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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon!
इति अक्षर बत्तीमी सम्पूर्णम् ।
१२२८. अक्षर बावनी
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ॐ सु अलष परब्रह्म को धरौ सदाचित ध्यान । जा प्रसाद निह मनुज होत सुकृत को थान ॥१॥ हरष होत प्रभू दरस तं लहत अनेक अनद । लक्ष्मी चद्र समान जस सुविध सीस सुखचद ।।४५४।। इति श्री अक्षर वावणी जी समाप्तम् ।
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१२९६. अन्यमत श्लोक
Op ning :
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अहिंमा सत्यमत्तेय त्यागो मै पुनवर्जनम् पञ्चस्वेतेषु धर्मेषु सर्वे धर्मा प्रतिष्ठिता ॥१॥ अनुदिते नभमा देवस्य महर्षयो माहषिभि जुहेया जनकस्य जतस्य सायण रक्षा भवतु शान्तिर्भवतु तुप्टिर्भवतु वृद्धिर्भवतु स्वस्तिर्भवतु श्रद्धाभवतु ..... ॥ नही है।
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१२३० अठाईरासा
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वरत अढाई जे कर ते पावै भवपार प्राणी । जवूद्वीप सुहावणो लष योजन विस्तार प्राणी ।।१।। मन वच काया जे पढे ते पावै भवपार । विनयकीरत सुबयू मनै जनम सम्न नमार प्राणी। इति श्री अढाई - साजी सम् ।
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