपये सपूर्ण समाप्त । सवत् १२१ कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे ६ शनिवासरे पुस्तक लिख्यते हरयस मिश्र । कासि जी मे लिखी। Colophoat १३२६. सकलीकरणविधान Opening . स्नानानुस्नानशुद्धोघृतशितसुद्धोतान्तरीयोत्तरीय, सकल्पाचम्य प्राणामिति तममृत परिसेचन तर्पण च । आचम्या तस्य शुद्धि पुनरपि सतत शान्नमत्र षडागम्, दिवस ज पात्रिव र परमजपयुत्त स्तादिक्षारययभूः ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closing . ॐ णमो अरिहताण णमोसिद्धाण णमो आयरियाण । णमोउमझायाण णमो लोए सबसाहूग । इति पचपद जपेत् । जिनवरदासस्य पठननिमित्त लिखित टीकारामेन आरानगर मध्ये शुभम्भूयात् लेखक-पाठकयो आयुरारोग्यमस्तु । Colophon . १३२७ सामयिकविधि Opening . Closing : विधिपूर्वक पडिलेय उपगरण प्रमार्जित स्थानकइ स्थापनाचार्य घापितई ज्ञानपचमी तपग्रहण कुजमालाविधिः ॥२७॥ पोसहपडिकमणा वावण विधि ।।२८।। इत्यादि । नही है। Colophon १३२८ शान्तिनाथ-मत्र Opening Closing । ॐ नमोऽर्हते. भगवते प्रक्षीणाशेषदोपकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये, ॐ नमो शान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्वपापप्रणाशाय - -। सपूर्ण जप सख्या अडतालीम लक्ष प्रमाण निष्ठा मना जप पश्चाद् सपूर्ण सिद्धि स्वयमेव पाव। नहीं है। Colophon! १३२६. सरस्वती-मंत्र Opening : ॐ अर्हन्मुखकमलनिवासिनी पापाहमक्षयकरी ... • मम विद्यासिद्धि कुरु-कुरु स्वाहा । ॐ ह्री श्री वली महालक्ष्मी नम. धारकस्य भाण्डागार ऋद्धि वृद्धिअन्नधन्नपूर्ण पूरय पूरय प्रताप विजयी कुरु कुरु स्वाहा । Closing Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manscripts ( Mantra, Karinakan la) जाप सवालक्ष १२५००० दशाम होम पचामृत को करे तो प्रभाव वृद्धि होय । इति विजयप्रतापमत्र सम्पूर्णम् । Colopaon १३३०. सरस्वतीमत्र Opening Closing ! Colophon वगेप ___ॐ ह्री श्री वाग्वादनी सरस्वती मारदा वुद्धिवर्द्धनी देवी कुरु कुरु स्वाहा । इति । मत्र अप्टोतर शत नित्य जपेत् विद्या प्रकास होइ । नहीं है। इनमे मात्र एक ही मत्र है । १३३१. सरस्वतीमत्र Opening ! ॐ ह्री श्री यली ब्ली वद वद वाग्वादिनी भगवति सरस्वति परमब्रह्म मुखीदते श्रुतागिदवि द्वादशागेयो नम । मम विद्याप्रमाद कुरु तुभ्य नम ||१॥ सही अर्ह णमोपादाणुसारिण ॥८॥ ॐ ह्री अहं णमो सभिन्न सोदराणम् ॥६॥ नही है। Closing . Colophon १६३२. सरस्वतीस्तोत्र Opening : ॐ ऐ ह्री श्री मत्ररूपे विवुधगननुनेदेवदेवेन्द्रवद्य। .... - मनसि सदा मारदे तिष्ठदेवी ॥१॥ ॐ ह्री क्ली क्रू श्री ही रो नम लक्ष जापते सिद्धि होय । इति सारदा स्तुति । Closing . Colophon . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १३३३. सोलहकारण मंत्र Opening: ॐ ह्री दर्शनविशुद्धये नमः । Closing ॐ ह्री प्रवचनवत्सलत्वाय नमः । Colophon: सपूर्णम् । १३३४. सूतक - विधि इम सूतक देव जिनद कहै, उत्पति विनास द्विभेद लहै । जनमें दस वासर को गनिए, मरिहै तव बारह को भनिए ॥१॥ Opening : • Closing : Colophon : Opening Closing Opening : ग्रंथ संस्कृत त है भाषा कीनीसार । जो मन समय उपजे देखी मूलाचार ||२४|| इति श्री मृतक विधि समुच्चय सूतक विधि सपूर्णम् । १३३५. तत्रमत्रसंग्रह ॐ ह्री. ह ह ह्रौं ह्र असिमाउसा सम्यग्यदर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो ह्री नमः आचार्य श्रीरविसेनकस्य रक्षा दृष्टिदोषनाश कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्री एकमुखी रुद्राक्षस्य शिवभाडागारे स्थिताय मम ईप्सित पूरय पूरय श्री आकर्षय दुष्टारिष्ट निवारय निवारय ॐ ह्री नम. पीतपुष्पंप १०००० पश्चाद् नैवेद्य दसास होम एकमुमुखी रुक्षास 1 १३३६. त्रिवर्णाचार मंत्र 800 ॐ ह्री. हृ' ह्र' ह्र' ह्रो ह्र असिभाउसा सम्यग्दर्शनज्ञानि चारित्रेभ्यो ह्री नम; Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० Catalogue or' Sintrit. Pralet, Apolihronu i llindi Alanuscripts Estanita, Karnatindi) air art Claring a f १२. Co-ophon: । ६. नोकग-अधिकार Onning : Closing 178 1791: ** Cole phon: Opening Trailer पदामिनीनम् । মাল ফণিমানি সানি সিয়ামূল। गाTTAR निगम भय।। पEिRE ARTrit गोमाग ॥ Closing Color:hon. १३३६. बन-मंत्र Opening ! Closing । ही जागाडमा दगपूष्पोण गिक्षि गुरु पुग म्याला । पत्र मय फरोग दारपटगे दोषो यगतरय किग, पिंटु नैय परान्ति पातया मुगे मेघस्य फिदूपणम् । मानोकाय दिपस्यने यदि दिया सूर्यस्य कि दूपणम् । यत्पर यिधुना ससाटनिपने तन्मायंतफाय. ॥१॥ श्रीरस्तुमिद शुभ भवतु । Colophon . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १३४०. विसर्जन-मत्र Opening : Closing ! सुभ्राक्षतप्रसवमकुलरत्नदीपै मानिक्यरत्नमयकाचनभाजनस्थ । श्री ज्वालिनीचरणतामरसद्रव्याग्ने सन्मगलात्तिकमह त्ववतार ___ यामि ॥१॥ जयजय जगदवे ज्वालिनिस्रष्टविवे गजगमनविलंबे नागयुगे त्र नितवे। हतधनुजगववे भालखण्डेन्दुविवे नतजनुविकरवे याहिभक्तावलवे ।। इति विसर्जन सपूर्णम् । Colophon: १३४१. विवाह-विधि Opening I Closing । या सदन गच्छेत् मडपे तोरणान्विते । कन्याया जननी वेगादागत्य पूजयेद्वनम् । १॥ कैलाशे वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे । चपायो वसुपूज्यसज्जिनपते सम्मेद अनुपलब्ध । Colophon: Opening : Clo ing : १३४२. यत्रमत्रसंग्रह गह्य हिमानम्बिपुरे मदीयनेत्री निवान कुरुविष्वनेत्रे गृह्यस्व वलि च पूजी। चौदश अवीतवार के दिन मद भाडाने मैल जैतो मवपाणी भवति । इति सपूर्णम् । १३४३. यत्रम सगह ॐ म ख ख षि षि र रां कात्री श्री अमुकस्यो च्यारय-२ मारय मारय चूरय-चून्य बुद्धि भृशं कुरु-२ स्वाहा।" Colophon। Openiog Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ Hindi Manuscrrupts Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & (Ayurveda) Closing । वार सात पठन तमाचो पद्मपुत्री विसहगे एक सहस्र · मारी जै सर्प विष उतरे। नही है। Colophon: १३४४. अण्टांगहृदय Opening | Closing : इति घन्माद्गुरायादयो महर्षयः जातमात्र यिशाध्यो स्वास्वालसंधसपिपा । प्रतिश्लोशित चानुवला तैलेन सेचयेत् अश्मनोदिन चास्य कर्णमूले समाचरेत् ।। चिकित्मिन हिन पथ्य प्रायश्चित्त भिषज्जितम् । भेपन शमन शस्त पर्याय स्मृतमौषधम् ।। । इति चिकिमि द्वाविंशोऽध्याय । इति वाग्भट्टविरचिताया अप्टोगदत्यनहिताया चिकित्साम्यान चतुर्थ समाप्तम् । देखे, रा० सू० III, पृ० २४६ । जि० र० को०, पृ० १६ । Colophon: १३४५ त्रिकित्सीगाँस्त्र Opening • -Closing : नवा हो नी पु इ ली जइ । दूधमू पी जइ सर्वगेग जाइ ॥१॥ विन्दु आठ कड द्रोण प्रमाण, दुई द्रौंगे इक सूर्य की मान।। दाई मूर्य की द्रोणी इफ लाखी, बिन्दु द्रोणी इक खोरी दोखी ।। नहीं है। इसकी लिपि भिन्न २ लोगो द्वारा लिखी गई है जिससे यह सग्रह अथ मालूम पड़ता है। Colophon विशेष-- Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्री जैन सिद्वान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan,Arrah, १३४६ चिकित्सासार Opening : च्यारिटाकनि लोफर ल्याइ । तोनि पाव जल में औटाइ ।। अरध रहे जल से छिनवाइ । खाड टाक चालीस मिलाइ॥ ताको नरम विमाम बनाइ। घोट डडसो सीसे पाइ । दसरती ली लोफर नित । हर सिर पीर कास ज्वरपित ॥ सास की दवा-धतूरा पचाग कूट के चिलम में पीव हुक की तरह से सास जाय हुचकी जाय, पेट दरद जाय । नहीं है । Closing , Co'ophon : १३४७ ज्वरहर-यंत्र Opening Clo ing . ज्वरेत्यादिना केवल ज्वरकृतदाहमेव नोपशामयनि कित्वपरा 1१। द ज्वरहर यत्र मया प्रोक्ता तवानधे । उपकाराय लोकाना साधूनां च हिताय वै । गोप्य त्वया सदा भद्रे साधुभ्या नैव गोपयेत् ।।२२४॥ इति । Co'ophen : १३४८• कुट्टककरण छाया व्यवहार Cpening : Closing : भाज्यो ." दुष्टमुछिष्टमेव ॥१॥ शुद्धिजीजाती गुणएवराशित्वेनांगीकृतः ॥१४॥ पचगुणौ ॥७०॥ हर ॥६॥ ' हतशेष ॥१४॥ दशगुणे ॥१४॥ हर ॥६३|| हृतशेष ॥१४॥ एव बहुरवे गुणनामक्य भाज्य अजाणामक्यम प्रकल्प्यसाध्यम् ॥ इति भास्कराचार्य विरचितोलीलावायां कुटुकाध्याय समाप्ता ॥ Colophon : Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramia & Hindi Manuscripts (Ayurveda ) १३४६. मदन विनोद निघटु Opening! Glosing : Colophon Opening Closing : Colophon : Opening Closing १११ वीज श्रुतीना सुधन मुनीना वीज जडाना महदादिकानाम् । आग्नेयमस्त्र भवपातकाना किंचिन्महश्यामलमाश्रयामि ||१|| यो राजा मुखतिलक कद्वारमल्लस्तेन श्रीमदननृपेण निर्मिते च प्रथेन्मदनविनोदनाम्नि सपूर्णो प० गुणग णमिश्रकोऽय || इति श्री मदनपाल विरचिते मदनविनोदे निघटो मिश्रपवर्गस्त्र योदश ||१३|| इति मदनविनोदे निघटी समाप्तम् । सवत् १९१२ का० सु० लिखापिन श्री मानसिध जी पठनाथं लिख्योस्यो लालखाजादन || १३५० नाडीप्रकाश । तीन प्रकार के है सूर्य है सो दाहिना है। पक्ष सूर्य का है । शुक्ल पक्ष चद्रमा का है । इगला चद्रमा है मोवाया है । निगला दोनो चले सो सुख मन है । कृष्ण **** ... दो नव भृकुटी श्वेत श्रवन पाँच तारका जान । तीन नाक जीवा एके का सभेद पहचान ।। अनुपलब्ध । १३५१. निदान प्रणम्य जगदुत्पत्तिस्थितिसहारकारकम् । स्वर्गापवर्गायोद्धारे त्रैलोक्ये शरण शिवम् ॥१॥ ग्रहणा समधातु सनग्निश्च समदोरमलक्रिय. प्रसन्नात्मेद्रिय मना स्वस्थामित्यभिधीयते ॥ - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrab Colopkon विशेष इति निदान प्रा समाप्त । शुभमस्तु । सपत् २७५६ । यह अथ माधव निदान मालूम होता है, जिसके लेखक माधवाचार्य हैं। जि० ग्र० र.,पृ. ११८। १३५२ पंचदशविधान Opening : अथात सप्रवक्षामि सुन्दरीयत्रमुत्तमम् । तदक तु प्रवक्षामि श्रृणु यत्नेन साम्प्रतम् ॥१॥ इनगेयुगत करके मो राजा-प्रजा सर्व सकारी सिद्ध होय । नहीं है। Closing . Colophon: १३५३. रामविनोद Opening • Closing : Colopbon सिद्धि बुद्धि दायक सकल गवरि पुत्र गणेश । विघ्न विनाशन सुखकरन हरखाधारि प्रणमेश ॥ द्रोनि मनक को चार . - राम विनोदी विनोद सौ ॥ इति श्री रामविनोद भाषा ममाप्तम् । सवत् १९०६ मापोनमे मासे वैशापमासे शुक्लपक्षे द्वितीयाया वार भौमवारे का लिखि के सपूर्ण भई मितन्त गोती सघई लाला छेदीलाल तस्य पुत्र उजागर लाल तस्य पुत्र जेठे रतनलाल लघुपुत्र बदलीदास ने पोथी लिखी पठनार्थ अपने हित हेतवे वस अग्रवाल का है । यादृश पुस्तक - " दीयते ॥१॥ जल रक्षेत् • • • पुस्तकम् ॥२॥ १३५४. रूपमगल Opening : जमालगोटा अर मिरच वरावरी आदी का रस में गोली करे मिरच प्रमाण सध्या प्रात. बाय । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrainsa & Hindi Manuscripts ( Ayurveda ) Closing नित्यज्वरवालाने दीजे पाडी का मूत्रसू ने जरावा नाने दीजै निवकार ससू चोयावालाने दीजे इति सर्वज्वर जाय । इति मगलरूप सपूर्णम् । शुभ भूयात् । Colophon: १३५५ शारदा-तिलक सटीक Opening । Closing । श्री तीर्थेश जिनाधीश केवलज्ञानभास्करम् । प्रणम्याभ्युदये ध्यात्वा वक्षे मूत्रपरीक्षणम् ॥१॥ पानट २ सुपेदकथट २ अफीमट १ इकत्र कर गोली करनी मासे १ प्रमाण तदलोदकेन समीप अतिसार जाहि । इति श्री सारदातिलक अथ समाप्तम् । लिखितमिद नित्यानन्दन नारनौल मध्ये लिखायत पडितजी श्री चेतनदास जीकस्मिन्सम्वत्मरे सवत् १६७६ का० वर्षे कार्तिक शुक्ल २ गुरुवासरे अलिखदिद पुस्तक यथा स्यात् तथा । श्रीरस्तु Clolophon Opening ! १३५६ सारंगधर सहिता श्रिय सदद्याद्भवता पुरारिर्यदंगतेज प्रसरे भवानी। विराजते निर्मलचन्द्रिकाया महौषधीव ज्वलिता हिमाद्रौ ॥१॥ विविमगदाति दरिद्रया' नाशन याहग्निमपि चकार वियोगरत्नः । विलसतु शारगधरस्य सहिता सा कविहृदयेषु सरोजनिर्मलेपु ॥ इति श्री दामोदरसूनुना शारङ्गधरेण विरचिताया सहिताया चिकित्सास्थाने नेत्रप्रसादनकर्मविधिरध्याय समाप्तोयमुत्तर खडा Closing . Colophon : १३५७ वैद्यभूषण Opening । सिव सुत पद प्रणमित सदा रिद्ध सिद्ध नित देइ । कुमति पिनासन मुमतकर मगन नुक्त करेइ ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon: वैद्य पथ प्रमाग सब ढूढ लिया तस लोक । छह से सही सब जरा का आधार ।। इति श्री केशवदासपुत्रेण नयनसुखेन विरचिते वैद्यमहोत्मवे स्त्री पुरुष रोग चिकित्सा सप्तम समुद्देश समाप्ता। सवत् १७६६ वर्षे मिती आषाढ सुदि १५ मगलवार लिखित पूज्य स्थिविर जी ऋपि श्री गणेश जी तत्शिष्यणी लिखित आर्यापुम्यालो शुभ भवति। १३५८. वैद्यमनोत्सव Opaning । Closing i प्रणम्म नित्य शिबसूनुमृद्धिद सिद्धि ददातिवितथानि धिय । कुबुद्धिनाश सुमतिं करोति मुद तथा मगलमेव कुर्य्यात् ।।१।। चतुभिराटक द्रोण कलसोप्यल्वणोमतः । उन्मनश्च घटोराशि द्रोणपर्यायवाचक ॥६॥ इति परिभाषा। इति श्री वैद्यमनोत्सव मन्मिश्रविरचित वैद्यमनोत्सव सपूर्णम् । सवत् १६७६ मिति पौष कृष्ण सप्तम्या गुरुवासरे नारनौलमध्ये कायस्थपुरे लिखितमिद पुस्तक नित्यानद ब्राह्मणेन लिखायत पडित श्री चेतनदास जी। श्रीरस्तु । Colophon ! १३५६ योगचितामणि Opening : Closing : यत्र विकासमायाति तेजासि च तमासि च । महीयस्तदय वदे चितानदभयमहम् ।। यथा योगप्रदीपोस्ति पूर्व योगशत यथा । तथैवाय विजयता योगचिन्तामणिश्चिरम् ।। इति श्रीमन्नागपूरीयतपोगणनायक श्रीहर्पीतिसूरि सकलिते वैद्यकसारो श्रीयोगचितामणी मार मग्रहे मिश्रिकाध्याया मानमा Colophon: Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ Hindi Manuscrripts Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & (Stotra) समाप्ता। इति श्री योगचितामणि शास्त्र समाप्ता। सूत्रार्थ मिलिनेन ग्रथमान ६५०० सवत् रामगणोदधितू प्रमिते सवत् १७६४ वर्षे मार्गशीर्षमासे कृष्णपक्षे तिथी एकादश्या सोमवारे लिखितम् । पूज्य श्री ऋशि स्थिवीर जी श्रीगणेश जी पूज्य आर्या जी श्री राजो जी लिखितम् । देखे, जै० सि० भ० प्र० I, ऋ० ५९६ । १३६० यूनानी चिक्त्सिा Opennig Cosing • विधन विघ्न) विनासन देवकू', प्रथम करु परनाम ॥१॥ हरताल ३ अरद ८ दिरम मुर्ष ८ दिरम, करूरुवाई ८ दिरम माजू २० दिरम, जगार ४ दिरम, कुट ३ दिरम, फटकडी ४ दिरम, अकाकिया २।। दिरम, गुलनार ३ दिरम कूट छान के बीच सिरके के गलावै २ हप्ते वीच धूप के रखे बाद कर्श करें। नही है। Colophon . १३६१. आचार्य-भक्ति Opening Closing : सिद्धगुणस्तुतिनिरता उद्भू तरूपाग्निजालबहुलविशेषान् । गुप्तिभिरभिसपूर्णान् मुक्तियुत सत्यवचनलक्षितभावान् ।। इच्छामि भते आयरिय भक्तिकाउस्सग्गोकर तस्सालोचेउ सम्मणाण सम्मदमणसम्मचरित्त जुताण, पचविहाचाण्ण आयरियाण आयाराटिसुदणाणो वदेसियाण उवझायाण तिरयणगुण पालणरयाण सव्वसाहूण णिच्चकाल अच्चेमि, पूज्जेमि वदामि । सुगइगमण समाहिम ण जिणगुणसम्पनि होउ मज्झ ।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon। इति आचार्य भक्ति। देखे, जि० र० को०, पृ. २५ । ०सि० भ० ग्र० 1, क्र० ६०१ । १३६२. आदिनाथ स्तुति Opering • जाके चरनारविंद पूजत सुरिंद इन्द्र देवन के वृदचद ___ सोभाअतिभारी हैं। कहत विनोदीलाल मन वच तिहू काल ऐसे नाभिनदन को दमा हमारी है ॥१॥ तुम तो जिनददेव जगते ........ .. ....... ... त्रिभुवननाथ गति मेरि यो बनाई है। इति श्री आदिनाथ स्तुति समाप्तम् । Closing • Colophon • १३६३ आदिनाथ आरती Opening . Closing : आदिनाथ तुम जगताधार, भवसागर उतारन पार । मै तुम चग्न क्मल को दाम, आदि नाथ मेरी पूरी आस ।।१।। तुम अनत गुन है प्रभु कम पाऊ पार । थोडी कर मानौ धरी भैगे है वखान ॥७॥ इति श्री आदिजिन आरती समाप्तम् । Colophon : १३६४ आदिनाथस्तोत्र Opening . Closing : आदिनाथ जगनाथ पार्श्व वदे गुणाकरम् ॥१॥ तद्गृहे कोटिकल्याणश्रीविलसति लालया। क्षुद्रोपद्रवमतादि नश्पते व्याधिवेदना ॥७॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११७ Catalogue ot Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Colophon: इति श्री आदिनाथ स्तोत्र सपूर्णम् । देखे, जै० मि० भ० प्र० I, ऋ० ६४६ । १३६५. आदित्यनाथ-आरती Opening i CL),10g : आदि जिनेश्वर महि परमेश्वर त्रिभुवनपति जिन आदिभयो । नाभिराम मरूदेवी नदन नगर अयोध्या जनम लीयौ ॥ जो जिनवर ध्या भावना भाव मन वच काया भाव धरे । पाप निकदने भवय भजन मुक्तिवराग गा मो वरए ॥२२॥ इति श्री आदिनाथ जी की आरती समाप्तम् । Colophon १३६६. अम्विकादेवीस्तोत्र Opening . Closing *ह्री जय जय परमेश्वरी अविके अभ्र हस्तेमहामिहयानस्थिते सर्वलक्षणलक्षितागे जिनेन्द्रस्य भक्ते कले निस्कने निर्मले नि प्रपचे। अवेदतावलबत्ता माद्दशा भवतीत्यश श्रीधर्मकल्पलतिके प्रसिद्धवरदेविके ।।४।। इति अविकादेवी स्तोत्र सम्पूर्णम् शुभमस्तु पौषमासे शुक्लपक्षे तिथौ ४ श्री सवत् १६५ । Colophon : १३६७. अंकगर्भषडारचक्र Opening! सिद्धप्रिय प्रतिदिन प्रतिभासमान , जन्मप्रवधमथनं.प्रतिभासमान । श्रीनाभिराजतनुभूपदवीक्षणेन, प्रापेज सिनुपदवीक्षणेन ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon। तुष्टि देशनया जनस्य मनसे ...... सतामीशिता ॥ इति श्रीदेवनद्याचार्य कृत चौवीस महाराज ..... काव्य महास्तोत्र सपूर्णम् । देखे, जि. २० को०, पृ० १। जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ६०२ । १३६८• आरती Opening ! जै जै जै श्री आदिजिनेश्वर जुगला धरम निवारण जू। नाभिराय मरुदेवी नन्दन ससार सागर तारण जू । ज ० ॥१॥ जे पढे पढावं मन सुद्ध ध्यावं इह आरत सू सफल भया ।।१२।। इति श्री निर्मल कृत आरती समाप्तम् ।। Closing | Colophons १३६६. आरती Opening Closing : अष्टदरबकरसब एकठा जीमना आक्डी मनाहो । जिन जी के चरण चढाइ श्री जिन पूजी जी भाव सौ ॥१॥ इयणर देवे णिय सूयसत्तिय जिणचउवीस विथा भत्तिया ए जिणवर जो अणुदिणुनापइ सो समारिनपछइ आवद्द ॥१॥ इति आरती सपूर्णम् । Colophoni १३७०. आरती Orening : आरती श्री जिनराज तुम्हारी करम दलन सतन हितकारी ॥ आर० ॥ सुर नर असुर करत तुम सेवा तुम हो सव देवनि के देवा ॥ ॥१॥ आर० ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ Catalogu: of Sanskrit, Prak, 11, Apabhrama & Hund. Manuscripts (Stotra ) Closing : छवी इग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक वदित आणदकारी । इ० । सातमी आरती श्री जिनवाणी द्यानत स्वर्ग सुगति सुखदाणी ॥४॥ इ० ॥ इति आरती सपूर्णम् । Colɔphon १३७१. आरती Opening ! आरती श्री जिनवीर की सुनि पीय श्रेणिकराई । जनम जनम सुख पाइये दुरित सकल मिटि जाई ।।१।। जिन आरती कीजै । गति सहित निकलक ।। इति आरती समाप्तम् । Closing Colophon! १३७२. आरती संग्रह Closing : आरती कीज स्वामी नेम जिनद की। सब सुखदायक आनद कद की । टेक ॥ जय-जय आरती शान तुम्हारी । तोरे चरन कमल की मै जाव बलिहारी ॥ इति आरती श्री शान्तिनाथ की सम्पूर्णम् । Colophon; १३७३. अष्टक Opening : पद्मतीर्य निम्नगादि दिव्यमोदजीवन. कु कुमादि गधसार चंदनादिमिश्रित । कामधेनुकल्पवृक्षचित्यरत्नयंत्रकम् स्वर्गमोद सान् तं रणज ।।१। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jam Sidhhant Bhavan, Arrah. Closing : Colophon Opening : Closing : Colophon , Opening Closing : Colophon : Opening इत्थ श्रीजिनराजमार्गविदित अनुपलब्ध । १३७४. भजन .. B वासर प्रत्यहम् । सुर तरनी परिदोहि सउरे लाघउ नरभवसा । आलइ जनम महारजो काई करजोरे मनमाहि विचार कि ||१|| आरम छाडी आतम रे, पीय सजम रस पूरि । सिद्ध बधू सउजिम रमउ इमोल रे श्री विजई देवसूर वि ॥ ॥ चेतो रे चित प्राणी |१५|| इति सज्ञाय समाप्ता । बड़े न हुज गुन बिना, विरद वडाई पाई कहत धतूरं सू कनक, गहनौ गढ्यो न जाई ॥१॥ कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाई इति पाइये बोराइ जगु उहि खाइ वोराई ||२॥ १३७५. भजनावली अवश्यावश्यानी त्रिजगजननी शान्तिरूपे, तुही आधारा रासुजस तव जगमे अनूपे नहि पारावारा गुन सुजस अरू च स्वरूपे । तुही कर्त्ता धर्त्ता नृपहि पहर काहि भूपे ||१|| पनकारनि सुखहारनि दुखदुर्गति ग्रहवरने वरना ॥ ज की माय अजितहू कि तुहि काहि उपजन वरना ||७३३ || इति सम्पूर्णम् । १३७६. भजनावली ध्यान मे जिनके सभी आराम होना चाहिए | हवस सब अब की दफा सव काम होना चाहिए ||१|| Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing ! मनमानता वरदान की दातार तु ही है । तजिरी सदैव कसीस अजित को नूर ये ही है ॥ नहीं है। Colophoni १३७७. भजनावली Opening Closing , जै जै जै जिन चद वद दुख दहने वारा, भीर भयकर हार सार सुख सपति सारा । दीनानाथ अनाथ नाथ सव जिय हितकारी. अस रन सरन सहाय होत जन सुनन पुकारी ॥१॥ भुजचारि उदार भडार अपार । सभी सुषमार समस्त भरो वो। दरसे परसे पद पक जई। सुखधाम सुदाम ललाम सहो वो ॥ नही है। Colophon : १३७८ भजनावली Opening । Closing : करो जी मेहर जिनराज .. । अज्ञानवत अनत चेतन शुद्ध अप्पा जोवही । असरान परी क्या कहू जी... ॥ नही है। Coiophon: १३७६ भजन Opening | छल सुज सम हि भाव ही कीरत को नहि अत । भारी भारी भीर हरी जहाँ जहाँ सुमिरन्त । जिनराजदेव कीजिये मुझ दीन पं करूना । भवि वृद को अब दीजिये यह शील का शरना । Closing . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Tain Oriental Library, Jain Sıddbant Bhavan, Arrah Colophon विशेष इति श्री शीलमहातम जी भापा वृन्दावन कृत सम्पूर्ण । इसमे भजन के अलावा सील महातम' वृदावन कृत भी सकलित है । १३८० भक्तामरस्तोत्र Opening Closing : भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रमाणामुद्योतक दलितपापतमोवितानम् । मम्यक्प्रणम्य जिनपादयुगयुगादाव लवन भवजले पतिता जनानाम् ॥१॥ रतोत्रश्रज तत्र जिनेन्द्रगुण निबद्धा, भक्त्या मया रूचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कठगतामजस्त्रम् । त मानतु ग मवमा समुपैतिलक्ष्मी ॥४८॥ इति श्री भक्तामरस्तोत्र सम्पूर्णम् । देखे, जे० सि० भ० ग्र० I, ० ६०७ । Colophon ! १३८१ भक्तामरस्तोत्र Opening ! Closing । Colophon : देखे, ऋ० १३८० । देखें, ऋ० १३८० । इति भक्तामर सम्पूर्णम् । १३८२. भक्तामरस्तोत्र । Orening . Closing Colophon : देखे. ऋ० १३८० । देखे, ऋ० १३८० ।। इति श्रीमानतु गाचार्य विरचित भक्तामरस्तवन समाप्तम् । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhra 2,1 & dindi Manscripts Stotra ) १३८३ भक्तामरस्तोत्र Opening : Closing . Colophon देखे, ऋ० १३८० । देखे ऋ० १३८० । इति श्री मानतु गाचार्य विरचिा भक्तामरस्तोत्रमनाप्तम् । १३८४. भक्तामरस्तोत्र Opening : Closing Colophon देखे, ऋ० १३८० । देखे, ऋ० १३८० । इति भनामरस्तोत्र सम्पूर्णम् । १३८५. भक्तागरस्तोत्र Opening . Closing • Colophon: देखे, ऋ० १३८० । देखे, ऋ० १३८० । इति भक्तामरस्तोत्रम् । १३८६ भक्तामरस्तोत्र Opening : Closing Colophon देखे, ऋ० १३८० । देखे, ऋ० १३८ । इति भक्तामरस्तोत्रम् सपूर्णम् । १३८७ भक्तामरस्तोत्र Opening ! Closing : Colophon| देखे, क्र. १३८० । देखे-ऋ० १३८० । इति श्री भक्तामर सस्कृत जी समाप्तम् । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १३८५. भक्तामरस्तोत्र Opening | देखे, ३० १३८० । Closing : ___ भक्तामर टीका सदा पढे सुने जो कोई । हेमराज मित्र सुख लहै तस मनवाछित होई ॥१॥ Colophon : इति श्री भक्तामरस्तोत्रस्य टीका पडित श्री रगविमल लिपि कृता सम्पूर्णम् । भादौ सुदि ७ शनिवासरे । सवत् १८४६ । १३८६. भवतामरस्तोत्र Opening : Closing Colophon देखे, २० १३८० । देखे, ऋ० १३८० । इति श्री भक्तामर सस्कृत जी समाप्तम् । १३६० भक्तामरस्तोत्र Cpening । Closing ! Colophon . देखे, २० १३०० । देखे, ऋ० १३८० । इति श्री मानतु गाचार्य विरचिते भक्तामर स्तोत्रसपूर्णम् । १३६१ भक्तामरस्तोत्र Opening : Closing : देखे, ऋ० १३८० । अस्मिन् लोके य पुरुष तो माला कठगता अजस्र निरतरं धत्ते धारयति त पुरुषं,मानतु ग इव सा लक्ष्मी समुपैति या लक्ष्मी मानतु गेन प्राप्ता सा लभते। इति श्री भक्तामरस्तोत्रस्य पडित शिवचन्द्ररचित वालाववोध टीका समाप्ता। मिति फाल्गुन-शुक्लादारभ्य चत्रकृष्ण द्वितीयाया पडित शिवचद्रेण कृता इय सपूर्णम् । Cloophun Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ Catalogue ot Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra) १३६२. भक्तामरस्तोत्र Opening Closing ! Colophon: , १० १३८० । देखें, क. १३८ । ति श्री भक्तामरम्तयन गमाप्तम् । १९६३. भवतामरस्तोत्र D.ening : Closing . Colophon! दे. क० १६८० । देने क० १३८० । नि श्री भक्तामरम्सोत्र सस्त श्रीमानतु गाचार्य कृत सम्पूर्णम् । १३६४ भक्तामरस्तोत्र Opening ! Closing : Colophon: देखें पा० १३९५ । देखें, क. १३६५ । इति श्री भाषा भक्तामर जी ममाप्तम् । १३६५. भवतामरस्तोत्र Opening Closing : आदि पुरुष आदीम जिन, आदि सुविधि फरतार घरमधुरघर परम गुरु नमो आदि अवतार ॥१॥ भाषा भक्तामर कियो हेमराज हित हेत ने नर पढे सुभाव सौ ते पावं शिव खेत ॥४६॥ इति श्री भक्तामर स्तोत्रभाषा बघ सपूर्णम् । Colophon: १३६६. भक्तामरस्तोत्र Opening . देखें, क. १३६५ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Sidhhant Bhavan, Airah Closing Colophon : Opening Closing Colophon : Opening : Closing Colophon • देखे, क्र० १३९५ | इति श्री भक्तामर जी स्तोत्र सपूर्णम् । १३ε७. भक्तामरस्तोत्र Opening Closing Colophon : देखे, क्र० १३६५ | देखे, ऋ० १३९५ । इति भाषा भक्तामर जी सम्पूर्णम् । १३६८० भक्तामरस्तोत्र देखे, क्र० १३९५ । देखे, क्र० १३९५ | इति श्री भक्तामर की भाषा समाप्ता । Opening : देखे, क्र० १३६५ । देखे, क्र० १३६५ | Closing Colophon. इति भक्तामर स्तोत्र भाषा समात्तम् । १३εε• भक्तामरस्तोत्र १४००. भक्तामर स्तोत्र देखें, क्र० १३९५ | देखे, ऋ० १३९५ | इति श्री भक्तामर जी स्तोत्रभाषा समाप्तम् । वदि १४ सवत् १६३६, बार आदित्यवार । मिति वैशाख शुभम् श्री । ? Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhiansa & Hindi Manuscripts (Stotra) १४०१ 'भक्तामरस्तोत्र Opening • Closing. Colophon देखे, ऋ० १३६५ । देखे, ऋ० १३६५। इति श्री भाषा भक्तामरस्नोत्र समाप्तम् । १४०२ भक्तामर वचनिका Opening: देव जिनेश्वर वदिकरि वाणी गुर उर लाय ।। स्नोतर भन्नामरतणी करु वचनिका भाय ।। मानुत ग वरसूारने रच्यो भवित उर धारि ।। श्री जिनेन्द्र अनुभावत वधन धरै उतारि ॥ Closing सवत्सर शत अष्टदश सत्तरि विक्रम राय ।। कातिक वदि वुद्ध द्वादमी पूरण भई सुभाय ।। Colophoni इति श्री मानतु ग आचार्यकृत भक्तामर नाम देशभाषामय वच निका समाप्त ॥ १४०३ भक्तामर वचनिका Opening : Closing Colophon . देखे ऋ० १४०२ । देखे, क्र. १४०२ । इति श्री मानतु गाचार्यकृत भवतामरनाम देशमाषामय वचनिका समाप्तम् । १४०४. भक्तामरस्तोत्र विशेष--यह पूर्णत जीर्ण-शीर्ण है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakunar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah १४०५. भक्तामर-टीका Opening | Closing जो देवनमृमुगुटि सुभरत्नकाति तीर्तीवकास करि ते जिनपाद दीप्ति। जो पाप रूप तम घोर समूल छेदी नेदी वुडी भव जली जनहो सुगादि ॥१॥ माड्या मनात भरला मुनि शक्र मुति तो स्तोत्र पाठवदला गुरु पुन्यकीर्ति। मीवोलहा चिनमिले जिनसागराला करी क्षमानिवितो बुध पडिला ॥५०॥ इति श्री देवेन्द्रकीति प्रिय शिष्य जिनसागर कृत भक्तामर स्तोत्र महाराष्ट्रभाषा सपूर्णम् । Colophon : १४०६ भक्तामरस्तोत्र Opening : Closing | Colophon: धरामू निकल ता मदिर जाणो । जदि रसता माहि उच्चार करणो । देखे, ऋ० १३८० । इति श्री मानतु ग नामा आचार्य विरचित आदिनाथ देवाघिदेव भक्तामरस्तोत्र सपूर्णम् । Opening • Closing : Colophon विशेष १४०७ भक्तिसग्रह सिद्धान् उद्भ तकर्मप्रकृतिसमुदयान भावोपलब्धि.॥ सुगइ गमण ममाहिमरण जिणगुणसपत्ति होऊ मज्झ । इति सप्तभक्तय समाप्ताः। इसमे सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, आचार्यभवित, निर्वाणभक्ति, योगभक्ति, नदीश्वर भक्तिण सकलित हैं। देखें, ज. सि० भ० ग्र. I ० ६४० । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhramia & Hindi Manuscripts (Stotra) १४०८. भैरवाष्टक Opening : Closing : अतितीक्ष्णमहाकाय कल्पातपवनोपम् । भैरवाय नमस्तुभ्य मानभद्रतमोहर । अपुत्रो लभते पुत्र बद्धो मु चति वधनात् । राज्यचोरभय नैव भैरवाष्टककीर्तनात् ।।११।। इति श्री भैरवाप्टकस्तोत्र भपूर्णम् । देखे-जै०सि० भ० न०, I, ऋ० ६३५ । Colophon • १४०६ भैरवाष्टक Opening . Closing . देखें, ऋ० १४०८ । चाहै तो १ लाख जाप करै दिन ३ उपवाम के पारने चूर, मावा, हलवा, लाल वस्त्र, लाल माला, कनेर का फूल फरणा तेज प्रताप आपि करे। इति भैरवाष्टकम् । Colophon: १४१०. भैरवस्तोत्र Opening : य य य यक्षरूप दसदिसचरित भूमिक पायमानम्, स स स स हारमूतिशिरमुकुटजटाशेषर चद्रविम्बम् । ६ द ६ दीर्घकाय विकृतनखमुख उध्र्वरोम करालम्, पपप पापनाश प्रणमतशतत भैरव क्षेत्रपालम ।। भैरवाष्टकमिद पुण्य छ मास पठते नर । स याति परमस्थान यत्र देवो महेश्वर ।। इति क्षेत्रपाल स्तोत्र सपूर्णम् । Closing : Colophon: Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrał १४११. भूपाल-चतुर्विशति-स्तोत्र Opening : Closing : Colophon; श्रीलीलायतन महीकुलगृह ........ जिनाघ्रिद्वयम् ।। हे देव अद्य मया गम्यते । पुन पुन बार बार दर्शन भूयात् । इति श्री पडित शिवचद्रनिर्मापित भूपालचतुर्विंशतिकाया, वालाववोध टीका सपूर्णम् । मिति फाल्गुन शुक्लादारभ्य चैत्र कृष्ण द्वितीयाया पडित शिवचद्रेण कृता इय पचस्तोत्र टीका सम्पूर्णम् समाप्तम् । श्री । मिति चैत्र प्ण सप्तम्या सोम वासरे सवत्सर १९२७ का सम्पूर्णम् लिखित पडित परमानदेन पठनार्थम् । सि० भ० न I, क्र. ६४२ । १४१२ भूपाल-चौबीसी Opening । Closing । Colophon: देखे, ऋ० १४११ । दृष्टस्त्व जिनराज . ... .. भूयात्पुनदर्शनम् ।। इति श्री भूपालचौबीसी समाप्तम् । १४१३. भूपाल-चौबीसी Opening : Closing : Colophoni देखे, क्र० १४११ । देखे, ऋ० १४१२ । अनुपलब्ध। १४१४. भूपाल-चौबीसी Opening | Closing । देखे, ऋ० १४११ । देखें, क्र. १४१२ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) Colophon : Opening : Closing Colophon : Opening Closing Colophon : Opening : Closing! Colophon : Opening Clos ng इति भूपाल चतुर्विंशतिका । १४१५. भूपालस्तोत्र देखे, ऋ० १४११ । उपसम इव मूर्तिललित इति श्री भूपालस्तोत्र समाप्त' । १४१६ भूपाल-चौबीसी - स्तोत्र देखें, ऋ० १४११ । देखे, क्र० १४१२ | इति श्री भूपालचौवीसी सम्पूर्णम् । १४१७• भूपालस्तोत्र १३१ चरिष्टमोयम्यधि न्वति वाच । २७।। परमातम सम्यक वरन परमभावना सार । श्रीभूपाल वरेस कवि करत सुपर हितकार ॥१॥ यह विधि श्री जिन विमल करि भूपाल थुति नरिंद । जग जीवन जीवन लभ्यो होर अवाध अनिंद ||२७|| इति भूपाल चौवीसी सम्पूर्णम् १४१८ भूपाल - चौबीसी - भाषा देखे, क्र० १४१७ | देखे, ऋ० १४१७ | Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon : इति भूपाल चौबीसी भाषा जी समाप्तम् । १४१६. बीस विरहमान-भारती Opening : Closing Colophon ' आरती कीजै वीस जिनद की, विदेह क्षेत्र थानक सुखकद की। श्रीमदर जुगमदर स्वामी, वाहु सुबाहु प्रभू शिवगामी आरती। अजितनीर्य प्रभु है सिरनामी, भैरो सरन चरन तुम स्वामी ।'आरती इति श्री वीस विरहमान जी की आरती समाप्तम् । १४२०. ब्रह्मलक्षण Opening : ब्रह्मचर्या भवेमूल सर्वेषा ब्रह्मचारिणाम् । ब्रह्मचर्यस्य भोगन व्रत सवनिरर्थकम् ।। दृष्टिपूत ' - ' नवम ब्रह्मलक्षणम् ।। नही है। Closing . Colophon . Opening । Closing । Co'ophon: १४२१. चैत्यालग-स्तोत्र इप्ट जिनेद्रभवन भवतापहारी ..." प्रकरराजविराजमानम् ॥१॥ द्रष्टमपाद्य मणिकाचनचित्रतुग सकलचन्द्रमुनिंद्रवधम् ॥१०॥ इति चैत्यालय स्तोत्रम् । १४२२. चक्रेश्वरी-स्तोत्र - Opening : श्रीचक्रेचक्रभीमे ललितवरभुजे लीलयाँ दोलयन्ति, चक्र विद्युत्प्रकाश ज्वलिनसतमुख खखगेंद्राद्यरूढे । तत्वैरूद्भतभावे सकलगुणनिधे त्व महामत्रमूर्त क्रोधोदित्यप्रतापे त्रिभुवनमहिमायाति मा देविच ॥१॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing . यं म्नोत्र मत्ररूप पठि-निजमतो भक्तिपूर्व शृणोति, त्रैलोक्य तस्य वस्य भवति बुद्धजने वाक्पटुत्व च दिव्यम् । सौभाग्य स्त्रीषु मध्ये खगपतिगमने गौरितत्वप्रसादात्, डाकिन्यो गुह्यगावाद् इह दधति भय चक्रदेव्यास्तवेन ।।८।। इति चक्रेश्वरी स्तोत्रम् । देखे, रा० सू० IV, ३८४, ३८७ । दि. जि० ग्र० र०, पृ० १२ । Colophon १४२३. चक्रेश्वरी-स्तोत्र Opening : Closing . Colophon । देखे. क्र. १४२२ । देखें, ऋ० १४२२ । ईति चक्रेश्वरी स्त्रोत्र सम्पूर्णम् । १४२४. चन्द्रप्रभ-स्तोत्र Opening : Cising प्रभुभव्यराजीव राजीदिनेश शुभ शकर सुन्दर श्रीनिवेशम् । सुरैर्दानवर्मानवः लिप्तसेव जिन नौमि चद्रप्रभ देवदेवम् ।। चन्द्रप्रभ नौमि यदगकान्ति जोत्स्नेति मत्वा द्रवेतेदुकातान् चकोरयुथप्पवति ? स्फुटति कुष्टोपि पक्षे किलकैरवनानि । इति श्री चद्रप्रभुस्वामी स्तोत्रम् सम्पूर्णम् । Chlophon' १४२५. चन्द्रप्रभ-सतोत्र विशेष यह पूर्णत: जीर्ण- है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening Closing Colophon. Opening 1 C'o ing Colophon १८२६, चारित्र-भक्ति येनेद्रान् भुवनत्रनस्य विलसत्केयूरहारागदान्, भास्वन्मौलिमणिप्रभाप्रविस रोत्तु गोत्तमागान्नतान् । स्वैषा पादपयोरूहेषु मुनयश्चक्रु प्रकाम सदा, वदे पचतपतमद्यनिगदन्न चाश्मयचितम् ।। १ ।। इछामि भते चरितभत्तिकाउस्सग्गो काउ तस्सा लाचेउ जिणगुणसपत्ति होउ मज्झ ॥ - इति आचोना चरित्र भक्ति । देखे, जै० सि० भ० न० 1, ऋ० ६५१ । १४२७. चतुर्विंशति- सनोत्र आदौ नेमिजिन नौमि सभव सुविधि तथा । धर्मनाथ महादेव शांति शांतिकर सदा ||१॥ सकलगुणनिधान यत्रमेत विशुद्ध, हृदयकमनकोपे धीमता ध्येयरूपम् । जगति विदिततत्वीय स्मरेत् शुद्धचित्तौ, भवति सुखनिधान मोक्षलक्ष्मीनिवासम् ॥ इति चतुर्विंशति-स्तोत्रम् | १४२८. चतुर्विशति स्तोत्र Opening : देखें, क्र० १४२७ | Closing: देखें, क्र० १४२७ ॥ Colophon : इति चतुर्विशतिस्तोत्रम् । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransa & Hindi Manuscripts (Stotra) Opening Closing . Colophon • १४२६ चतुर्विशतिसतोत्र देखे, '२० १४२७ । देखें, क० १८२७ । इति चतुर्विगति स्तोत्रम् । १४३०. चतुर्विशति-जिन-सतोत्र Opening | Closing आदिनाथ जगताय अरनाथ नयानमि । अजित जितमोहारि पावं वद गुणाग रम् ॥१॥ भवभिसुखमनेक तम्य यो मानवश्च विमलमतिमनिय स्तोत्रमेतद्वितद्र. । पठति परमभरत्या प्रातमत्याय शश्वत, मुनिरमिकृतभक्तिर्मेघराजो वभाण ॥८॥ इति श्री चतुर्विशति जिनान स्तोत्र समाप्तम् । Colophon १४३१. चौवीस-तीर्थ कर-पद Opening Closing | अब मोहि तारी दीनदयाल सब ही मत देखें। मै जित तित तुमही नाम रसाल ||१॥ अव ।। पाठक श्री मिद्धिवर धन सदगुरु विलास, पाठक तिहि विध मा श्री जिनराज मल्हाए । ५। इहि ॥ इति श्री चौवीस तीर्थकराणा पदानि मपूर्णम् । Colophon . १४३२. चिन्तामणिरातोत्र Opening : किं कर्पूरमय सुधारममय किं चद्ररं चिर्मयम्, Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing किं लावण्यमय महामणिमय कारूण्यके लिमयम् । विश्वानदमय महोदयमय शोभामय चिन्मयम्, शुक्लाध्यानमय वपुजिनपते भूयाद्भवालवनम् ।।१।। इति जिनपति पार्श्वपाख्यि यक्षम् । प्रदलित-दुरीतोष-प्रीणीत प्राणसध्यम् । त्रिभुवनजिनवाध्य दानचिन्तामणीस, शिवपदतरुबीज व्याधिवीज ददातुम् ॥१२॥ इति चिंतामणि स्तोत्रम् । Colophon! १४३३. चिन्तामणि-पार्श्वनाथ-स्तोत्र Opening Closing, नरेन्द्र फणेन्द्र सुरेन्द्र अधीश सतेन्द्र सुपूज्य नमो नायसीस मुनिन्द्र गणेन्द्र नमो जोरिहाथ नमो देवि चिंतामणि पार्व नाथम् ॥ गणधर इन्द्र न करि सके तुम विनती भगवान ।। द्यानत प्रीति निहारके कीजे आप समान ॥ इति सम्पूर्णम् । Colophon : १४३४. चितामणिपार्श्वनाथ-स्तोत्र Opening । Closing i देखे, ऋ० १४३२ । मदनमदहर श्री वीरसेनस्य शिष्य. सुभगवचनपूरै राजसेनप्रणुते । जपति पठति नित्य पार्श्वनाथाष्टक य , स भवति शिवभूम्यां मुक्तिसीमतिनीश ॥ इति श्री पार्श्वनाथाष्टक समाप्तम् । Colophon : Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabbramsa & H131 Manuscripts (Stotra) १४३५. चौबीस-जिन-आरती Opening | Closing । रिपम आदि चौगीम जिन लक्षन लेह विचार । जो कछु सुने सु कहत हूँ, भव्य जन लेहु मुधार । लक्षन जिनवर के कहे भव्यजन लेहु सुधार । भूला चूका फिर घरौ भंग कहै विचार ।। इति श्री चौवीस जिन लक्षन आरती । Clolophon: १४३६. चौवीस-जिन-आरती Opening Closing अतिपरमपवित्र जनितमुचित्र वरविचित्रमगनकरणम् । प्रणमामि जिनेन्द्र प्रणतशतेन्द्र भवममुद्रतारणतरणम् ॥१॥ परमजितेखरा मुवि परमेश्वरा कालत्रयकरयाणकरा । मघप्रभवत चरणभजत विस्तरन्तु मगलमधिरा ।। इति चौवीन जिन चिह्न आरती समाप्तम् । Colophon : १४३७. चौवीस-दडक-विनती Opening । Closing • वदो वीर सुधीर को महावीर गभीर । वर्द्धमान सनमत नमो, महादेव अतिधीर ॥१॥ अताकरन जो सुद्ध होय जिन घरमी अभिराम । भाषा कारन करन को, भाषो दौलतराम ॥५६॥ इति श्री चौबीस दडक विनती सपूर्णम् । Colophon , १४३८. दर्शन-ज्ञान-चारित्र-आरती Opening : सम्यक दरसन ग्यान व्रत, इन बिन मुकत ना होय । सधपग मरु मातमी जुड़े जल दरलेग्य ।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jaio S ddhant Bhavan, Arrah Closing : इय अग्घु विधारवि भवभय हारवि, करि विचित्त सुयसस्स मणु । भवि भवियण धण्णउ सुह सपण्णउ लहइ सग्गु मोक्खविसयलु ।। इति रत्नत्रयपूजा क्षिमावाणी समाप्तम् । Colop'on १४३६ दर्शन-स्तुति Opening : Closing : देखे, ऋ० ११९३ । देखे, ऋ० ११६३ । शुद्ध भाव ताके मन भयौ सम्यक दृष्टी मुकति हि गयौं । इति दर्शन स्तुतिसमाप्तम् Colophon: १४४० दर्शनाष्टक Opaning ! आद्याभवत्मफनता नयनद्वयस्य, देव त्वदीय चरणात्रुजबीमणेन । अद्यस्त्रिलोकतिलक प्रतिभासनो मे, ससारवारिधिरिय चुलक. प्रमाणम् ॥ अद्याष्टक पठेद्यस्तु गुणनिदितमाधवः । तस्य सर्वार्थससिद्धि जिने ॥११॥ इति दर्शनाष्टकम् । Closing : Colophon: १४४१ देवस्तवन Opening : श्रीमद्देवपतिप्रसन्नमुकुट-प्रद्योतरत्नप्रभा, या सा पातु सदा प्रसन्नवदना पद्मावतीभारती। ममारागमदोषविस्तरगतः सेवासमीपस्थित ॥१॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Aprbhrainsa & Hindi Manuscripts (Stotrn) Closing । इन्द्रमपि भगवति न गुप्पान काल सनम् । स्तोत्र काठ कागेति पश्य दिन्यथीन्स माधयति ॥३६॥ नि देवन्नवनम् । मि० भ० ग्र. I . ६५७ । Colophon. १४४२ एकीभाव-स्तोत्र Opening . Closing : मार गन स गया यन्यय कर्म बधो, धोर हुनयन्वतोदुनियार फगेति । मन्याप्यस्य स्वयि जिनग्ये मनिमगुरतचेत्, जेनु गायोति न तया कोपरन्तापहे ॥ वादिगणमनुनान्दिकनोय, वादिगजमनु यिहि । पादिराजमनु पान्यातस्तै, वादिगजमान्यमहाय ॥२६॥ पति श्री वादिगन विरचिो श्री एसोनावनोगमाप्त । देखें, जै० सि० म० ग्र० I, ऋ० १५८ । Colophone १४४३ एकीभाव-स्तोत्र Opening : Closing । Colophons देखें, क० १४८२ । देखें क० १४४२ । इति श्री एकीभावस्तोत्र सपूर्णम् । १४४४ एकीभाव-स्तोत्र Opening . Closing : Colophon : देखें, क्र० १४४२ । देखें, ऋ० १४४२ । इति एकीभाषस्तोत्रम् । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Duvikini 1u Orientul Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १४४५. एकीभाव-स्तोत्र Opening : Closing : Co'ophon. देखे, क्र० १४४२ । देखे, ऋ० १४४२ । इति श्री वादिराजमुनि विरचिते एती मावस्तोत्र सम्पूर्णम् । १४४६. एकीभाव-स्तोत्र Opening : Closing : Colophon • देखे, ऋ० १४४२ । देखे, ऋ० १४४२ । इति एकीभावस्तोत्र समाप्तम् । १४४७. एकीभाव-स्तोत्र Cpening : Closing : Colophon | देखें, ऋ० १४४२ । देखे, क्र. १४८२ । इति श्री एकीभाव स्तोत्र समाप्तम् । १४४८. एकीभाव-स्तोत्र Opening Closing ! देखें, ऋ० १४४२ । धूपसुगध कृष्णागस्चदनोघौ । कृत सुगध कृतसारमनोहरानी ।। तीर्थकरा ॥ अनुपलब्ध। एकीभाव के पहले भूमाल चतुविशति करीव १०-११ पत्र में हैं। Colophon: विशेष १४४६. एकीभाव-स्तोत्र देखे २० १४४२ । Opening ! Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ Citaingus of Sanskrit, Prakril, 4015rranir & lindi Manscripts ( Stotra) दे Closing : Colophon . ० १४४२ । इनि पादिराजमुनिकृत एगी मावस्तोत्र ममाप्तम् । ११५०. एकीभाव स्तोत्र Opining : 0, "i० १४४२ । Clo.ing । विनाम अक्षमालापस्य र तीन नोन्यता मानानेन पालोपका सय चल मया रपिता न तु भानगी । Colophonsनि गोभाय टीका मपूर्णम् । १४५१. एकीभाव-तोत्र Opening ! Closing : वादिराज मुनिगज को पढतो सुहिन उद्गार । स्वपम्प अनुभौ कथा, कहत सुपर हितकार । वादिराज मुनिराज अनुशान्दिक ताकि नोक । पाव्यकार महफार जग जीवन होर सुधोक ।। इति श्री एकीभाव भाषा जी समाप्तम् । Colophon : १४५२. एकीभाव-स्तोत्र Opening : Closing : Colophon देखें. ऋ० १४५१ । देखें, *. १४५१ । इति श्री एकीभाव संपूर्णम् । श्री। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrah. १४५३. गणधर स्तुति Opening : Closing : इति प्रमाणभूतेय वक्तृ श्रोत परपरा महाधियम् । स्वश्श्रुवद्भिरोवेन मुनिवृ दारकै रत्नदा । प्रसादितो गणेद्रोभूतिग्राह्या हि योगिन । सम्पूर्णम् । Colophon | १४५४. गौतमस्वामी-स्तोत्र Opening • Closing । ॐ नमस्त्रिजगन्नेनु वीरस्याग्रज मूनवे । समग्रलब्धिमाणिक्य रोहणायेद्रभूतये ।।१।। इति श्री गौतमस्तोत्र तेस्मरतोन्वहम् । श्री जिनप्रभसूरिस्त्व भवसर्वार्थसिद्धये ॥८॥ इति श्री गौतमस्वामिस्तोत्र सम्पूर्णम् । Colophon: १४५५. घंटाकर्ण-स्तोत्र Opening : Closing · Colophon. देखें, ऋ० १२९६ । देखे ऋ० १२९६ । इति घटाकर्ण स्तोत्रम् । सदर्भ के लिए भी देखें, ऋ० १२६६ ॥ १४५६. गुरुभक्ति Opening । वदौ दिगंवर गुरु चरन जग तरन तारन जानी । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ Catalogus or Sinskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) जे गरम भारी रोग को है राजवैद्य समान ॥ जिनके अनुग्रह दिन कहुं नही कट फारम जजीर । ते माधु मेरे उर वनों मेगे हरी पातय पीर ॥ Closing . फारचोरी भूधर विनवे गाव मोलेय मुनीराज । आन गन की सब पुरं मेरे मरे-मगले काज ॥ गमार विषम विदेह में विना कारन वीर । ते गधु मेरे मन यगो मे गे गे पानक पीर ।। Colophon प्रति गुर भगती गपूग्न । १४५७. गुरुभक्ति Opening : ते गुरु मेरे उर वर्ग ते गव जलधि जिहाज । भाप तिरं पर ताहि, अमे श्री ऋषिराज । ते गुरु ॥ Closing : Cloophon! देग्ने, फ० १४५६ । इति गुरुस्तुति सपूर्णम् । १४५८. गुरुविनती Opening : देखें, क्र. १४५७ । Closing : वे गुर चरन जहाँ धरै जग में तीरथ होय। ' सो रज मम माथे लगे भूधर मार्ग एह ।।१४॥ Colophon : ' इनि विनती सम्पूर्णम् । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १४५६ गुगावलि Opening । Closing i श्री अरिहत अणत गुण, सेवइ सुरनर इद । पाय कमल जसु प्रणमता, लहीये परमाणद ।।१।। श्रीखेम साख मोभता वा शाति हरष मुणिद, तसु सीस कहे जिन हर्ष मुनि गुरु नाम हो दिन-२ नाणद ॥ इति श्री गुणावली चौपई सम्पूर्णम् । Colophon १४६०. गुणाष्टक Opening . Closing ! Colophon: विशेष गुणाधीश योगी मुनि ... सकल जन के काम शरते ।। सुनो गाम घाते ................. आदि परमा । इति परमानन्द कृत गुणाप्टक सम्पूर्णम् । गुणाप्टक के बाद कुछ फुटकर श्लोक सकलित हैं । १४६१. जैनपदसग्रह Opening | णमो अरिहताण, णमो सिद्धाण, णमो आयरिगण । णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहूण ॥ एसो पच णमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो । मगलाण च सव्वेसिं पढम हवइ मगलम् ॥ ये रे सावलिया तेरा नाम जप छुट जात भव भावरिया। - - जो भवसागर से तरिया । येरे ॥ नही है। Closing : Corophon: १४६२. जिनचैत्य-नमस्कार Opening , मद्भक्त्या देवलोके रत्रिशशिभुवने ध्यतगणां निकाये, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ Catalogue ot Sanskrit, Praktit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing . नक्षत्राणा निवासे ग्रहगणपटले तारकाणा विमाने । पाताले पन्नगेन्द्रस्फुटमणिकिरणे ध्वस्तसादाधकारे, श्रीमतत्तीर्य कराणा प्रतिदिवसमह तत्र चैत्यानि वदे ॥१॥ इन्द्र श्री जैन चैत्य स्तवमिदमनिश ... प्रणमता चित्त मानदकारी ॥ इति श्री जिनचैत्यनमस्कार समाप्त । देखे, दि० जि० न० र०, पृ० १३२ ' Colophon १४६३. जिनदेव स्तुति Opening जिनराजदेव कीजिये मुक्त दीन 4 करूना । भविवृ द को अब दीजिये यह शील का शरना ।। टेक ।। सुचिशील के धारा मे जो स्नान करे है । मन कर्म को सो धोय के सिवनार वरे है ॥ टंक ॥ व्रतराज सो वेताल व्याल काल डरे है, उपसर्ग वर्ग घोर कोट कष्ट टरे है । जिनराज ॥१॥ जस सील का कहने में थका महस वदन है ।। इस सील से भव पाय भगाकर मदन है। यह सील ही भविवृ द को कल्यान प्रदन है दस पैड ही इस पैड से निर्वान सदन है ।।१४।। टेक ।। Closing Colophon : सम्पूर्णम् । १४६४. जिनपजर-स्तोत्र Opening . ॐ ह्री श्री अहं अर्हद्भ्यो नमो नम । ॐ ह्री श्री अहं सिद्ध पोयो नमो नम । ॐ ह्री श्री अर्ह आचार्येभ्यो नमो Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing i नमः। ॐ ह्री श्री अर्ह उपाध्यायेभ्यो नमो नमः। ॐ ह्री श्री अर्ह श्री गौतमम्वामि प्रमुख सर्वसाधुभ्यो नमो नम ॥१॥ श्री रुद्रपलनीय वरेण्य गच्छे देवप्रमाचार्यपदान्जहस । वादीन्द्रचूडामणि रेव जैन जीयादसौ श्रीकमल प्रमाख्य ॥ इति जिनपजर स्तोत्र समाप्तम् । देखें, ज. सि. भ. प. I, क्र० ६७६ । Colophon| १४६५. जिनपंजर-फ्तोत्र Opening • Closing ! Colophon : देखे, क्र. १४६४ । वात सव्वुच्छ य ... मनोव छिनपूर्णाय ॥२४॥ इति जिनपजरस्तोत्र सम्पूर्णम् । पडिन अजयचन्द्र । १४६६. जिनपजर-स्तोत्र Opening : Closing I Colophon देखे, ऋ० १४६४ । अस्पष्ट । इति वपिंजरस्तोत्र समाप्तम् । १४६७ जिनरक्षा-स्तवन Opening : Closing : बीजिन भक्तितो नत्वा त्रैलोक्यालाददायकम् । जनरक्षामह वक्ष्ये देहिना देहरक्षकम् ॥१॥ राकाया? तु विधातव्यामुद्यापनमहोत्सवम् । पूजाविधि समायुक्त कर्तव्य सज्जन न॥२१॥ इति जिनरक्षा स्तवनम् । । Colophon: Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscrridos (Stotra) १४६८. जिनसह त्रिनाम Opening : Closing : Colophon पच परम गुरु को नमो उरधरि परम सु प्रीति । तीरथराज जिनंद जी चौवीसो धरि चित। सिखिरचंद कृत पाठ यह, वन्यो अनुपम रास । जो पढसी मन लायके, पासी सौख्य सुवास ।। इति श्री जिनसहस्रनाम पूजा पाठ भाषा सम्पूर्णम् । शुभमस्तु । मकरमासे शुक्लपक्षे तिथी-२ चद्रवासरे " ... । सूवा औधदेश मुल्क हिन्दुस्तान में प्रसिद्ध जिला है नवावगज वाराबकी नाम है। टिकइत नगर सुथाना डाकखाना जानो तासु डिग पूरब सरैयाँ. भलो ग्राम है। वास स्थान लेखक सु भगवान दीन नाम अजल के स्ववम ____ आयो यहि ठाम है। भोज नप देश जिले शाहाबाद आरा नग्न राय जी वुलाकचद मदिर मुकाम है ॥१॥ श्री सहस्रनाम पाठ जी को चढाया श्री चद्रप्रभु स्वामी जी के मदिल मे व्रत उद्यापन का मुसम्मात .." कुअर भार्या चाबू रामा प्रमाद अग्रवाल श्रावक दिगम्वर आन्नाय धारक भारामपुर नग्रनिवासी मिति भादौ सुदी ८ सवत् १९५६ । १४६६. जिनेन्द्रदर्शन सतोत्र Opening : Closing देखे, ऋ० १४४० । जन्मजन्मकृत पाप जन्मकोटिसमजितम् । जन्ममृत्युजरान्तक हन्यते जिनदर्शनात् ।।१४i Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon. Open'ng Closing Colophon : विशेष Opening i Closing Colophon Opening इति जिनदर्शन संस्कृत सम्पूर्णम् । १४७०० जिनदर्शन प्रभु पतितपावन में अपावन चरन आयो शरण जी, यो विद आप निहार स्वामी मेट जामन मग्ण जी । या श्रद्धा मोही उर भई, कीजे तुम पद सेव 1 नवल नवल गुण गाय के जै जै जै जिनदेव ॥ इति श्री नवलकृत जिनस्तुति भाषा सम्पूर्णम् । प्रारम्भिक स्तुति कविवर बुधजन कृत है । १४७१. जिनदर्शन देखें, क्र० १४७० । जाँचो नही सुरवास इति श्री भाषा जिनदर्शन सम्पूर्णम् । १४७२ ज्वालामालिनी-स्तोत्र ॐ नमो भगवते चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाकश खगोक्षीर हारधवल । गोत्राय घार्तिकम् निर्मलोछेदनाय जाति जरामरणविनाश नाय 1 दीजीए शिवनाथ जी ॥ क्षू Closing ज्वालामालिनी ज्ञापयते स्वाहा । Colophoni इति श्री चदप्रभतीर्थ कर की ज्वालामालिनि शासनदेवी सकल दुखहरन मगलकर विजयकर स्तोत्र सपूर्णम् । विशेष- इसके आगे एक मंत्र भी दिया गया है । देखे, जै सि० भ० ग्र० ० ६७६ । १० सू ।। पृ० ३३६ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) १४७३. ज्वालामालिनी-स्तोत्र Opening । Closing : देखे, १० १४७२ । भृगारतागेलवरदपणे चामराणी श्रकचदनादिनवरत्नविभूषितागे दैत्यास्तितापरिजन करकजयुग्मे ॥६॥ अनुपलब्ध। Colophon: १४७४. ज्वालामालिनी-सतोत्र Opening : Closing . देखे, ऋ० १४७२ । . दहदह पच पच लिंद छिंद भिद भिंद ह्रा ही हह' फुट स्वाहा। अनेन मत्रेण होम कुर्यात सहस्र १२००० - अनेन मत्रेण गजेन्द्र नरेन्द्र सर्वशत्रू वशीकरण पूर्वमत्र स्मरणोति इति श्री ज्वालामालिनी स्तोत्रमत्रविधि कल्प सम्पूर्णम् । Colophon: १४७५ ज्वालामालिनी-स्तोत्र Opening : Closing : देखे, ऋ० १.७२ । चद्रहास्य खड्ग न छेदय छेदय, भेदय भेदय डरु डरु छरु छरु स्फुट घ्र द्रा आ को क्षीर् क्षी ज्वालामालिनि ज्ञापयते स्वाहा । इति ज्वालामालिनी स्तोत्र सपूर्णम्। ' Colophon: १४७६. ज्वालामालिनी-स्तोत्र विशेष- पूर्णत जीर्ण-शीर्ण । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jaii Oriental Library, Jain Sidhhant Bhavan, Arrah १४७७. ज्वालामालिनी-स्तोत्र Opening : Closing । देखें, ऋ० १४७२ । ... तस्याभरण पीतवर्ण खङ्गत्रिशुलपाससरामनायुध उत्तमासनेन स्थापित तस्याने जाप्य रक्तपीतउज्वलफलानि मध्यरात्रे - • । अनुपलब्ध । Colophoni १४७८. ज्वालामालिनी Opening i Closing : स्नेहाच्छरण प्रयाति भगवन् पादद्वय ते प्रजा, हेतुस्तत्र विचित्रदु.खनिचय ससारघोरार्णव । छायानुरागं रवि ॥१॥ छेदय छैदय भेदय भेदय डरू डरू छरु छरू हरू हरू स्फुट स्फुट घे घे . . - .. ज्वालामालिन्या ज्ञापयते स्तोत्र । इति ज्वालामालिनी स्तोत्र सम्पूर्णम् । इसमे शान्त्याष्टक भी गमित है । Colophon विशेष १४७६. कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening । Closing . कल्याणमदिरमुदारमवद्यभैदि, भीतामयप्रदमनिदितमडिघ्रपद्मम् । ससारसागरनिमज्जदशेषजन्तु पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ।। जननयनकुमुद्रचद्र प्रभासुरा, स्वर्गसपदो भुक्त्वा । __ ते विगलितमलनिचया अचिरात्मोक्ष प्रपद्यन्ते ।। इति श्री कल्याणमदिर संस्कृत समाप्तम् । देखे जै० मि० भ० ग्र० I, ६५२ ॥ Colophon: Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhram'a & Hind. Minuscripts (Stotra) १४८०. कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening : Closing | Colophon ! देखे. क्र. १४७६ । देखे, ऋ० १४७६ । इति श्री कल्याणमदिर जो सस्कृत समाप्तम् । १४८१. कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening Closing . Colophon देखे ऋ० १४७६ । देखे, ऋ० १४७६ । इति श्री कल्यागमदिर स्तोत्र जी सम्पूर्णम् । श्रीरस्तु । १४८२. कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening • Closing : Colophon : देखे, ऋ० १४७९ । देखे, ऋ० १४७९ । इति श्री कल्याणमदिर सम्पूर्णम् । १४८३. कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening | Closing : Colophon! देखे, ऋ० १४७६ । देखे, ऋ० १४७६ । इति कल्याणमदिर सम्पूर्णम् । १४८४. कल्याणमंदिर स्तोत्र Opening - Closing : देखे, क्र० १४७६ । देखे. ऋ० १४७४ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Col phon : इति श्री कुमुदचद्राचार्यविरचित श्री कल्याणमदिरस्तोत्र समाप्तम् । १४८५. कल्याणमदिर-स्तोत्र (सटीक) Opening : Closing । देखे, ऋ० १४७६ । अस्मिन् श्लोके स्तोत्रकर्ता कुमुदचद्राचार्यस्य नामोऽपि प्रकटो जात । इति कुमुदचद्राचार्यकृत कल्याणमदिरस्य अर्थावत्रोध टीका पडित शिवचद्र निििपता अलमगमत् । Colophon १४८६ कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening : Closing : परमजोति परमातमा परमज्ञान परवीन । वदी परमानन्द मै सो घट-घट अतरलीन ।। यह कल्याणमदिर कियो, कुमुदचद्र की बुद्धि । भाप। कियो वनारसी, कारण समांकत शुद्ध । इति कल्याणमदिर पूरन । देखे, जै० सि० भ० न० I, ऋ० ६६१ । Colophon १४८७. कल्याणमंदिर-स्तोत्र Opening . श्री नवकार जपो मन रग श्री जिनशासन सार री माई। सर्व मगल मै पहिलो मगल जपतां जय जयकार री माई ॥१॥ देखें, ऋ० १४८६ । नि श्री कल्याणमदिर भापा मपूर्णम् । Closing : Colophon : Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hind Manuscripts ( Stotra) १४८८ कल्याणमदिर-स्तोत्र Opening Closing Colo/hon: देखे, त्र० १४८६ । देखे, ऋ० १४८६ । इति श्री कल्याण मदिर स्तोत्र भाषा मपूर्णम् । १४८६. कल्याणमदिर Onening : Closing : Co'ophon देखे, ऋ० १४८६ । देखे, क्र. १४८६ । इति श्री भाषा कल्याणमन्दिर जी ममाप्तम् । १४६० कल्याणमदिर Opening . Closing : Colophon : देखे, क्र० १४.