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________________ २४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental 1 brary, Jai Sidhhant Bhavan, Arial Closing Colopohn : Opening Closing Colophon⚫ Opening Closing Colophon पेडीक छतीसी पिन्बइ ध्यान वतीसी आध्यात्म वतीसी पचीसीग्यान रासिका । सित्र की पचीसी भवसिन्धु की चतुरदमी अध्यात्म कागति षोडस निवासिका | १|| " सत्रह में एकोतरे पर्वत मिपाख । दुतिया सो पूरन भई यह वनारसी भाप ॥ इति वनारमी विलास सपूर्णम् । शुभंभूयात् संवत् १८६० माभौसमे मात्तभाद्रमासे शुक्लेपक्षे एकादश्या सोमवासरे । पुस्तकमिद रघुनाथ शर्मगे लेखि। पट्टनपुर मध्ये आलमगज निवास । पुस्तक संख्या श्लोक अनुष्टुप तीनहजार छ ( ३६०० ) लिखि आरे में बाबू परमेष्ठी महाय का । १०७८. बारह भावना पंच परम पद वद हूँ, मन वच सीसनिवाय । भाव वारह भावना, निज आत्तम लव लाय ॥ भूला चूका होय जो, भव्य जन लेह सुधार 1 मोह दोस दीजै नही, भैरी कहें बिचार || श्री जिन धरम न विसारिये ॥ इति श्री वारह भावना जी ममाप्तम् । १०७६ बारह भावना राजा राणा क्षत्रपति हाथिन के असवार । मरना सबको एकदिन अपनी अपनी वार ||१|| जाँचेर देय सुचितन चिता रैन । विन जाचे विन चितये धर्म सकल सुख देन ॥ इनि चारह भावना सम्पूर्णम् ।
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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