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श्रीजन सिद्धान्त,भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Sıddhant Bhavan, Arrah
१००२. 'अष्टान्हिका कथा
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श्री जिन सारद गणधरपाय, . .... - । वत अष्टान्हिका कथा विचार, भाषू आगमने अनुसार ॥१॥ ए व्रत जै नरनारी कर, ते भवसागर से तरे । श्री भूषण गुरुपद आधार, ब्रह्म ज्ञानसागर कहै इह सार।।५३॥ इति श्री अठाई व्रत कथा सम्पूर्णम् ।
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१००३. अष्टान्हिका कथा
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यादव वसि नेमकुमार, भाव धरि वंदो भवतार ।
कहो अष्टान्हिका सार ॥१॥ तस दिक्षित बोले ब्रह्मचारी हरषनिधि शिखामण सारी।
भणी सुणो नरनारी ॥१॥ इति नदीश्वर व्रत कथा सपूर्णम् ।
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१००४. अठाईकथा
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पचपरमेष्टी चरन कूधारौ निस दिन ध्यान । सो मेरी रक्षा करी जातं होय कल्यान । श्रावग धर्म सुजान, वतन लालपुर जानियो भैरी कही वखान, भव्य जन सुनिये चित्त दे ७६।। इति श्री भरौं जी कृत अठाई रासा समाप्तम्। .
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१००५. आदित्यवार-कथा
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रिसहणाह प्रणमौं जिनंद जा प्रसाद मन होय आनद, प्रणमाँ अजित प्रणाम पाप दुख दालिद भव हर मनाप ।। कम्मं पिप्पो कारण मत भई तब यह धर्मकथा मन ठई। मनघर भाव मुन जो कोय सो नर म्वर्ग देवता होय।।