६ । देखें, ऋ० १४८६ । इति श्री कल्याण मदिर को भापा मपूर्नम् । १४६१. क्षेत्रपाल-स्तोत्र Opening : श्रीमत्सर्वज्ञदेवनि जमुकुटतटाभ्यतरे सदधानम्, चचच्चामीकगभ खचितमणिशत भूषण पितागम् । स्फुर्जरकाम्याभिलामप्रदममलतर वेत्रयप्टिदधानम् स्तोप्ये श्री क्षेत्रपाल जिननिलग्गत विघ्नविध्वमदक्षन् । ॐ भा को ही प्रगत्तवर्णसर्वलक्षण पूर्णम्वायुधवाहनबधू चिह्नसपरिवारमहितमो क्षेत्रपाल येहि तिप्ट तिप्ठ 6 मम मनिहिनी भय भव उपद स्याहा, शनिट म्बन्गन गन्ध दाहा। Closing : Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Colophon: सपूर्णम् । १४६२. क्षेत्रपाल-स्तोत्र Opening । Closing देखे, ऋ० १४६१ । इम स्तव यो मतिमानधीते श्रीक्षेत्रपालस्य गरिप्टमूर्ते, भक्त्यातिकाल सतत पवित्र भवत्यसो सारदचन्द्रकीतिः ।। इति क्षेत्रपालस्तोत्रम् । Colophon: १४६३ क्षेत्रपाल-स्तोत्र Opening : Closing . Colophon ! देखे २० १४०८ । भैरवाष्टकमिद - .. इति क्षेत्रपालस्तोत्र सम्पूर्णम् । भैरवाष्टककीर्तिनात् ।। १४६४. क्षेत्रपाल-स्तोत्र Opening . Closing ! ॐ ह्री नमो भगवति पद्मावती हा हा कात्यायनी हू हू योगिनी नवकुलनागवधिनी अवतर-२ आगच्छ-२ - अपुत्रो लभते पुत्रान् बद्धो मुञ्चति व्धनात् । त्रिसध्य पठते यस्तु सर्वसिद्धिभवाप्नुयाद् ॥१६॥ इति श्री क्षेत्रपालस्तोत्रम् । Colophon: १४६५. लघुसहस्रनाम Opening i स्वयभुवे नम. तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मनव तथोद्भत वृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ॥१॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) Closing Colopbon · Opening : Closing Colophon : Closing! Colophon Opening: Closing: Colophon नामसहस्राणा ये पठति पुन पुन' । ते निर्वाणपद यान्ति निश्चयेननात्रमस्य ॥ इति श्री लघुमहस्रनाम जी सम्पूर्णम् । Opening 1 देखे, क्र० १४६८ | देखे, ऋ० ०४६५ । इति श्री लघु सहस्रनाम स्तोत्र सपूर्णम् । संवत् १८४२ वर्षे शा० १७ ७ प्रवर्त्तमाने श्रावण वदि ३० गुरौ । १४६८. लघुसहस्रनाम Opening : १४९६ लघुसहस्रनाम देखे, क्र० १४६५ | देखे, क्र० १४६५ | इति श्री लघुसहस्रनाम जी समाप्तम् । १४६७. लघुसहस्रनाम १३५ नम त्रैलोक्यनाथाय सर्वज्ञायमात्मने । वक्ष्ये तस्यैव नामानि मोक्षमोरयाभिलाषया ||१| देखे क्र० १५६५ । इति श्री लघुसहस्रनाम समाप्तम् । देखे, जै० सि० भ० ग्र० I, क्र० ७ ० । १४६६. लक्ष्मीस्तोत्र लक्ष्मीमस्तुल्य सती सती सती । प्रवृद्धकालो विरतो तो रतो । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing : जराजा जन्महता हता हता। पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ।।१।। तर्के व्याकरणे च नाटकचये काव्याकुले कौमले, विख्यातो भुवि पद्मन दिसुधियस्तत्वस्य कोश निधि । गभीर यमकाष्टक भणति य. सभूयसा लभ्यते । श्री पद्मप्रभुदेवनिर्मित मद स्तोत्र जगन्मङ्गलम् ॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्तोत्र सम्पूर्णम् । देखे, जै० सि० भ० न० , ऋ० ७३७ । दि० जि० प्र० र०, पृ० १४०-१४१ । जि० र० को०, पृ० ३३४ । Colophon: १५००. लक्ष्मीस्तोत्र Opening • Closing : Colophon! देखे, क्र० १४६६ । देखे, ऋ० १४६६ । इति लक्ष्मीस्तोत्रम् । १५०१ लक्ष्मीस्तोत्र Opening ! Closing ! Colophon. देखे, ऋ० १४६६ । देखे, ऋ० १४६६ । इति श्री लक्ष्वीपार्श्वनाथस्तवनम् । १५०२ महावीर आरती Opening Closing : आरती करी जिनवीर की, सुन पिया मेनिकराय । जन्म-जन्म सुख पाईए, दरित सकल मिटि जाय ||१|| जिन आरती कीजै सुख लहीजे छीन कर्म कलेक। सीयपर पाईजै सो नर पूजि जै भक्ति महित निकलक । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) Colophon : Opening : Closing Colophon Opening Closing Colophon : Opening : Closing Colophon इति आरती सम्पूर्णम् । १५०३. मडलोद्धार- स्तोत्र सपूर्व्वं सूरिभिराम्नात क्षेत्रपालसपर्यं का 1 तथाह मडन वक्ष्ये सर्वविघ्नोपशातये ॥१॥ यथापूर्व मया श्रुत्वा तथा एव मया कृतम् । क्षेत्रपालविधि दिव्या विघ्नदु खप्रणाशकम् । इति मडलोद्धार स्तोत्रम् | १५०४ मंगल आरती १५७ मंगल आरती कीजे भोर विघन हरन सुभ करन किशोर | टेक | अरहत सिद्ध सूर उवझाय साधु नाम जपिये सुखदाय ||१|| कहे कहाँ लो तुम सब जानो, द्यानत की अभिलाप प्रमानो । करो आरती वर्द्धमान की, पाधापुर निर्वाण स्थान की ॥ करो ॥ इति आरती महावीर जी की सम्पूर्णम् । १५०५. मणिभद्र - स्तोत्र देखे, ऋ० १४०८ | जाप एक लाख पचीस हजार करे १२५००० दिन तीन मे जब उपवास के सने चुमो वनाये या लाल वस्त्र जाप माला कनेर फूल नही है | I Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Tain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing Co opho 1 Opening Closing Co'ophen: १५०६ मंगलाष्टक श्रीमन्नम्रसुरासुरेन्द्रमुकुट इत्य श्रीजिनमगलाष्टकमिद इति मंगलाष्टक सपूर्णम् । • कुर्व तु ते मगलम् ॥१॥ कुर्वं तु मगलम् ॥१०॥ देखे, जै० सि० भ० य० I, ऋ० ७०५ । १५०७. मगलजिन - दर्शन जै जै जिनदेव के देवा, सुरनर सकल करें तुम सेवा । अद्भुत हैं प्रभु महिमा तेरी, वरणी न जाय अलपमति मेरी || निस्तार के तुम मूल स्वामी बडे भागन पाइए । रूपचद चिंता कहा जिन चरण सरणनि आइए ॥ इति च कृत जिनगुण विनती सम्पूर्णम् । १५०८. मुनीश्वर विनती वो दिगम्बर गुरु चरण जग तरण तारण जान, जे भरम भारा रोग को है राजवैद्य महान । जिनके अनुग्रह दिन कवि नहि करे कर्म जजीर, ते साधु मेरे उर वसे मेरी हरो पातक पोर ॥१॥ कर जोड मूधर वीनमें वे मिले कव मुनि राय । इह आस मन की कव फल मेरे सरे सगले काज । समार विषम विदेस मे जे विना कार वीस || ते साधु ० ॥६॥ इति साधु विनती सम्पूर्णम् । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) १५०६. नमस्कार Opening : Closing । Colophon • देखें, ऋ० ११६३ । देखे, ऋ० ११९३ । इति श्रीपाल का नमस्कार समाप्तम् । १५१०. नमस्कार Opening Closing . Colophon देखे, क्र० १२७ । देखे, ऋ० १५०६ । इति श्रीपालजी कृत नमस्कार समाप्तम् । १५११ नदीश्वर-भक्ति Opening : Closing ; त्रिदशपतिमुकुटतटगतमणि - विरहित-निलयान् ॥१॥ अन्यन्त्र स्वपन जाग्रन् तिष्टन्नपि पथि चलन - स्तोत्र सुकृती ॥११॥ इति सपूर्णा । देखें-०सि० भ० ग्र०, I, ०७०८ । Colophon ! १५१२ नदीश्वर-भक्ति Opening ! Closing . देखे, ऋ० १५११ । . • दुक्खखो कम्मक्खओ वोहिलाओ सुगइ गमण समाहिमरण जिणगुणसपत्ति होउ मज्झ । इनि नदीश्वरभक्ति समाप्ता। इति सप्तभक्तय समाप्ता। Colophon : Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १५१३. नरक-विनती Opening i आदि जिनद जु हारीय मन धरि अधिक उल्हासो जी। मन वत्र काया शुद्ध सुकीज निज अरदासो प्रभु नरकतना दुःख दोहिल ॥१॥ प्रभु पतितपावन करण भावन श्री गुणसागर भाइये ।। इह लोक सुख परलोक शिवपद स्वामि सुमिरण पाइये ।। इति श्री नरक विनति स्तवन सम्पूर्णम् । Closing Colophon १५१४. नारायणलक्ष्मी-स्तोत्र Opening • Closing . ॐ अस्य श्री नारायणहृदयस्तोत्रमत्रस्य भार्गवऋषि अनुष्टुप् छद श्रीमन्नारायणो देवता श्रीमन्नारायण प्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः । श्रीध्यायेत्वा प्रहसितमुखो कोटिवालार्कभासम्, विद्यु द्वर्णा वरवरधरा भूपणाढ्या मुशोभाम् । वीजापुर सरसिजयुग विभ्र ती स्वर्णपात्रम्, भीयुक्ता मुहुरभयदा महामय्यच्युतश्री. ॥१०॥ इति श्री अथर्वणा रहस्ये उत्तरभागे श्री महालक्ष्मीहदय सपूर्णम् । Cophon १५१५ नवग्रह-स्तोत्र Opening i Closing जगद्गुरु नमस्कृत्य श्रुत्वा सद्गुम्भापितम् । ग्रहशाति प्रवक्षामि लोकाना सुखहेतवे ।। भद्रवाहु महाश्चव पचमश्रुतकेवली । तेन विद्यानवादाचं ग्रहशातिरुदीरित ॥२१ इति नवग्रह स्तोत्रम् । देखे, जि० २० बो०, पृ० २०६ । Colophon: Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit 4pabhrani & Hindi Manscripts ( Stotra ) १५१६. नवग्रह-स्तोत्र Opening : Closing अर्कचन्द्रकुजसौम्य - - .. जिनपूजनात् ॥१॥ भद्रवाहुरूवाचेद पचमश्रुतकेवली । विद्याप्रवादत पूर्वाग्रहशाति विधि श्रुता ॥११॥ इति नवग्रह शाति स्तोत्रम् । Colophon १५१७ नवकारढाल Opening . पहिलो लोक अलोक ए ढाल छै समरी श्री नवकार मार पूरव तणो नव निध मिद्ध आग सदा ए। मह्मिा मोयी जास सकट सवि टल मिलय मनोरप मपदा ए ।। दिन-२ अधिकी संपदा ए मनवचित सुखथाय । नमुन । दया कुशल वाचक वढे धर्ममदिर गुण गाय ।।२३। नम न० ।। इति श्री नवकार चउढालीयो सम्पूर्णम् । Closing : Colophon : १५१८ नवकार-स्तोत्र Opening : Closing : Colophon; हम्तावल वोर्हता पापाद्वा मचराचरस्य जगत । मजीवन मत्रराट ..... ॥१॥ अन्यच्च " सुकृति ॥१२॥ इति पत्र नमस्कार स्तोत्रम् । १५१६ नवकारमत्र-स्तोत्र Opening . ॐ परमेष्ठी नमस्कार सार नवपदात्मकम् । आत्मरक्षाकर वज्र पजराभि स्मराम्यहम् ॥१॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closing Colophon : Opening: Closing : Colophon बिशेष -- Opening 1 Closing Clolophon Opening यश्चैना कुरुते रक्षा परमेष्ठिपदे सदा । तस्य न स्याद्भव व्याधिरधिश्वापि कदाचन ||८|| इति नवकार मंत्र स्तोत्रम् | देखें, जै० सि० भ० ग्र०I, क्र० ७ १ । १५२० नेमिनाथ आरती आरती कीजै स्वामी नेम जिनद की । सब सुखदायक आनंद कद की ॥ आरती० ॥१॥ भैरी सरन चरन तुम आयो । भव भव मैं प्रभु होइ साहायो || आरती ॥६॥ इति भेरौजी कृत आरती । १५२१ नेमिनाथ - स्तोत्र यह पूर्णतया जीर्ण है । १५२२. निजामणि सकल जिनेश्वर देव हूमत पाये करिने सेव । निजामणि कहु सार जिन क्षपक तरे ससार ॥१॥ श्री सकलकीति गुरु ध्याउ, मुनि भुवनकीति गुणगाउँ । ब्रह्मजिनदास भणे सार ए निजामणी भवतार ||५४ || इति श्री ब्रह्मचारी जिनदास विरचिते क्षपक निजामणि सपूर्णम् । १५२३. निर्वाण-भक्ति विबुधपतिखगपनरपति घनदोरगभूत यक्षपतिमहितम् । अतुल सुख विमलनिरुपम शिवमचलमनामय प्राप्तम् । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing . Colophon: देने, ऋ० १५१२ । इति निर्वाणभनि । देखें, जै० सि० भ० ग्र० I, ०७१७ । जि०र० को०, पृ० २१४ । १५२४. निर्वागकाण्ड Opening : Closing : वीतराग वदो मदा, भाव सहित सिरनाई। कहूँ कांड निर्वाण की भाषा विविध बनाई। सवत् मत्रहमै इक तान आश्विन मुदि दगमी सुविशाल । भैया वदन कर त्रिकाल, जय निर्वाणकाण्ड गुणमाल ॥ इति निर्वाणकाण्ड समाप्ता। देखे, जै० सि० भ० अ० I, क्र० ७१५ । Colophon ' १५२५. निर्वाणकाण्ड Opening : Closing : Colophon: देखे, ऋ० १५२४ । देखे, ऋ० १५२४ । इति निर्वाणकाड भाषा सपूर्णम् । १५२६ निर्वाणकाण्ड Opening : Closing : Colophon देखे, ऋ० १५२४ । देखे, ऋ० १५२४ । इति श्री भाषा निर्वाणकाण्ड सम्पूर्णम् । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan, Arrah. १५२७. निर्वाणकाण्ड Opening : Closing : Colophon , देखे, ३० १५२४ । देखे, क्र० १५२४ । इति श्री निर्वागकाउ भाषा सम्पूर्णम् । १५२८. निर्वाण काण्ड Opening । Closing : Colophon: देखे, ऋ० १५२४ । देखे, क्र० १५२४ । इति श्री निर्वाणकाण्ड भाषा समाप्तम् । १५२६. निर्वागकाण्ड Opening • Closing Colophon: देखे ऋ० १५२४ । देखे, ऋ० १५२४ । इति श्री निर्वाणकाण्ड समाप्तम । १५३० निर्वाणकाण्ड Opening : Closing, देखे ऋ० १५२४ । तीन लोक के तीरथ जहाँ, नित प्रति वदन कीजै तहाँ । मन वच काय भाव सिरनाई वदन करी भविक सिरनाई ।। इति श्री निर्वाणकाण्ड भाषा सपूर्णम् । Colophoni १५३१ निर्वाणकाण्ड Opening । अट्ठावयम्मि उसहो चपाएवासुपुज्ज जिण-णाहीं । उज्जते मि जिणो पावाए णि वुदो महावीरो । १।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing . जो पटः तियाल णिव्वुइ कडपि भाव सुद्रीए । भुजदि परसुरसुख पच्छा नो लन्इ णियाण ॥ इति निर्वाणकाड समाप्तम् । देखें, जै० मि० भ० प्र० , क० ७१४ । Colophon . १५३२. निर्वाणकाण्ड Opening : Closing : Colophoni देखे ऋ० १५३१ । देजे, क. १५३१ । इति श्री णिवागकाड की गाथा सपूर्णम् । १५३३. निर्वाणकाण्ड Opening ' Closing : Colophon! देखें, क० १५३१ । देखें, क० १५३१ । इति श्री निर्वाणका समाप्तम् । १५३४. निर्वाणकाण्ड Opening . Closing . Corophon: देखे, ऋ० १५३१ । देखे, ऋ० १५३१ । इति निर्वाणकाड सपूर्णम् । १५३५. निर्वाणकाण्ड Opening • Closing • देखे, ऋ० १५३१ । देखे, क० १५३१ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon : इति निर्वाणकाड सम्पूर्णम् । १५३६. निर्वाणकाण्ड Opening ! Closing । Colophon: देखे, ऋ० १५३१ । देखे ऋ० १५३१ । इति निर्वाणकाड प्राकृत मपूर्णम् । २५३७ निर्वाणकाण्ड Opening Closing Colophon . देखे, ऋ० १५३१ । देखे ऋ० १५३१ । इति निर्वाणकाण्ड गाथा समाप्ता। १५३८. निर्वाणकाण्ड Opening श्री अर्ह त अनत गुन मिट्ट सूर उवझाय । सर्वसाधु के चरण जुग वदो मन वचकाय ।।१।। देखे, ऋ० १५२४ । इति श्री निर्वाणकाड भाषा समाप्तम् । Closing : Colophon : १५३६ निर्वाणकाण्ड Opening । रावण के सुत आदिकुमार, मुक्त गये रेवा तट सार। कोडि पाच अरू लाख पचास, ते वदी ॥ देखें, ऋ० १५२४ । इति निर्वाणकाड सम्पूर्ण । Closing • Colophon: Page #373 --------------------------------------------------------------------------  Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १५४३. पद Opening : आज गई थी ममवसरण मा जिमवचनामृत पीवा रे । आवा श्री परमेमर वदन कमल छवि हरणे निरपेवा रे आवा ॥१॥ परम दयाल कृपाल कृपानिधि इतनी अरज सुणीजै परम भगति जिनराज तुहारी अपणो कर जाणीजे ।३।। कु० । इति श्री जिन कुसलसूरि जी गीतम् । Closing : Colophon १५४४. पद Opening : Closing : Colophon | मिल जाओ .. गुरु के वचन मोती कान में। सात विसन आगे आवागवन निवारो ॥ वृ०॥ सम्पूर्णम् । १५४५ पद Opening विना प्रभु पार्श्व के देखे मेरा दिल बेकरारी है ॥ विना ।। चौरामिलाप मे भटको बहुत मी देहधारी है। मुसीवत जो पड़ी मुझपै प्रभु को खुद निहारी है। विना ॥ ॥१॥ देव त्वदीय . • तव दिव्यघोषम् ॥४|| इति काव्य सपूर्णम् । Closing Colophon: १५४६. पद Opening . Closing I देखो मतलव का ससारा, देखो मतलव का ससारा ॥ टेक ॥ भाग चदमा चद या प्रकार जीव लहै सुख अपार याको निहार स्याद्वाद की उचरनी परनति सब जीवन की तीन भात वरनी ।। परनति ||४|| Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ Cataloruc of Sansirit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscrripts ( Stotra) Colaph onापमा। भादय यदी : पार गनिम्नरयार मारा ८ फा। नि. समीर धारक पालमनाम १५४७ पद Opening : Closure जो रिजन नाय मुरिज पद पाई। समन अनि गैगि गाई ॥टेक॥ 2. हिनफार माना। माग गोगी माहि फेरि नही पाऊँ ।। णा जिगर निगम मानी गाई ।। म भनी ।। ति पद मराटी समाप्तम् । शुग भूमार लिनि गादव मुगी ११ गारगोमवार मयत १६४८ निरत अमांचा यावा पान Colophon: मग्राम का यामी। १५४८. पद Opening ! Closing : दिन वारन बोल दुनिया मीनप जमारोपाय जी । पारी माग जावतार साम मिल गया चोर, पतरी वाण भया .. ॥ अनुपलब्ध । Colophon १५४६ पद Opening : नेमि सावरो मे हारि प्रोत लगी हो । सत् खग दिवारि सील जो न किया जोर जगती गो तारी लगीहो। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sidbhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon: ... नेम सावरो से म्हारि प्रीत लगी हो। पद सपूर्णम् । सवत् १९१६ मिति चैत्र वदी १५। वायू हरलाल जी अग्रवाल गागिलगोत्रस्य पुत्र वावू वधनलाल जी तस्य पुत्र बाबू लक्ष्मीनारायन जी भार्या मधुवन वीत्री पुस्तक लिखापित आरे मध्ये सपूर्णम् । १५५०. पद Opening : Closing | Colophon ' मुझे है चाव दर्शन का ..... उबारोगे तो क्या होगा ॥ अधम उद्वार पूरन के • नीकारोगे तो क्या होगा । इति पूर्णम् । १५५१. पद Opening Closing . Colophon: शरण पिया जैओ होसी रघुवीर ॥ .. मेरी वार क्यो विलम्ब करो रे ।। नही है। १५५२ पद Opening तारण वाला न कोई ए जी का। आप तरे आप ही ए तोरे देखो चित मे जोई। लाख वात की बात है चेत न जाने सिवसुख होइ ए जी का ॥१॥ वादि न क्यो न विचारी चेतन अवहु होहु खरे । जव सुध आवे चेतन प्यारे की तब सब काज सरे । ए चतन ॥ नही है। Closing . Colophon . Opening १५५३ पद किये आराधना तेरी हिये आनद व्यापत है। तिहारे दर्शन देखें मकल ही पाप नाशत है ॥१॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit Prakrit, Apabhranśa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) Closing : Cloophon : विशेष Opening Closing : Colophoni Opening Closing : Colophon. . हैन अवतार नहि वार वार श्रावक सब साधून ने भाई ||१२|| इति द्वादशानुप्रेक्षा समाप्नम् । परकेपक्षा भी मकलित है। ... १५५८ पद जाके बदन पर नयन इति । मुक्ति महामुनि || माधुरी ॥ भोग नजोग, तं मिल तं तजि लोनी जोग । में १५५५. पद प्रभ जी तुम तीन जानधारी, मध्ये होने ग्रावारी. कर जोडी गाव नाए नमो वेरी वेरी | हे घोर पोट हरिये गितावी से अप मेरी ॥ टेक ॥ - जो तेरी उत्तम साग्रि । तजी तुम राजुल मी नारी, आये हो गिर के तनधारी, धर्मवदनी रामचद गावं जिन शरण लिया, हम को छोड़ चले सखी री साजना ||५|| इति नम्पूर्णम् । १५५६. पद Opening प्रात भयो सुमिरि सुमिरि देव पुण्यकाल जात रे चूक्त जे औसर ते पीछे पछितात रे ॥ प्रा० ॥ १७१ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing . Colophon : Opening Closing Colophon : Opening : Closing Colophon. Opening Closing Colophon : माधुरी जिनवानि चली री सुनिह, विपुलाचल परि वा वार्जत भुनक परी मेरे कान । वर्द्धमान तीर्थङ्कर आयेरी, वदे निज गुर जानि ॥ नही है | १५५७. पद सिद्धचक्र की मेवा कीजे, नवपद महीमा धारी हैं । अरोहत मिश्री उवझाया सकल साधु गुन भारी है ॥ अरज सुना वेहरमान वदो नितमेव रे चेनन को तार लेव मत वीसारो टेव रे ॥ प्र० ॥ इति पद सम्पूर्णम् । १५५८ पद श्रीपति जिनवर करुनायतनं दुखहरण तुम्हारानना है । मत मेरी वार अवार करो मोही देहु विमल कल्याना है ॥ टेक ॥ हो दीनानाथ अनाथ हित जन दीन अनाथ पुकारी हैं, उद्यागत कर्म विपाक हलाहल मोही विया विस्तारी है, ज्यो आप अवर भवि जीवन की तत्काल विथा निरवारी है, त्यो वृदावन कर जोर कहैं प्रभु आज हमारी ही वारी है | टेक इति श्री विनती सम्पूर्णम् १५५६. पद मोह नीद मेरी उर भ है, भोत दीना ने जाया । जीन ॥१॥ अस्पष्ट । नही है | Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra ) Opening Closing Colorhon : Opening • Closing Colophon. Cpening Closing Colopl on Opening १५६०. पदसंग्रह किये आराधना तेरी, हिये आनद वियापत है । तिहारे दरत के देखे सफल हो पाप नासत है ||१|| केवल मं सुकल में अचल मो में अचल में 1 जिनद वक्स रिधि सिधि में मिलि अटल रहें । इति पदसम्पूर्णम् । मितिमाघ वदी १ । १७३ १५६१. पदसंग्रह भजन तो बनता नही, ध्यान तो लगता नही मन तो सैलानी || खाने को तो अच्छा चाहिये, और ठढा पानी चावने को पान वीडा ओर पीकदानी ऊँच नीचे महल चाहिये साबु आसमानी || तीन खड के नाथ धनी तुम हरि व्याये जो परनारी । यह कैसे छूटे लगा कलक कुल में भारी || अनुपलब्ध | १५६२ पद- विनती सुमरण ही मैं तारे प्रभु ती ॥ सु० ॥ जिनराज छवि मनमोह लियो महाराज सवी मन मोह लियौ ॥ टेक ॥ अनुपलव्ध । १५६३ पद-हजूरी धरी धन आज की आई सरेस काज मो मन के 11 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Tain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrak, Closing : तीन लोक को रावन अधिपति लक्ष्मन हाथ मरी। द्यानत की अर्ज वीनती जामन मरन हरी ॥ पद संपूर्णम् । Colophon: Opening : १५६४. पद होली सम्मेद शिखर सुखदाई री मोको सम्मेद शिखर सुखदाई ॥ टेक ॥ वीसतीर्थंकर वीस कूट मे कर्म काटि सिद्ध पाई। तिनके चरण कमल नित वदौ मन वच तन लवलाई, पाप सब जाई पलाई ॥ १॥ चेत चेतन वेचत तुम्हे बार बार समझाई । कहत शिखर मन वच तन सेती भज ले श्री जिनराई । याहि ते शिव सुख पाई। ऐ चेतन तुम्हे चेत न आई ।। ६ ।। इति सम्पूर्णम् । Closing ! Colophon १५६५ पद्मावती अष्टोत्तर शतनाम Opening . Closing . नमोनेकातदु मारप्टतदृशभानुवे । जिनाय सकलाभीप्ट ध्यायनिःकामधेनवे । दिव्य स्तोत्रमिद महासुखकर आरोग्यसपत्करम्, भूतप्रेतपिशाचगक्षसभय विध्वसनिर्णाशनम् । आनरसते ? वाक्षित सुनिलय सर्वेपि मृत्यु जय , दिव्य व्याप्तकर कवि च जनक स्तोत्र जगन्मगलम् । इति पद्मावती अष्टोतरशतनामावली सपूर्णम् । Colophon १५६६ पद्मावती स्तोत्र Opening : श्रीमद्गीर्वाणचक्र स्फुटमुकुटनाटीदिव्यमाणिक्यमाला, ज्योतिलिाकराला स्फुरति मुकुटिकाप्टपादरविंदे । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Cio.ing व्याघ्रोरुरका सहस्रज्वलदलनशिखा-लोलपाशाकुशासम्, आ को ही मत्ररूपे क्षयितदलमरे रक्ष मा देवि पद्मे ॥१॥ अहि वान न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजा अर्चा न जानामि मम क्षमस्व परमेश्वरी ॥३३॥ इति श्री पद्मावती स्तोत्रम् । देखे, जै० सि० भ० ग्रI, ऋ० ७२२ । जि० र० को०, पृ० २३५ । Catg of bkt & Pkt Ms , P. 655 Colophon. १५६७ पद्मावती-स्तोत्र Opening • Closing : Colophon: देखे, २० १५६६ । त्व न मम्मरणाद् व्रजति नितरा · दु भिक्षदावानलम् ॥ इति श्री पद्मावती स्तोत्र सपूणम् । १५६८ पद्मावती-स्तोत्र Opening Closing देखे, क्र. १५६६ । आयुर्वृद्धिकरी जयामयकरी सर्वार्थसिद्धिप्रदा. सय प्रत्ययकारिणी भगवती पद्मावती ता स्तुवे ॥३६॥ इति पद्मावतीस्तोत्र समाप्तम् ।। Colyphon १५६६ पद्मावती-स्तोत्र Opening : Closing . देखे, क्र. १५६६ । पठित भणित गुणित जयविजयरम -निवन्धन परम, सर्वव्याधिहरस्तोत्र त्रिजगत पद्मावतीस्तोत्रम् ॥३३ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumai Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon : इति पद्मावतीस्तोत्रम् । सन्दर्भ के लिए देखे, क्र. १५६६ । १५७०. पद्मावती-स्तोत्र Opening • Closing । Colophon चचच्चारूशणाकपूर्णवदना ... सयोज्य हस्तद्वयम् ।।१।। लक्ष्मीवृद्धिकरा जगत्सुखकरा ... • पद्मावती पातु व ॥ इति पद्मावतीस्तोत्र सपूर्णम् । १५७१ पद्मावती-स्तोत्र Opening ! Closing । ॐ जयतीभद्रमाताजी सर्वपापप्रणाशनी । सर्वदु खक्षयकारी महापद्म नमोनम ॥१॥ अपुत्रो लभते पुत्र धनार्थ लभते धनम् । विद्यार्थी लभते विद्या सुखार्थी लभते सुखम् । इति पद्मावतीस्तोत्र सम्पूर्णम् । Colophon १५७२ पद्मावती -स्तोत्र Opening ! Closing देखे, ऋ० १५६६ । भव्या कुर्वन्ति मा पूजा सद्भक्त्याभीष्टमिर्ने । एव पूजाविधिोंके जीयादाऽचद्रतारकम् ॥ इति इष्टप्रार्थना पुष्पाजलि इनि यमावनीमूना समाप्तम् । Colophon: Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ Catalogue of Sanskrit, Prakut, Apabhrania & Hindi Manscripts (Stotia) १५७३. पद्मावती-स्तोत्र Opening जिनसासनी हसासनी पदमासनी माता । भुजचारते फलचारदे पद्मावती माता । Closing जिनधर्म से डिगने का कही आपरे कारन तो लीजियौ उवार मुझे भक्ति उदारन । न कर्म के सजोग सो जिस जोनि मे जावो । तहा दीजियो सम्यक जो शिवधाम को पावो ।। Colupava. इति पद्मावती-स्तोन सम्पूर्णम् । देखे, जै० सि० भ० प्रक्रि० ७२१ । १५७४ पद्मावती सहस्रनाम Opening Closing . Colophon: प्रणम्य परमा भक्तया देव्या पादाबुजस्तिद्या। नामान्यष्टसहस्राणि वक्षे तद्भक्तिमिद्धये ॥१॥ भो ? देवि | भो मात सक्ष्यम्यति प्रीतिफलाप्नोति।।१३।। इति पद्मावतीस्तोत्र सहस्रनामस्तवन सम्पूर्णम् । देखे, जै० सि० भ० ग्र० I क्र० ७२७ । दि० जि० ग्र० २०, पृ० १४२ । १५७५ पद्मावती-सहस्रनाम Opening ! Closing Colophon देखे, ऋ० १५७४ । भो देवी भीमा • न क्षम्यति प्रीतिपलायने किम् । इति श्री पद्मावती सहस्रनाम सम्पूर्णम् । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १५७६. पद्मावती सहस्रनाम Opening : Closing : Colophon. Opening : Closing : Colophon Opening Closing Colophon Opening Closing देखे, ऋ० १५७४ । देखे, क्र० १५७४ | ही है। १५७७. पद्मावती सहस्रनाम श्रीमत्पार्श्वेशमानम्य पद्मावत्यामहाश्रिया । नामान्यष्टसहस्राणि वक्ष्ये भक्त्या मनोमुदा ||१|| भक्त्या पठत्विद स्तोत्र हितोपकृतमुत्तमम्, आचन्द्रता के जीयात्सद्भव्यसुखहेतवे ॥ ३४|| इति पद्मावती सहस्रनाम समाप्त । १५७८. पद्मावती - सहस्रमाम देखे, क्र० १५७४ | जयना पूजिता पूज्या पद्मावती समन्विता । ते जना सुखमाप्नोति यावत्मेरुजिनालय ||१४|| इति पद्मावती उद्यापन पंचाग पूजा समाप्तम् । लिखित पडित सेवाराम, सवत् १८२७ कुवार कृष्णपक्षे नौमि शुक्र दिने लक्ष्मणपुरनगरे कौशलदेशे । १५७९. पद्मावती-विनती देखे, ऋ० १५७३ | देखें, क्र० १५७३ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra ) Colophon: Opening : Closing : Colophon Opening : Closing : Colophon : Opening Closing Co'ophon : Opening Closing Colophon: इति श्री पद्मावती जो की वीनती सपूर्णम् । १५८०. पद्मावती - विनती देखे ० १५७३ | देखे ० १५७३ । प्रतिपद्मावती जी की विनती सम्पूर्णम् । १५६१. पद्मनदिपचविशितिका हृदयवि गुमन्यम् ॥ ताते धर्मकु धारकर पुण्य का नत्रय करो । नहीं है | १५८२. पंचनमस्कार - स्तोत्र देखें, क्र० १४७८ । देखें, क्र० १५१८ | इति पचनमस्कार स्तोत्रम् | १५८३ पचनमस्कार ॐ नमः सिद्धभ्यः । अथ कतिपय पचपरमेष्ठिना सप्रादायालिख्यते पंचनामादि पदाना पचपरमेष्ठ .. १७६ अस्पष्ट । नही हैं । .. ... I Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १५८४. परमेष्ठीस्तोत्र Opening : Closing : Colophon ' देखे, ऋ० १५१९ । देखे, क्र० १५१९ । इति श्री परमेष्टीस्तोत्रम् । १५८५ परमानन्द-स्तोत्र Opening : Closing . परमानदमयुक्त निर्विकार निरामयम् । ध्यानहीना न पश्यन्ति निजदेहे व्यवस्थितम् । काण्टमध्ये यथा वह्नि शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पडितः । इति श्री परमाणद स्तोत्र समाप्त । देखे, जै० सि० भ० न० I, ३० ७२६ । वि० जि०म० र०, पृ० १४४ । Catg, of Skt, & Pkt Ms P 665 Colophon। १५८६. परमानद-स्तोत्र Opening Closing, Colophon: देखे, ऋ० १५८५ ॥ देखे, ऋ० १५८५॥ इति श्री परमानद स्तोत्र समाप्तम् । १५८७. पार्श्वनाथ-स्तोत्र Opening । Closing । Colophon • देखे, ऋ० १३२२ । देखे, ऋ० १३२२ । इति पार्श्वनाथम्तोत्रम् । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts (Stotra ) १५८८• पार्श्वनाथ-स्तोत्र Opening Closing Colophon : विशेष Opening : Closing : Colophon : Cpening : Closing. अजरअमरपार वारदुर्वारवार गलितवहलस्वेद सर्वतत्वानुवेदम् । कमठमदविदार भूरीसिद्धान्तसार विगतवृजनयूथ नौमि य पार्श्वनाथम् ।।