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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan,Arrah,
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अनुभौ अरूप है सरूप चिदानन्द चद, अनुभौ अतीत आठ कर्म सौ अफास है ॥१॥ गुण ठाणी मिथ्यात अवृत तन छुट च्यारगत सासादन गुण थान नरक तजि होई तीन रत । मिश्र षीन सजोग तहाँ जीव मरहिं न कोई सुनि अजोग गुन थान छुट प्रगट सिव सोई सपत' सेव गुण थे छुटे एक गत देव की कह्यो अरथ गुरु ग्रथ में सति वचन जिन सेवकी ।। इति श्री चदशतक समाप्तम् ।
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१२३५. चर्चाशतक
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जै सरवग्य अलोक लोक इक अडवत देव । हसतामल ज्यो हाथ लीक ज्यौँ सरव विशेषे । छदी हर्व गुणपरज काल त्रय वर्तमान सम । दर्पण जैम प्रकाश नाश मल कर्म महातम । परमेष्ठी पार्टी विधनहर मगलकारी लोक में । मन वच काय सिरनायभुव आणद सौ धौ धोक मै ॥१॥ चरचा मुख सो भने सुनै प्रानी जहि कानन । केई सुने धरि जोहि नाहि भाषे फिरि आनन । तिनि को लखि उपगार सार यह सतक वनाई । पढत सुनत ह्र बुद्ध सुद्ध जिनवानी गाई। इसमे अनेक सिद्धान्तको मथन कथन द्यानत कहा। सव माहि जीवको नाम है जीव भाव हम सरदहा ।।१०४॥ इति चरचा शतक समाप्तम् । १२३६. चौबोल पचीसी । दरव'घेत अरुकाल भाव दरव पेट तत्व नव ।। ग्यायक दीनदयाल सो अरिहत नमो सदा ।
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