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________________ २६ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumai Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah विशेष – इसमें चतुर्मास के साथ ही अष्टान्हिका व्याख्या, दीवाली - - व्याख्या, सौभाग्य पचमी व्याख्या, ज्ञानपश्चमी व्याख्या, मौनएकादशी, पौप - दशमी व्याख्या, मैरु तेरस व्यास्यो, होलिका bent अक्षयतृतीयादि व्याख्या का समावेश किया गया है । १०८७. चौदहगुण स्थान गुण आत्मीक परिनाम गुणी जीव नाम पदार्थ ते आत्मीक परि नाम तीन जात के | शुभ, अशुभ, शुद्ध तिन ही परिनाम ३ मापक चौदह स्थानक जीवन जाननाम् | Opening 1 Closing : Colophon : Opening : Closing : Colophone : था पाषाण सर्वथा भिन्न भया सुवर्ण' नि; कलक शोभ त्यो अपनी अगत शक्ति करि विराजमान केवलग्यान ||२|| केवल दर्शन ||२|| अमत वीर्य ॥३॥ छाइक सम्यक्त ||४|| चैतन्य भानु ||५|| परमात्मा कहीं 1 • 4 do • यह चौदह गुन स्थान का स्वरूप सक्षेप मात्र वर्णन जिनवानी अनुसार मैथन कर पूरन किया । देखे, जं० सि० भ० ० ॐ० २१०४ । 7 १०८८ चौदह गुणस्थान तिसे मुक्त के स्थान आने को इह मिथ्यात गुम स्थान ही मै यह जीव है तहाँ कछु भी इसको अपनाभला हुआ सो मिक्ष्यात का पांच प्रकार का भेद है - जन्म मर्न इत्यादिक ससार का अनेक दुखकर रहित हुआ, अजर चौदह सीढी है सौ प्रथम अनादिकाल से पडा आया बुरा होने का ग्यान नहीं अमर को प्राप्त हुआ । इति श्री चौदहगुणस्थान की चरचा सम्पूर्णम् । शुभभवतु । समाप्तम् ।
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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