१।। १८१ तीरथपति पारसनाथ तिलो भणता यसवासरवासभलो ममत्र सुकोमल होइ मिलो अमची प्रमुपारस असफलो ||१८|| इति पाश्वनाथ चितामणि स्तोत्रम् | १५८६. पार्श्वनाथ स्तोत्र यह पूर्णत. जीर्ण-शीर्ण है । १५९०. पार्श्वनाथ-स्तोत्र श्यामो वर्णविराजतेतिविमले श्यामोविसर्पोस्मृत, मामो मेघ निर्घरोपि च घटाश्याम चरान्निखिलम् । वर्षामूसलधार वीरमखिल कायोत्सर्गे नता, धरणेद्रो पद्मावती युगस्वर श्री पार्श्वनाथ नम ॥१॥ इद स्तोत्रपठेन्नित्य त्रिसध्य च विशेषतः, ग्रहे भवति कल्याण पार्श्वतीर्थ स्तवेन च ॥ ८ ॥ इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्रम् | १५ε१. पार्श्वनाथ-स्तोत्र देखे, ऋ० १३२२ । देखे ऋ० १३२२ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Colophon 1 Opening : Closing 3 Colophon Opening Closing ? Colophon : इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्र सम्पूर्णम् । १५६२. पार्श्वनाथ - सतोत्र नरेन्द्र फगीन्द्र सुरेन्द्र अधीस सतेन्द्र सुपूज्य नमो नायशीशम् । मुनीद्र गणेन्द्र नमो जोरि हाथ नमो देवचिन्तामणि पार्श्व नाथम् ॥ गणधर इद्र न कर सके तुम विनती भगवान । द्यानत प्रीत निहारिक कीर्ज आप समान ॥१०॥ इति पार्श्वनाथस्तोत्र सम्पूर्णम् । १५६३. पार्श्वनाथ स्तुति जाकी देह मरकतमनि सो उद्योत अति आनन पे कोटि कामदेव छवि हटकी । अवुज के पत्र सो विशाल दृग लाज भरे मीस पे सरपफन मोभा हे मुकुट की ॥ तुम तो करुना निधि नायक हो मेरी पीर हरो दुखददन की, कर जोरि के लालविनोदी कहे वलि जाऊँ में वामा के नदन की || इति श्री पार्श्वनाथ जी की स्तुति समाप्तम् । १५९४• पार्श्वनाथ स्तोत्र Opening ॐ ही मात श्री पद्मावते नमः, ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वना थाय ही धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय 1 Closing 1 जो निय कठे धार कम्पमिम कप्परुपु मारित्य । अविकल्प सोकामिय कप्पण कप्पट्ट मो सुई || २३ ॥ - Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Colophon: इति पार्श्वनाथ मत्र सहित स्तोत्रम् । १५९५. थार्श्वनाथाष्टक Opening . खीरजलनिधिनीरनिर्मलमिश्रदिमकरवासयम. धारात्रय भृ गारभरिकरीजन्ममरणविनासनम् । पूज्यभवजीवमौख्यदायक दुरितकल्मषपडनम्, श्रीपार्वनाथ सुदेवजिनवर मूलनायक वदनम् । नीरचन्दन मूलनायकवदनम् । इति पार्श्वनाथाप्टकम् समाप्तम् । Closing i Colophon i २५९६ पार्श्वनाथाष्टक Opening । क्षीर पयोनिधि को जल उज्वल निर्मल सीतल सू भरिडारी। पाप मिटे जिन मत्रह के सुधि जिनाम्र पदावुजधारकरी ॥ अति सु दर देउ लगाव मनोहर श्रीमूलनायक पार्श्वभरम् । शत इद्र समचित पादयुग सुभवावुधि तारन पापहरम् ॥ दशावतारो भुवनैकमल्लो गोपागना सेवित पादपद्मम् । श्रीपार्श्वनाथो पुरुषोत्तमो य ददातु सर्व समीहितानि ।।१६।। इत्याष्टक जयमाला समाप्त । Closiog Colophon १५६७. पार्वजिन आरती Opening! स्वामी पार्श्वकुमार हूकरु वीनती आपीए । तुम त्रिभुवन पतिधार मैं तुम सरन चरन गहिए ॥१॥ श्री जिनधर्म प्रभाव मनवछित फल पावई ए। भैरो पर होय सहाय अपनी उंड ? निवाहगये ए। Closing i Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Sıddhant Bhavan, Arrah Colophon: इति श्री पार्श्वजिन आरती । १५९८. प्रत्यगिरा सिद्धि-मंत्र-स्तोत्र ॐ ह्री या कल्पयतिनो अवध · ब्रह्मणा अपिनिर्णय । Opening . Closing , यस्य देवे च मत्रे च गुरौ च त्रिपु निर्मला, न व्यवछिद्य ते भक्तिरतस्य सिद्धिरदूरतः । इति श्री स्द्रजामले पार्वती स्वरसवादे छराजोगमूलपाणि तत्र विनिगते प्रत्यगिरा सिद्धमत्रस्तोत्र मपूर्णम् । Colophon : १५९६ ऋषिमडल-स्तोत्र Opening माद्य ताक्षरसतक्ष्यमार व्याप्य यत् निम् । अग्निज्वालासमताद् बिन्दुरेखासमन्वितम् ।।३।। Closing Colophon . इति स्तोत्र महास्तोत्र स्तुती सामुनम पदम्, पठनात्स्मरणाज्जापाल्लभते पदमव्ययम् ।।३।। इति ऋषिमडल स्तोत्रम् । देखें, जै०सि० भ० ग्र०, I, २० ७४६ । दि० जि०म० २०, पृ० १४७ । Cagi, of Skt & Pkt Ms P 629 १६००. ऋषिमडल-स्तोत्र Opening : Closing Colophon देखे, ऋ० १५६६ । देखे, ऋ० १५६६ । इति ऋषिमडनस्तोत्र सम्पूर्णम् । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & Hind Manuscripts (Stotra ) १६०१. ऋषिमंडल-स्तोत्र Opennig Closing Colophon Opening Closing Colophon विशेष Opening Closing Colophon • Opening : Closing : Colophon देखे, क्र० १५६६ | देखे, क्र० १५εε| इति श्री ऋषिमडलस्तोत्र समाप्तम् । १६०२• ऋषिमडल-स्तोत्र देखे क्र० १५६६ । दृष्टेणार्हतेविवे भवेत्मप्तमके ध्रुव । पदमाप्नोति विश्रस्त परमानदसपदा | इति रिपीमडल स्तोत्र सपूर्णम् । इसके साथ एक मत्र भी लिखा है । १६०३. ऋषिमडल-स्तोत्र आद्य पद शिरोरक्षेत्पर रक्षतु मस्तकम् । तृतीय रक्षेन्नेत्रे चतुर्थ रक्षेच्च नासिकाम् ||६|| यावच्चद्रामा च सद्विमानाकुलागा ।। अनुपलब्ध । १८५ १६०४ साधु वदना श्री जिन भाषित भारती सुमिरि अनि मुषराग । कहो मूलगुन साधु के परमिति विशति आठ || अट्ठाईस मूलगुन जो पाले निरोप | सो मुनि कहत वनारसि पावै अविचन मोक्ष ॥ इति साधु वदना समाप्ता । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar lain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah. १६०५ सहस्रनाम स्तोत्र Opening ! Closing देखे, क्र. १४९५ । वागटी जिनसेनेन जिननामानि सार्थकम् , अप्टाधिकसहस्राणि सर्वाभीष्टकराणि च ।।११।। इति श्री जिनसेनाचार्यविरचित युगादिवाष्टोत्तरसहस्रनामस्तोत्र समाप्तम् । देखे, दि० जि० ग्र० र०, पृ० १३८ । Colophoni १६०६ सहस्रनाम स्तोत्र Opening Closing : Colophon. देखे, क्र. १४६५ । देखे, क्र. १६०५। इति श्री जिनसेनाचार्यविरचित युगादिदेवाप्टोत्तरसहस्रनाम स्तोत्र ममाप्तम् । सवत् १६८९ का मिति कुवार सुदी लिपीकृत वुजीरामेण आरा मध्ये । श्रीरस्तु । १६०७ सहस्रनाम स्तोत्र Opening • Closing Colophon! देखे, क्र० १४६५ । देखे, ऋ० १६०५ । इति श्री जिनसेनाचार्यविरचित युगादिदेवाष्टोत्तरसहन्ननाम स्तोत्र समाप्तम् । १६०८ सहस्रनाम-स्तवन Op:ning : Closing : प्रभो भवागभोगेषु . ." शरण्य करुणार्णवम् । एतेपामेकमप्पहन्नाम्नामुच्चा .... जिनायात ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ Catalogue of Sanskrit, P. akrit, Apibhraini & Hindi Manuscripts (Stotra) Colophon: इत्याशाधरसूरिकृत जिनसहतनामस्तवन समाप्तम् । १६०६. सहस्रनाम स्तोत्र Opening : Closirg Colophon श्रीमान् स्वयभूर्व पभ शम्भव शभुरात्मभ् । स्वयप्रम प्रभु पितविश्वभरिपुनर्भव ॥१॥ देखे, क. १६०५। इति श्री जिनसेनाचार्यप्रणीत जिनसहन्त्रनामस्तवन सम्पूर्णम् । सवत् १८०२ वर्षे मीति आमाढ सुदी ४ मथेनभाउ परतापगढ मध्ये लिखतम् । १६१० सहस्रनाम-स्तोत्र Opening : Closing परम देव परनाम करि, गुरुको करौ प्रणाम । बुद्वि वल वरनी ब्रह्म के गहस अठोतरनाम ।। सगुन पिभूति वैभवी सेसुखी समबुद्ध । मकल विश्वकर्मा ........ विश्वलोचन शुद्ध ॥ इति श्री दुरनिदलन नाम नवम सतक सपूर्णम् । Colophon १६११ सहस्रनाम Opening Closing : तुम स्वयम् अनादि मिद अजन्मा सो तिहारे ताई नमस्कार होह। त्वम आपकू आप करि आप विष उपजाय प्रगट भये हो। उपजी है आत्मवृत्ति जिनकै अर अचित्य है वृत्ति जिनकी । भगवान स्नयभ् ममन ना के ग्याता जगतपति विहार कर ही निनकू चन्द्र के मुख ते ॥ प्रार्थना के वचन नीम ते पुनरुत ममान होते भये । २६ । :ति श्री भाषा महस्रनाम सपूर्णम् । Colophon Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली १८८ Shri Devakumai Jain Oriental Library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrah १६१२ समन्तभद्र स्तोत्र Opening : Closing: नताखडलमौलीना यत्पादनखमडलम । खडेन्दुशेखरीभूत नमस्तस्मै स्वयभुवे ।। अई मिद्धाचार्य उपाध्याय सर्वसाधूनिह । पचनमस्कारो भवभवे मम सुह धंतु ॥ ॥ इति समतभद्रस्तोत्र सपूर्णम् । Colophon ; १६१३ सम्मेदशिखर-स्तुति मैं आयो सरणते तेरे। Opening Closing मो करणी पे नजर न कीजे छीमा करो प्रभु मेरे। दीनबन्धु तुम पतित उवारण सेवक चरण गहो रे । में आयो० ॥ इति मम्मेदशिखर की प १६१४ सम्मेदावल स्तोत्र Opening । Closing . सम्मेदशैल भक्तिभरेण नौमि ॥१॥ तीर्थागमुत्तम तीर्थं निर्वाणपदमग्निम्म् । स्थानानामुत्तम स्थान सम्मेताद्रे सम नहि ॥२३॥ इति सन्मेदाचलमहात्मस्तोत्र समाप्तम् । श्रीरस्तु सवत् १८२८८ आषाढ द्वितीय वदि अप्टम्या आदित्यवारे लिखत लक्ष्मणपुर मध्ये श्रीपार्श्वनाथचैत्यालये। शुभ भवतु । Colophon : १६१५ सन्ध्या Opening : वामे वहुत कुशान प्रणव गायत्या रात्रा कुर्यात् । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Stotra) Closing . Colophon: . - तत प्रणिपत्य विसर्जयेत् । इति सव्या समाप्ता । १६१६. शातिजिन-आरती Opening : आरती कीजै स्वामी शात जिनद की। सब सुखदायक आनद कद की। विश्वसैन राजा जी के नदन । दरसन करत मिट भवफदन ॥ भैरी जे नर आरती गावै । मन वछित फल मोई पावै ।। आरती० ॥ इति श्री शाति जिन आरती समाप्तम् । Closing । Colophon। १६१७. शाति-स्तुति Ovening | Closing | जय जिनवर गुन रतन निधाना, परमपूज ससै तम भाना। मोह महागिर वज्र सुयेवा, सुर नर असुर करै तुम सेवा ॥ हे जिनवर मे जायो ये ही होहु सकल कल्यान अछेही । मैं निज आतीक गुन पावो सिधाल मे सिध सु जावे ।। इति शांति जी पूर्ण मई। Colophon १६१८ शातिनाथाष्टक Opping । सकलगुणनिधान नर्वस समान मदनमदविकाश मुदितकान्त निवास मरुजकमलमित्र सर्वविधपवित्र अनुपमसुख लक्ष्मी वद्धता शातिनाथ. ॥१॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oricntal Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing . शात्याष्टक सुरनरेण सेव्यमानम्, भव्येषु ये परिपठन्ति समस्तनीयम् । ते स्वर्गसौख्यमनुभूय मनुष्यलोके, धर्मार्थकाम-मममा-चहीयात्तिमानः ॥ इति शातिनाथाष्टकम् । Colophon : १६१६ शारदाष्टक Opening . ॐकार धुनि सुनि सुनि अरथ गनधर विचार । रचि आगम उपदिसे भविक अव ससै निवार । मो सत्यारथ सारदा तासु भगति उर आनि । छद भुजग प्रयातमै अष्ट कही वखानि ॥१॥ जे हित हेतु वनारसी देहि धर्म उपदेश । ते सव पाहि परम सुख तजि मसार कलेस ।।८।। इति श्री शारदाप्टक समाप्त । Closing Colophon १६२० शारदा-स्तुति Opening . Closing । Colophon. देवी श्रीश्रतदेवने भगवति त्वत्पादपकेरूहा सपूजयामधुना ॥ अरिहन भासिय ____णमहोबिह सिरसा ॥ इति सारदा-म्नुनि अष्टक-जयमाल समाप्तम् । १६२१. सरस्वती स्तुति Opening i Closing : जन्ममृत्युजराथ यकारण । समयसारमह परिपूजये ॥१॥ मन्यनीतिानि सस्तुनि पठति य मत मनिमान्नर । विजयकीतिगुरो कृतमादरात्सुमतिकल्पलता कलमश्नुते ॥६॥ ति सरस्वतिम् ति । Colophon। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ Catalogus of Sinshrit. Pralni, A suransi & Hindi Manscripts (Sicira) १६२२. सरस्वती-स्तोत्र Opening ! नमन गारदा देवी जिनाम्पायुजवातिनीम् । स्वामर प्रावो ना विद्यामान प्रदर्शन में ॥१॥ Closing | मन्चनी मया देरी समननाचना । गरफा नमारका बीजापुस्त धारणी ॥१२॥ ति गम्मतिम्नोत्रम् । #10 मि. 01.०७६८ । Clolophon १६२३. सरस्वती स्तोत्र Opening Closing जयरामरमानातिन सरपम् । दिगिया यज्जनगादानामन रजोनित अवनीन्यपूर्वनाम् ।। कु ठान्नेपि वृद्धापतिप्रायो यन्मिन् यनि पवम्, सम्मिन् देवि तव स्तुतिव्यतिकर मदानराके वयम् । तद्वार-चापने मे तदा धृतवनामम्माकमेव त्वया, क्षनव्य मुग्यरत्रकामी येनाति भक्तिग्रह ॥३१॥ पति श्री मपूर्णम् । Colophon: १६२४ शास्त्र-वनती Opening : वदो त शारत्र जिनेम भापित महासुर्ग निधान । जा सुनत सब अज्ञान भाजत होत ज्ञान महान ।। ते शास्त्र जी मेरे मन वसो, मेरी हरी भौ भव भीर है। इति शास्त्र की विननी मपूर्णम् । Closing . Colophon : Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली, Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १६२५. सिद्धि-भक्ति Opening । सिद्धानुडू तकर्मप्रकृति-समुदयान साधितात्मस्वभावान् वदे सिद्धिप्रसिद्ध तदनुपमगुणप्रगटाकृतितुष्ट । सिद्धि, स्वात्मोपलब्धि. प्रगुणगुणगणो छादिदोपापहाराधोग्योपादान् युवत्या दृपद इह यथा हेमभावोपलब्धि ॥१॥ सुगइगमण समाहिमरण जिनगुणसम्पत्ति होउ मज्झ ।। इति सिद्धभक्ति । देखे, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ७७० । जि० र० को०, पृ० ४३० । Closing Colophon , १६२६. सीता-विनती Opening Closing . प्राणी डारे अरहत का गुणगाय अरे प्राणी, जब लग सास शरीर मे जी ॥१॥ रामचद्र मुकति पद्यास्यातौ सीता सुरपति थाय जी जो नरनारी ए गुण गावै तौ देव ब्रह्म पदपाय जी । इति सीता जी की विनती सम्पूर्णम् । Colophon : १६२७ श्रीपाल-विनती Opening ! Clos gn । Colophon • देखे, ऋ० ११९३ । देखे, ऋ० ११:३। इति श्रीपालविनती सपूर्णम् । १६२८ श्रीपाल-विनती Opening : Closing . देखें, ऋ० ११६३ । देखें, ऋ० ११९३ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prak it, Apabhrama & Hindi Manuscripts ( Stotra ) इति श्रीपाल राजा की विनती सम्पूर्ण । १६२९ श्रुतभक्ति Colophon. Opening Closing : Colophoa : Opening : Closing : Colophon Opening Closing Colophon स्तोष्ये सज्ञानानि परोक्षप्रत्यक्ष भेदभिन्नानि । लोकालोक विलोकन लोलिननल्नोकघनानि सदा ||१|| सुगमण समाहिमरण जिगगुगसपत्ति होउ मज्झ ॥ इति श्रुतज्ञान भक्ति । देखे, जं०मि० भ० ग्र० I, क्र० ७७३ | १६३०. स्तोत्र प्रभुभराजी सर्वपापविर्निमुति सुभगोलोकविश्रुतः । वाहित फलमाप्नोति लोकेस्मिन्नात्र सशय ॥ इति श्री शारदायास्तोत्रम् | चद्रप्रभ देवदेवम् || १६३१• स्थापना आरती १६३ सुखसयलमष्टि जिमजिणवर सुरणरफणपति सेविय । तिम चारित्रमयलधम्मदपर सामय पदवरसेदिय ॥१॥ इह भविय मावो शिवमुह्यावहो चारित्रजयमालवरा st भवि उहहरहो परभवसुल हो नासय कम्मठ नियरा ||२५|| इति श्री तेरह प्रकार आरती समाप्तम् । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumai Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing! Colophon Opening Closing Colophon. Opening. Closing : Colophon : १६३२. स्तुति हरु प्रभात सुऐ नित उठत है, दर्शन प्रभु चरनन चित चहत है। वारवकि भई हार रहेप के चाव दर्शन प्रचिभूत मे घरे ||१|| यह भजन भये सपूर्ण सीता के वनवास की । हरि कही घरी प्रीत प्रभुचरन ए चित लाई के इति श्रावण शुक्ल स० १६६५ शनिवार हरीदास ने आरा मे लिखे है । १६३३. सुप्रभात - स्तोत्र श्री नाभिनदन जिनो जितसभवेस देवोभिनदन जिनो सुमति। जिनेन्द्र | पद्मप्रभो प्रणतदेव - सुपार्श्वनाथ चद्रप्रभोस्तु सतत मम सुप्रभातम् 11911 श्री पार्श्वनाथ परमार्थ विदाम्वरेण इति सुप्रभातस्तोत्रम् । १६३४. सूर्यसहस्रनाम तुहिण किरण विष पोसयत्यसुमाली, जयति कमललक्ष्मी भाषयत्य सुमाली । रजतविरद भीतिमोदयन् कोकवृ दम्, मुखरनरनागे सर्वदा वदनीये ॥ तेजोनिधिवृहतेहा वृहत्कीत्ति वृहस्पति । अहिमान् श्रीमान् श्री सूर्यदेव नमोस्तुते ॥ इति श्री सूर्यसहस्रनाम सम्पूर्णम् । कैवल्य वस्तुविद जिन सुप्रभातम् ||४|| 199 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscrripts (Stotra) देखें, दि. जि० स० २०, पृ० १५२ । जिल र को, पृ० ४५२ । १६३५. स्वयभू-स्तोत्र Opening Closing : चेन स्वयमोधमान लोडा जान्वामिता फैचन वित्तकायें । पोधिता फेचन मोगमार्गे तमादिनाय प्रणमामि नित्यम् ॥१॥ यो धर्म दगधा करोति पूरुप त्रीवातपरम्पतम्, गर्नश ध्वनिन मन प्रिफरण व्यापारध्यानिशम् । भव्याना जयमानया विमलया पुष्पाजलिदापयन्, नित्य गधियमातनोमि गफल स्वर्गापवरिपते. ॥ Colophon! पनि श्री स्वयमू ममाप्तम् । देय, जै० मि० भ० ग्र०, ० ७८३ । १६३६. स्वम्भू-स्तोत्र Opening : Closing : Colophon. देखे, प्रा. १६३५ । दे, १० १६३५ । इति स्वयंभू गमाप्त.। १६३७. स्वयभू-स्तोत्र Opening : देखे, क० १६३५ । Closing : Colophon : देखें, ऋ० १६३५ । इति स्वयभू सस्कृत सम्पूर्णम् । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing Colophon • , Opening: Closing Colophon : विशेष - १६३८• स्वयम्भू-स्तोत्र 4 मानस्तम्भासरासि ये संस्तुता विविधभक्तिः अनुपलब्ध । .. पीठिका स्वयम्भू ॥ विमला कमला जिनेन्द्रा || देखे, जे० सि० भ० ० I ऋ० ७८४ । १६३६. विनती करूना ले जिनराज हमारी क्रूना ले महाराज | टेक ॥ इति जितमाला अमल रसाला जो भव्य जन कठ धरई । सुर शिव सुन्दर बरइ || इति पूजन समाप्ता । ग्रन्थ में पूजा भी सकलित है । १६४०. विनती Opening हो दीन मधु श्रीपति कस्नानिधान जी । यह मेरी विथा वयो न हरौ बार क्या लगी ||१|| Closing 1 करुना निधानवान को अब क्यो न निहारे । दानी अनतदान के दाता हौ सम्हारो ॥ वृषचदनदवृ द को उपसर्ग निवारो । ससार विषममार से अवपार उतारो || इति विनती सम्पूर्णम् । Colophon : १६४१ विनती Opening : देखे, ० १६४० १ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing : Colophen : देखें, २० १६४० । इति श्री विनती सम्पूर्णम् । १६४२. विनती Opening ! Closing : त्रिभुवनपति स्वामी जी कम्नानिधानामी जी. सुनो अनरजामी मेरी विनती जी ॥१॥ दुप्टन देहु निकास नाधन को रख लीज। विनयं भूदरदाग ए प्रमु टोल न कीजै ।।१२।। इति सपूर्णम् । Colophon: १६४३. विनती Opening : तारि तारि जिनराज मनवत्र तन विनती करो। मैं जग वह दुख पाय मुख से किम वरनन करो ॥१॥ ज्यो जाने त्यो तारि विरद आपनो जान के। हम कितना हि निहार टेक पकर तारो सही ॥१०॥ Closing : Colophon इति विनती सोरठा सम्पूर्णम् । १६४४. विनती Opening । Closing भवविधन विनारानो दुरीय मरासनो अवसान सरण तु ही । जिन मासन जान्यो इन्द्रज माग्यो पहिल पूज तुमरि करौ । सदा जिनविव धरै निज भाल सदा जिन सेणेकतरिर्महात्मा । मज्ञानमागर त्रिवद्धनचन्द्रमूर्ति जीमाज्जिनेद्रवरक प्रविराजमान । अनुपलब्ध । Colop' on : Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah, Opening Closing : Colophon. Opening : Closing Colophon : Opening : Closing Colophon : १६४५ विनती श्रीपति जिनवर करुणायतन दुखहरण तुम्हारा वाना है। मोहि देहु विमल कल्याना है ॥ मत मेरी वार अवार करो, हो दीनानाथ अनाथ हि इति विनती सम्पूर्णम् । १६४६. विनती प्रभु आज हमारी बारी है । ॥ टेक ॥ चलो रे मनवा मागीतु गी दर्शनकरस्या प्रभु जी का । सिद्धक्षेत्र की करो वदना दुख टलि जावै दुरगति का ॥ विषम घाट पहाड विच परवत ऊंचा मांगीतु गी का । इम पर मुनिवर मुक्ति गया है कोड निन्यानव गिनती का ॥ चलो रे ॥ उगणीस की साल जेठ सुदि करी जातरा पचसका । हरकत कहै सुद्ध भाव सों मेरो चरण जिनेश्वर का । चलो । 119311 इति मागीगी की विनती सपूर्णम् । १६४७. विनती तुम तरणतारण भवनिवारण भविक मैन आनन्दनम् । श्री नाभिनंदन जगत वेदन आदिनाथ निरंजनम् ॥ मैं अधीन परवस पर विके तुम्हारे हाथ । इतनी करिको जानिये लाख बात की बात | इति श्री विनती मपूणम् । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhiamsa & Hindi Manuscripts (Stotra) १६४८ विनती Opening । Closing . देखे, फ० १६४२ । भव भव सुख पाव जी, प्रभु हो हूँ सहाइ जी। पार उतारी वो जी ।। विनती सम्पूर्णम् । Colodhon: १६४६. विनती Opening । हो दीनबन्यु श्रीपती कस्ना निधान जी यह मेरी वोया क्यो न हगे ......... || टेक ॥ करुनानिधानवान को - अब पार उतारो ॥ टेक ॥ इति विनती सपूर्णम् । Closing ! Colophon| १६५०. विनती Opening Closing Colophon देखे, क ० १६४२ । देखे, ऋ० १६४२ । इति भूदरदास कृत विनती ममाप्तम् । १६५१. विनती Opening : Closing : देखे, ऋ० १६४० । तेरे दास निहार नीरम कीजिए जो नर नारी गावं जी। भव-भव सुख पावै जी, प्रभु होउ सहाई पार उतारीए जी। इति विनती सपूर्णम् । Colophon; Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab १६५२. विनती त्रिभुवन स्वामी Opening : Closing . देखे, ऋ० १६४२ । नर नारी गावै जी, भव भव सुखपावे जी । प्रभु होहु सहाई जी, पार उतारिए जी ॥ १६ ॥ इति दिनती सपूर्णम् । Colophon: १६५३. विषापहार-.स्तोत्र Opening : Closing : Colophon स्वामस्थित सर्वगत ममम्न व्यापारवेदीविनिवृत्तसग । प्रवृद्धकालोप्यजरोवरेण्य पायादपाणत्पुरुष पुराण, ॥ वितरति विहितार्था • सुखानियशो धनजय च ।। इति विषापहारस्तोत्र समाप्तम् । देखे, ज. सि. भ. प. I ० ७८५ । १६५४ विषापहार-स्तोत्र Opening Closing : Colophon . देखे, ऋ० १६५३ । . देखे, ऋ० १६५३ । । इति श्री धन जयविरचिते श्री विषापहारम्नोत्र समाप्त । १६५५. विषापहार-स्तोत्र Opening . Closing | Colophon देखे, ऋ० १६५३ । देखे, ऋ० १६५३ । इति विपापहारस्तोत्र सम्पूर्णम् । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Aabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra ) १६५६. विषापहार-स्तोत्र Opening Closing : देखे, ऋ० १६५३ । नि शेषत्रिदशेंद्रशेखरशिखा रत्नप्रदीपावली, साद्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटी माणिक्य दीपावली । क्वेय श्री क्वचनिस्पृहत्वमिदमिखानि यशो धनजय च ।।४० इति श्री धनजयकृत विषापहारस्तोत्र समाप्तम् । Colophon १६५७ विषापहार-स्तोत्र Opening . Closing : देखे, ऋ० १६५३ । - येन तेन प्रकारेण विहित। पुन. त्वयि विषये नुति विषया नमस्कारपूर्वकस्तुति युक्ता. च भक्ति विद्यते ॥४०॥ इति श्री विषापहार स्तोत्रस्य वालावबोध टीका सपूर्णम् । Colophon. १६५८. विषापहार-स्तोत्र Opening । Closing : Colophon: देखे, क० १६५३ । देखे, क्र. १६५३ । इति श्री धनजयसूरि विरचित विषापहारस्तोत्र सम्पूर्णम् । १६५६. विषापहार-स्तोत्र Opening ! Closing : Colophon ' देखे, ऋ० १६५३ । देखे, क्र. १६५३ इति विषापहार. । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १६६० विषापहार स्तोत्र Opening : Closing Colophoni Opening : Closing ; Colophon : Opening : Closing देखे, क्र० १६६१ । देखे, क्र० १६६१ । Colophon • इति श्री विषापहार भाषा समाप्तम् । १६६३. विषापहार-स्तोत्र • Opening : Closing Colophon : Opening देखे, ऋ० १६५३ । देखे, ऋ० १६५३ । इति विषापहार स्तवन समाप्तम् । १६६१ विषापहार - स्तोत्र विश्वनाथ विमल गुन विरहमान वदौ गुनवीस | ब्रह्मा विस्नु गनपति सुन्दरी वरु दानी देहूँ मोहि वागेसुरी ॥ भय मजन रजन जगत विषापहार अभिराम । स तजि सुमिरौ सदा सासी जिनेश्वर नाम || इति विषापहार सपूर्णम् । १६६२. विषापहार-स्तोत्र देखे, क्र० १६६१ । देखे, ऋ० १६६१ । इति श्री विषापहार स्तुति सपूर्णम् । १६६४. विपापहार-स्तोत्र देखें, क्र० १६६१ | Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Stotra) Closing : Colophon : देखे, ऋ० १६६१ । इति श्री विषापहार स्तोत्र भाषा सम्पूर्णम् । १६६५. विषापहार स्तोत्र Opening : Closing . Colophon: देखे, ऋ० १६६१ । देखे, ऋ० १६६१ । इति विषापहार स्तोत्र भाषा सपूर्णम् । १६६६. विषापहार स्तोत्र Opening : Closing i आतमलीन अनत गुन, स्वामी परमानद ॥ सुर नर पूजित तासु पद वदो ऋपभजिनद ।। भयभजन गजन दुरित विषापहार सुभाव । वैरिन मे सुमिरौ सदा श्री जिनवर के नाम ॥ इति श्री विषापहार स्तोत्र सम्पूर्णम् । Colophon १६६७ विषापहार-स्तोत्र Opening । Closing | Colophon : देखे, ऋ० १६६६ । देखे, क्र० १६६६ । इति विषापहारस्तोत्र सम्पूर्णम् । १६६८. रुहत्सहस्रनाम Opening : स्वयभुवे नमः ......... . चित्तवृतये ।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sidhhant Bhavan, Arrah Closing : इतिप्रवुद्धतत्त्वस्य स्वयमतु जिगीयत । पुनरुततरावाच प्रादुरासन जितक्रमो । इति श्री वृहत् सहस्रनाम जी समाप्तम् । Colophon: १६६६ वृहत् स्वयम्भू-स्तोत्र Opening : Closing . देखे, ऋ० १६३८ । • अनादि के कर्म कलक पक धाई चिद्विलायको अपुनर्भव की लक्ष्मी देह इह प्रार्थना हमारी सफल करो । इति श्री स्वामी समत भद्र पर्माहताचार्य विरचित वृहत् स्वयभू सम्पूर्णम् । Colophon १६७०. वृहत्स्वयभू-स्तोत्र Opening : Closing : Colophon! देखे, ऋ० १६३८ । देखे, ऋ० १६६६ । इति श्री स्वामी समतभद्र पर्माहताचार्य विरचित वृहत्स्वयभूम्तोत्र सम्पूर्णम् । १६७१. वृहत्-स्वयम्भू-स्तोत्र Opening : Closing | देखे, ऋ० १६३८ । ये ससुताविविधभक्तिसमतभरिद्रा दिभिविनतमौलि मणिप्रभाभि । उद्योतिताघ्रियुगल सकलप्रवोधास्तेनोदशतु विमला कमला जिनेन्द्राः॥ Colophon: इति स्वयम्भू वडा समतभद्र कृत समाप्ता । देखें, जै० सि० भ० ग्र. I, ऋ० ७८४ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २०५ Cataloguc or Sanskrit. Prakrit, Apabhraunsi & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Viche na) १६७२. योग-भक्ति Opening : Closing • Colophon थोसामि गणधरराण अणयोगण गुणेहिं तच्चेहिं । अजलि मउ लिय हथो अभिवदतो सविभवेण ॥१॥ छामि भते जोगत्ति फाउ सग्गो · सम्पत्ति होउ मज्झ । इति योग-मक्ति । देने, जै०सि० भ० म० I, ऋ० ८०० । १६७३ अभिषेक विधि Opening : श्रीमन मदिरसुन्दरे शुचिजलौते च दक्षित , पीठे मुक्तिपरं निधाय रचितत्वत्पादपुप्पनजा। इन्द्रोह निजभूपनार्थममल यज्ञोपवीत दधे, मुद्राककणसेपग्यपि तथा जनाभिषेकोत्सवे ॥१॥ वरुनदेवमा हानयामहे स्वाहा ॥५॥ पवन " अनुपलब्ध । । Closing । Colophont १६७४. आदिनाथ-पूजा Opening : परमपूज्यवृपभेस स्वयभूदेवजू, पिता नाभि मरुदेवि कर सुर सेवजू । कनक वरन तन तु ग धनुष पन सत तनो, वृपा सिंधु त आइ तिष्ठ मम दुख हनो। इत्य श्री जिनराजकर्ममहिमाम्तोत्र पठेद्य पुमान्, प्रात प्रातरुदानभावसहित सम्पक्तशुध्याश्रितः । योगीर्दश्चिरकाल तस्सतपसा यत्प्राप्यते तत्सुखम्, Closing i Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah तत्प्राप्नोति पर पद स्मतिमानानदमुद्राकित. ॥ इति चमत्कार आदिनाथ स्वामी पूजा सम्पूर्णम् । Colophoni १६७५ आदिनाथ-पूजा Opening सुप मदुपमतिथि मेटि कम प्रभु थापहि, नृप पद तजि वैराग्य ___ भये प्रभु आपही। ऐसो आदि जिनेश आदि तीर्थ करा, आह्वाहन विधि करु विविध नमके परा॥ Closing यह निज सार अपार जो भविजन कठधरिई । तेनिजर मरणावलि नासि भवावलि रामचद्र सिव तियपाई ।। इति श्री आदिनाथ जी की पूजा समाप्तम् । Colophon. १६७६. आदित्यवार-पूजा Opening ! इक्ष्वाकुबमकुल मडणअश्वसेनो तहल्लम, प्रतिवताजिनवामदेवी। तसा जिन विमलभूति सुरेन्द्रवद्य त्रैलोक्यनाथ जिनपार्श्वपद नमामि ॥१॥ Closing । इति रवि व्रत पूजा सुरपद पूजा जे करते नव वर्ष सही । मनवचक्रमधावहि सो सुरपद पावही पार्श्वनाथ 'फल देतसही ॥ Colophon | इति रविव्रत पूजा समाप्तम् । १६७७. आदित्यवार-उद्यापन Opening . श्री नाय' प्रगमामि नित्य, सुरसुरै पूजितपीठवद्यम् । रविव्रतोद्यायनक प्रवक्ष्ये भव्याय नून महतादरेण ॥१॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrami & Hindi Manscripts ( Puja-Pātha-Vidhāna ) Closing : Colophon : Opening : Closing : Cotophon. Opening Closing Colophon : Opening Closing Colophon रविव्रत महापूजा श्लोक पिंडीकृताधुना । पचात्माविने मया विप्र लेपकं चित्ततका ॥ इति श्री भट्टारक श्री विश्वभूषणविरचिते । आदित्यवार व्रत उद्यापन विधि पूजा समाप्ता । १६७८. अकृत्रिम चैत्यायल आरती नकल तुकारण दुग वारण रह नदीमर भावऊ- पूज्य गुहावऊ इति अकृत्रिम चैत्यालय जयमाल समाप्तम् । १६७६. अकृत्रिम चैत्यालय अर्ध्य सुरमुन्दरम् । चद्रकीति सुहावऊ ॥ २०७ वर्षेषु वर्षात पर्वतेषु नदीश्वरे यानि च मदिरेषु । यावन्ति चत्याययतनानिलोके, सर्वानि वदे जिनपु गवानाम् । अवनितलगताना कृत्तिमाकृत्तिमाना, वनभवनगताना दिव्यवैमानिकानण इहमनुजकृताना देवाराजाचिताना जिनवरमिलयाना भावतोह स्मरामि ॥१॥ .. कुन्देन्दु इति अकृत्तिमचैत्यालय जयमाल सम्पूर्णम् ।। १६८०. अक्कुत्रिभ-चैत्यालय पूजा प्रयछतुन ||५|| देखे, क्र० १६७९ | भव णालय चालीसा वतरदेवाणहुति वत्तीसा | कप्पामरचउवीसा चदो सूरो णरो तिरिओ ॥ इति अकृत्रिम चैत्यालये जिनविबेभ्यो नम | Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar lain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Allah १६८१. अनन्तजिन-पूजा Opening | Closing | क्षेत्रपालाय यज्ञस्मिन्न ...... विघ्नविनाशनम् ॥ भगतन की प्रनिपात कर मवजीवन की काज सरया । नरनारी पूजित क्षेत्रपाल मदा मनवाछित आस भरया ।। इति कवित। Colophon । १६८२ अनन्तपूजा विधि Opening ! Closing एकादशी के दिन पूजन कर व्रत थापन कर तथा आचमन कर तथा द्वादशी के दिन ऐसे ही करें । जीव समासा ।१४॥ अजीव ॥१४॥ गुणस्थान ॥१४॥ मार्ग ॥१४॥ भूत ॥१४॥ रज्जू ॥१४॥ पूर्व ॥१४॥ प्रकीर्णक ॥१४॥ मल ॥१४॥ अथ ॥१४॥ कुलकर ॥१४॥ नदी ॥१४॥ प्रकृत ॥१४॥ रत्न ॥१४॥ चतुर्थदश पदार्थ चितन व्यौरा । इति अनतपूजन विधि । देखे, ज. सि० भ० न० I, ऋ० ८०४ । Colophon! Opening . Closing . Colophon: विशेष १६८३. अनंत पूजा विधि भाद्रपद शुद्ध त्रयोदशी से रात्रि अनतव्रतद्ध'इजे, मायास्नान करावै, शुभ्रवस्त्रनेसाव · अष्टदलकमलकरावे। ॐ ह्री श्री यसमस्मैददत्तानतफल · नित्य घेयाचे मत्र । इति अनतपूजनविधि सम्पूर्णम् । ५१।२३ मे यज्ञोपवीत मत्र हैं, जो इसीका अग है। १६८४. अरिहत-दक्षिणी गगा सिन्ध के निर्मल नीरा स्वर्णभृगार परविहीरा । जन्म मृत्यु जराकृत दूर · ॥ Opening i Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ Catalogue or Sanskrit, Prakrit, Apabhransa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhina) Closing : Colophon: नस्पष्ठ-(जीर्ण) अनुपलब्ध । १६८५. अष्टवीजाक्षर-पूजा Opening • Closing . Colophon: पूर्वपने में दक्षिणपत्रं श्री पश्चिमपने ही उत्तरपने वली ईशानपत्रे की अग्नियपत्रे डी नात्यपने को पवनपत्रे जौं कुवेरसने यं इत्यादि अष्टवीजाक्षरस्थापनम् । विद्यादेव्या इमा " कामान् कुरुध्व परान् ।।१०।। प्रति पूर्णाषं वृहत् द्रव्येन अर्घ ददात् । इति पोडशविद्यादेवता पूजन विधानम् । १६८६. अष्टान्हिका-पूजा Opening : Closing : सोपडाहय ... ... प्रतिमा समस्ता ॥ यावति जिनचंत्यानि विद्य ते भुवनत्रये । तावति सतत भक्त्या त्रि. परीत्य न माम्यहम् ॥१८॥ उति अण्टान्हिका पूजा समाप्ता । देखें, दि० जि० ग्र० २०, पृ० १६० । जि०र० को०, पृ० २० । Colophon! १६८७. अष्टान्हिका-पूजा Opening • Closing . Colophone देखें, ऋ० १६८६ । देखें, ऋ० १६८६ । इति अष्टान्हिका पूजा संपूर्णम् । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing : Colophon : Opening Closing Colophon : Opening Closing • Colophon : Opening : १६८८. अष्टान्हिका- पूजा आहूय सवोषडिति प्रणीत्वा ताम्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान् । वषटू पदेनैव च सन्निधाय नदीश्व रद्वीप जिनान्समच्चै ॥१॥ आरतिय जोवइ कम्मइ धोवइ सग्गाववग्गह लहू लहइ । ज जमण भावइ त सुह पावइ दीण विकासुण भासुइ ||१८|| इति अष्टान्हिकाया पूजा समाप्ता । देखे दि० जि० प्र० ० पृ० १६१ । १६८१. अष्टान्हिका - पूजा मध्ये मडपमालिख्येद्वरतरे पूर्व .. 100 - आयुर्वैर्ध्य इति श्री नदिश्वर पक्तिवध पूजा समाप्ता । १६६० अष्टान्हिका- पूजा तीर्थोदकं भणिसुवर्णघटोऽिपनीत, पीठे पवित्रवपुषं प्रविकल्पितीर्थं । लक्ष्मीसुता गहनवीजविदपंग, सरथापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् ॥ नदीश्वर जिन धाम प्रतिमा महिमा को कहै | द्यात लीन्हो नाम यहीभक्ति शिव सुख करें ॥१०॥ इति नदीश्वर द्वीप अष्टान्हिका जी की पूजा जययाला भाषा संस्कृत सहित सम्पूर्णम् । 1 तदच्च ततः ||१| भवता देषाईतामर्हता ॥ १६६१• अढाईपूजा सरव पख में बडी अठाई परव है, ' 1 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Pija-Patha-Vidhana) Closing : नदीश्वर सुर जाहि लेयबहु दरब हैं । हम सकति सो नाहि इहा कर थापना । पूजे जिण ग्रह प्रतिमा है हित आपना ।। नदीश्वरजिनधाम प्रतिमा महिमा को कहै । द्यानत्त लीनो नाम यही भगत सव सुख कतै ।।१६।। इति श्री अढाई पूजा जी समाप्तम् । १६९२• बाहुबलि-पूजा Colophon ! Opening : Closing : वाहुमान जो षडवली चक्ररेन की, लखी मनित समार सवे विच्छेद की। धरो दिगवर भेष शान्तमुद्रा वरी, घानअघात जेहान ठय थिर लक्ष्मीवरी ॥ पूजन पचकुमार तणी जे नरकर, हरमत हरवलचक्रसक्रपद ते धरे । सुरगादिक सुखभोग तिरथपद पायही, धर्म अर्थलहिकाम मोक्ष सुरपायही । इति श्री पचकुमार की पूजन सम्पन्नम् । इसमे बाहुबलि पूजन और पचकुमार पूजन दोनो हैं । Colophon: विशेष १६९३. बाहुबलि-मुनि-पूजा Opennig Closing : देखें, ऋ० १६६२। जेनर पढ़े विसाल मनोरत सुद्धसो । ते पावं थिर वास छूट ससार सो।। ऐसो जान महान जैन जिन धर्म को। देय अक्ष भडार ध्याऊ अलख ध्यान को ॥२४॥ इति श्री वाहुवल मुनी की पूजा सम्पूर्णम् । Colophon: Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab १६६४. भैरो- राग Opening : Closing Colophon : Opening : Closing : Colophone : Opening : Closing 1 Colophon ; 1 भली कीनी भौर भयं । आए हो भवन हमारे, भली कीनी ये ॥ आस करें उरगदास, नाथ चरण तुम्हारे || भली० ॥ इति भैरौ । १६६५. बीस-तीर्थं कर-अर्ध्य श्री मंदिर आदि जिनद बीसो मुखकारी । सुविदेह माँहि अभिनद पूजत नरनारी ॥ थिति समवसरन के मांहि त्रिभुवन जनं तारक । हम पूज अर्ध चढाय आनन्द के कारक || इह वर्तमान सुखकर दक्षिण देस महा, तह श्री गुर सुगुन भडार राजन हे सुमहा । वसुदेव जथो चितल्याय हे त्रिभुवन स्वामी, हय पूजन पद सिरनाय कीजे सिवगामी ॥१॥ इति । १६६६• बीस विरहमान पूजा पूर्वापर विदेहेषु विद्यमान जिनेश्वरा । स्थापयामि अहमत्र सुद्ध सम्पक्त्तहेतवे ॥१॥ श्रीमदिरा दिप देवमजितवीर्यमुत्तमम् । भूयात् भव्यमता सौप्य स्वर्गमुक्तिसुखप्रदम् ॥ इति श्री वीनविरहमान पूजा जयमाल सम्पूर्णम् । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२१३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscrripts ( Puja-Patha-Vidhana) १६९७. वीस-विरहमान-पूजा Opening : Closing ! Colophon | देखे, २० १६९६ ।। देखें, ऋ० १६६६ । इति श्री वीरहमान पूजा समाप्तम् । १६६८. बीस-विरहमान-पूजा Opening । Closing । देखे ऋ० १६६६ । ये वीस तीर्थ करन की सेव तुम्हारी कीजिये । कर जोरि सेवक विनवै मुक्ति श्रीफल लीजिए ।। इति श्री वीस विरहमान पूवा समाप्ता। Colophon! १६९६ बीस-विरहमान-पूजा Opening । Closing : Colophon: देखें ऋ० १६६६ । देखे, ऋ० १६६६ । इति श्री वीस विरह मान पूजा सपूर्णम् । १७००, बीस-विरहमान पूजा Opening : Closing | देखें, क० १६६६ । तुमको पूजा वदना कर धन्य नर सोय । सारदा हिरदै जो धरै सो भी धरमी होय ।६। इति श्रीषीसविरहमान पूजा जी समासम् । Colophon: Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १७०१. बीस-विद्यमान पूजा Opening | Closing | देखें, क० १६६६ । देखें, ऋ० १६१६ । Colophone इति श्री वीसविरहमान पूना समाप्तम् । १७०२. बीस-तीर्थकर-जकड़ी Opening i Closing । श्री मंदजिण वदस्पा जग सारही, पुंडरीकजिणराय । जबूदीप विदेह में जगनार हो मेरि पूरवदिसिभाय ।। सातमा जिन समयगामी मोरिव बेसु दिगवरा । भावना भावं हरष सेती होइ मुक्ति स्वयवरा ॥ इति वीस विरहमान की जखडी सम्पूर्णम् । Colophon| १७०३. बीस-विरहमान आरती Opening । Closing | प्रथम श्रीमदर स्वामी जुगमधर त्रिभुवण धारिए ॥१॥ इम बीस जिनवर सघ सुखकर सेव तुम्हारी कीजिये । करि जोर सेवक वीन प्रभु मणवछित फल दीजिये । इति वीस विरहमान जी की आरती समाप्तम् । Colophon: १७०४. बीसतीर्थ कर जयमाला Opening | Closing . देखे, ऋ० १७०३ । प्रभुजी आनद सदेस घ्यावो शिव सुख पाइये । एवीस जिने सुर सग जिनकी सेव नित प्रति कीजिये ॥१॥ करि जोर शती करें विनती मुक्तिफल पाइरे ॥ . Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) Colophone इति वीस तीर्थकर की जयमाल सपूर्णम् । १७०५. चन्द्रप्रभुपूजा Opening । सुभ अतिसय चउतीस प्रतिहारज अधिकाही । अनतचतुष्टययुक्त दोष अष्टादस नाही ॥ अह्वानन विधि कहूँ नाय सिध सुध करि मनही । लोक मोह तम हरत दीप अद्भ त ससि जिनही । वसुद्रव्य ले सुधभावतै जजू तिहारे पाय । देह देव शिव मुझ अवै अही चददुतिराय ॥१४॥ इति श्री चद्रप्रभु जी की पूजा सम्पूर्णम् । Closing : Clolophon: १७०६. चन्द्रप्रभुपूजा Ope Closing : वरचरित चार गुन अकलधार भवपार वसे हैं । हे त्रिजगतार सहज ही उदार शिवनार रस है ।। चद जिनन्द जजन्त तन्त सुख सेवति होई । चद जिनन्द जजन्त निराकुल दद न कोई ।। चद जिनन्द जजन्त चहन्त सबै मिलि जावै । चद जिनन्द जजन्त अजित नित हर्ष वढावै ॥ इति श्री चन्द्रप्रभोजिनदेव की पूजा सम्पूर्ण । Colophon: १७०७ चारित्रपूजा Opening देवश्रुतगुरुनत्वा कृत्वा शुद्धिमिहात्मनः । सम्यक वारिप-रत्नम्य वध्ये सक्षेपतोर्चनम् ।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing , अधउ आलस्सउ पगुल वि जिणवर भासियय । तिण तई विणु मुत्ति ण भणइ जणिपु ।। इति चारित्रपूजा । देखे, दि० जि. न. र०, पृ० १६३ । Colophon : १७०८ चारित्रपूजा Opening . Closing : देखे, ऋ० १७०७ । विरम-विरम मगान्मुच मुच प्रपचम । विसृजमिोहसृजब विद्धि विद्धि स्वतत्वम् । कलय कलय वृत्त पश्य पश्य स्वरूपम्, कुरु कुरु पुरुषार्थ निवृतानदहेतु। ॥१४॥ इति पडिताचार्य श्री नरेन्द्रसेन विरचिते चारित्रपूजा समात्ता। Colophon: १७०९. चारित्रपूजा Opening • Closing Colophon देखे, ऋ० १७०७ । देखे, क्र० १७०७ । इति श्री पडिताचार्य श्री नरेन्द्रसेनविरचिते। रत्नत्रयपूजा जी समाप्तम् । १७१०. चतुर्विंशति-यक्षिणी-पूजा Opening : चतुर्विंशतियक्षेशान् पूज्यामि सदादरात् । आह्वानयामि तिष्ठेत्र जिनयज्ञ स्थिरा भवेत् ॥१॥ ॐ ह्रीं चतुर्विशतिकुलदेव्याय जिनसासने सर्वविघ्नोपशात्यर्थ जिनयज्ञविधाने पूर्णाघ दद्यात् ।। Closing | Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrañśa & Hindi Manuscripts (Pūjā-Pātha-Vidhana ) Colophon Opening : Closing Colophon Opening Closing Colophon : Opening Closing इति चतुविशति यक्षिणी पूजा । १७११. चतुर्विंशति मातृका पूजा आद्य तीर्थकृता सर्वा सर्व्वविघ्नप्रशातये, प्रणम्य शिरसा जैन स्थापना प्रवदाम्यहम् ||१|| दिव्यं नीरैश्चदनै रक्षतेस्तै इति चतुर्विंशतिजिनमानृका पूजनविधानम् । १७१२. चतुर्विंशति-तीर्थ कर-पूजा सुभिरमत्रभवेभवत पदाबुजनताजनताजनताम्पति । इति नतोस्मि भवत्यहमन्वह दिने ॥ कृतोय सुभो ॥ ॐ ह्री अर्ह श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथाय धरनेन्द्रपद्मावती सहितअतुल बलवीर्यं पराक्रमाय दुष्टोपसर्गविनाशनाय इद जल गधं पुष्प अक्षत नैवैद्य दीप धूप फल अर्ध महाअ निर्पयामि । अनुपलब्ध | १७१३. चतुर्विंशति-तीर्थंकर-पूजा वृषम आदि अतवीर चतुर्विंशति जिना, ध्यान षडग गही हने कर्म वसु दुर्जना । वसुगुण जुत तसुधराव ये नव छारिकै, अह्वान विधि करू गुणीघ उचारिकं ||१|| २१७ जो को इह व्रत भावी करो, ते नर मुक्त पथह वरो । श्री भूपन पद प्रनमी सही, कथा ग्यानसागर मुनी कही ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar lain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon : इति श्री अनतव्रत कथा समाप्तो। रामचन्द्रेण लिपि कृत आरामध्ये लाला विजन लाल जी लिखापितम् । लेखकपाठकयो शुभ भवतु । इसमे कई पूजाएं सग्रहीत है। विशेष १७१४ चतुर्विशतितीर्थंकर-पूजा Opening ! Closign ! रीषभ अजित सभव पूज्य पूजत सुरराय ॥ भुक्ति-मुक्ति दातार चौपीसो जिनराजवर । तिन पद मन वच धार जो पूजे सो शिव लहै ।। इत्माशीर्वाद. इति श्री समुच्चय चतुर्विंशति पूजा सपूर्णम् स. १६५० । देखे, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८१६ । Colophon : १७१५ चतुर्विशति-तीर्थ कर-पूजा Opening । Closing . Colophon: देखें, ऋ० १७१४ । देखे, ऋ० १७१४ । इति श्री समुच्चय चतुर्विशति पूजा समाप्तम् । १७१६. चतुर्विशति-तीर्थ कर-पूजा Opening : Closing : Colophon: देशकालादिमावज्ञो निर्मम • शुद्धिमान्वर । साच्दारायादिगुणोपेत. पूजकः सोत्रशस्यते ॥ यावच्चंद्रदिवाकर - .... कल्याणकोटिप्रदम् ।। इति श्री च विशति तीर्थङ्कराणा सस्कृत पूजा सम्पूर्णम् । देखे,,जि. र० को०, पृ० ११६ । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puja Patha-Vidhāna ) १७१७. चतुर्विंशतिजिन जयमाला Opening : Closing : Colophone : Colophon Opening: देखें, क्र० १७१३ | Closing Opening: Closing : Colophone : वदितानमर Orening Closing • पूरा इव ॥१॥ लक्ष्मीवधूनाम् ॥ २१६ गुणविद्धा इति श्री चतुर्विपति जिन जयमाला समाप्ता । सवत् १६३२ वर्षे चैत्र शुदि ११ शनी । १७१८. चोवीस तीर्थ कर-पूजा ए नाम जिनेश्वर दुरितक्षयकरि जो भविजनक वि धरई । हुये दिव्य अमरेश्वर पुहिमे नरेश्वर रामचद्र शिवतिय वरई ||२५|| इति श्री चोवीसतीर्थंकर पूजा समाप्तम् । १७१६. चौबीस तीर्थकर - पूजा श्री वृपमादि विरातिमा चौवीसह जिनराय । आह्वानन ठार्ड करू, तिन घेर गुणगाय ॥१॥ जे जिव कुट्टक पट्ट तजि सुभभावन जिन पूज्य रच्चावे | ते जिव ' धरणेन्द्र खगेन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्र तणो पद पावै ॥ समाप्तः । १७२०. चौबीस तीर्थकर - पूजा द्धि बुद्धि दायक पदकज || वृषभ आदि चौवीस जिनेश्वर ध्यावही || अध करें गुणगाय सुर बजावही || Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrak. Colophon] इति श्री चतुर्विंशति तीर्थङ्कर पूजा सम्पूर्णम् ॥ १७२१. चौवीस-तीर्थकर-पूजा Opening : Closing : Colophon: देखे, ऋ० १७२० । देखे, क्र. १७२० । इति श्री चउवीस तीर्थकर जी की पूजा सपूणम् । चौधरी रामचद्र जी कृत । सवत् १८३१ वर्षे श्रावणमासे शुक्लपक्ष तिथौ पचम्या। शुभम् । १७२२. चौवीसी-पूजा Opening • Clo ing | Color hon . देखे, क्र. १७१४ । । देखे, ऋ० १७१४ । इति श्री समुच्चय पूजा सम्पूर्णम् । इह पुजन जी की पोयो श्री व्रतजी के उद्यापन मे बावू परमेसरी सहाय जी की भार्या वनसी कुमर ने चढाया गागील गोर मीति फाल्गुन वदी १२ सन् २२८३ साल? १७२३. चतुर्विशति तीर्थकर पद Opening : Closing : Colophon ' आदिदेव रिपम जीनराज ....... त्याची सेव ॥ चौवीसवा श्रीमहावीर - गौतम शीर ॥ इति चतुर्विणति पद मपूर्णम् । Orening . १७२४ चिन्तामणि पूजा जगद्गुर जगदब जगदानददायकम् । जगदग गाय पी ग्यं मयं चिनम् ।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhransa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhāna ) Closing । Colophon : दीर्घायु सुभपुत्रवनिता आरोग्यसत्सपदम्, प्राज्यक्षमा पतिसज्यभोगसुरता. सद्गेहभूषादयः । भूयासुर्भवता गजाश्वानगर ग्रामप्रभुत्वादय , श्री चिंतामणिपार्श्वनाथवररतो मागल्यमोक्षोद्यता ॥ इति इति श्री चिंतामणि पूजाव्रत समाप्तम् । लिखित सभूनाथ अयोध्यामध्ये सहादति ग्वा० सूचाके लसगरमध्ये स० १७९३ मगसिर सुदि १३, शनिवार । देखें, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८२७ । जि० र० को०, पृ० १२३ । १७२५. चिन्तामणि-पार्जनाथ-पूजा Op.ning : Closing : Colophon : देखें, मा० १७२४ । देखे, ऋ० १७२४ । इति श्री चिंतामणि पार्श्वनाय वृहत्पूजा विधान विधि समाप्ता। सवर १८१६ माघमासे कृष्णपक्षे तिथौ पचग्या वुधवासरे लिखित ज्ञानसागर पठनार्थ फकीरचदजी । पोथी लीखी सहजादपुर मध्ये लिपीतोय शुभ भूयात् । श्रीरस्तु । १७२६. चिन्तामणि-पार्श्वनाथ पूजा Opening | Closing | Colophon: देखे, ऋ० १७२४ । कल्याणोदयपुष्पवल्लि .. श्रीपार्श्वचिंतामणि ॥ इति श्री चिंतामणि पार्श्वनाथपूजा सम्पूर्णम् । १७२७. चिन्तामगि-पार्श्वनाथ पूजा Opening | दखे, १७२४ । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closing ! Colophon : इति जिनपतिदिव्या स्तोत्रलक्षातरेण · ... सर्वदान्वेपनीयम् ।। इति श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथ पूजनविधाने पीठिका स्तवन समाप्तम् । १७२८. चिन्तामणि पार्श्वनाथ-पूजा Opening : Closing : शान्त विदूर्ध्वरेफ " सजायते पूजयेद्यः ॥१॥ इह वर जयमाला पास-जिन-गुण-विशाला - वछिय बहुपषारम् ॥१२॥ इति चितामणि पार्श्वनाथपूजा। Colophon : १७२६. चिन्तामणि-जयमाल Opening । Closia: Colophon : तिहुयण चूडामणे भविय कमल दिनेस ...... जिणेसरहम् । अस्याने पुण्याहवाचना वाचनीय पुनर्शान्तिजिन ससिनिर्मलवक्रमित्यादिपठनीयम् । इति वृहद चिंतामणि पार्श्वनाथ पूजा समाप्त।। सवत् १८२५, पुषमासे शुक्लपक्षे तिथि त्रयोदश्या शुक्रदिने लिखित पडित सेवाराम कौशलदेशे तिलोकपुरनगरे श्री पार्श्वनाथ चैत्यालये। श्रीपार्श्वनाथ के भडार की पोथी परसौ लिखी निज पठनार्थ वा भव्य जीवस्य वाचनार्थ वधिता जिनशासन शुभ भूयात लेखकपाठकयो। अनित्य जीवित लोके अनित्य धनयौवनम् । अनित्य पुत्रदाराश्च धर्मकीत्तियसस्थिरः ।। १७३०. दर्शनपाठ दर्शन देवदेवस्य दर्शन पापनाशनम्, दर्शन रवर्गसोपान दर्शनं मोक्ष धनम् ।। Opering Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ Catalogue of Sanskrit, Piakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Puja-Patha-Vidhana) Closing : जन्म-जन्मकृत पाप, जन्म कोटिमुपार्जितम् । जन्ममृत्युजरातका, हन्यते जिन दर्शनात् ।।१२॥ इति श्री दर्शन सम्पूणम् । Colophon: १७३१. दर्शनपाठ Opening : Closing Colophon देखे, क्र० ७१३० । देखे, क्र. १७३० । इति दर्शनस्तोत्र सम्पूर्णम् । १७३२ दर्शनपाठ Opening : Closing : Colophon : देखे, ऋ० १७३० । देखें, ऋ० १७३० । इति जिनदर्शन सम्पूर्णम् । १७३३. दर्शनपूजा Openign । चहु गति फन विषहर नमन, दुख पावक जलधार । ' शिव सुख सदा सरोवरी, सम्यक् त्रयी निहार ॥१॥ सम्यक् दरसन रतन गहीजे.. इहा फेरि न आवना ।।२३।। इति दरसन पूजा। Closing । Colophon १७३४. दर्शनपूजा Opening परस्याभिमुखीश्रद्वा सुद्धचैतन्यरूपत । दर्शन व्यवहारेण निश्चयेनात्मन पुन । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing Colophon : Opening Closing : Colophon Opening Closing Colophon : Opening Closing : Celophon : Opening अतुल सुखनिधान सर्व कल्याणवीजम्, जननजलधिपोत भव्यसत्वं कपात्रम् । दुरिततरुकुठार पुण्यतीर्थं प्रधानम् । पिवतु जितुविपक्ष दर्शनाख्य सुधाशु || दर्शनपूजा | १७३५. दर्शनप ूजा देखे. ऋ० १७३४ । देखे, क्र० १७३४ । इति पडिताचार्य श्री नरेन्द्रसेनविरचिते दर्शनपूजा समाप्ता । १७३६. दसलाक्षणी-पूजा उत्तमक्षान्तिमाद्यन्त ब्रह्मचर्य सुलक्षणम् । स्थापयेत् दशधाधर्ममुतम जिनभाषितम् ॥ करे कर्म की निर्जरा भव पीजरा विनास | अजर अमर पद को लहै द्यानत सुख की रास ॥ इति श्री दसलाक्षनी जी की भाषा जयमाल सम्पूर्णम् । १७३७. दशलाक्षणी - पजा देखे, ऋ० १७३६ । देखे, ऋ० १७३६। इति श्री दसलाक्षणी पूजा जी समाप्तम् । १७३८. दशलाक्षणी-पूजा देखें, फ० १७३६ | Page #431 --------------------------------------------------------------------------  Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closing : Colophon ' कोहाणलु चुक्कउ होऊ गुरुक्कउ जाइ रिसिंदहि सिट्ठइ । जगताइ सुहकरु धम्ममहातरु देइ फलाइ सुमिट्ठइ ।। इति दसलाक्षणी पूजा । देखें, जै० सि० भ० ग्र०, I, ऋ० ८३३ । दि० जि० ग्र० र०, पृ० १६५ । १७४२. दशलाक्षणी-पूजा Opening : देखे, क्र. १७३६ । Clsoing : Colophon: देखे, ऋ० १७४१ । । इति दसलाक्षण पूजा संपूर्णम् । १७४३. दशलाक्षणी जयमाला Opening : Closing i पयकमलजिणदहि तिहूवणचदह पणवमि भावे गणहरह । पुण सरसइ वाणी धम्मपहाणी धम्मकहमि जह मुणिवरह ।। मूलसघपदृधरो धम्मचन्दगुरो सातिदासुब्रह्म भणइ णिस । जिणदास हणदणु दहलक्षणगुणु सूरदास तुम करहु थिस ।। इति दसलाक्षणीक गुण जैमाल समाप्त. । Colophoni १७४४. दशलाक्षणी व्रतोद्यापन Opening : विमलगुणसमृद्ध ज्ञानविज्ञानशुद्ध , अभयवनसमुद्र चिन्मयूख- प्रचडम् । दत दम विधिसार सजजे श्रीविपार, प्रथम जिन विदक्ष्यं शुद्धताढ्य जिनेसम् । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catlogue ni Sirit, Print Apibhramit & IIindi Manuscrripts (Paj-Patha-Vidhana ) Closing Colophoa : डिप Opening Closing Colophon Opening : Closing : Colophon सेमदिन जिन देव मा निधिकरि कल्यानकारी नया ॥८॥ श्री श्रोतुयाण Tema ni farem feu pai 7 ******* १७८५. दिग्पालान ... २२७ दिदि०० ० ० १६६ । दिगीगाव ✰afım faria quid i दिवानाचन विधाण गमाप्नम् । f. 70 71, Jo qft 1 ० ॥ ० ६० । To To 1 To ५४ । To o 11, ECX I ० प्र० प्र० पृ० ८७ । प्रत्येकमादरात् ||१|| १७४६ देवपूजा ॐ जय जय जय नमोस्तु णमोस्तु नमोस्तु | णमो लोए सव्वसाहण | जाणिय णामहि दुरिय विरामह पणविणामिय सुरावलिहि । जे अणिहऊ णाहि ममप्रकुवा हि पणविवि अरहतावलिहि । इति देवपूजाष्टकम् | देखें, दि० जि० ग्र० २० पृ० १६७ । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening Closing : Colophon : Colophon : Opening Cosing १७४७. देवपूजा देखे, क्र० १७४६ । देखे, क्र० १७४६ । Opening : C'osing : की सकन मान त्रिन सकते सरधा धरो । द्यानत सरधावान अजर अमर सुख भोगवं । इति श्री देवपूजा सम्पूर्णम् । Colophon यतीद्रसामान्यतपोधराणा इति देवपूजा सम्पूर्णम् । १७४८ देवपूजा 1 भगवान जितेन्द्र | देखे, जै० सि० भ० ग्र० I, क्र० ८३७ । १७४९. देवपूजा जय 1३। जयवत प्रवर्त्तो ||३|| नमोस्तु | ३ | नमस्कार होऊ |३| णमो अरहताण । अरहतनि के निमित्त नमस्कार होऊ । णमो सिद्धाण | सिद्धन के निमित्त नमस्कार होऊ । णमो आयरिआण। आचाणि के अर्थ नमस्कार होऊ । " 1 मेरे मैं प्रभात समय मध्यान्ह समय सध्या समये विषे पूजा करए । सकल कर्म्म का छय निमित्त भावपूजा वदना स्तुत अन भक्त प्रतमा भक्ति पंचमहागुर भक्ति करिये कायोत्सर्ग कवि उवे पाप है तिनकू त्यागिए । इति श्री देवपूजा अर्थ मयुक्त सम्पूर्णम् । Page #435 --------------------------------------------------------------------------  Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing ! गुरोभक्ति गुरोभक्ति. गुरोभक्ति सदास्तु मे । चारित्रमेव समारवारण मोक्षकारणम् ॥२५॥ नही है । Colophon : १७५४ देवपूजा Opening : Closing ! Colophon विशेष देखे, क्र. १७४६ । ॐ ह्री नर्मलयमतिज्ञानप्राप्तेभ्यो अर्घम् ।। अनुपलब्ध्र । इसमे चन्द्रप्रभु पूजा मतिज्ञान पूजा के अधूरे पत्र भी है। १७५५ देवपूजा Opening । Closing . देखे, क्र. १७४६ । मिथ्यात तपन निवारण (न) चद समान हो। अज्ञान तिमिर कारण भान हो।। काल कषायन मिटावन मेघ मुनीस हो । द्यानत सम्यक् रतन त्रैगुन ईश हो ।।१४॥ इति वियालीस बोल आरती समाप्तम् । Colophon: १७५६. देवपूजा Opening | Closing देखे, ऋ० १७४६ । अणादि काल के जे कुवादि तिन के मिथ्यात कू दूरि करने वाले चउबीस तीर्थ कर है तिनहिं पूज हू। इति श्री चतुर्विंशति तीर्थ कर जयमाल । ॐ ह्रीं श्री ऋपभादि वर्द्धमाने नमः। Colophoni Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ Catalogue of San skrit, Praktit, Apabhrasa & Hindi Manuscripts (Pūjā - Pātha - Vidhūna ) १५७. देवपूजा Opening Closing Colophon⚫ Opening Closing # . Colophon. Opening Opening : Closing : Colophon 2 देखे, ऋ० १७४६ | देखे, क्र० १७४६ । अनुपलब्ध । Closing Colophon : १७५८• देवपूजा ॐ ह्री क्ष्वी स्नानस्थानभू, शुध्यतु स्वाहा इति स्नानस्थान शुचिजलेन सिचेत् । श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवद्य विशुद्धहस्त ईर्यापथस्य परिशुद्धविधि विधाय । स वज्रपंजरगताकृतसिद्धभक्ति अनुपलब्ध 1 १७५९ देवपूजा देखे, ऋ० १७४६ | देखे, क्र० १७४६ । इति देवपूजा समाप्तम् १७६०. देवपूजा 1 सर्वारिष्टणासाय सर्व मिष्टार्थदायिने । सर्वविधविधानाय श्री गौतमस्वामिने || देखे, क्र० १७५० । इति श्री देवपूजा समाप्तम् । 11 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening: Closing Colophon १७६२ देवपूजा Opening देखे, ऋ० १६४६ Closing देखे, ऋ० १७४६ | Colophon: " Opening: Closing Colophon १७६१. देवपूजा देखे, क्र० १७४६ | देखे, क्र० १७४६ । इति श्री जयमाल सपूर्णम् । Opening : Closing : Colophon इति श्री जयमाल सपूर्णम् १७६३ देवपूजा देखे, ऋ० १७४६ देखे, क्र० १७४६ । इति देवपूजा सम्पूर्णम् १७६४ देवपूजा देखें, क्र० १७४६ । देखे, ऋ० १७५० । इति श्री देवपूजा सम्पूर्णम् । १७६५. देवपूजा Opening ; देखें, क्र० १७४६ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sinserit, Pral it, Avibhanja & Hindi Manuscripts ( Puja Patha-Vidhāna ) Closing : Colophon Opening Closing : Colophon : Opening : Closing Colophon : Opening विशुष - Opening : जे तपनूरा नजमधीरा मिवधू सरईया | रयणत्तव रजिय कम्मह गजिय ते रिसिवर मइ झाईया || इति देवपूजा | १७६६• देवजयमाला ठाणे देखें, क्र० १७४६ । इति चतुर्विंशति तीर्थङ्कर जयमान सपूर्णम् । १७६७. देवप्रतिष्ठा विधि DOP • .... २३३ देखे जै० सि० भ० ग्र० I, क्र० ८४१ । दि० जि० प्र० र०, पृ० १६६ । ... परमपउ || प्रतिमावीजमन प्रसिद्ध नदुमिसुरामकृतहरिने रूप ........ | सुरमत्र जिनप्रभा । इति सुरमत्र समाप्त: । देखें, क्र० १७७० । १७६८. धरणेन्द्रपूजा पातालवास वरनीलवर्णं फणासहस्रान्वितनागराजम् । तमाह्वये सत्कमठासन च सस्थापये भूमिधर सुभक्त्या ॥ गथ इतना पुराना है कि सभी पत्र आपस मे सटे हुए है । अलग करने पर फट जाते है, जिससे Closing और Colophon का पता नही चलता । १७६९. धरणेन्द्र पूजा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon Opening . भक्तिजिनश्वरे यस्य .. तस्यैतत्सकल भवेत् ॥३५॥ इति नागेन्द्र स्तोत्रम् । १७७०. धरणेन्द्रपूजा धरणयक्षविलक्षणसहसै टितिधरोन्नतकच्छप्रवाहन । त्रिदशवदितपार्श्वजिनक्रम प्रणितमौलिमगीसदल श्रिय, ॥१॥ श्रीपार्श्वनाथपदपकजसेव्यमान पद्मावती मजतिवाड्मनवामभागम् । घोपरोपमर्गहनन निजमाणदक्ष त देवशुद्धिमतिग प्रमजामि नित्यम् इति पुष्पाजली धरणेन्द्र पूजा सम्पूर्णम् । Closing : Colophon: Opening । १७७१ गर्भ कल्याणक पणविवि एच परमगुरु गुरु जिनगमन, सकल मिद्ध दातार सुविधन विनासन । सारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनं ।। मगल करि चौसघह पाप प्रनासन । भासियो सुफल सुणि चित्त दपति परम आनदित भएँ, छह मास परि नवमास वीते रयग दिन सुखसो गऐ। गर्भावतार महत महिमा सुनत सब सुख पाईये. भणि रूमचद सुदेव जिनवर जगत मगल गाईये |८| इति श्री गर्मकल्याणक भाषा समाप्तम् । Closing । Colophon. Opening : १७७२ गिरनारपूजा थी गिरनार सिपर परवत पर दक्षिणा दिम मे सोहै नेमनाथ जिन मुक्तधाम सव जन मोहै कोड बहत्तर सात सतक मुनि शिव पद पायो ता थल पूजन काज भव्य मब अति हरपागे तिम तीरथ गज सुक्षेत्र को आह्वान विधि ठानि कर पूजा विजोग मन यच तन मुश्रावक जन गुण जानकर ।। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ Catalogue of Sinskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) Closing तिहु जग भीतर श्री जिन मदिर बने अकीर्तम महासुखदाय, नर सुर खग कर वदनीक जे तिनको भवि जन पाठ कराय । धन धन्यादिक सपति तिनके पुत्र पौत्र सुसोहत भलाय चक्री सुरषग इन्द्र होय के करमना स सिवपुर सुषथाय । Colophon • इति श्री तीन लोक सबधी पूजा सपूर्णम् । विशेप--इसमे सेठसुदर्शन पूजा तथा तीन लोक सन्धी पूजा भी सक लित है। १७७३. गिरनारपूजा Opening : Closing . देखे, ऋ० १७७२ । जैसवाल वर नित नैन सुख श्रावग ग्यानी । रामरतन सु पुत्र भयो धर्मामृत पानी ।। इति श्री गिरनार जी की पूजा सपूर्णम् । मीति फाल्गुन सुदी ३ । मदवासरे। लीखित जूनागढ श्री मदिर जी कापेया आनद जी। Colophon १७७४. गिरनारपूजा Opening : देखे, ऋ० १७७२ । Closing : - जे नर वंदत भाव धर सिद्धक्षेत्र गिरनार । पुत्र पौत्र सपति लहि पूरन पुण्य भडार ।। Colophon : इति श्री गिरनार जी की पूजा सम्पूर्णम् । मिति आपाढ सुदी ७ चित्रा नक्षत्र पहला पहर रात्रि वियं ५३३ ॥ मुनि के साथ श्री नेमनाथ जी उर्जयत टोक से जा जू नागढ गिरनार परवत पर है, सोरठ देश गुजरात मे मुक्त पधारे। नेमपुराण से देखना। विशेष - इसमे नीचे चार-पांच सोरठे भी लिखे गये है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing : Colophon Opening १७७५. गुरुजयमाला भवियभवतारण पंचमहाव्वयहं ॥१॥ ॐ ह्री पुलावकुसकुमीलनिर्ग्र थस्नातकेभ्यो नमः । इति गुरुजयमाल संपूर्णम् । ... १७७६ गुरुपूजा सपूजयामि पूजस्य पादपद्म युग गुरौ । तप प्राप्तप्रतिष्ठस्य गरिष्ठस्य महात्मने ॥ तेजव्रिज मस्तिचदमचमत्कारैकसवारिकम् कित्तिसारदशुभ्रमानधवल निरसेषदिग्व्यापिनी । आयुदीर्घतर निरामध्वपु लीलाधमणीकृत, श्री श्रीनिकर करोतु भवसामाचार्यभवित सताम् ||१०|| इति श्री गुरुपूजा संपूर्णम् । देखे, दि० जि० ० २०, पृ० १७२ । १७७७. गुरुपूजा देखे, क्र० १७७६ । पार्व अमरपद होइ ची कामदेव समानिया, इन्द्र चन्द्र धरनेन्द्र चक्री मन प्रतीत जू आनिया || जे सकल पद सीव सौख्यदाता इनहि छिन न भुलाइये, कहत वाल विनोदी मन वच मनहि वछित पाईया || इति श्री जिनगुन जयमाल सम्पूर्णम् । १७७८. गुरुपूजा देखें, ऋ० १७७६ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramin & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhāna) Closing : Colophon 1 देखें, ऋ० १४६५ । इति गुरुपूजा समाप्ता । १७७६. गुरुपूजा Opening ! Closing : Colophon: देखे ऋ० १७७६ । देखे, क्र० १७६५ । सपूर्णम् । १७८० गुरुपूजा Opening : Closing : Colophon 1 देखे, ऋ० १७७६ । देखें, ऋ० १७६५ । इति गुरुपूजा । १७८१. गुरुपूजा Opening : दिव्यमइलके रम्य चतुषुनोपसोभीते । स्थापयामि गुरो पादौ स्व स्व स्थान सिद्धये ।।१।। निसगविरागाय .. .. प्रणमाम्यहम् ।। गुरुपूजा सपूर्णम् । Closing ! Colophon : १७५२. गुरुपूजा Closing । काव्यं सकलगुण - • सूरो स्यापयाम्यत्रपीठे ॥१॥ भाव सुद्ध पूना करो सेवी गुरुचित्त लाय । तीन काल आरति करौ रिद्धि सिद्धि सुखथाय ॥१७॥ इति दादा श्री जिनसकलसूरि जी की पूजा सम्पूर्णत् । Colophon: Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrah १७८३ गुरुपूजा Opening Closing : सिद्धान्तसूत्रमकीर्णश्रुतस्कघवने यने । आचार्यता प्रपन्नस्य पादावभ्यर्चयेन्मुने ।। मुनिवर स्वामीनमू सिरनामी दोए करजोडी विनय करू । दीक्षा अति निर्मली द्योमुझउज्वली, ब्रह्मजिणदास भणि कृपाकरी) इति गुरुपूजाजयमाल मम्पूर्णम् । Colophon : १७८४. गुरुपूजा Opening : Closing । देखे, ऋ० १७.३ । कहो कहाँ लो भेद में वुध थोरी गुनभूर । हेमराज सेवक हिये भक्ति भरो भरपूर ॥११॥ इति श्री गुरुमहाराज की भाषा आरती सम्पूनम । Colophon। १७८५. होमविधि Opening . Closing । तद्यथा ॐ ह्री वी भू स्वाहा । पुष्पाजली । ॐ ह्री अत्रस्थ क्षेत्रपालाय स्वाहा ।। क्षेत्रपाल विधि ।। इति होमविधि ज्ञात्वा तत्रस्था जिन प्रतिमा सिद्धायतन यत्रानि पूर्वनिर्मापितजिनग्रहाभ्यतरे सस्थाप्य पुन पुन, नमस्कार कृत्वा नित्यव्रत गृहीत्वा देवान विसर्जयेत् । इति होम सपूर्णम्। Colophon: १७८६. जलयात्रा विधि Opening : प्रथमतडागे गत्वा जलसमीपे . ... पार्छ पूजा कीजइ ॥१॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) Closing . पश्चात म्नीनि को पोडसामर्ण दीजै पार्छ घट दीजे पाडे छपैया पटत ईशान वेदी मध्य फलण थापी जइ तिसकी विधि आगे मिशेष है। ति जलयत्रा विधि सपूर्णम् । सवोत्तर जलइ सविधि पूर्व नाइये । धीरस्तु । शुभमस्तु । Colophon : १७८७. जिनयज्ञविधान Opening नमो अग्हताण, णमो मिद्वाण णमो आयरियाण, णमो उवझायाण णमो लोए नव्यमाहूण - " । ॐ ह्री सुन्दृष्ट्ये नम । ॐ ह्री सुधावलोकिने नमः । अनुपलब्ध। Closing Colophon १७८८ जिनवर विनती Opening : Closing । श्रीपति जिनवर करुनायतन दुखहरन तुमारा ... ~ ...। हो दीनानाथ अनाथ हितजन दीन अनाथ पुकारी है। उदयागत कर्म विपाक हलाहल मोहि विथा विस्तारी है ।। विनती सम्पूर्णम् । Colophon १७८६ जिनगुण-सम्पत्तिपूजा Opening : Closing : वदे श्रीवृषभ देव वृपाक वृषदायकम् । षट्धर्मप्रणेतार कर्मभूभृतवज्रकम् ।। ये हस्तिनागे पुरिकौरवशो यश्चक्रिणायस्य स्तुति चकार । दानेश्रत्व जिनपुगवाय पुन स्तुव श्रेयगगाजिनानाम् ।। इति जिन गुण-साति-पूजा सम्पूर्णम् । Colophon. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah देख, जि० र० को०, पृ० १३५ । रा० सू०, पृ० २०५ ३०८ । १७६०. जिनवाणी-पूजा Opening i प्रकटति परमार्थे सूत्रसिद्धान्तसारे, निनपतिसमयेऽस्मिन् सारदासदधानम् । जगति समयसार कीर्तितः श्रीमुनिंद्र, स वसतु मम चित्ते सश्रुतज्ञानरूपः । जगति समयमार ते पर ज्योतिरूपै , सुवृतमति विद्यते ज्ञानरूप स्वरूपम् । १।। अग्यानतिमिरहर ज्ञान दिवाकर पढे गुन जो ग्यानधनी । ब्रह्म जिनदास भाम विवुध प्रकास मनवाछित फल वुध धनी ॥ इति श्री शास्त्रजिनवाणी जी की पूजा जयमाल भाषा संस्कृत सम्पूर्णम् । Closing : Clolophon: १७६१. जंबूस्वामी-पूजा Opening : Closing : चौबीसो जिनपाय पच परमगुरु वदिके। पूज रचो सुखदाय विघ्न हरो मगल करो ।। ॐ ह्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिन् श्रीमज्जबूस्वामिन् सकलगुणविराजमान जल चदन अक्षत पुष्प नैवेद्य दीप धूप फल अर्घ महार्घ निर्वपामिति स्वाहा । इति श्री इति श्री जबूस्वामी पूजा समाप्तम् । १७९२. जम्बूस्वामी-पूजा Colophon : Opening : Closing ! देखें, ऋ० १७६१ । देखे, ऋ० १७६१ । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & Hindi Manuscripts (Pūjā - Pātha-Vidhna ) Colophon Opening Closing : Colophon Opening Closing Colophon. Opening Closing इति श्री जबूस्वामी पूजा समाप्तम् । १७९३ जयमालिकापूजा उच्च लिया सुरसल्लिया पुणभत्तिय कुसुमजलि अमरदह सुरिदह हिय दुरिय ज्वाला पढमविय सुरायण भुवणसामिणा भोमहि पत्ता, 11 तिण्यरह सुहसुयरह पय पकयाणि खत्तिए । निरुमतिए विहिज्वातीए चउवीसह सुपवित्तिए । इति जयमालिका पूजा समाप्ता । - १७६४ ज्ञानपूजा प्रणम्य श्रीजिनाधीशमधीश सर्वसंपदाम् । सम्यग् ज्ञानमहारत्नपूजा वक्षे विधानतः ॥ १ ॥ दुरित तिमिरहस मोक्षलक्ष्मीसरोजम्, व्यसनघनसमीर विश्वतत्वप्रदीपम् । मदन भुजगमंत्र चित्तमात्तगसिंहम्, विषयसफरजाल ज्ञानमाराधयत्वम् ॥ इति श्री ज्ञानपूजा जी समाप्तम् । १७६५. ज्ञानपूजा 1 देखें, ऋ० १७६४ २४१ देखे, क्र० १७९४ ॥ Colophon : इति पडिताचार्य श्रीनरेन्द्रसेन विरचिता सम्यग्ज्ञान पूजा समाप्ता । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Deyakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah १७६६. ज्ञानपूजा Opening ! Closing • Colophon: देखें, ऋ० १७६४ । देखे, ऋ० १७६४ इति ज्ञानपूजा । १७९७. ज्वालामालिनी-पूजा Opennig जय ! ज्वाला जगज्योति होति आनन्द विधाई। जय | ज्वाला हर त्रिधा विधन मोद मगल दाई ॥ जय ज्वाला वर अमित शक्ति श्रुति मारद गावे । जय ज्वाला पद सुर मुनिन्द्र मति चिन्तित पावे ॥ पूजन सख्या छन्द की ..... - । इति श्री चन्द्रप्रभु जिनदेव वा श्यामल यक्ष तथा ज्वालामालिनी महादेवी जी की पूजन स्तुति ममाप्तम् । Closing • Colophon! १७६८. ज्वालामालिनीपूजा Opening | श्रीग्लौ प्रमेशजिनपकजसेवकिन्या. श्यामाख्या यक्षिसुवद्योपादपद्मयुग्मम् । चक्राधिपादिमनुज खलवद्यमाना, माह्या नानादिविधिनात्रसमर्थयेऽहम् ॥ वरमहिपत्राहिनि शनचुटगे ॥जय०।४५ । इति आरती सम्पूर्णम् । Closing । Colophon। १७६६. ज्वालामालिनी-पूजा Opening : देखें, ऋ० १७६८ । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ Catalogic of Sanskrit. Prakrit, Apabhramin & Tondi Manuscripts ( Pija-Pisha-Vidhina ) Closing : गायियमचिमोमितमोयगाने गजीयपनिभपादसुराग" ॥ Colorhon . अपना । १८००. ज्येष्ठजिनवर पूजा Opening : Closing । नाभिगमन . क्षीर समुद्र भणी ॥१॥ पायनि जिन परयानि यि मुवनप्रगे, सायनि मता भगव्या पिगैत्य नमाम्यहम् ॥३०॥ Tोठ जिनपर पूजा। Colophon: १८०१. कलगाभिषेक Opening : Closing : नौगध्यमगतमासाने न ........ निनोनमानाम् ॥१॥ मुनि श्री यनिताकरोदामिद गुन्यकरोत्पादकम् । जिन गधोदय पदे यष्टकर्म निवारणम् ।। इति लघु जिन कलनाभिक मपूर्णम् । Colophon १८०२. कलिकुण्ड-पूजा Opening : Closing ! Colophon चद्रायदात मरल सुगधरनिप्रपावरमालिपु जै ॥ दुष्टो० ॥ वरखगिन्दु उपसगुतिह । इति कलिकुण्ड पूजा ममाप्तम् । १८०३ कलिकुण्ड-पूजा विनाश प्रयुक्तम् ॥ Opening । Closing । ह्र कार ब्रह्मरुद्र सुरपरिकलित देखें, ऋ० १८०२ । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon : इति श्री कलिकुड पूजा जी समाप्तम् । देखें, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८६१ । दि० जि० ० र०, पृ० १७५ । जि० र० को०, पृ० ७४ । १८०४, कलिकुण्ड-पूजा Opening . Closing | Colophon . देखे, ऋ० १८०३ । देखे, ऋ० १८०२ । इति कलिकुण्ड पूजा । १८०५ कलिकुण्ड-पार्श्वनाथ-पूजा Opening । Closing : Colophon: देखें, ऋ० १८०३ । सर्पत्सर्पशदो - राजहसोवनाह ।।१३॥ इति श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ पूजा जयमाल समाप्त । १८०६ कलिकुण्ड-पार्श्वनाथ-पूजा Opening : Cloring : C lophon : हू, कार ब्रह्मरुद्र ... विद्याविनाशनम् । एव विघ्नविनाशन भयहर सव्व भयाविरम् । इति श्री कलिकुण्ड पूजा समाप्ता। श्री रस्तु । १८०७. कलिकुण्ड पार्श्वनाथ पूजा Opening • Closing देखे, क. १८०६ । देखें, ऋ० १८०३। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Pija-Patha-Vidhāna) Colophon . इति कलिकुण्ड पूजा जयमाला सम्पूर्णम् । १८०८. कंजिका-व्रतोद्यापन Openigni चिद् प चिदानन्द अपर निर्जर परम् । शान्त कर्मातिग पूत पुराण पुरुषोत्तमम् ।। Closing i अतुलगुणसमग्र स्वर्गमोक्षापवर्गम्, त्रिभुवनपरिरिद्धि. प्राप्तसर्वे प्रसिद्धिः । नमति सुजमकीति कोमलाकीर्त्य-कीति , रतनविवुधसातै पातु व मुक्तिकातं ॥७७॥ Colophon: इति कजिकाव्रतोद्यापन समाप्ता श्रीरस्तु । शुभ अस्तु । विशेष इसके आगे पूजा सामग्री विवरणिका भी है। १८०६. कर्मदहनपूजा Opening • Clo-ing : लोक सिखर तनछाडि अमूरत ह रहे, चेतन ग्यान सुभाव गेयते भिन महे । लोकालोक सो काल तीन मबविधि:धी, जानि सो सिद्ध देव जजौ - हुश्रुति बनी ॥ पुत्र प्राप्त करि भाद्धिसुतरी रोगाग्निधाराधरी, पापातापहरि प्रबोध सुचरी वत्रीन्द्रभूसोदगे। आनन्दाद्भुत धन्य धाम नगर। मायामय मा री, चामाभवतो शिवस्य भवतु श्रेयस्करी शकरी ॥ इति श्री कर्मदहनपूजा समाप्तम् । Colcphon : Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १८१० क्षमावणी पूजा Opening Closign । देवश्रुतगुरुन्नत्वा स्नापयित्वा महोत्सवे । ततश्चाष्टविधापूजा कुर्याद्बतविधायक ॥ यश्चैतन्यमचित्यमद्भ तगुणा श्रद्धानमत स्फुरन्, ज्ञान पचसमस्ततत्वविषय स्वात्मावबोधद्य ति । तच्चारित्रमन तरगत व्यापारपारगता , व तत्रितय त्रिधापतिणत यन्निश्चयानिश्चितम् ॥१२॥ इति क्षमावणी अर्घ सम्पूर्णम् । देखे, दि० जि० प्र० र०' पृ० १७७ । Colophon . १८११. क्षेत्रपाल पूजा Opening : युगादिदेव प्रयजे स्वहव्य इक्ष्वाकुवशोधरधर्मवेदी। चामीकराभाद्य तिकोटिभानुः प्रहा कृता घातकतुर्यभागम् ॥१॥ श्रीमच्छीकाष्टासघे यतिपति तिलके ... .. क्षेत्रपाना शिवाय Closing : ॥२७॥ Colophon: इति श्री विश्वसेनकृता षणवति क्षेत्रपाल पूजा सपूर्णम् । कार्तिकमासे शुक्लपक्षे तिथौ पौर्णमास्या भृगुवासरे। श्रीसवत्-१९५३ १८१२. क्षेत्रपाल-पूजा Opening ! क्षेत्रपालाय यज्ञ स्मिन्नत्रक्षेत्राधिरक्षणे । बलि ददामि दिश्यग्ने वेद्या विघ्नविनाशने ॥१॥ Closing • , आछो छद गानु मै तो रज्यो क्षेत्र को। मुनिसुभचद्र गावौ छद भैरू लाल को॥ जैन को उद्योत भैरू समकित धारी ।।१२॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit,Apabhrant& Hindi Manuscripts ( Päjä-Papha-Vidhina ) Colophon: अनुपलब्ध है। १८१३. धोत्रपाल-पूजा Opening . Closing Colophon : देगे, १० १८१२ । पुत्रो नमते पुमान् · · नामिदिमवाप्नुयात् ।। क्षेत्रपाल पूजनविधानम् । १८१८ त्रिपाल-जा Opening . Closing. वह मन्गति देव मन्गति मनिदायगाम् । क्षेत्रपाना विधि यध्ये पश्याना विघ्नहानये ॥१॥ मावि नहरायक्षा दक्षा गुणान्विता । एते पिरीयता यक्षा गारमिता मा १२६।। इति क्षेत्रानानां नामाफिन स्तोत्र सपूर्णम् । देखें, जि. २० को०, पृ०६८ । Colophon १८१५. क्षेत्रपाल-पूजा Opening | Closing देखें ऋ० १८१४ । शातिघारात्रय · क्षेत्रपाना शिवाय ॥२७॥ इति श्री विश्वसेनकृता पणवति क्षेत्रपाल पूजा सम्पूर्णम् । १८१६ क्षेत्रपाल-पूजा Opening ! देखें, क. १८१२ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closing : अवसाने राखहु पाप नासह पहिली पूजा तुम्हरी कही। करि पूजा जिनद ही, कमलानद ही विजपाल बहु सिरनवे ।। इति श्री क्षेत्रपाल पूजा सपूर्णम् । Celophon : १८१७. क्षेत्रपाल पूजा Opening । Closing : Colophon विशेष देखे, क. १८१२ । ' इति प्रवुद्धातत्त्वस्य स्वय • • प्रादुरासनजितक्रमी । इति श्री वृहत् सहस्रनाम समाप्तम् । इसमे क्षेत्रपालपूजा और वृहत्सहस्रनाम दोनो है। बीच के बहुत से पत्र नहीं है। १८१८ क्षेत्रपाल-पूजा Opening : Closing Coledhon : प्रणम्य श्री जिनेशाना वर्द्धमान जिनेश्वरम् । पूजा श्रीक्षेत्रपालाना वक्ष्ये विघ्नविहानये ॥१॥ लक्ष्मीप्राप्तकरी कलत्रसुखकरी चौरादि शत्रूहरि, शाकिन्यादिहरी प्रशर्मसुचरी राज्यादिनिवर्द्धनी । विद्यानदघनौघनामनगरी विघ्नीघनिर्णाशनी, पूजा श्री जिनक्षेत्रस्य भवतु सपत्करी चित्कगे। इति श्री क्षेत्रपाल पूजा सम्पूर्णम् । १५१६. लब्धिविधान-पूजा श्रीवर्द्धसानजिनचद्र .. .. सतत शुभक्त्या ।।१॥ जिणगुणरयणयह हिय देवायरू केवलणाणलहैवि चिर। हुय सिद्ध निरजणु भवभयवचणु अगिणिय रिसिपु गमुजिचिरू II इति लन्धविधान पूजा। Opening : Closing : Colophon ! Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana ) १८२० लघुकर्मदहन-पूजा Opening . Closing तो कर जिनको नमत मुर नर सत । ने वदो वरती नया येमे सिद्ध महत । में मत हीन विवेक नही अर प्रसाद में लीन । विरता लघु जग जानककर लघु मत स्व नवीन । इति लघु कर्महन विधान मपूर्णम् । मिति अपन सुदी २ सयद् उनमें अठाईन दमकत परमानद के मुकाम जवलपुर । ठीकाना हनुमान तलाव श्री मदर व दिवाने के पक्षवाडे मुनानात। Colophon ; विशेष इसके बाद कुछ भजन भी हैं। १८२१. लघुपचकल्याणक विधान Opening! Closing : वदो श्री अरहत पद मन वच तन चितधार । मगनमय जग में प्रगट पार उतारनहार ।। तुम दयाल जगनपति सिवदरमी भगवान । मिव सेवा फल दीजिये तारापति नित जान । सवत् येक पदार्थ ससगत मिलाय कर ठीक । पूरन पाठ भयो सो तव भद्र कृष्न नवमीस ।। इति लघु पचकल्याणक विधान मम्पूर्णम् । Colophon: १८२२. महावीर अर्घ्य Opening : दिन दिन गुनकर करी सदा बढत जग्न जिनचन्द । वर्द्धमान कही हरी जज्यो में पूजो सुचकद ।। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing , Colophon : ॐ ह्री अतिवीरनामेभ्यो अर्घम् । सम्पूर्णम् । १८२३. मगल Opening : Closing · पणविवि पच ... · जगत मगल गावई ॥१॥ वदन उदर अवगाह कलस गति जानिए · · जगत मगल गाईए॥ Colophon। इति दुतीय मगल सम्पूर्ण । १८२४ मत्रविधि Opening ते चतुर्दशी पुष्पार्क हो त्यारितादिने उपवास कृत्वा जाप्य १२००० त्रिसध्य अर्द्ध रात्री रव ४८०००। अनेन मत्रेण होम कुर्यात् सहस्र १२००० । शत्रुनाश भवति । अनेन मत्रेण गजेन्द्रनरेन्द्र सर्वशत्रुवशीकरण पूर्वमवस्मरणीयम् । Closing . Colophont , इति विधि सम्पूर्णम् । १८२५. मोक्षपैडी Opening । Closing ! इक्क समै रूचिवत नौ गुरुवरकै सुनु मल्ल । जो उफ अदर चेतना वहै उसाडी अल्ल ।। भव थिति जिन्ह की छुटि गई तिन्ह को यह उपदेश । कहत वनारसीदास यौं मूढ न समुझे लेस । इति मीक्षपड़ी समाप्तम् । Clolophon: Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabbrana & Hindi Manuscripts (Puja-Patha-Vidhāna) १८२६ नदीश्वर पूजा Opening : Closing : नदीश्वर पूरब दिसा तेरह श्री जिन गेह । आह्वानन तिनका करूं मन वच तन धरि नेह ॥१॥ मध्यलोक जिन भवन अकितम ताके पाठपढे मनलाई । जाके पुण्य तनी अति महिमा वरनन को करि सके वनाई ॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सपति वाढे अधिक सरस सुखदाई। इह भव जस परभव सुखदाई सुरनर पदलहि शिवपुर जाई ।। इति नदीश्वर पूजा सम्पूर्णम् । देखें, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८७६ । Colophon Opening १८२७. नदीश्वर-पूजा मध्येमडपमालिखेद्वर्त्तरे नदीश्वर मण्डलम । वर्णे पञ्चभिरातत गुणगुरु शक्र सता सम्मत । तन्मध्ये चतुरानन जिनवर विम्वस्य सातास्पद । दियेऽग्टभिरिष्ट-सौख्य-जननं कुर्यात्तदर्चा तत ॥१॥ आयु " देवार्हतामहणा ॥११॥ इति श्री नदीश्वरपूजा समाप्त ॥ Closing Corophon : १८२८ नदीश्वरद्वीप-पूजा Opening . फरिपूरपरिपूरितभूरिनीर. धाराभिराभिराभित. श्रीतहारिणीभि नदीश्वरेष्टदिवसानि जिनाधिपाना आन दतः प्रतिकृति. परिपूजयामि ।। इयथुणि वि जिणेसरू महिपरमेसरू · सुक्ख सो पावई ।। इति श्री नदीश्वर द्वीप पूजा जयमाल समाप्त.। लेखकपाठकवाचमश्रोतृणा समस्तु शुभ भवतु । Closing Colophon: Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening: Closing Colophon : Opening : Closing Colophon. श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Opening : Closing Colophon. १८२६. नवग्रहपूजा अर्कश्चद्रकुजसौम्यगुरुशुक्रशनिश्चर' । राहु केतु ग्रहारिष्टनासन जिनपूजनात् ॥19॥ कनवछित दाईक सेव महायक जो मर निज मन ध्यान धरं । ग्रह दुख मिटि जाई सौय्य लहाई जिन चौवमी पूजन करें || इति श्री नवग्रह अरिष्ट निवारन पूजा सम्पूर्णम् । देखे, जै० म० भ० ग्र० ], क्र० ८८१ । १८३० नवग्रह पूजा देखे क्र० १८२६ । देखे, क्र० १८२६ | इति श्री केनुअरिष्ट तित्रारक श्री मल्लिनाथ पार्श्वनाथ पूजा सम्पूर्णम् । शुभमस्तु | मंगलमस्तु । श्री वीतराग जी सदा सहाय । इति नवग्रहारिष्ट निवारक चतुर्विंशति जिनपूजा सम्पूर्णम् । नवग्रहशान्ति हेतु चविंशति जिवेन्द्र पूजन मन शुद्ध सागर जी कृत श्री । शुभ सम्वत् १९१३ फाल्गुन मासे शुक्ल पक्ष सोमवारे । १८३१. नवग्रह पूजा देखे, ऋ० १८२९ । देखे, क्र० १८२६ इति श्री नवग्रह अरिष्ट निवारन पूजा सम्पूर्णम् । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabh rasa & Hindi Manuscripts ( Pūjā - Patha-Vidhāna ) Opening 1 Closing : tolopho 1 Opening : Closing Colophon : Opening : Closing Colophon : Opening: १८३२ नवग्रह पूजा श्रीनाभिसनो पदपद्मयुग्म नरवासुखाणि ? प्रथम तु तेव, मन्नमन्नाकिशिरः किरीट सघच्छविश्वस्तमनीयत वै ॥१॥ आदित्यादिग्रहामर्वे नक्षत्रासुरासया । कुर्वन्तु मगल तरय पूजा कर्तृणस्य वा ॥ इति नवग्रहपूजा जिनसागरकृत सम्पूर्णम् । १८३३. नवग्रह पूजा प्रणम्याद्य ततीर्थेश धर्म तीर्थ पवर्त्तकम | भव्य विघ्नोपशात्वर्थं ग्रहाचविते मया ||१|| देखें, ऋ० १८२९ । इति श्री केतु अरिष्ट निवारक श्री मल्लिनाथ पार्श्वनाथ पूजा इति नवग्रह पूजा जो सम्पूर्णम् । शुभं अस्तु मगलम् पूर्ण अस्तु । १८३४. नवग्रह - पूजा ग्राम शब्दये युष्मानयात सपरिक्षदा । अत्रोवसता तावो जये प्रत्येकमादरात् ||१| ॐ ह्री नवग्रहेभ्य दक्षिणा प्रदानम् । इति नवग्रह पूजाविधानम् । १८३५. नवकार-पच त्रिशत्पूजा श्रीमज्जिने द्रव रसायनमारभूत पूज्य नरामरसुखेचरनायकेश्च । ध्येय मुनीद्रगणनायकवीतरागे सस्थापयामि नवकारसुमत्रराजम् । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sidhhant Bhavan, Arrah. Closing ! Colophon : जय परमणि रजण दुरिय विहडण वरदितु सुहा ।। इति श्री नवकार पैतीसी पूजा जयमाला सम्पूर्णम् । १८३६. नवपद-कलश पूजा Opening : - जोयन बी जे अरे पहिलो तीरथराय । सोल जोजन ऊचो सही ध्यानधरु चित लाय ।। वाणी वाचक जस तणी कोई न थई अधूरी रे ।।२२।। Closing : Colophon : इति इति नवपद कलश पूजा समाप्तम् । Opening : Closing । १८३७. नेमिनाथ जयमाला नेमिजी तुम्हारी हठ मानी ।। जो एतना करी ... पावै। Colophon इति नेमिजयमाल समाप्तम् । १८३८. न्हवण-पूजा Opening : मौगधसगतमधुव्रतझकृतेन सवर्णमानमिव गनिंद्यमाद्यौ । आरोपयामि विवुधेश्वरव दवद्य पादारविंदमभिवंद्यजिनोत मानाम् ॥१॥ .. .. जन्मजरामरण . ...॥ अनुपलब्ध । Closing I Colophon ! १८३६. न्हवण पूजा Opening : देखे, ऋ० १८३८ । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrainsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhāna ) Closing । अरूहा सिद्धा आइरिया उवज्झाया साहु परमेट्ठी । एदे पच णमोयारा भवे भवे मम सुह दितु ॥१॥ इति न्हवणपूजा। Colophon: १८४०. न्हवणकाव्य Opening दूरावनम्रसुरनाथकिरीट कोटि सलग्लरलकिरणच्छविधू सराघ्रि ॥॥ प्रस्वेदतापमलमुक्तमपिप्रकृष्ट भक्त्या जल जिनपते वहुधाभि सिंचेत् ॥१॥ य पाडुक • -- • ल त्वदीय बिबम् ।। इति विव स्थापण मत्र । Closing Colophon ! १८४१ निर्वाण-पूजा जयमाला Opening : Closing कमलणवेप्पिणु हिये धरेप्पिणु वाएसरेगुणगणहरह । णिव्वाणई ठाणइ तित्थसमाणइ पयडमि भत्ति जिनेस ह ॥१॥ इय सित्यकर तित्थइ पुण्णवित्तइ पठइ वियाणइ विमलयरे । तह पावपणासइ दुरिय विणासइ मगल सयल पहु तिधरे ।।१७॥ इति निर्वाण पूजा की प्राकृत आरती सपूर्णम् । Colophon: १८४२. निर्वाण-पूजा Opening : अपवित्रपवित्रो वा सर्वावस्थागतोपि वा। य स्मरेत्परमात्मानं स वाह्याभ्यन्तरे शुचि ।।५।। Closing देखें, ऋ० १८४१ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon: इति णिणि पूजा समाप्तम् । देखे, दि० जि० ग्र० र०, पृ० १८२ । १८४३. निर्वाण-पूजा सवसाहूण ॥१॥ Opening . Closing : Colophoni ॐ जय जय जय - - - देखे, ऋ० १८४१ । इति निर्वाण पूजा जी समाप्तम् । १८४४ निर्वाण-पूजा Opening । Closing ! ॐ जय जय जय । णमोस्तु णमोस्तु णमोस्तु । ... ... . णमो लोए सव्वसाहणं ॥१॥ कहे कहाली तुम सब जानो, द्यानत की अभिलाष प्रमानो। करो आरता वर्तमान की पावापुर निर्वाण थान की ॥७॥ इति आरती सपूर्णम् । Colophon: १८४५. निर्वाण-पूजा Opening : देखे, ऋ० १८४३ । Closing ! देखे, ऋ० १८४१ । Colophon । । इति निर्वाण पूजा। १८४६. निर्वाण-पूजाः Opening ! Closing : देखे, ऋ० १९४३ । सवत् सत्रह से इकताल, आसिन सुदि दसमी सुविशाल । भैया वदन कर त्रिकाल, जय निर्वान काण्ड गुनमाल । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Půjä-Pātha-Vıdhāna ) Colophon इति निर्वान काण्ड मम्पूर्णम् । १८४७ निर्वाण-पूजा Opening . Closing Colophon देखे, ऋ० १८४३ । देखे, ऋ० १८४१। इति श्री निर्वाण पूजा समाप्ता । १८४८ निर्वाण-पूजा Opening ! Closing । Colophon देखे, ऋ० १८४३ । देखें, ऋ० १८४४ । इति निर्वाण पूजा मम्णन । १८४६ निर्वाण-पूजा Opening । Closing । Colophon: वदी श्री भगवान को भावभगत सिरनाय । पूजा श्री निर्वा न को सिद्धक्षेत्र सुखदाय ।।१॥ श्री तीर्थकर चतुर वीस भगवान है । गर्म जन्म तपज्ञान भए निरवान है ।। अनुपलब्ध । १८५०. निर्वाण-क्षेत्र पूजा देखे, ऋ० १८४६ । संवत् अष्टादस सही सत्तर एक महान । भादौ कृष्ण ज सत्तमी पूरण भयो सुजान ॥२४॥ Opening ! Closing : Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon इति श्री सिद्धक्षेत्र पूजा सम्पूर्णम् । १८५१. निर्वाण क्षेत्र-पूजा Opening । Closing ! परम पूज चौवीस जहाँ जहाँ शिवथानक भयो । सिद्धभूम दशदीश मन वच तन पूजा करो ॥१॥ ए थल जावै पाप मिटावै गावै धावे भक्ति बढावै । जो पुजे सो शिव लहै ।। इति श्री सिद्धक्षेत्रकी पूजा सपूर्णम् । Colophon : १८५२. निर्वाणकल्याणक-पूजा Opening । Closing , Colophon: देखे, ऋ० १८४३ । देखे, ऋ० १८४१ । इति श्री निर्वाणकल्याणक जी की पूजा भाषा संस्कृत जयलाल सहित सम्पूर्णम् । १८५३ निर्वाण कल्याणक Opening कैवल दृष्टि चराचर देण्यौ जारिसो, भविजन प्रति उपदेश्यौ जिनवर तारिसो। भव भयभीत महाजन सरन जे आईया, रतनय सुम लछन शिव पय भाईया ||१|| रचि अगरचदन प्रमुख परिमल द्रव्य जिनजयकारियो। पद पतन अग्निकुमार मुकुटानल सुविधि सस्कारियो । निर्वान कल्याणक सुमहिमा सुनत सव सुख पाईये । भणि रूपचद सुरेव जिन्वर जगत मगल गाईये ।।६।। Closing Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & Hindi Manuscripts ( Pūjá-Pātha-Vidhāna ) Colophon 1 इति निर्वाण कल्याणक भाषा सम्पूर्णम् । १८५४. नित्यनियम पूजा Opening Closing i सौगन्धसगतमवुव्रत पादारविंदमभिवचजिनोत्तमानाम् ॥१॥ सुखदेवौ दुखमेटिवी एहि तुमारीवानी, मो अधीर की वीनती सुन लीजै भगवान । दरसन कीजै देव को आदि मध्य अवसान, सुरगन के सुखभोगके पावै पदनिरवान ॥ इति सम्पूर्णम् । Colophon. १८५५ पदलावनी Opening Closing | शिखर गिर के ऊपर तिर्थ कर विराजे । आधि रात मे याने देव दु'दुमिवाजे ॥ ममेद शिखर पर्वत केऊपर वीसतीर्थङ्कर मुक्ति गए । ककर ककर सिद्ध विरजे असख्यात मुनि मुनि गए । इति सम्पूर्णम् । Colophon • १८५६. पद्मावती-पूजाविधान Opening : Closing : Colophon: देखे, २० १८५७ । पापोभिदिव्यगध्ये, .- • पूजयामीप्टमिदं ॥१॥ अनुपलब्ध। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah Opening : Closing : Colophon Opening Closing : Colophon विशेष Opening १८५७. पद्मावती पूजा श्रीपार्श्वनाथ-जिननायकरत्नचूडा-, पाशांकुसौरभफलाकितदो चतुष्काः । पद्मावती त्रिनयना त्रिफणावतस-, पद्मावती जयतु शामनपुण्यलक्ष्मी ॥ या देवी रिपचोरवन्हिजमहा सकष्ट सहारिणी, या रात्रिचरभूत खेचरमहाबेतालनिर्णाशिनी, रकाना धनदायिनी सुखकरा इष्ठार्थ सपादिनी, सा मां पातु जिनेश्वरी भगवती पद्मावती देवता ॥ इति पद्मावीपूजा चारूकीर्तिकृत सम्पूर्णम् । देखे, दि० जि० ग्र० २०, पृ० १८२ । १८५८. पद्मावती पूजा देखे, ० १८५७ ॥ श्रीमत्पन्नगराजाग्रे वाराधारा करोम्यह सर्वशोकस्य शात्यर्थं भृगारनालनिर्गता ॥१०॥ नहीं है। इसमे पार्श्वनाथपूजा तथा धरणेन्द्रपूजा भी सकलित है । १८५६. पद्मावती पूजा श्रीमच्चतुद्विदशशोभितदीर्घ वाहिनी वज्रादिकायुधधरामहमा • ह्वयामि ॥ सस्थापयामि सुजनैरभिपूज्यमाना पद्मावतीक्षितेनुता फणिराज - काता ॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) Closing : नाहकारवशीकृतेन मनसा न द्वषिणा केवलम्, नैरात्म्य प्रतिपद्य नश्यति जना कारुण्य बुध्या मया। राज्ञ श्री हिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदिग्धात्मना, बौद्धोद्यान् सकलान् विजित्य सुगत पादेन विस्फालित ॥१६॥ इति अकलकाष्टकम् । Colopbon: Opening : Closing ! Colophon . १८६०. पद्मावती-पूजा नम श्रीपार्श्वनाथाय चतुर्विशति मगलम् ॥ श्रीपार्श्वनाथपदपकज-सेव्यमान • प्रभजामि नित्यम् ॥ अनुपलब्ध । १८६१. पद्मावती-पूजा Opening | Closing . जय कुसुमकुकुमारूणशरीर - पद्मावती ।। गभीर मधुर मनोहरतर सद्धोषरत्नाकरम्, वक्र पूर्णकर सुधाहितकर भक्तावुज भास्करम् । नानावर्णसुरत्नभूषितकर ससारसौख्याकरम् । श्रीपद्मावती देविमूत्तिसुभद कुर्वन्तु वो मगलम् । इति श्री पद्मावती देवी पूजा सम्पूर्णम् । देखे, जै० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८३२ । Colophon १८६२ पद्मावती-पूजा Opening । Closing ! Colodhon: देखे, १६६१ । देखे, के० १९६१ । इति श्री पद्मावती पूजा समाप्तम् । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६५ साल्पामा जापाठ Opening . Closing श्री मो . नर गा | २५ मा मापा मगरिमाम मात उग र निमग्नु भाका माग । 'पपा दममी दिन गुगार परभाग ॥१३॥ rfa sी चयिगि जिम जापानमः प्रजापाठ गमाग्ने Colophon: १८६६. पंचकल्याणकपाठ Openign | पणयिविषयपरमगुरुजिनशामन ... - • पापप्रणा रानम् ॥१॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Pūjā- Pātha-Vidhāna ) पावए अष्टौ सिद्ध इति श्री पच कल्याणक जी समाप्तम् । Closing Colophon : Opening Closing Colophon. Opening P Closing Col phon : चउसहि गए ||२५| २६३ देखें, जं० सि० भ० ग्र० I, ऋ० ८८ । १८६७. पंचकल्याणक पाठ देखे, ऋ० १८६६ । फुनि हरे पातक र विधन जे होय मगल नित नए । भनि रूपचद त्रिलोकपति जिनदेव चउ सघहिंगए ॥ २६ ॥ इति श्री पचकल्याणक सपूर्णम् । १८६८. पंचकल्याणक पूजा मिद्ध कल्याणरीज कलिमलहरण पंचकल्याणयुनतम् स्फूर्यदेवेन्द्रवर्ये मुकुटमणिगणप्तपादारविन्दम् । भवत्या नत्वा जिनेन्द्रसकलसुषकर कर्म्मवल्ली कुठारम्, कुर्वेऽह पूजन वै: प्रवलभवभय शान्तये श्री जिनानाम् ||१|| इति शान्तिधारा त्रय - कल्याणभूषिताः सुरनुता सत्य च वोधान्विता । भव्य सद्विधिना विधानसमये सपूजिता सस्तुता ॥ त्रैलोक्येश महोदरोभ्येव सुख समारक चाप्नुतम्, मोक्ष चापि दिशतु वे जिनवराः सर्वात्मना सर्वदा ॥ ६ ॥ इति श्री पचकल्याणकपूजा समाप्तम् । देखे, जै० सि० भ० प्र० I, क्र०८१७ । दि० जि० प्र०र०, पृ० १८४ १ Cagt, of Sht & Pkt Ms P 662 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १८६६. पचकल्याणक-पूजा Opening : Closing : देखे, ऋ० १८६८। अनेकतर्कमकर्षहतितवुद्योत्तमा । स्वद्धिनी च वयस्फूर्तिजीवात् श्री प्रतिवद्धनम् ॥ इति श्री पचकल्याणक पूजा जी सम्पूर्णम् । लाला सकरलाल रतनचद के माथे को पुस्तक । देखे, ज०सि० भ० ग्र० I, ०६०२। Colophon १८७०. पंचकल्याणक-दोहा Opening : Closing : कल्याणक नायकनमू , कलपकुख्ह कुलकद । कल्मष दुर कल्याणकर, वुधकुलकमलदिनद ॥१॥ तीन तीन वसु चद ये सवत्सर के अक । जेष्ट शुक्ल दशमी दिवस पूरन पढठो निसक । इति पचकल्याणक के सागीत कवित सम्पूर्णम् । Colophon; १८७१ पचकल्याणक-पूजा Opening , Closing ! परमब्रहमेभ्यस्तेभ्यो नमो निर्वाणमिद्धये । येषा नामान्यनतानि कातिभिरपि सस्तुवे ॥१॥ देह दीप्तप्रकारी सुताप्तसुकरी चक्रेन्द्रसपत्करी जन्मादिसुतरी। गुणाकरकरी स्वमोक्षधाम्नीकरी . रोगाद्यनासकरी ॥ इति श्री चतुर्विशतितीर्थङ्कर पूजा पचकल्याणक समाप्तम् । Colophon १८७२. पचकल्याणक-पूजा Opening : पच परमगुरु वदि करि पचकुमार मनाय । मदन ब्याधि मेरी हरो जगत करो सुखदाय ।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Opening । निजागनमानि रामन मुगग मुसामूनि । यामी गुरदम मोर मायामि पुर गय तसीय वियम् । Closing ! म पति हीन भगति यगायन - - जिन देय यो मटि जयो ॥१५॥ Colophon: मिश्री पगफमाणक गीतम् । १८७५. पच-मगलपाठ Ope.iing : Closing . Colophon • देगें, ऋ० १८६६ । देणे, ऋ० १८६७। इति श्री पद कृत पत्र मगल ममाप्तम् । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १८७६. पचमंगलपाठ Opening : Closing : Colophon : देखें क्र. १८६६ । देखे, ऋ० १८६६ । इति पंचमगल सम्पूर्णम् । १८७७. पचमेरु-पूजा Opening Closing | Colophon देखे, ऋ० १८७८ । ॐ नंदीश्वरद्वीपवावनजिनालयस्थ जिनेभ्यो नम । नही है। १८७८. पचमेरु-पूजा Opening : Closing : सवौषडाहूयनिवेश्य ताभ्या सानिध्यमानीयपड्परेन, श्रीपचमेरुस्थ जिनालयाना यजाम्यशीति प्रतिमासमस्ता ॥१॥ पचमेरु की आरती पढे सुनै जो कोय । द्यानत फल जाने प्रभु तुरत महा सुख होय ।। इति श्री पचमेरु जी की आरती भाषा सम्पूर्णम् । देखे, ज. सि. भ. ग्र० I, क्र. ८६१ Colophon : १८७६. पंचमेरु-पूजा Opening : Closing ! Colophon : देखे, ऋ० १८७८ । देखे, ऋ० १८७८ । इति पचमेरु की आरती समाप्तम् । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramśa & Hindi Manusciipts ( Päjä-Pātha-Vidhana ) १८९० पचमेरु-पूजा Opening : देखे, ऋ० १८७८ । गन्धपुष्पअक्षतदीपधूप नैवेद्य दुर्वाफलवह्निरपैं । श्री पचमेरोस्तु जिनालयाना यजाम्यशीति प्रतिमा समस्तम् । इति श्री पचमेरू पूजाष्टक समाप्न । Colophon • १८८१. पंचमेरु-पूजा Opening : Closing देखे, १८७८ । भूधर प्रति जेहा कर्म न एहा, भक्ति विपै दिठ भव्य जनौ। कर पूजा सारी अष्टप्रकारी, पचमेरु जयमाल भणी ॥१॥ इति पचमेरु पूजा । देखे, दि० जि. ग्र० र०, पृ० १०५। Colophon : Opening ! १८८२. पंचमेरु-पूजा जिनान् मस्थापयाम्याह्वानादि विधानत । सुदर्शनाख्यमेरुस्थान् पुप्पाजलि विशुद्धये ।। सुदर्शनादिमेरूणा पूजाकारिसुभावहा । रत्न-रत्नाकरेणासो पुष्पाजलि विशुद्धये ॥ इति श्री पुष्पाजलि पूजा समाप्तम् । Closign i Colophon. १८८३ प चमेरु पूजा Opening । तीर्य कर के न्हौन जलते भए तीरथ सर्वदा, ताते प्रदच्छन देत सुरगन पचमेरुनि की सदा । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ __ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sidhhant Bhavan, Arrah. दो जलधि ढाई दीप में सव गनत मूल विराजही, पूजी असी जिनधाम प्रतिमा होहिं सुख दुख भाजही ॥१॥ देखे, ऋ० १८७८ ।। इति पचमेरु पूजा Closing : Colophon: १८८४ पचपरमेष्ठी अर्ध्य Opening : Closing . श्रीमम्बिनोके निलकायमान मानुन्नतोमव्यमरोजमानः । देवेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रवद्यो वदे जिनेन्द्रोविश्रुत विधाता ॥ ॐ ह्री समोपारणादिश्वराय अप्टाविमतिगुण विराजमानाय श्री मोक्षलक्ष्मीनिवासाय श्री सर्वसाधुपरमेप्टिणो मम सुप्रसन्नवर. दा भवतु ॥ इति पचपरमेष्ठी अर्घ सम्पूर्णम् । Colophon : १८८५. पंच-परमेष्ठी जयम्गला Opening । Closing । मणुयण इद ....... अट्टावर मगल । अरूहा सिद्धा आयरिया उवझाया साहुरचपमेट्ठी। एदे पच नमोयारो भवे भवे मम सुह दितु ॥७॥ इति श्री पचपरमेष्ठी जयमाल सम्पूर्णम् । Co'ophon: १८८६ पंच परमेष्टी पाठ Opening : प्रथम पचपद को नमो गुरुपद सीम नवाय । तुच्छ बुद्धि रचना रचौ सारद सरन मनाय ॥१॥ जै जै श्री आचार्य नमस्ते, गुन छतीम वपुधाय॑ नमस्तै । तिन पदनमिघरि ध्यान नमस्ते, होतातमाज्ञान नमस्ते ॥३॥ Closing : Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrarasa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhāna ) जै जै श्री उपशाय नमस्ते, गुन पचीम सुखदाय नमस्ते, पदय जे धरि भक्ति नमस्ते, " - " - ॥४॥ गनुपलब्ध। Colophon : १८८७. पच-परमेष्ठी-पूजा Opening : Closing : श्रीमत निजगदेव त्रैलोक्यानददायकम् । चन्द्राक चन्द्रभ वदे स्वस्थप्रारब्धसिद्वये ।। धर्माधर्मप्रकाशनकनिपुणस्प्रैलोक्यविन्माधरो, मोहे भेशमृगेश्वरे गरिपुर्दे वाधिदेवो जिन । गसारार्णवतारकोहतमलो धर्मादिभूपो मुनिः, श्रीदेवेन्द्रसुकीतिपादनमित कुर्यात्सदा व सुखम् ।। इति श्री भट्टारक श्री धर्मभूपण विरचित परमेष्ठिपूजा समाप्ता। शुभमस्तु । Colophon १८८८ पंच-परमेष्ठी पूजा Opening : Clo ing श्रीधर श्रीकर श्रीपते भव्यन श्री दातार । श्री मरवज्ञ नमी सदा पार उतारन हार ।। सपत एक महन नव सतक सो सताईस । भादौ कृस्न त्रयोदसी बुद्धवार सो गनीस ॥ इति पच परमेष्ठी विधान सम्पूर्णम् । Colophon १८८६ पंचपरमेष्ठी-पूजा Opening : ॐ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याथ सावुभ्यो नम , ॐ अथ अरहतदेव के ४६ गुण । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing Colophon : Opening: Closing : Colophon : Opening Closing : Colophon : Opening ॐ ह्री षट् चत्वारिंशत गुण सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम । ॐ ह्री वीर्य्यान्तराय कर्मरहित श्री सिद्ध परमेष्ठिभ्यो नमः । नही है । १८६०. पंच परमेष्ठी पूजा कल्याणकीर्तिकमलाकर सच्च चिदृज्वलमह प्रकटीकृतार्थम् । उच्च निधाय हृदिवीर जिन विशुद्ध शिष्टेष्टपच परमेष्ठीमह प्रवक्ष्ये ॥ स्फुर्जत् प्रतापतपन प्रकटीकृताशाः श्री धर्मभूषणपदावुजचुम्नावनि । कर्त्तव्यमित्युदयत सुयसोभिन दिसूरे सदतरूदपीकरणैकहेतु. ॥४॥ इति यशोन दिविरचिता पचपरमेष्ठी पूजा सम्पूर्णम् । देखे, दि० जि० ग्र० २०, पृ० १८७ । १८६१ पार्श्वनाथ कवित्त प्रभु पारसनाथ अनाथ के नाथ कि जाप जपी जगवदन की । तिहुँ लोक के लायक लायक हौ सुखदायक आणि निकदन की ॥ जग सौ भे भीत तेरे पथसो परम प्रीति । ऐसी जाकी रीति ताकौ वदना हमारी है । नही । १८९२ पार्श्वनाथ- पूजा . न्मडल चारुचतुर्विंशति कोष्टकम् । महारम्य पचवण रत्नप्रकरसभृतम् ॥२॥ و Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prak it, Apabh ansa & Hindi Manuscripts ( Puja Patha - Vidhāna ) Closing Colophou : Opening Closing 1 Colophon Opening Closing • Colophon २७१ श्रीमज्जिनेन्द्रपादाग्रे समस्तलोकशातये । भृगारनाल निर्वाति शांतिधारा करोम्यहम् | नही है | १८९३. पार्श्वनाथ पूजा प्रानत देवलोक ते आये वामादेवी उर जगदाधार । अश्वसेनसुत नुत हरिहर हरि अक हरित तन सुख दातार ॥ जरत नाग जुग वोधि दियो तिहि सुरपद परम उदार । ऐसे पारम को तजि आरस थापि सुधारस हेत विचार ॥ पारमनाथ अनाथन के हित दारिद गिरि को वज्र समान । सुखसागर वर धन को शमि सम सब कपाय को मेघ महान || तिन को पूजे जो भवि प्रानी पाठ पढे अति आनंद आन । मोपा मन वहित सुख सब और लहे अनुत्रम निरवान ॥ इनि श्री पार्श्वनाथ पूजा समाप्तम् । १८९४ पार्श्वनाथ पूजा ह्री देव पार्श्वनाथ धरणिपतिनुत देवदेवेन्द्रवद्यम्, ह्रीकार वीजमंत्र जगदकलिमंत्र सर्वोपद्रवहारी । ॐ हा ही हूकारनार अधहरनमहा मक्तिरूप जनानाम्, व्यालीढ पादपीठ शठकमठमति माह्वय पार्श्वनाथम् । कल्याणोदयपुष्पवल्लभदय ससार सतापभृत्, तु गौ गभुजगमगलफणा माणिक्यमालायते । पायात्म्यज्जनभृ गभृ गसहितो नागेन्द्र पद्मावती, सेव्यसेवक वाछितार्थं फलद श्रीपार्श्व कल्पद्र म ॥ इति पार्श्वनाथ पूजा । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ २७२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab १८९५. पार्श्वनाथ-पूज Opening : सुद्ध तीर्थ पवित्र निर्मल पुण्य हिमकर शीतले । मिलि सुगध जगत पावन जन्म दाघ विनासने । परम श्री जिनपाद पकज विगत कल्मषदूषणम् । श्री पार्श्वनाथमह यजेवर फणि लाक्षन भूषणम् । जलादिगधाक्षतचारुपुष्प, नैवेद्यसद्दीपकधूपफलार्घदान । श्री लक्ष्मिसेनादिसुरासुरेश, श्री पार्शनाथ परिष्यमामि ।। इति पार्शनाथ पूजा सपूर्णम् । Closing ! Colophon । १८६६ प्रभाती मगल Opening : जै जै जिन देवन के देवा, सुरनर सकल कर तुम सेवा । अद्भुत है प्रभु महिमा तेरी, वरणी न जाय अलप मत मेरी ।। निस्तार के तुम मुल स्वामी, बडे भागनि पाइये । जन रूपचद चिंता कहा जब सरण चरण न आइयं ।। Closing : Colophon इति श्री मगल जीत समाप्तम् । १८९७. प्रतिष्ठा-तिलक Opening : अथ बिंबजिनेन्द्रस्य कर्त्तव्य लक्षणान्वितम् । ऋज्यावत सुसस्थान तरूणाग दिगम्बरम् ॥१॥ ये केचिज्जिन ........ नरेन्द्राच्चितान् ।।१०।। Closing । Colophon: इति श्री पडिताचार्य श्री नरेन्द्रसेन विरचित प्रतिष्ठातिलक समाप्तम् । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhāna ) १८६८ पूजामाहात्म्य Opening : नीर के चढाये वीर भवदघि पारहूजे चदन चढाये दाह दुरित मिटाईये। पुष्प के चढाये पूजनीक हूजे जगत मे अक्षत चढाऐ ते अभय पद पाईये। Closing पाप न कर पावै जाके जिय दया आवे धर्म को वढावे दया कही आचरन को। ताते भव्य दया कीजे तिहुलोक सुख लीज कहत विनोदीलाल जी तहु मरन को॥ Colophon ! इति सम्पूर्णम् । १८६६ पूजासग्रह यह पूरा प्रथ अस्पष्ट है। इसे पढा नहीं जा सकता । १६००. पूजासग्रह Opening : प्रणमि सकल सिद्धनित प्रणमि सकल जिनराय । प्रणमि सकल सिद्धान्त नमि गणधर के पाय ।। Closing . मनवछित दायक सेव सहायक जो नर निज मन ध्यान धरे । यह दुख मिटि जाई सौख्य लहाई जिन चौवीसी पूज करें। Colophon: इति केतु अरिष्ट निवारक श्री मल्लिनाथ पार्श्वनाथ पूजा सम्पूर्णम् । इति श्री नवग्रहारिष्ट निवारक चतुर्विशति जिनपूजा सपूर्णम् । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्री जैन सिद्धार भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah, १६०१ पूजा-विधान Opening | चितवत वदन अमल चद्रोपम ताज चिंता चित होय अकामी। त्रिभुवन चद्र पाप तम चदन नमत चरन चद्रादिक नामी । तिहु जग छाई चद्रिका कीरत चिह्न चाद चिंतत शिवगामी । वदो चतुर चकोर चद्रमा चद्रवरन चद्रप्रभु स्वामी ।। राखो सभार उर कोस मे, नहि विसरो पल रकधन । परमाद चोर टारन निमित करो पास जिर गुण कथन ।। Closing : Colophon विशेष- “समे कई पूजाएं सकलित है। १६०२ पुण्याहवाचन Opening . Closing श्री शातिनाथममरासुरमतिनाथ, भास्वकिरीटमणिदीधितिपादपद्मम् । त्रैलोक्यशातिकरणं प्रणव प्रणम्य, होमोत्सवाय कुसुमाजलिमुत्क्षिपामि ।। श्री शातिरस्तु शिवमस्तु जयोस्तु नित्यमारोग्यमस्तु: तव पुष्टि समृद्धिरस्तु कल्याणमस्तु अभिवृद्धिरस्तु दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रधन तथास्तु । इति पुण्याहवाचन सपूर्णम् । देखे, ज. सि० भ० न० 1, ऋ० ६१९ । Colophon। १६०३ पुण्याहवाचन Opening श्री निर्जरेगाधिपचक्रिपूर्व , श्रीपादपकैरहयुग्ममीणम् । श्रीवर्द्धमान प्रणिपत्य भक्त्या सकल्यरीतिकथयामि सिद्धं ॥१॥ Page #481 --------------------------------------------------------------------------  Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing : स्वस्तिभद्र चास्तु ३ न स्वी क्ष्वी हम स्वस्ति स्वस्ति स्वस्ति भवतु मे स्वाहा। इति पुण्याहवाचन । Colophon : १६०६. पुष्पाजलि पूजा Opening : Closing । वीरदेव को प्रनमि करि अर्चा करी त्रिकाल । पुष्पाजलिव्रत कथा को सुनौ भविक अघटाल । १॥ घाति कर्म निरमूलन करो निर्वानपद तव अनुसर । जा विधि व्रत प्रभाव तित लहयौ, ललितकीति कवि इस विधि वही ॥ पुप्पाज लिनत कथा समाप्तम् । Colophone १६०६. रत्नत्रयपूजा Opening : Closing i चिदगतिफणविप हरन मन, दुख पावक जलधार । शिवसुख सुधा सरोवरो सम्यक त्रयी निहार ।। एक सरूप प्रकाश निज वचन कह्यो न जाय । तीन भेद व्यौहार सब द्यानत को सुखदाय ।। इति रन्नत्रयपूजा सम्पूर्णम् । Colophon: १९१०. रत्तत्रयपूजा Opening : Closing : Colophon: विशेष पचभेद जाकै प्रगट गेय प्रकासन भान । मौह तपन हर चद्रमा, मोई सम्यक ज्ञान । देखे, ऋ० १९०६ । इति रत्नत्रय पूजा। इसी से ग्यानपूजा, समुच्चय आरती भी अन्तर्भूत है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Citilora of Sist PrikatAphrana & Hindi Manuscripts (Piya-Pajha-Vidhāna ) १९११ रत्नत्रयपुजा Opening Closing Corophon : Opening Closing : Colopl.on Opening Closing 1 Colophon : Opening : Closing : Colophon देखें १९१२ | मोहादिविष्टमनपादिने कलमहि । या विमान विमनहि अवतारयामि ॥ अनुपमध ་ १९१२. रतनय-पूजा श्रीमान श्रीमन नपि । QAZMAT ÁRIA Tea zenrassing ngu १० १९०६ । इति लभ्य भाषा वारसा मम्वृणम् द नं०मि० म० प्र० । ० ६२३ । 1 १६१३. रत्नत्रय पूजा २७७ देखे १० १६१२ । दनिदर्शनम्पूति इति श्री नवयपूजा समाप्तम् । १९१४ रत्नत्रय - पूजा मुक्ति ॥६॥ देखें ऋ० १९१२ | सम्यक दरशन शाण व्रत शिवमग तीनो मई । पार उतारण जान धानत पूजोत सहित ॥१०॥ इति समुच्चय पूजा जी समाप्तम् । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah १६१५, रत्नत्रय-पूजा Opening : Closing : Colophon : देखे,, ऋ० १९१२ । अतुलसुखनिधान ... ... • दर्शनाख्य सुधात्रु ॥३॥ इति पडिताचार्य श्री नरेन्द्रसेन विरचिते दर्शनपूजा समाप्ता । १६१६. रत्नत्रय-जयमाला Closing : जर जय पद्दर्शन अवभव निरसन मोह महातरु वारण । उपसम कमल दिवाकर सकल गुणाकर परम मुक्ति सुखकारण ॥ मदरागकषायरज समन भवदुर्नयदानवमदमनम् । परम शिवमौख्यनिवासफर चरग प्रणमामि विशुद्धितरम् ॥ नही है । देखे, ज. मि० भ० ग्र० I, ० ६३२ । Colophon : १६१७. रविव्रत उद्यापन Opening पार्श्वनाथमह वदे सर्वविघ्ननिवारकम् । कमठोपसर्गहग्न जोगीकल्पतरु परम् ।। , Closing | रविनतमहापूजा श्लोकपिण्डीकृताधुना । पचात्माविने विप्र लेखक चित्ततप्पका ।। इति श्री भट्टारक श्री विश्वभूषण विरचिते आदित्यवार व्रत उद्यापन विधि पूजा समाप्तम् । Colophon १९१८. रविव्रत-पूजा Opening • इश्वाकुवशकुलमडनअश्वसेनो तद्वल्लभ प्रतिवताजिनवामदेवि । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apibhramsa & Hindi Manuscripts ( Pūjā Pitha Vidhāra) जिन विमलमूत्तिसुरेद्रव द्य Closing : Colophon. Opening Closing Colophon. Openign Closing Colophon. तस्या इति रविव्रत पूजा सम्पूर्णम् । १६१६. रविव्रत-पूजा इति रविव्रत पूजा सुरपति पद दूजा जे करत नव व्रत सही । मन वचकाय धावही मो सुरपद पावही पार्श्वनाथ फल देत सही ||१२|| देखे, क्र० १ε१८ । वाकी वशभूषननृपो श्रीअश्वसेनोनुज, चामान दनइन्द्रचद्रधरनी ससेव्यमान सदा । प्रत्याहाय विभूषित वसुबुधि कल्याणकारी सदा, सेतुभ्य विधातु वाछितफल श्री नवकल्पद्रुम ||१२|| इति रविव्रत पूजा | १९२०. ऋषिमडल- पूजा २७६ .. त्रैलोक्यनाथ जिन पार्श्व पर नमामि ॥ Opening : देखें, ऋ० १६२० । प्रणम्य श्री जिनाधीश श्रीमच्चारुचरित्र नीगुणादिर्मुनिः ॥ इति ऋपिमंडल पूजा समाप्ता । णतत्रयाशीभिः श्लोकै प्रथाग्रथ । ३८० । सवत् १८१८ कार्तिक शुक्ले १४ बुद्ध े लि० पडित श्री हेमराजेन हुकुमचंद गहोई श्रावकस्य पठनार्थम् । १९२१ ऋषिमडल पूजा - चक्षे पृजादिमल्पश || Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. Closing | Colophon : देखे, ऋ० १९२० । इति ऋषिमडल पूजा समाप्ता। शतत्रयाशीभि श्लोक प्रथाअथ । सवत् १९५६, वैशाख कृष्ण ८ मगलवारे लि० । १९२२ ऋषिमडल-पूजा Opening । Closing : Colophon : देखे, ऋ० १९२० । देखें, ऋ० १९२० । इति ऋषिमडलपूजा विधि समाप्तम् । १९२३. ऋषिमंडल पूजा opening : Closing Colophon . देखे, ऋ० १९२० । देखे, ऋ० १६२० । इति श्री ऋषिमडलपूजा समाप्तम् । १९२४ सहस्रनाम-पूजा Opening i Closing । पचपरमगुरु कोनमो उर धरि परम सुप्रीति । तीरथराज जिनन्द जी, चोवीसो धरि चीत ।।१।। सम्वत् विक्रम भूप के जुग गतिग्रह ससि जान । यह रचना पूरी भई मगल मुद सुखथान ।। सिखिरच द कृत पाठ यह वन्यो अनुपम रास, जो पढसी मन लाय के पासी अख्य सुवास ॥ इति श्री जिनसहस्रनाम पूजा सम्पूर्णम् । शुभमस्तु । मिति पौषशुद्ध ८ बार सुभ बुध समत् १९४२ । को पूर्ण हुई सों जयवत प्रवत्तों। श्रीकल्याणमस्तु । शिखिरचद अग्रवाल गोइल गोती कवि श्री वृदावन के लघु सुअन कृत जयवत्तौ। Colophop : Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhamsa & Hindi Manuscripts ( Puja Patha-Vidhāna ) १९२५ सकलीकर Opening Closing Colophon : Opening : C'osing Colophon Opening Closing: Colophon Opening! इन्द्रश्चैत्यालय गत्वा वीक्ष्य यज्ञागसज्जिनान् । यागमगलपूजार्थं परिक-र्मात्ररेदिदम् ||१|| सिद्धार्थान् अभिमन्ज्य परमत्रेण सर्वविघ्नोप समर्थान् सर्वदिक्षु क्षिपेत् ॥ इति सकलीकरण सपूर्णम् । देखे, दि० जि० प्र० र० पृ० १६४ । १९२६ सकलीकरण विधि धृत्वा शेषरपावहारपटके ग्रेवेयका लवक केयूरागदमदिव धुरकटी सूत्रा च मुद्राकितम् । चचत्कु उनकर्णपूरममल पाणिद्वय ककणम्, मजीर कटकपते जिनपते श्रीगधमुद्राकिते || २८१ सर्वराजभय छि० सर्वचोरभय छि० सर्वदृष्टिभय छि० सर्वदृष्टिमृगनय छ० सर्वसर्पभय छि० सर्ववृच्चिकभय छि० सर्व ग्रहभय चि० सर्व दोपभय छि० सर्वव्या अनुपलब्ध । १९२७. सकलीकरण विधि वासपूज्य जगत्पूज्य लोकालोकप्रकाशकम् । नत्वा वक्ष्येत्र पूजाना मत्रान्पूर्वपुराणत ॥ लोक्य चोक्त श्री सोमसेनमुनिभि शुभमत्रपूर्वम् । इति श्री सकलीकरण विधि सम्पूर्णम् स० १९२१ । १९२८. सकलीकरण विधि देखे, क्र० १ε२५ । 1 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closing : Colophon: देखे, ऋ० १९२५ । इति सकलीकरण सम्पूर्णम् । ह० पडित परमानदेन वाबू धर्मकुमारस्य पठनार्थ मिति आषाढ शुक्लपक्षे शनिवासरे सवत् १९५५ का। शुभ भूयात् । १६२६. समाधिमरण Opening : गौतम स्वामी व सिरनामी मरण समाधि भला है । मोक्ष पाऊ नीस दिन ध्याउ गाउ वचन कलायै ॥१॥ Closing : हास आवे शीव पद पावे बील सुख अनन्ता । ____ द्यानत सोगत होय हमारी जैनधर्म जइवत ॥२०॥ Colophon: इति श्री समाधिमरण समाप्त.।। १९३०. सामायिकपाठ Opening Closing आदि ऋषम सनमति चरम तीर्य कर चउबीस । सिद्ध सूरि उवझाय मुनि नमो धारि कर सीस ॥ असे सामायिक पढौ सार जान मुनिवृ द । धर्मराग मति अल्प फुनि भाषामय जयचद ।। इति श्री सामायिक वनिका सम्पूर्नम् । Colophon : १६३१. सामायिक वचनिका Opening : Closing : Colophon: देखे, ऋ० १९३० । देखे, ऋ० १९३० । इति श्री सामायिक वनिका सम्पूर्णम् । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramla & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) १६३२ समवशरण Opening : Closing : आज गई थी समोसरण मैं कहाँ कहुँ हीत हेत री। बार बार दरवाजे चहुदिस परखा कोट समेत री ॥१॥ परम सरस्वती सिव • • गहे निज ग्याने तीन जु वरी। कहे दीप याते तुम सेवा भजै भावकर उरसो री॥ अनुपलब्ध। Colophon १९३३. समवशरन Opening : Closing • धूल साल देखे मूल साल नरहत, डर मानषल देखे जो ईमान महामानी को। वेदी के विलोक आप वेदी पर वेदी होत, निरवेद पद पावै याते है कहानी को। धरि लई सुध अनुभूत को ज्ञानलोग भोगी लयो। अनुभाग वध स्थिति भागते, भागगगदारिद गयला ।। इति श्री मोक्षमार्ग सम्पूर्णम् । सवत् १७७४ वर्षे पोसमासे शुक्लपक्षे सप्तमी शनिवासरे लिखित्तम् । शुभमस्तु । Colophon ! १९३४ सम्मेदाचल-पूजा Opening ! Closing : Colophon | मुक्तिकान्ता प्रदातारं स्थानेषु स्थानमुत्तमम् । मुक्ति तीर्थ कर प्राप्य वदे शैलेन्द्रसिद्धिदम् ।।१।। वज्रीचद्रप्रतेंद्रपेद्रतरणी · प्राप्नुवन्ति शिवम् ॥१३॥ इति सम्मेदाचल पूजनविधान समाप्तम् । सवत् १८२६ भाद्र बदि १२ भौम दिने लिखि । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.४ श्री जैन सिद्धान्त भवन अन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Lib ary, Jamn Sidhhant Bhavan, Arrah १९३५ सम्मेदशिखर-पूजा - Opening : गिरपम्मेर बीन जिनेश्वर सिव गए, अवर अतपित मुनि तहा ते सिद्ध भए । वदौ मन वच काय नमी सिर नायक, तिष्ठौ श्री महाराज सवै इति आयकै ॥ ए वीस जिनेश्वर नमित सुरेश्वर नित मधवा पूजन आवै। नर नारी घ्यावे सो सुख पाव रामचन्द्र जिन सिर नावै ॥११॥ इति सम्मेदशिव र पूजा सम्पूर्णम् । Closing : Colophon: १६३६. सम्मेदशिखर-पूजा Opening : Closing परमपूज्य जिन वीम जहाँ ते शिव लये, ओरहु बहुत मुनीश शिवाल सुखमये । असे श्री सम्मेद शिखर नमिहू मुदा, दरव साजि शुचि रूचि युत पूज रचो सदा ॥ जय एक वार वदे जु कोय तसु नर्क तिर्य च कुगत न होय । इत्यादि घनी महिमा अपार प्रणमो मनवचकर सीसधार ।। 'इति'। देखे, ज. सि० भ० प्र० 1, ०६४३ । Cclop' on । १६३७ सम्मेदशिखरज Opening : सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्टसुखयान । शिखर समेद मदानमो होई पाप की हान ।। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ Catalogue of Sanskrit Prakrit Apabhramsa & Hindi Manusciipts ( Puja-Patha-Vidhana) Closing । । नेमीनाथ श्री अरहनाथ श्री मल्लाना के पूजे पाये, श्रीयसनाथ श्री सुविधपद्म श्री मुनिसुव्रत को निचे जाये । श्रीचन्द्रप्रभु कोस एक पर लौट फेर मुनसोबत आये। शीतल अनत सभव अभिनदन चित्त भाये वदो सुख पाये । Colophon: इति कवित्त सपूर्णम् । मती भादो, वदी ५, वारगुरु सम्बत् १९२६ । देखे, जै० सि० भ० प्र० I, क्र० ६४२ । १९३८. सम्मेदशिखरपूजा विधान Opennig. Closing प्रणम्य सर्वज्ञमनतवोद्यामाप्तप्रद सद्गुणरत्नसिद्धम् । चुर्वेत्रिशुध्या सुभ्रता हि तीर्थ सम्मेदशैलस्थ जिनेन्द्रपूजाम् ।। चतु. मुनीन्द्रिभिण्लोकमान्छदोवचोमये । ज्ञातव्या अथसख्या नृगणकै लेखकोत्तमै । ५॥ इति भट्टारफ श्री धर्मचद्र विनुच र पडित गगादास कृत सम्मेदाचलपूजा समाप्तम् । Colophon! १९३६. सम्मेदशिखर-पूजा Oper ing • Closing : Colophon: पत्र परमगुरु - मिखरसम्मेद ' .. इति सर्व या सपूर्णम् । सारदा सीम ।।१॥ . भानिये ॥ १९४०. सम्मेदशिखर-पूजा Opering । Closing ! देखे ऋ० १९३७ । तुच्छ बुद्ध मोरी सही पडीत करी विचार । भूल चूक अब होई जहा लीजो चतुर सुधार ॥६॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon। इति श्री सम्नेदसिखर जी सिद्धक्षेत्र पूजा समाप्तम् । १९४१. सम्मेदशिखर-पूजा Opening : Closing : अमल गग सुवारिणा भरि झारिणा सुखकारिणा , भवतापनिवारिणा मलहारिणा कर्मवारिणा, । सम्मेदाचलपर्वत अपवर्गत सुखअपितम्, वीसतीर्थसुपूजित भववाजिन मुक्तिसजितम् ।। यः यात्राकरि भावसुद्धमनसा ते रवर्गमुक्तिप्रदा ते नारकतिर्य चगतिविमुखा सद्भावनाभावत । तेषा पुत्रकलत्रमित्रभवता सल्लक्ष्मी लीलाकरा सत्समेदगिरिसु धर्ममत कुर्वन्तु वो मगलम् ॥ इति श्री सम्मेद जी की पूजा सलाप्ताः । Colophon : १६४२. समुच्चय चौवीसी पूजा Opening Closing . Colophon रिषभ अजित " • पूजत सुरराय ॥ मुक्ति मुक्ति दातार - सिव लहे ॥ इति श्री समुच्चय पूजा सपूर्णम् । १९४३. गातिनाथ-पूजा Opening शाति जिनेश्वर नमू तीर्थ वसु दुगुनही । पचमच की अनता दुविधि षटगुनीही ॥ तृणवत् रिधि सब छारि धरि तप मिववरी। आह्वानन विधि करू' वार त्रय उच्चरी ॥ प्रभु के चैय प्रमाण सुरतन धरि मेवा करत मोहयो । देवी वृद जिनवर को जनम कल्याणक गायो । Closing Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apib'ıramsa & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) Colophon इति श्री सपूर्णम् । १९४४. शातिनाथ-पूजा Opening : Closing : Colophon : देखे, क० १९४३ । इति जिनमाला अमल रसाला . -सु दर ततषिन वरई ॥ इति श्री शातिनाथ जी की पूजा सपूर्णम् । १९४५ शातिपाठ Opening । Closing : शातिजिनशशिनिर्मलवक्त्र सीलगुणवतसयमपात्रम् । अप्टमहसुलक्षगगात्र नौमि जिनोत्तममबुजनेत्रम् । क्षेम मर्वप्रजाना प्रभवतु बलवान् धाम्मिको भूमिपाल', काले काले च सम्यक् वर्षनु मधवान व्याधयो यातु नाशम् । दुभिक्ष चौरमारिक्षणमपि जगत मास्मभूज्जीवलोके, जैनेन्द्र धर्मचक्र प्रभवतु सतत सर्व शौख्यप्रदायि ॥ Colophon इति श्री शातिजिनस्तोत्रम् । देखे, जै० सि० भ० प्र० I, ऋ० ६५६ । १९४६. शांतिपाठ Opening । Closing । देखे, १९४५ । मत्रहीन क्रियाहीन श्रद्धाहीन तथैव च । स्तवनभक्तिः न जानामि क्षमस्व परमेश्वरः ।। इति विसर्जन मत्र सम्पूर्णम् । Colodhon : Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah १९४७. शातिपाठ Opeuing : Closing , देखे, ऋ० १९४५ । आह्वानाय पुरादेव लब्धभागा यथाक्रमम् । मयाभ्यचिता भक्ता सर्वे यातु यया स्थितिम् । इति श्री शाति सम्पूर्णम् । Colophon: १६४८ शातिपाठ Opening : Closing : देखे, ३० १९४५ । आहानन नैव जानामि नत्र जानामि पूजनम् । विसर्जन नैव जनामि क्षमस्व परमेश्वर ।। स्वस्व स्थान गन्छतु स्वाहा । Colophon: इति शाति पाठ। १९४६. शातिचक्र-पूजा Opening i अहदीजमनाहत च हृदये ... : यद्वाछितम् ।। Closing निशेषश्रुतबोधवृत्तमतिभि, प्राज्ञ रूदारैरपि स्तोत्रर्य्यस्य गुणार्णवस्य हरिभिः " । - ... श्री शातिनाथ सदा ॥ Colophont इति श्री शातिचक्र पूजा जयमाल सम्पूर्णम् । देखे, जि०, र० को०, पृ० ३७६ । दि० जि० ग्र० र०, पृ० १६६ ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ Catalɔgue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramla & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana ) १९५०. शातिधारा Opening Closing : श्री खडोद्रवकर्द मेसु रूचिरै कर्पूरचूण मित: समिश्ररूतिगधिलं नदनदिकमारकूपादिभि. । . . .. .. देवा जिनस्थापये ॥१॥ सर्बदेशमारी छिंद-२ भिंद-२ सर्वविषभयं छिंद-२ मिद-२ सर्व्वक्रूररोगवंतालशाकिनी डाकिनी भय छिद-२ भिंद-२ सर्ववेदनी छिदर भिंद-२ सर्वमोहनी ... · · । अनुपलब्ध । Colophon: १६५१ शातिधारा Openiag : सिद्धावल श्री ललनाललाम मही महीयो महिमाभिरामम् । आसार ससार ययोपपराम नमामिनाभेय जिन निकामम् ॥१॥ - स्नानस्य गधोदिकम् ।। Closing : Colophon: नेत्रे दद्वरूजाविनाशनकर' " इति शातिधारा । १९५२ शातिधारा Opening । Closing | Colop101: ॐ ह्री श्री क्ली रो ह व भ ह स त प व व म म ह ह स स त त प प . - । देखे, ऋ० १९५१ । इति शांतिधारा सम्पूर्णम् । इति मिहापन प्रतिष्ठा सपूर्ग । शुभमस्तु । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावलो Shri Devakumar Jain Oriental Library,Jain Siddhant Bhavan, Arrab १९५३. सप्तर्षि-पूजा Opaning ! श्रीमद्गणीद्र-हिमवन्मु वक्रदराया. वार नीमप्तसुनरितिचारू विनिर्गतायाम् । स्नाताननेकविधधर्मतरगिकाया योगीश्वरानघरत्नधरान समर्ने । Closing ; असमसुखसार तीक्ष्णदष्ट्राकराल स्वकरकरजटिल दीर्घजिह्वा करालम् । सुघटविकृतचक्र शातिदासप्रसस्य भजतु नमतु जैन भैरव क्षेत्रपालम् ॥१॥ अनुपलब्ध है । Colophon. १९५४. सप्तर्षि-पूजा Opening ! Closing ! Colophon| देखें, ऋ० १९५३ । ए रिसि व्रत- ....." वसुरिद्धिहं ।। इति सप्तऋषि पूजा समाप्तम् । १६५५. सप्तर्षि-पूजा । Opening : Closing . Colophone वदेह विश्वसेनेश - ...." ज्ञानरूप निरजनम् ॥१॥ मानव विकृति येषा ... ..." तत्व तत्वार्थवेदिन. ।।१४।। अनुपलब्ध । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrama & Hindi Manuscripts ( Puja - Patha - Vidhana ) Opening : Closing Colophon : Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing Colophon : Opening १९५६. सरस्वती पूजा ॐ नमः प्रगटित परमापंशुल मितिनारे, जिनपनिगमिन् नारता गदधान । जगति समयमारको संस. नन्मुनिन्द्र मदन्तु मम पितं मच्छुतज्ञानरूप । ज्ञान तिमिरहर ज्ञान दिवाकर, पढे सुणे जे भाव घनी । जिनदान भासि विविध प्रकानि मनवछित फल बुद्धिघणी ॥ इति नरस्यति जयमाला सपूर्णम् । १६५७. शास्त्र-पूजा प. पयोधे त्रिदशापगाया पयः पय पेयतयोपयोग्यम् । समतमा श्रुतदेवतार्यः भगत्या परार्थ परया ददामि ||१|| लोक अलोक । जिनवाणी के ज्ञान से द्यागत जग जेवत को सदा देत है धोक ||११|| इति शाम्य पूजा | २६१ १६५८ शास्त्र - पूजा जनन मृत्युजराक्षयकारण अह परिपूजये ||१|| मलकीति कृतामपि सम्तुति पठति य. मतत मतिमान्नरः । विजयको तिगुरुकृतमादरात् सुमतिकल्पलताफलमस्तुति ||१०|| इति सरस्वति स्तुति विधानम् । देखें, दि० जि० ग्र० २०, पृ० १६८ । .. १९५६. शास्त्र - पूजा देखें, ऋ० १६५८ | .. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library,Jain Sidhhant Bhivan, Arrah Closing : दुरिततिमिरहस मोक्षलक्ष्मी सरोजम्, मदन भुजगमत्र चितमातगसिंहम् । विसनघनसमीर विश्वतत्वैकदीपम्, विषयरसकरीजाल ज्ञानमाराधीयत्वम् ।। इति शास्त्रपूजा समाप्तम् । Colophon! १६६०. शास्त्रपूजा Opening : Closing : Colophon: देखे, ३० १९५८ । देखे, ऋ० १९५७ । इति श्री शास्त्रपूजा जी समा'तम् । १९६१. शास्त्रपूजा Opening : Closing : Colophon: · देखे, ऋ० १९५८ । स्तुत्वेति ........ समुचरेत् ।।३। इति शास्त्रपूजा समाप्ता । १६६२. शास्त्रपूजा Opening , Closing ! Colophon ! देखे, ऋ० १९५८ । देखे, ऋ० १९५८ । इति श्री शास्त्रपूजा सम्पूर्णम् । १६६३. शास्त्र जयमाला Opening : सपयसुहकारण " .. सगमकरण ॥१॥ : Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ Catalogue of Sanskrit. Prokuit, Arilhrani sa & Hindi Manuscripts ( Puja-Pājha-Vichana ) Closing : Colophon! इय जिनवरवाणी .... गवि उत्तरई ।।१३।। पति श्री शास्त्रजिनवाणी को जयमाल सम्पूर्णम् । १६६४. शत्रुञ्जयगिरिपूजा Cpening : Closing : Colophon : रिद्ध सिद्धार्थद सुद्ध मिक्षात्मान स्ववर्गगम् । घोव्योत्पादगुणे युक्त पदे त जणहेतवे ।। विश्वभूषण तस्य पट्ट प्रगिद्ध कविनायका । तेनेद रचितः पाठः शत्रु नयायानिधानकः ।। इति श्री विशालगीयात्मजो श्री भट्टारक श्री विश्वभूपण विरचिते १८५ff मम सक्त से ३० वर्षे अश्विनी शुक्ल मितीय पटनानामनगरे श्रीमूलसघे अवावती गन्छ भट्टारफाधिराज श्री सुरेद्रवीतिजी तच्छिष्येण विनय ताविद तेजपालेनेय पूजा लिखिता। सत्रु जय पूजाया कमलानि प्रथम वलये । १॥ द्वितीय चलये ॥८॥ तृतीये ॥१२॥ चतुर्थे ।१३।। पचमे ॥३६ एव ६६॥ कल्याणमन्तु । इति सपूणम् । १६६५ सिद्धपूजा Crening | उधिोग्युत सहिंदुसपर ब्रह्मासुरावेष्टितम्, वर्गापूरितदिग्गतावुजदल तत्सधितत्वान्वितम् । अता पतटेप्वनाहतयुत होकार सवेप्टितम् , देव ध्यायति सुमुक्ति सुभगो वैरीभकठीरव ॥१॥ असमसमयमार चारूचैतन्यचिन्हम्, परपरणनिमुक्त पद्मनदीन्द्रवद्यम् । निखिलगुणनिकेत सिद्धचक्र विशुद्धम्, स्मरति नमति यो वा स्तोति सोभ्येति मुक्तिम् । Closing . Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah, Colophone : Opening: Closing : Colophon ; Opening Closing : Colophon : Opening Closing : Colophon : Opening : Closing : Colophon इति श्री सिद्धपूजा सम्पूर्णम् । १९६६. सिद्धपूजा देखे, ऋ० १९६५ । आवृष्ट सुरसपद विदधति इति सिद्धपूजा जयमाला समाप्ता । १९६७. सिद्धपूजा देखे, दि० जि० ग्रं० २०, पृ० २०० जै० सि० भ० ग्रo I, क्र० ६६० । १६६८. सिद्धपूजा देखें, ऋ० १९६५ । देखें, ० १९६५ इति सिद्धचक्रपूजा समाप्ना १९६९ सिद्धपूजा देखे, क्र० १६६५ । देखें, ऋ० १९६५ । इति सिद्धचक्रपूजा जयमाला समाप्तम् । देखें, क्र० १६६५ | देखे, क्र० १६६५ 1. इति सिद्धपूजा समाप्ता । • साराधनादेवता ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apibhran; 1 & Hindi Manuscripts (Pūjā- Pātha-Vidhāna ) १९७०. सिद्धपूजा Opening : Closing Colophon Opening : Closing : Colophon Opening Closing : Colophon : Opening Closing Colophon देखें, क्र० १ε६५ । जगात चढावे मन लगात्रं प्रीति सौं । बस्याल चन्द कहें कहा लों जस जिनो का रीतम । जे नाम अक्षर जप हरवं धन्य ते नरनारि हैं । प्रभु पतित तारन दुख निवारन भगत को निरतार हैं । इति श्री सिद्धपूजा जी समाप्तम् । १९७१- सिद्धपूजा देखे, ऋ० १९६५ | देखें, क्र० १६६५ । इति सिद्धपूजन प्रतिज्ञा सम्पूर्णम् । १९७२. सिद्धपूजा देखें, क्र० १६७० । देखें, क्र० १६७० । इति श्री सिद्धमहाराज की पूजा सम्पूर्णम् । २६५ १९७३. सिद्धपूजा देखें, क्र० १९६५ । सिद्ध वरं ससार, सिद्धन की पूजा करो । आवागमन निवार, मन वच तन पूजा करो ॥ इति सिद्धपूजा सपूर्णम् । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १९७४. सिद्धपूजा Opening : देखें, ऋ० १९६५ । Closing : दीर्घायुरस्तु शुभमस्तु सुकीतिरस्तु सुदृष्टिरस्तु धनधान्य ममृद्धिरस्तु आरोग्यमस्तु विजयोरस्तु भयोरस्तु पुत्रपौत्रोद्भवोरस्तु तव सिद्धप्रसादान ॥१॥ Colophone . इति सिद्धपूजा सम्पूर्णम् । १९७५. सिद्धपूजा Opening : Closing Colophon: देखे, ऋ० १६६५ । कृत्याकृत्तिमचारूचंत्यनिलयान् नही है। दुष्कर्मणा शानये ॥ १९७६ सिद्धपूजा Opening ! Closing : Colophon | देखें, ऋ० १९६५ । देखे ऋ० १९६५ । इति सिद्धपूजा । १९७७. सिद्धपूजा । Opening । Closing Colophon : देखे, ऋ० १९६५ । देखें, ऋ० १९६५ । । इति सिद्धपूजा माला सम्पूर्णम् । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Puja-Parha-Vidhana) १६७८. सिद्धपूजा Opening ! Closiog : परम ब्रह्म परमातमा परम जोत परमीस । परम निरजन परम शिव नमो सिद्ध जगदीस ॥१॥ सुद्ध विसुद्ध सदा अविनासी ....... जाने सो दीवाना आतम को यह ॥ मपूर्ण । १९७६. सिद्धपूजा Colophon: Opening : Closing : इत्म चक्रमुपास्य दिव्य ध्यान फल न्यस्तुते ॥ नासाट सुरमपदा विदधति मुवितधियोवश्यताम्....... पायात्पचनम कृपाक्षरमयो ताराधनादेवता ॥१॥ नहीं है। Colophon . १९८०. सिद्धक्षेत्र-पूजा Opening : परम पूज्य चौबीस जिह जिह थानक सिव गये। मिह भूमि निम दीम मन वच तन पूजा करो ||१|| जो तीरथ जावं पाप मिटावं ध्यावं गावं भक्ति करें। ताके जस कहिए सपति लहिए गिर के गुन को बुद्ध उचर Closing . ॥१०॥ Colophon : इति श्री सिद्धक्षेत्र पूजा सम्पूर्णम् । Opening | १६८१. सिद्धचक्र-पूजा जिनाधीस सिवईस नमि सहस गुणित विस्तार । सिद्ध चक्र पूजा रचो शुद्ध त्रियोग सभार ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab Closign | जिन गुण करण आरभ हास्य कोधाम है। वायस का नहिं सिंधु तारण को काम है। इति श्री सिद्धचक्रपाठभापा समाप्तम् । संवत् १९६४ फाल्गुन शुक्ल ६ लिखितम् ॥ Colophon १९८२. सिद्धचक्र-पूजा Opening • Closing । अरिहत पद ध्यातो थको दवह गुण परजाय रे । भेद छेद करि आत्मा अरिहतम्पी थाय रे ॥ योग असख्य ते जिण कह्या नव पद मोक्ष ते जाणो रे । एह तणे अविलवन आतम ध्यान प्रमाणो रे । २१ वी० ॥ अनुपलब्ध । Colophon १६८३. सिद्धक्षेत्र-पूजा Opening • वदी श्री भगवानकू भावभगत सिरनाय । पूजा श्री निर्वान की सिद्धक्षेत्र सुखदाय ॥ Closing : सवत् अष्टादश सही सत्तर एक महान । भादी कृष्ण जु सप्तमी पूरन भयो सुजान " Colophon, . इति श्री सिद्धक्षेत्र पूजा समाप्तम् । १९८४. सिद्धक्षेत्र-पूजा Opening श्री आदीश्वर वदौ महान, कैलास सिखर ते मोक्ष जान । चपापुर ते श्री वासप्ज, तिन मुकति लही अति हरपि हूज ॥१॥ Closing : Colophon . देखें, क. १९८३ । इति सिद्धक्षेत्र पूजा। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Pūjā- Pajha - Vidhāna ) १९८५. शिखर - विलास - पूजा Opening Closing Colophon⚫ Opening : Closing Colophon : Opening : Closing जेठ शुक्ल चतुर्थ दिवम घ्यावे मो सुख पावे पूजा सम्पूर्णम् । लिखते सीकर इति श्री शिखर विलाम जी की मध्ये मिति फाल्गुन सुदि अठाई सवत् १९४२ | का लिखते ठराज दिवाण जी सुखलाल जी का पोता भूल चूक सुद्र करो । विशेष—इसके Closing के पहले का बहुत से पत्र गायब है । १९८६. सील - बत्तीसी मीलवतीसवर्णव हरिहर इद नरिद नरसुर जप हिए कान्ताजेन नारी । सजम धरम सुगण अकू जपहि जसु ते हरि ॥ इति सीलवतीसी ममाप्तम् । Colophon. ******* G 4000 २६६ करिके वहुत उछाह ॥ रामचंद्र निति सिरनावे || 1 सदा सुमरी रिसहेश्वर 19|| १९८७. सिंहासन - प्रतिष्ठा श्रीमद्वीर जिनेशाना प्रणिपत्य महोदयम् । नव्याशनस्य सूत्रेण शुद्धि वक्षे यथागम् ॥ नेत्रे द्वद्वरुजाविनाशनकर गात्र पवित्रीकरम् वात पित्तकफादिदोषरहित सूत्र च सूत्र भवेत् । पाप कर्म कुरोगनाशनपर राहुक्षय कुर्वते, श्रीमत्पार्श्व जिनेन्द्रपादयुगल स्नानस्य गंधोदकम् । इति शांतिधारा सम्पूर्णम् । शुभमस्तु | पोपमा शुक्लपक्षे तिथौ ६ संवत् १६५५ श्री द पुस्तक लिखावा भगवानदीन पडित । देखें, जं. सि. भ ., क्र. ९६४ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah. १९८८. शीतलनाथ पूजा Opening . सीतल जगपद नमू धर्मदसधा इम भाष्यो, उत्तमषिमा सु आदि अत द्रह मचर्य सन्ध्यायौ । सुनि प्रतिबोध हूयो भवि मोक्ष मारग कौं लागै, आह वानन विधि करुचलण जुग करि अनुराग ॥१॥ Closing : पूर्वाषाढ़ नक्षत्र माघ वदि द्वादशी,' जनमैं श्री जिननाथ निवोगे सब हमी। Colophon • अनुपलब्ध । विशेष- इसके बाद अनन्तनाथ, पार्श्वनाथपूजा, शान्तिनाथ पूजा तथा पद्मावती पूजा अधूरी-अधूरी लिखी गई है। १९८६. स्नानपूजा-विधि Opening ! Closing : Colophone प्रथम हुँ निस्सही पूर्वक देह र जी आवी अग, सुद्ध करी नवा वस्त्र पहरी स्वभाल तिलक करिन देवचन्द्र जिन पूजता करता भवपार । जिन प्रतिमा जिन सारषी कही सूत्र मझार ।। इति स्नानपूजा विधि सपूर्णम् । १९६०. सोलहकारण-पूजा एन्द्र पद प्राप्य पर प्रमोद धन्यात्मनामान्मनिमन्यमान । दृक्-शुद्धिमुख्यादि जिनेन्द्रलक्ष्मी महामोह पोडशकारणानि ॥ भक्ति प्रदा सुरेन्द्रमस्तुतमिद तीर्थकराणा पदम्, लव्धुवाछति योनि (पि) वा चतुर ससारभीताशय ।। श्रीमद्दर्शनशुद्धिभूरिविनय ज्ञान तदा तत्फलम् । भवत्या षोडशकारणानि सततं संपूज्य वाराधयेत् ।। नही है । Opening : Closing : Colophon . Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramia & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhana) १६६१. सोलहकारण-पूजा Opening : Closing ! Colophon : देखें, क. १९६० । इय सोलाकारण - - - सिद्धवर गणहियइ हरा । इति सोलाकारग पूजा जयमाल सपूर्णम् । १९६२. सोलहकारग पूजा Opening • Closing : Colophon : देखें, ऋ० १९६० । इस बहु भविय • - ." संकम्पवि - ... । अनुपलब्ध । १६६३. सोलहकारण पूजा Opening । Glosing : Colophon : देखें, क० १९६० । देखें, क. १९९१ इति श्री सोलहकारण पूजा सम्पूर्णम् । १६६४. सोलहकारण पूजा Opening : Closing । Co.ophone देखें, ऋ० १६० । देखें, ऋ० १९६१ । इति षोडसकारण अग पूजा समाप्ता।। १९६५. सोलहकारण-पूजा Opening : देखें, ऋ० १६६० । " Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arra Closing : एई सोले- भावना सहित धरै व्रत जोइ । देव इन्द्र नरविंद पद द्यानत शिव पद होइ । इति श्री सोलै कारण पूजा जी समाप्तम् । Colophon : १९६६. सोलहकारण-पूजा Opening : Closing : Colophon: देखे, ऋ० १९६० ॥ एते षोडशभावना - मोक्ष च सौख्यास्पदम् ।। इति श्री षोडशकारण जयमाला भाषा सस्कृत पूजा समाप्तम् । १६६७. सोलहकारण पूजा Opening | Closing । Colophon: देखे, ऋ० १९६० देखे, ऋ० १९६१। . . इति षोडशकारण पूजा । १६६८. सोलहकारण-पूजा Opening : Closing : देखे, ऋ० १९६० । भविभवियणिवारण सोलहकारण पयडमिगुण-गण-सायरः । पणविवि तित्यकर - " अनुपलब्ध। . . . . . १९६६ सोलहकारण पूर्जा Colophoni Openign : सरव परव में बड़ा अढाई परव है; नदीश्वर स्वर जाहि लिए बहु दरव है । हमे सकति सो नाहि इहाँ करि थापना, पूजे जिनग्रह प्रतिमा है हित आपना । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts (Pala-Patha-Vidhana) Closing | Colophon: देखें, ऋ० १६६५ । इति सोलंकारण पूजा । २०००. सोलहकारण-पूजा Opening : मया मेरी कूरिया हमुन? आवे मेरी कूरिया हसुन । ले पोज मेरी हम वहहमको न विसरो ये कहमा। कर हे सीता वीसेर हम ॥१॥ साल सुवेरा वेर न जाने न जाने घूप अब वरखा जी ॥ नही है। Closing : Colophon : २००१. सोलहकारण-पूजा Opening : सोलंकारन भाय तीर्थकर जे भये, हर्षे इन्द्र अपार मेरु पं ले गए। पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसौ. हमहूँ पोडस भावन भाव भाव सौ ।। देखें, क. १९६५ इति सोलह कारन पूजा सपूर्णम् । भाद्र शुक्ल १० गुरु स० १९६५ आरा मे बाबू हरिदास ने लिखा बावू अनतकुमार के पढने हेतु । शुभम् । Closing : Colophon : २००२. सोनागिरि-पूजा opening , जबूद्वीप मझार भरत क्षेत्तर कह्यो, आरज पड सुजान वद्र देस लह्यो ।। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrak Closing सोनागिर अभिराम सुपर्वत है तहाँ । पच कोडि अर अरध मुक्ति पहुचे तहाँ । सोनागिर जमाल का लघुमति कहि बनाय । पढे गुन जो प्रेम सो तिनको पातक जाय ॥१७॥ इति सोनागिरि पूजा सपूर्णम् । Colophon . २००३. स्तवन जयमाल Opening : Closing ! श्रीमन् श्रीजिनराजजन्मसमये इद्रादिहर्षायमान् । हस्तारूढविराजमानत्रिपुरीपुष्पालि दापयन् । इन्द्राणीपरिवारभृत्यसहिताः देवागनावृत्यवान, नानागीतविनोदम गलविधौ पूजार्थमादसौ ।।१।। जिनवर वरमातामाननीय समर्थो स जयति जिनराज लालचन्द्र विनोदी। जिनवरपदपूज्य भावनेंद्रसुपूज्य सकलमलविमुक्त ते लभते विमुक्तिम् । इति श्री स्तवन जयमाल सम्पूर्णम् । Colophon: २००४. स्वाध्याय पाठ Opening : Closing । Colophon ! शुद्धज्ञानप्रकाशाय लोकालोककभानवे । नम श्री वर्द्ध मानाय वर्द्धमान-जिनेशिने ॥१॥ उज्जोवण मुज्जोवण णिव्वाहण • • • • भणिया ॥३॥ इति स्वाध्याय पाठः । २००५. श्यामलयक्ष पूजा Opening : महिषासीनकराष्ठासित नख-शिखसुन्दररूप । स्थापित यक्ष अष्टमजिना श्यामलरूप अनूप ॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhranta & Tindi Manuscripts ( Puja - Patha-Vidhana ) Closing : Colophon Opening : Closing Colophon Opening Closing Colophon : Opening : Closin श्यामन यक्ष नमचं अचं पूजे जो प्राणी । तनमन कर बालाद प्रगति रुचि हृदि हरपानि ॥ ते जन धन नौमान्य अष्टगत पद मिलि जायें । अजितदास मन आस पूज एहि गहि सुख पावै ॥ इति श्री श्यामल-यक्ष पूजा गम्पूर्णम् । २००६. तत्वार्थ सूत्राप्टक- जयमाला उदधिक्षीरमुनीरसुनिम्मंले फलकांचनपूरितशोतले । । पनपावनीतपूजन. जिनजूह जिनसूत्रमह भजे ||१|| इति जिनमतसूत्रे मोक्षमार्गस्य मानुः ॥ इति तत्पापं त्राटक जयमालसहित समाप्ता । २००७. तेरहद्वीप - पूजा **** श्री अरिहंत प्रमाण करि पच परमगुरु ध्याइ । तिनके गुन वरनम करों, गन वच तीस नयाइ ॥ ३०५ अचल र पश्चिम सुपफार कुमुद देश वर्क्स निरधार । जिन मंदिर तहाँ पूजी जार. रूपाचल पर अरघ चढ़ाई || अनुपलब्ध । २००८. तीनलोक सवधी - पूजा यह विधि ठाडो होय के प्रथम पर्द जो पाठ । धन्य जिनेश्वर देव तुम नार्स फर्म जु आठ || निह जग भीतर श्रीनि मंदिर बने अकित्तम महामुखदाय । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sidhhant Bhavan, Arrah नर सुर खग कर वदनीक जे तिनको भविजन पाठ कराय ।। धन धान्यादिक सपति तिनके पुत्र पौत्र सुख होउ भलाय । चक्रिपद सुरपद खग इंद्र होय के करम नास शिवपुर सुखथाय ॥ इति श्री तीनलोक-सवधी पूजा सपूर्णम् । Colophon: २००६. तीसचौवीसी पजा २००६ "॥ Opening । Closing : Colophon: सवौपडाह्वानम् मयुक्तान् ठ ठ स्थापन-निष्टितार्थान सकलसुखधामात्रिकालस्य ...... शिवकान्ति ॥ इति चौवीसी पूजा समाप्तम् । २०१०. तीसचौबीसी-पूजा Opening : Closing : Colophon: ॐ जय जय जय णमोऽस्तु णमोऽस्तु णमोऽस्तु " सव्वसाहूण ।। जम्बूधातकपुष्करेषु ... नित्यमाप्नुते ॥ इति मनुकरविनियोगात् सवणविभावशम्र्मणाविहिता सुहितकरोभव्याना नद्यादचद्र ताराकनि इति पडित श्री भावशर्म कृत मधुकरकारित प्रिंशत चतुर्विशतिकार्चन समाप्तम् । २०११. उद्यापन , Opening : भवाभोधिनिमग्नाना जन्तुनां तारणे क्षम । मस्थापयामि दशधा धर्मशम्र्फककारणम् ॥ श्रीनामी जिनीदो परमानदो परमसुखकरकारम् । भवसागरपार दुरघनिवार परम ... • सुखकारम् ।। Closing . Colophon इति । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ Cataloguc of Sanskrit, Prakrit, Apabhranısa & Hindi Manuscripts (Puja-Patha-Vidhāna ) Opening : २०१२. वर्द्धमान-पूजा श्रीमतयोर हर भवपीर भरं सुख सीर अनाकुल ताई। फेहरि अफ बरी फरि दक नये शिव पफज मोलि सुआई ।। मैं तुमको इत पापत हौ प्रभु भक्त समेत हिये हरिपाई। हे करुना धन धारक देव इहाँ अव तिष्ठहु शीघ्रहि आई । श्री सनमति के जुगल पद जो पूजे धरि प्रीत । वृदावन सो चतुर नर लहे मुक्त नवनीत ।। इति श्री वीर वर्तमान पूजा समाप्तम् । Closing : Colophon: २०१३. वर्तमानचौवीसी-पाठ Opening : वंदो पांचो परमगुरु मुरगुरवदत जाम । विधन हरन मगल करमपूजत परम प्रकाश ।। Closing रिषभ देव को नादि अंत श्री वर्धमान जिनवर सुखकार । तिनको चरन कमल को पूजे जो प्रानी गुनमाल उचार । ताके पुत्र मित्र धन जीवन सुख समाज गुन मिले अपार । सुरपद भोग भोगि चक्री हवे अनुक्रम लहै मोक्ष पदसार । Colophon : इति श्री वर्तमान चोवीस तीर्थकर जिन पूजापाठ वृदावन कृत सम्पूर्णम् । ज्येष्ठ मासे शुक्लपक्षे तिथी १५, भृगुवासरे सवत् १९५२ । विशेप-इसके नीचे कवि नाम वर्णन भी दिया गया है। २०१४. वर्तमानचौवीसी पूजा Opening । श्री आदीश्वर आदि जिन अतमाम महावीर । वन्दी मन वच काय सौ मेटो भव भय भीर ॥१॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली ShreDeyakumár Jain Oriental Library,Jain Siddh int Bhavan, Arrab Closing • Colophon ; चौवीसो जिनराज की महिमा कही बताई। पढे सुन नरनारी सब सुर शिव पहुँचे जाई ॥४३॥ इति श्री वर्तमान चौवीसी वास ठिठाने ? की पूजा सम्पूर्णम् । शुभमस्तु सिद्धिरस्तु । कल्यानमरतु शुभ सम्वत् १८६० | मासोत्तमे मास अग्रहने मासे शुक्लपक्षे द्वादश्या चन्द्रवासरे पुस्तकमिद रघुनाथ सर्मने लेखि पढ़नपुरमध्ये आलमगज निवसतु । लेखक पाठकयो मगलमस्तु ॥ शुभ भूयात् । २०१५. वर्तमानजिननाम Opening ! Closing Clolophon: नत्वा सिद्धसमूह च ज्ञानमूर्तिजिनप्रभम् । भरतैरावतास्थाना निनः साक विदेहर्ज ॥ भूतानागतवतर्मानजिन . - सद्भव्यसप्रार्थनात् ॥३०॥ इति श्री अतीतवर्तमानागतपचभ रतैरावतत्रिंशच्चतुर्विंशतिका लौकिकाव्यवस्थाया वीक्ष्य कृता शुभचन्द्रण जिनभक्तिरागात्चिर नन्दतु । इति त्रिंशस्चतुर्विशतिका पूजा समाप्ता। २०१६. विद्यमान-बीसतीर्थ कर-पूजा Opening । । Closing ! पूर्वापरन्देिहेषु विद्यमान-जिनेश्वर । स्थापयामि अहम् अत्र शुद्धमम्यक्तहेतवे ॥१॥ श्री मदिरादियुग देवमजित वीर्यमुनमम् । भूयात् भव्य सता सौख्य स्वर्ग-मुक्ति-सुखप्रद. ।। इति श्री वीस विद्यमान पूजा सपूर्णम् । Colophon : २०१७. विद्यमान बीस पूजा Opening देखें, ३० २०१६ । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, A bhramsa & Hindi Manuscript ( Paja-Patha-Vidhāna ) Closing . Colophon . Opening . Closing : Colophon: ए योग जिणेसर पपिय सुरासुर, विहरमाण मय मणिमा । म भणावद भर मणमा , ते पाप गिय परमपय ॥ ति योग बहरमाण की गवा षण्मान ममाप्तम् । २०१८. विद्यमान व मनीर्थ कर पूजा विधान यदो श्री जिमयोगको दि इमान मुखपान । दीप राई क्षेत्र में भी विदेह शुभ धान ॥१॥ सम्बवसर विक्रम विगत पगु अमग्रहगाम कर । ज्येप्ट गुन्न प्रनिपद सुति। पन्न भयो छन्द ।। इति श्री सीमन्धरादि वीम गोदर पा रमाप्तम् । शुभमस्तु । शिया शिविरचन्द पद कम ग्यारह (एकादशी) वार पुरको शुभ बेला पूर्ण करी। गो जयवन्त प्रयौ । २०१६. विद्यमान बीस तीर्थ कर-पूजा श्रीमजबूधातफीपूष्कग सोपेषाय विदेहा शर स्यु । वेदा वेदा विद्यमानामिनेद्रा प्रत्येक धास्तेषु नित्य यामि ॥१॥ एते विशति तीर्थपा अपहरा, कारिविध्यसका, ससाराणंच तारणकचतुरा इद्रादिदेवीस्थिा। अतातितगुणाकरा मुघकरा मोहाध फारापहा, मुरित श्रीललनाविलास ललिता रक्षत पो भाक्तिकान् ॥१२॥ इति विशतिविद्यमान तीर्थकर पूजा समाप्ता। २०२० व्रत-विधान चौदाशि ग्यारस ११ आव ८ तीन ३ चौथ ४ एव उपवाम ४५ भावनापचीसी व्रत दसें १० पून्यो १५ एव उपवास २५ भावना वत्तीसी व्रत । आश्विनन्या पूर्वमुपवास एक पूर्ण सप्तविंशति, नक्षत्रते द्वितीयमुपवाश्वन्या क्रियते ।। इति व्रत विधानम् । Opening : Closing : Colophon : Opening : Closing : Colophon Page #516 --------------------------------------------------------------------------  Page #517 --------------------------------------------------------------------------  Page #518 --------------------------------------------------------------------------  Page #519 -------------------------------------------------------------------------- _